(१)
सोचों की ज़मीन पर
धाँगती तुम्हारी
हसीन यादों की
चंद चहलकदमियाँ ..
उगने ही कब देती हैं भला
दूब उदासियों की ..
गढ़ती रहती हैं वो तो अनवरत
सुकूनों की अनगिनत पगडंडियाँ .. बस यूँ ही ...
(२)
देखता हूँ जब कभी भी
झक सफेद बादलों के
अक़्सर ओढ़े दुपट्टे
यूँ तमाम पहाड़ों के जत्थे ..
गुमां होता है कि निकली हो
संग सहेलियों के तुम
मटरगश्ती करने
शहर भर के सादे लिबासों में .. बस यूँ ही ...