बचपन में हम सभी ने माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम के तहत विज्ञान या भूगोल विषय में "वृष्टिछाया" के बारे में पढ़ा था। जिसे अंग्रेजी माध्यम वाले "Rain-Shadow" कहते हैं। शायद उसकी परिभाषा याद भी हो हमें कि "जब एक विशाल पर्वत वर्षा के बादलों को आगे की दिशा में बढ़ने में बाधा उत्पन्न करता है, तब उसके आगे का प्रदेश वृष्टिहीन हो जाता है और यह "वृष्टिछाया क्षेत्र" यानि अंग्रेजी माध्यम वालों का "Rain-Shadow Zone" कहलाता है। इस प्रकार "वृष्टिछाया" के कारण रेगिस्तान यानि मरुस्थल का निर्माण होता है।
इस बाबत दाहिया जी एक बहुत ही सुंदर उपमा देते हैं कि “अगर हवाई अड्डा (जंगल) ही नहीं होगा तो हवाई जहाज (बादल) कैसे उतरेगा।” दाहिया जी .. यानि मध्यप्रदेश के सतना जिले के पिथौराबाद गाँव में जन्में लगभग 76 वर्षीय बघेली उपभाषा के जाने-माने रचनाकार बाबूलाल दाहिया जी, जो कई कविताओं, कहानियों, मुहावरों और लोकोक्तियों के रचनाकार के साथ-साथ डाक विभाग में पोस्ट मास्टर के पद से सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी और पूर्णरूपेण जैविक खेती करने वाले किसान भी हैं। उनके पास अब तक देशी धान की लगभग 110 किस्मों का खजाना है, जिसके लिए उन्हें पद्म श्री पुरस्कार का सम्मान भी मिला है।
खैर! ... वैसे अपनी बकबक को विराम देते हुए, फ़िलहाल बस इतना बता दूँ कि आज की इस रचना/विचार की प्राकृतिक अभिप्रेरणा "वृष्टिछाया" की परिभाषा भर से मिली है .. बस यूँ ही ...
ख्वाहिशों की बूँदें ...
उनकी चाहतों की
बयार में
मचलते उनके
जज़्बातों के बादल
देखा है अक़्सर
रुमानियत की
हरियाली से
सजे ग़ज़लों के
पर्वतों पर
मतला से लेकर
मक़्ता तक के
सफ़र में
हो मशग़ूल
करती जाती जो
प्यार की बरसात
और .. उनकी
चंद मचलती
ख्वाहिशों की बूँदें
होकर चंद
बंद से रज़ामंद
बनाती जो ग़ज़ल के
गुल को गुलकंद
तभी तो शायद ..
अब ऐसे में .. बस ..
कुछ ठहर-सा गया है
मेरे मन के
मरुस्थल में
बमुश्किल
पनपने वाले
मेरे अतुकांतों के
कैक्टसों का
पनपना भर भी
हो गया है बंद ..
बस यूँ ही ...
●◆★◆●