अपने कंधों पर लिए
अपने पूर्वजों के डी. एन. ए. का
अनमना-सा अनचाहा बोझ
ठीक उस मज़बूर मसीहे की तरह
जो था मज़बूर अंतिम क्षणों में
स्वयं के कंधे पर ढोने को वो सलीब
जिस सलीब पर था टांका जाना उसे
अन्ततः समक्ष जन सैलाब के ...
हाँ ... तो बात हो रही थी
हमारे पूर्वजों के डी. एन. ए. की
जो हर साल , साल-दर-साल
मनाती आई है ज़श्न आज़ादी की
पर रहता कहाँ याद इसे
भला बँटवारे का मातम
सोचिए ना जरा फ़ुर्सत से, गौर से ....कि
पूरा देश जब मन रहा होता है
जश्न - ए - आज़ादी हर साल
उस वक्त मना रहा होता है ....
बँटवारे का मातम
बस और बस ... भुक्तभोगी परिवार
फिर भला उम्मीद ही क्यों
उन डी. एन. ए. से ... कि ...
भला मनाए वे सारे मिलकर
मातम 'चमकी' के विदारक मौत की ...
बजाय मनाने के जश्न मिलकर
'मैनचेस्टर' की आभासी जीत की......
अपने पूर्वजों के डी. एन. ए. का
अनमना-सा अनचाहा बोझ
ठीक उस मज़बूर मसीहे की तरह
जो था मज़बूर अंतिम क्षणों में
स्वयं के कंधे पर ढोने को वो सलीब
जिस सलीब पर था टांका जाना उसे
अन्ततः समक्ष जन सैलाब के ...
हाँ ... तो बात हो रही थी
हमारे पूर्वजों के डी. एन. ए. की
जो हर साल , साल-दर-साल
मनाती आई है ज़श्न आज़ादी की
पर रहता कहाँ याद इसे
भला बँटवारे का मातम
सोचिए ना जरा फ़ुर्सत से, गौर से ....कि
पूरा देश जब मन रहा होता है
जश्न - ए - आज़ादी हर साल
उस वक्त मना रहा होता है ....
बँटवारे का मातम
बस और बस ... भुक्तभोगी परिवार
फिर भला उम्मीद ही क्यों
उन डी. एन. ए. से ... कि ...
भला मनाए वे सारे मिलकर
मातम 'चमकी' के विदारक मौत की ...
बजाय मनाने के जश्न मिलकर
'मैनचेस्टर' की आभासी जीत की......