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Saturday, May 9, 2020

अम्मा की गर्भनाल के बहाने ...

हमारे परिधान, खान-पान और भाषा मतलब मोटे-मोटे तौर पर कहा जाए तो हमारे रहन-सहन पर अतीत के कई विदेशी हमलावर, लुटेरे और शासकों की सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन और आज की वैश्वीकरण वाली परिस्थिति में विदेशों में आविष्कार किए गए आधुनिक उपकरणों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव है ... अब हम माने या ना माने। चाहे हम लाख खुद को सनातनी होने , स्वदेशी अपनाने और अपनी सभ्यता-संस्कृति को बचाने की दुहाई और झूठी दिलासा देते रहें।
इसी का परिणाम है - आजकल मनाए जाने वाले विभिन्न "दिवस" या "डे" , जो धीरे-धीरे पश्चिमी देशों से आ कर कब हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गया और हम बिना इसकी पड़ताल किये गर्दन अकड़ाए खुद भी मनाते रहे और भावी पीढ़ी को भी इसे उत्साहित होकर मनाने के लिए उकसाते रहे। बस यूँ ही चल पड़ा ये सिलसिला और आगे भी चलता रहेगा .. शायद ...।
उन्हीं विदेशों से आयातित "दिवसों" में से एक है - "मदर्स डे" या "मातृ दिवस"। जिन्हें गर्दन अकड़ाए हम मनाते हैं या आगे भी मनाएंगें। हमारे देश में "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" की परम्परा तो सदियों से रही है। अपनी जननी मतलब माँ के पाँव छूने और पूजने का भी चलन सनातनी है शायद। पर इसके लिए कोई दिवस नहीं था और ना ही होना चाहिए , बल्कि यह हमारी दिनचर्या में शामिल था और होना भी चाहिए।
यह मातृ दिवस शायद बहुत पुराना नहीं है। लगभग 19वीं शताब्दी में इसकी शुरुआत विभिन्न विदेशों में अलग-अलग रूप में हुई थी। कहीं देवताओं की माँ की पूजा के रूप में , तो कहीं युद्ध में मारी गई माँओं के लिए, तो कहीं गरीब माँओं के लिए। फिर धीरे-धीरे अपनी-अपनी माँओं के लिए मनाए जाने वाली प्रथा के रूप में सिमट कर रह गई। वैसे तो इनकी सारी जानकारियां विस्तार से गूगल बाबा के पास उपलब्ध है ही। बस जरुरत है अपने-अपने मोबाइल के कुछ बटन दबाने की या स्क्रीन पर ऊँगली फिराने की। आज भी पूरे विश्व में कहीं-कहीं मई के दूसरे रविवार को, जिनमें हमारा भारत भी है, तो कहीं-कहीं चौथे रविवार को यह मनाया जाता है। मतलब कुल मिलाकर यह विदेशों से आई हुई परम्परा है जिसका स्वदेशीकरण किया जा चुका है।
मैं निजी तौर पर इन विदेशी बातों या प्रथाओं को अपनाने का ना तो विरोधी हूँ और ना ही स्वदेशी या सनातनी जैसी बातों का अंधपक्षधर हूँ। मेरा विरोध बस ऐसे लोगों से है जो एक तरफ तो खुद को सनातनी या स्वदेशी बातों का पक्षधर स्वघोषित करते हैं और सभ्यता-संस्कृति बचाओं की मुहिम चलाते हैं ; पर दूसरी तरफ कई-कई विदेशी उपकरणों या प्रथाओं को अपनाने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। ताउम्र दोहरी सोच रखने वाले, दोहरी ज़िन्दगी जीने वाले मुखौटाधारी लोग बने रहते हैं।
ख़ास कर आज के वैश्विकरण वाले काल में तो विदेशी आबोहवा से बिल्कुल भी नहीं बचा जा सकता। वैसे भी किसी की भी अच्छी बातें या आदतें अपनाने में बुराई भी तो नहीं है। उस से तो हमारी सभ्यता-संस्कृति और ज्यादा समृद्ध ही होती है और आगे होगी भी। एक तरफ विदेशी बातों या चाल-चलन को देशीकरण कर के हमारा एक वर्ग अपना कर गर्दन अकड़ाता है और दूसरी तरफ उसे हर बात में उसकी सभ्यता-संस्कृति खतरे में नज़र आती है।
फिर से मजबूरी में क्षमायाचना के साथ वही बात दुहरानी पड़ती है कि दोहरी ज़िन्दगी जीने वाले मुखौटेधारी लोग हैं। खुल के अपनाओ और खुल के मनाओ - विदेशी तथाकथित मदर्स डे का देशीकरण रूप मातृ दिवस के रूप में। अब देर किस बात की है , जब विदेश-प्रदत्त सोशल मिडिया के वेव पन्नों का कैनवास तो है ही ना हमारे पास ... बस इन पर हमारी अपनी-अपनी रचनाओं और विचारों का बहुरंग पोस्ट बिखेरना बाक़ी है।
माँ .. जिसका पर्यायवाची शब्द ...अम्मा, मम्मी, अम्मी, माई, मईया, मदर, मॉम और ना जाने विश्व की लगभग 1500 बोलियों में क्या-क्या है। वैसे तो हमें अमूमन उपलब्ध रचनाओं में माँ द्वारा हमारे बचपन में हमारे किए गए लालन-पालन की प्रक्रिया का विस्तृत उल्लेख मिलता है। परन्तु हम भूल जाते है कि लालन-पालन में पिता का भी अनमोल योगदान होता है।
अतुल्य होता है तो केवल माँ के गर्भ में स्वयं का लगभग नौ माह का गर्भकाल और प्रसव के कठिन पल। विज्ञान कहता है कि माँ हमारे जन्म के समय जो प्रसव-पीड़ा झेलती है या बर्दाश्त करती है , वह लगभग 200 मानव हड्डियों के टूटने के दर्द के बराबर होता है। सोच के भी सिहरन होती है। इन पलों को महसूस कर के कुछ माह पहले हमने भी अपने इसी ब्लॉग पर एक रचना/विचार लिखी थी, जिसे दुबारा अभी फिर से साझा कर रहा हूँ ...

गर्भनाल 
यूँ तो दुनिया भर के
अँधेरों से डरते हैं सभी
कई बार डरा मैं भी
पर कोख के अंधियारे में
तुम्हारी अम्मा मिला जीवन मुझे
भला डर लगता कैसे कभी ...

हर दिन थोड़ा-थोड़ा गढ़ा मुझे
नौ माह तक अपने उसी गर्भ में
जैसे गढ़ी होगी उत्कृष्ट शिल्पकारियाँ
बौद्ध भिक्षुओं ने वर्षों पहले
अजंता-एलोरा की गुफाओं में कभी ...

तुम संग ही तो था बंधा पहला बंधन
जीवन-डोर सा गर्भनाल का और..
पहला स्पर्श तुम्हारे गर्भ-दीवार का
पहला आहार अपने पोपले मुँह का
पाया तुम्हारे स्तनों से
जिसके स्पर्श से कई बार
अनकहा सुकून था पाया
बेजान मेरी उँगलियों की पोरों ने
राई की नर्म-नाजुक फलियों-सी ...

काश ! प्रसव-पीड़ा का तुम्हारे
बाँट पाता मैं दर्द भरा वो पल
जुड़ पाता और एक बार
फिर तुम्हारी गर्भनाल से ..
आँखें मूंदें तुम्हारे गर्भ के अँधियारे में
चैन से फिर से सो जाता
चुंधियाती उजियारे से दूर जग की ...
है ना अम्मा ! ...

अम्मा के लिए एक अन्य बहुत पहले की लिखी एक रचना/विचार भी अपने इसी ब्लॉग पर साझा किया था ...

अम्मा ! ...
अम्मा !
अँजुरी में तौल-तौल डालती हो
जब तुम आटे में पानी उचित
स्रष्टा कुम्हार ने मानो हो जैसे
सानी मिट्टी संतुलित
तब-तब तुम तो कुशल कुम्हार
लगती हो अम्मा !

गुँथे आटे की नर्म-नर्म लोइयाँ जब-जब
हथेलियों के बीच हो गोलियाती
प्रकृति ने जैसे वर्षों पहले गोलियाई होगी
अंतरिक्ष में पृथ्वी कभी
तब-तब तुम तो प्राणदायनि प्रकृति
लगती हो अम्मा !

गेंदाकार लोइयों से बेलती वृत्ताकार रोटियाँ
मानो करती भौतिक परिवर्त्तन
वृताकार कच्ची रोटियों से तवे पर गर्भवती-सी
फूलती पक्की रोटियाँ
मानो करती रासायनिक परिवर्त्तन
तब-तब तुम तो ज्ञानी-वैज्ञानिक
लगती हो अम्मा !

गूंथती, गोलियाती, बेलती,
पकाती, सिंझाती, फुलाती,
परोसती सोंधी-सोंधी रोटियाँ
संग-संग बजती कलाइयों में तुम्हारी
लयबद्ध काँच की चूड़ियाँ।
तब-तब तुम तो सफल संगीतज्ञ
लगती हो अम्मा !.

अंत में उपर्युक्त अपनी बकबक और दो पुरानी रचनाओं/विचारों के साथ-साथ आप सभी को वर्ष 2020 की अग्रिम तथाकथित मदर्स डे उर्फ़ मातृ दिवस (10.05.2020) की हार्दिक शुभकामनाएं ...