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Monday, January 6, 2020

हाईजैक ऑफ़ पुष्पक ... - भाग- १ - ( आलेख ).

#१) गंगा तू आए कहाँ से ... :-

हम सभी गर्वीली "हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है" से लेकर पश्चातापयुक्त "राम तेरी गंगा मैली हो गई , पापियों के पाप धोते-धोते" तक का सफ़र, फ़िल्मी दुनिया की दो अलग-अलग पीढ़ियों में ही सही, तय कर चुके हैं और ऐसा ही लगभग मिलता-जुलता बहुत कुछ वास्तविकता के धरातल पर भी .. क्योंकि दरअसल अक़्सर बुद्धिजीवियों से सुना है कि - " साहित्य और सिनेमा हमारे समाज का ही दर्पण है। अगर समाज कुत्सित होगा तो इन दोनों में भी कुत्सितता की झलक बिना लाग लपेट के दिख ही जाती है।
बहरहाल गंगा पर ही केंद्रित होते हैं .. एक तरफ हम गंगा-आरती करते हैं और दूसरी तरफ अपने शहर से हो कर गुजरने वाली गंगा में ही पूरे शहर की आबादी की गंदगी को बड़े-बड़े नाला से बहा कर गिरने देते हैं। धार्मिक दृष्टिकोण में सही मानते हुए हम सालों भर पूजन-सामग्री के अवशेषों और मूर्तियों का विसर्जन कर के गंगा को प्रदूषित करने की सारी रही-सही कसर भी पूरी कर देते हैं।
                                     हम गंगा को नदी कभी मानते ही नहीं हैं। हमेशा उसे देवी या माँ के रूप में मानते हैं। उसको पौराणिक कथाओं को सत्य मानते हुए राजा भागीरथ, स्वर्ग, शंकर की जटा इत्यादि से जोड़ कर महिमामंडित करते हैं। अपने पुरखों से विरासत में मिली इस विचारधारा को अपनी भावी पीढ़ी के मनमस्तिष्क में लपेस देते हैं। वही भावी पीढ़ी जब अपने पाठ्यपुस्तक में पढ़ती है कि गंगा हिमालय नामक पहाड़ से निकली है तो वह द्विविधा में पड़ जाती है कि वह किसे सही माने भला!? भागीरथ को या हिमालय को ?
अपने पुरखों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिलती आ रही मान्यता वर्त्तमान बड़े-बुजुर्गों से सम्प्रेषित होकर भावी पीढ़ी को इतना ज्यादा भक्तिभाव में डूबो देती है कि उन्हें विश्व की सबसे बड़ी नदी अमेजन, नील, यांग्त्ज़ी आदि तो क्या अपने देश की अन्य कई नदियों का महत्व ही नहीं समझ आता। मसलन - तीस्ता, गोदावरी, अलकनंदा, ब्रह्मपुत्र इत्यादि। कमोबेश यमुना नदी भी गंगा की तरह पौराणिक कथाओं से जुड़ी है और सर्वविदित है कि वह भी बुरी हालात में हैं।

#२) जेही विधि राखे राम ... :-

हम लोगों को बनी बनाई लीक और वो भी पुरखों द्वारा अगर तय की हुई हो तब तो उस से हटना बिल्कुल भी मंजूर नहीं है। हम कुछ बातों में तो पुरखों की तय की गई सभ्यता और संस्कृति के लिहाफ़ में स्वदेशी और देश की मिट्टी का राग अलापते हुए चिपके रहना चाहते हैं और दोहरी मानसिकता के तहत दूसरी ओर अनेकों मामलों में अनुसन्धान या आविष्कार किए गए आधुनिक उपकरणों के इस्तेमाल से भी नहीं हिचकते ... भले ही वे सारे विदेशी हों।
दरअसल "जेही विधि राखे राम, वही विधि रहिए" .. "अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम" ..  "होइएं वही जे राम रूचि राखा" - जैसे सुविचारों से हमारी संस्कृति सुसज्जित है।
तब भला हम तो राम के भरोसे बैठेगें ही ना !? है कि नहीं !? हम तो राम में पक्के वाले भक्तगण हैं। काम करने की जरूरत ही नहीं है। अपने परम भक्तों की सुविधा के लिए तो राम ने अपने तथाकथित अनुचर हनुमान की तरह कई-कई अनुचर बना कर धरती पर भेजे हैं। वह भी भारत के बाहर।
भारत में तो सभी राम के भक्त हैं तो उन्हें मेहनत या काम करने की जरुरत कब और क्यों हैं भला ? है कि नहीं भाई !? अब देखिए ना - हमलोग माइक पर सारी रात जागरण के नाम पर या सुबह-सुबह भजन या राम के नारे चिल्लाते तो हैं .. और हाँ .. हर एक दिन दिन-रात पाँच-पाँच बार अज़ान भी चिल्लाते हैं । कभी-कभी धर्म को महिमामंडित करने के लिए विज्ञान को कोसते हुए लंबे-चौड़े भाषण भी देते हैं। पर उसी विज्ञान के तहत माइक यानी माइक्रोफोन का आविष्कार किया था जर्मनी के Emile Berliner ने।

#३) हाइजैक ऑफ़ पुष्पक ... :-

पौराणिक कथाओं या तुलसीदास के रामायण के मुताबिक़ हमारे राम कभी पुष्पक-विमान पर उड़ा करते थे। फिर उस विमान के बनाने वाले लोग और फैक्ट्री या विमान भारतवर्ष से गायब हो गए, जैसे मुहावरा है ना .. गधे के सिर से सींग का गायब हो जाना। हमने उसकी फैक्ट्री या निर्माता को नहीं ढूँढ़ा कभी। बस अतीत पर गर्दन अकड़ाये रहे। मालूम नहीं कब और किसने हमारे पुष्पक का हाइजैक कर लिया और हम सभी एक नामी डिटर्जेंट पाउडर - सर्फ-एक्सेल के विज्ञापन में गायब दाग-धब्बे की तरह उसे ढूँढ़ते रह गए। या फिर शायद ढूंढ़ने की कोशिश ही नहीं किए। हम तो बस कथाओं में पुष्पक विमान, गरुड़, हनुमान, उल्लू पर लक्ष्मी .. सब उड़ाते रहे पर वर्त्तमान हवाईजहाज का पहला प्रयास या आविष्कार हुआ अमेरिका में राइट-बंधुओं द्वारा।
हम हर असम्भव बेतुकी बातों को अपने पुरखों से धर्म के नाम पर स्वीकार करते आ रहे हैं और भावी पीढ़ी को भी मनवा रहे हैं। यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनवरत चल रहा है। शायद बुद्धिजीवियों और सुसंस्कारी समाज के कारण चलता भी रहेगा।
हम आज्ञाकारी पुत्र को अच्छा मानते हैं। मसलन राम अपने पिता के आदेशनुसार बिना किन्तु-परन्तु किए ही अपने भावी राज-पाट त्याग कर नवविवाहिता संग सपत्नीक वन-गमन कर गए चौदह वर्षों के लिए। भले उनके तथाकथित भक्तों ने उनके जन्म-भूमि पर मंदिर बनाने के लिए कोर्ट-कचहरी करके वांछित जगह-जमीन हासिल कर ली हो।

#४) सेफ्टी पिन से सिलाई मशीन तक- विश्वकर्मा भगवान की जय हो ... :-

हमारे सुसंस्कारी समाज में अपने से बड़े-बुज़ुर्ग से तर्क करने वाला कुतर्की माना जाता है। कुसंस्कारी माना जाता है। कहा जाता है कि वह जुबान लड़ा रहा है। उसे कुछ भी नया सोचने का हक़ नहीं।
यही कारण है कि आधा से ज्यादा आविष्कार भारत से बाहर हुए हैं। कारण - वहाँ तर्कशील होना बुरा नहीं माना जाता है। सारे आविष्कार लीक से हट कर सोचने से ही हुए हैं। वर्ना हम आज भी आदिमानव की तरह ही उसी पाषाणयुग में जी रहे होते।
                               एक मामूली-सी सेफ्टी पिन भी पहली बार बनाई गई वाल्टर हंट नामक एक अमेरिकी के द्वारा। सिलाई मशीन का आविष्कार भी एलायस होवे नामक एक अमेरिकी द्वारा ही किया गया। भारत में पहली सिलाई मशीन भी अमेरिका से सिंगर कम्पनी की आई। बाद में भारत में उषा कम्पनी ने भले ही इसे बनाया। पर हम अपनी भावी पीढ़ी को तथाकथित विश्वकर्मा भगवान का ही ज्ञान थोपते हैं। आखिर ये विश्वकर्मा आज भी छेनी-हथौड़ी थामे हैं और विदेशों में ना जाने कितने आधुनिक से आधुनिक यंत्रों का आविष्कार और निर्माण आज तक होता आ रहा है।
हमें तो बस भगवान का पूजन-भजन-कीर्तन, जागरण (?), उपवास-व्रत इत्यादि करना है और बाक़ी के आविष्कार तो विदेशियों से संसार में ये भगवान लोग करवा ही दे रहे हैं। है ना !?

#५) जय-जय जै हनुमान गोसाईं ... :-

हम अपने समाज में - "सूरज आग का गोला है।" ... "अतीत में काम के आधार पर समाज में जाति का बँटवारा किया गया था।" .. Pythagoras Theorem .. Newton's Law .. Perodic Tables .. Darwin's Theory ..  Faraday's Law of Induction .. इत्यादि अपनी भावी पीढ़ी को केवल अंक लाने और क्लास में पोजीशन लाने के लिए बतलाते या पढ़वाते हैं ताकि भविष्य में वह मेधावी छात्र बनकर कोई प्रतियोगिता परीक्षा योग्य हो कर कोई बड़ा वाला (?) IAS, IPS, Engineer, Doctor, Professor, Officer इत्यादि बन सके। फिर अगर उस पद पर दो नंबर की कमाई हो तो फिर तो सोने में सुहागा। विदेशों में हुए कई-कई विलक्षण आविष्कारों के बारे में भी वह मेधावी पढ़ता भी है या जानता  भी है तो केवल अंक लाने के लिए। ज्ञानवर्द्धन या लीक से हट कर सोचने के लिए नहीं।
कारण -  उसे अपने अभिभावक से यह ज्ञान मिलता है कि वह जो कुछ भी कर रहा है, सब भगवान की कृपा से कर रहा है। हनुमान (जी) या सरस्वती (माता) की कृपा से उत्तीर्ण होता है। मतलब उसकी अपनी योग्यता का कोई महत्व नहीं है। सब कुछ राम भरोसे। यह ज्ञान उसके आत्मबल को कमजोर बनाता है।
कई दफ़ा तो उस बच्चे का जन्म भी किसी देवी-देवता या पीर-मज़ार की कृपा से हुआ होता है। वह यह सुन कर ताउम्र उस मंदिर या मज़ार के सामने माथा या घुटने टेकता रहता है बेचारा। उसे अपनी क़ाबिलियत पर हमेशा शक रहता है। वह मन ही मन भगवान नामक मिथक पर आश्रित होता जाता है। वह अपनी अगली पीढ़ी को फिर वही का वही हूबहू परोस देता है।
इन प्राप्तांक वाले ज्ञान से एक नंबरी या दो नंबरी  कमाई वाली सरकारी, अर्द्धसरकारी या सफल कोई निजी कंपनी में नौकरी मिलने के बाद .. फिर भले देश में दहेज़ विरोधी क़ानून,1961 लागू हो, एक तगड़ी रक़म वाली दहेज़ लेकर/देकर उसकी शादी कर दी जाती है। ये सिलसिला अनवरत चलता आ रहा है। चल रहा है। शायद चलता भी रहेगा।

#६) Odd-Even वाली शैली ... :-

साल में कुछ दिन किसी भी विषय पर तथाकथित दिवस मना कर हम एक सुसंस्कृत नागरिक होने का प्रमाण दे देते हैं। आज तो यह और भी आसान है , सोशल मिडिया पर अपनी उस करतूत की सेल्फ़ी को चिपका कर चमका देना।
हम कभी "दिवस" को "दिनचर्या" में बदलने की भूल नहीं करते।
कर भी नहीं सकते। कौन रोज-रोज की परेशानी मोल ले भला। ये ठीक उस ढोंग की तरह है - जैसे हमने दिल्ली सरकार की यातायात वाली Odd-Even वाली शैली में धर्म से जोड़कर मांसाहार-शाकाहार की नियमावली बना डाली है। मंगल, गुरु, शनि को शाकाहार और बाक़ी दिन मांसाहार।
हमने बाल-दाढ़ी कटवाने-बनाने के भी दिन तय कर रखे हैं। इन सोच के मुताबिक़ तो प्रतिदिन Shave करने वाले Clean Shaved अम्बानी को फ़क़ीर होना चाहिए था शायद।
युवा पीढ़ी को युवा होने के पहले ही हम उसके जन्म के पूर्व ही कई सारे अपने पुरखों से मिले रेडीमेड पूर्वाग्रहों के बाड़े में कैद कर देते हैं। उसे अपनी महिमामंडित अंधपरम्पराओं और विडम्बनाओं से ग्रसित कर देते हैं। ज्यादा से ज्यादा अंक-प्राप्ति वाली पढ़ाई की भट्ठी में झोंक देते हैं।

( विशेष :- यह आलेख अभी जारी रहेगा .. "हाईजैक ऑफ़ पुष्पक" का भाग-२ भी आगे फिर कभी .. फिलहाल इस कुतर्की की बतकही वाली बातों पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित रहेगी ... )


Tuesday, December 10, 2019

सूरज से संवाद ...

( चूंकि सर्वविदित है कि मैं आम इंसान हूँ .. कोई साहित्यकार नहीं .. अतः इसकी "विधा" आप से जानना है मुझे। प्रतीक्षारत ...)

हे सूरज भगवान (पृथ्वी पर कुछ लोग ऐसा मानते हैं आपको) ! नमन आपको .. साष्टांग दण्डवत् भी आपको प्रभु !
हालांकि विज्ञान के दिन-प्रतिदिन होने वाले नवीनतम खोजों के अनुसार ब्रह्मांड में आपके सदृश्य और भी अन्य .. आप से कुछ छोटे और कुछ आप से बड़े सूरज हैं। ये अलग बात है कि हमारी पृथ्वी से अत्यधिक दूरी होने के कारण उनका प्रभाव या उनसे मिलने वाली धूप हम पृथ्वीवासियों के पास नहीं आ पाती।
अब ऐसे में तो आप ही हमारे जीवनदाता और अन्नदाता भी हैं। आपके बिना तो सृष्टि के समस्त प्राणी यानि जीव-जंतु, पेड़-पौधे जीवित रह ही नहीं सकते, पनप ही नहीं सकते।पृथ्वी की सारी दिनचर्या लगभग ठप पड़ जाएगी और हाँ .. बिजली की बिल भी दुगुनी हो जाएगी। है ना प्रभु !?
हाँ .. वैसे तो आप पूरे साल यानि 365 या 366 यानि सब दिन आते ही हैं सुबह-सुबह .. आकाश में बादल वाले बरसात के मौसम को छोड़ कर।  पर विशेष कर उन चार दिनों के लिए तो विशेष नमन आपको। जिस दौरान हमारे बिहार क्या .. अब तो सुना है अन्य कई स्थानों में भी लोग आपके लिए छठ नाम का त्योहार मनाते हैं और आपके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं। वैसे तो आप अन्तर्यामी हैं, फिर भी आपको बतला देते हैं कि उन चार दिनों में हमारे राज्य की राजधानी पटना में तो हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री जी की "स्वच्छ भारत अभियान" चीख-चीख कर अपने अस्तित्व का एहसास कराती है।इन दिनों मुहल्ले के युवा और कुछ नालायक बुजुर्ग भी शरीफ़ बन जाते हैं। ना बीड़ी, ना सिगरेट, ना खैनी और दारू पर तो वैसे भी तीन साल से "कागज़ पर" क़ानूनन पाबन्दी है। सालों भर मांसाहारी रहने वाला भी पूरा का पूरा परिवार कुछ दिनों के लिए पूर्णरूपेण शाकाहारी बन जाता है। पूर्णरूपेण मतलब पता भी है आपको ? आयँ !?हम बतलाते हैं - मतलब .. लहसुन-प्याज भी खाना बंद कर देते हैं। आपको तो पता ही होगा कि हमारे तरफ लहसुन-प्याज खाने से भी पाप लगता है। छठ में अगर कोई भी ये सब किया तो मर कर नर्क का निवासी बनता है। अरे .. अरे ... ये हम नहीं कह रहे, हमारे समाज के बुद्धिजीवी लोग कहते हैं। जानते हैं - हमको बड़ा मजा आता है , जब चौथे दिन ठेकुआ खाने के लिए मिलता है। वैसे तो 'डायबीटिक' हूँ, पर आपके प्रसाद के नाम पर थोड़ा-बहुत खाने के लिए मिल ही जाता है। और अगर 'शुगर' बढ़ भी गया तो आप हैं ना प्रभु !? आयँ !?
ये सारी बातें जो मैं कह रहा हूँ, आपको तो पता ही होगा। पर मुख्य रूप से आज मैं आपसे कुछ शिकायत करने के लिए आपसे संवाद कर रहा हूँ।
जब हमलोग इतनी श्रद्धा से करते हैं आपकी पूजा और आपके लिए व्रत रखती हैं हमारी महिलायें .. कुछ पुरुष भी , तब " सोलर पैनल्स " का आविष्कार अपने बिहार या भारत में क्यों नहीं करवाए आप!? बोलिए !! विदेशियों द्वारा करवाए आप । आपका बिना पूजा किए ही आप तो हमलोगों को छोड़ कर उनलोगों को रोज यहाँ रात कर के धूप बाँटने भी चले जाते हैं। यहाँ पर भी दूसरे सम्प्रदाय वाले को भी बिना आपका पूजा किए ही उन्हें आप सबको धूप बाँट देते हैं।ये गलत बात है। पूजा-व्रत करें हमलोग और धूप बाँटे आप पूरे विश्व को। मतलब कर्म करें हमलोग और फल बाँटें आप सब लोग को। है ना !? जब हमारा देश, धर्म, जाति, सम्प्रदाय .. सब अलग है तो सब का अलग-अलग सूरज भी होना चाहिए कि नहीं ? सुना है कि आपकी दो-दो पत्नियाँ हैं। तब तो आपकी तरह यानि आपके डी एन ए वाली आपकी संतान भी तो होगी ना ? पता है .. हमलोग तो सब भिन्न-भिन्न भगवान (?) के डी एन ए से ही उत्पन्न हुए हैं। उदाहरणस्वरूप - कहते हैं कि चित्रगुप्त नामक भगवान के डी एन ए से कायस्थ नामक प्राणी का जन्म हुआ है। वो प्राणी आज भी पृथ्वी पर पाया जाता है। वैसे उनको कोई पुत्री नहीं थी। अब मालूम नहीं उन प्राणियों में महिलाओं का आगमन कहाँ से हुआ होगा!.. खैर ! उस विषय से दूर भागते हैं।
दरअसल मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि अगर आपकी शादी हुई थी और संतान भी होगी ही .. तो फिर उन्हें अन्य सम्प्रदाय या देश के लिए क्यों नहीं भेज देते धूप बाँटने। ताकि हम छठ-पूजा करने वाले को विशुद्ध रूप से आपकी किरणें मिला करे। और आप हमलोगों के बुद्धिजीवियों से भी कुछ आविष्कार करवा सकिए।

जैसे आप सोलर पैनल्स का आविष्कार करवा आये जाकर फ़्रांस में एक फ़्रांसिसी वैज्ञानिक - एलेक्जेंडर एडमंड बैकेलल से 1839 में।

" कांच ही बाँस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाय
होई ना बलम जी कहरिया, बहंगी घाटे पहुंचाय-२ "

जबकि हमलोग आपके लिए प्रसाद से भरा भारी-भारी दउरा (टोकरी) अपने सिर पर ढो-ढो कर तालाब-नदी किनारे घाट तक लेकर गए। हमारे बुद्धिजीवी लोग जो घर-गाँव छोड़ कर बाहर कमाने-खाने जाते हैं, ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिलने पर भी ट्रेन में भीड़ का धक्का खा-खा कर, टॉयलेट के दरवाजे के पास रात भर बैठ-सो कर अपने-अपने गाँव-शहर छठ-पूजा करने आते हैं और अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं। करें भी क्यों नहीं भला !! .. आप ही की कृपा से उनका "मनता-दन्ता" (मन्नत) वाला जन्म हुआ होता है, आप ही की कृपा से वे 'पास' करते हैं, आप ही की कृपा से उनको छोटी या बड़ी नौकरी मिलती है। अब हमारे बुद्धिजीवी लोग अपने सिर पर आपका दउरा ढोते हैं और .. आप हैं कि विदेशियों को ज्ञान और धूप बाँट आए। गलत है ये सब तो ... चिंटू की भाषा में बोले तो .. सरासर चीटिंग है।

" बाट जे पूछेला बटोहिया, बहंगी केकरा के जाय
तू तो आन्हर होवे रे बटोहिया, बहंगी छठ मैया के जाय "

हम रास्ते में मिलने वाले और आपके दउरा के बारे में टोकने वाले को अँधा हो जाने तक का श्राप (?) दे दिए गुस्सा में। पर आप हमीं लोगों को धत्ता बता कर बेवकूफ़ बना दिए।
आप की गलती नहीं शायद .. है ना प्रभु !? हमलोग आप से मांगते भी तो यही सब है ना ? बेटा, पोता, .. जो हमारा तथाकथित वंश-बेल बढ़ाए और तथाकथित मोक्ष प्राप्ति का कारण बने, फिर उसका साल-दर-साल "पास" होना .. उ (वो) भी अच्छे 'नंबर' से ताकि अच्छी नौकरी मिल सके .. आई ए एस, आई पी एस, डॉक्टर, इंजिनियर बन सके, ना तो कौनो ( कोई भी ) सरकारी नौकरी मिल जाए, ऊपरी कमाई और मन लायक जगह में "पोस्टिंग" हो तो सोना में सुहागा .. और किस्मत फूट जाए तो कोई 'प्राइवेट' नौकरी ही सही ताकि कमा-खा सके ताकि दहेज़ विरोधी अधिनियम होने के बावजूद भी दहेज़ ले-दे के शादी-विवाह हो सके। उसके बाद नौकरी की कमाई के मुताबिक़ मोटरसाइकिल, कार, फ्लैट, इत्यादि खरीद सके। कोई केस-मुकदमा चल रहा हो तो हम गलत हो कर भी जीत जाएँ। जितना बड़ा "डील" , उतना बड़ा "दउरा" और उतनी ही ज्यादा "सूप" की गिनती। अब डील बड़ा हो तो कभी-कभी चाँदी-सोना के सूप में भी अरग (अर्ध्य) देते हैं ना हम लोग आपको। है ना!?

" रुनकी-झुनकी बेटी मांगीला, पढ़ल-पण्डितवा दमाद, हे दीनानाथ ! दर्शन दिहिं ना अपन हे दीनानाथ "

एक तरफ हम लोग गा-गाकर बेटी-दामाद मांगते रह गए आपसे और आप रूस, अरूबा, हांगकांग जैसे देश और पुर्तगाल, यूक्रेन, एस्टोनिया जैसे शहर में नर-नारी में नारी यानि बेटी का अनुपात ज्यादा दे दिए। और तो और .. कम-से-कम धर्म वाले यूरोपी देश - बेलारूस में भी।
और .. इतना ज्यादा आपका पूजा-पाठ करने पर भी भारत में आप दिन पर दिन अनुपात घटाते जा रहे हैं। 2011 में जो 1000 में 940 नारी/लड़की का अनुपात था , वह 2017 में घटता हुआ 1000/896 हो गया है। हरियाण में तो 1000/833 है। वैसे हम इतने ज्ञानी नहीं हैं , ये सब सरकारी आंकड़े बोलते हैं। और हाँ .. आजकल 'गूगल' नाम के ज्ञानी के पास ये सब सारी जानकारी उपलब्ध है।

" ऊ जे केरवा जे फरेला घबद से,
 ओह पर सुगा मेड़राए
  मरबो रे सुगवा धनुख से,
  सुगा गिरे मुरझाए
  ऊ जे सुगनी जे रोएली वियोग से
  आदित होइहें ना सहाय "

इतना मेहनत करते हैं हमलोग कि धनुष से तोते को मार-मार के गिराते रहते हैं ताकि वो आपका प्रसाद वाला केला, नारियल ( इसमें थोड़ा शक है कि तोता नारियल में चोंच मार पाता भी होगा कि नहीं ) , अमरुद, शरीफा, सेब .. सब जूठा ना हो। इस चक्कर में उसकी मादा - बेचारी तोती जुदाई में रोती रहती है। वैसे भी .. हमारे समाज में विधवा की क्या दुर्दशा है, आपको तो पता ही होगा। है ना !?
आपका तो हम लोगों ने मानवीकरण .. ओह! .. सॉरी .. भगवानिकरण कर रखा है। सुना है कि आप का एक रथ है, जिसको सात घोड़े मिलकर दौड़ाते है आपको। है ना !?
आप एक फर्स्ट क्लास मँहगी 'ए सी कार' क्यों नहीं खरीद लेते ? दिन भर गर्मी में खुद बेहाल होते ही हैं और हमलोगों को भी करते रहते हैं।
एक बात तो है कि अगर आप नहीं पूजे जाएंगे तो फिर बुद्धिजीवी लोग सब सिर पर दउरा लिए ,अर्ध्य देते हुए तरह-तरह की भाव-भंगिमाओं में  अपनी सेल्फियां सोशल मिडिया पर कैसे चमकायेंगे भला! है ना !?
फिर मीडिया वाले सप्ताह भर या उस से ज्यादा अपना 'टी आर पी' कैसे बढ़ाएंगे भला !? है ना !?
जाने दीजिए .. दुनिया जैसे चल रही है, चलने दीजिए। हमको और आपको क्या करना भला !?
है ना !?
जय राम जी की प्रभु !!!