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Friday, October 25, 2019

आप और आपका उल्लू ... - चन्द पंक्तियाँ - (२०) - बस यूँ ही ...

(१)#

घर-घर चमक रहा
सज रहा .. दमक रहा ..

पर ... शहर-गाँव की
गलियों के हर नुक्कड़ पर
बढ़ गया है इन दिनों
कूड़े-कचरों का ढेर
और .. मुहल्लों में
कबाड़ियों के फेर

शायद दिवाली आने वाली है .....

(२)#

त्योहारों के दौर में
विज्ञापनों के होड़ ने
करा दिया अहसास
अनायास गरीब होने का ...

वैसे कमी तो
कुछ भी ना थी और ..
इतने भी तो कभी
हम ग़रीब थे कहाँ !?......

(३)#

इस साल भी
दिवाली के नाम पर
साफ़ हुआ है
हाल ही में
घर का कोना-कोना .....

पर करूँ भी क्या
जो हटता ही नहीं
लाख कर लूँ सफाई
तेरी यादों का जाला
जब्र-ज़िद्दी वाला .....

(४)#

आज घर मेरे .....
ना सफेदी .. ना रंगाई ..
ना रंगोली .. ना दिए ..
ना मिठाईयों का प्रकार ..
ना ही कोई झिलमिल रंगीन झालर ...

दरअसल सोचा मैंने ...
देवी ! ... आप और आपका उल्लू ...
थक ही तो जाएगा ना
एक ही रात में
इतने भक्तों के घर-घर जा-जाकर ...

Friday, October 18, 2019

मन को जला कर ...

माना कि ... बिना दिवाली ही
जलाई थी कई मोमबत्तियाँ
भरी दुपहरी में भीड़ ने तुम्हारी 
और कुछ ने ढलती शाम की गोधूली बेला में
शहर के उस मशहूर चौक पर खड़ी मूक
एक महापुरुष की प्रस्तर-प्रतिमा के समक्ष
चमके थे उस शाम ढेर सारे फ़्लैश कैमरे के
कुछ अपनों के .. कुछ प्रेस-मिडिया वालों के
कैमरे के होते ही सावधान मुद्रा में
गले पर जोर देने के लिए
कुछ अतिरिक्त हॉर्स-पॉवर खर्च करती
बुलंद कई नारे भी तुम्हारे चीख़े थे ...

जो कैमरे की क़वायद आराम मुद्रा में होते ही
तुम्हारी आपसी हँसी-ठिठोली में बदली थी
रह गईं थीं पीछे कुछ की छोड़ी जलती मोमबत्तियाँ
चौक पर वहीं जलती रही .. पिघलने तक ..
जैसे छोड़ आते हैं किसी नदी किनारे
बारहा जलती हुई चिता लावारिश लाश के ..
शहर के नगर-निगम वाले
और शेष ... लोड शेडिंग में काम आ जाने की
सोच लिए कुछ लोगों की मुठ्ठीयों में
या कुछ के झोले में बुझी ख़ामोश 
बेजान-सी बस दुबकी पड़ी थी निरीह मोमबत्तियाँ ..

और .. फिर .. कल सुबह के अख़बार में
अपनी-अपनी तस्वीर छपने की आस लिए
लौट गए घर सभी ... खा-पीकर सोने आराम से ...
अरे हाँ ! घर लौटने वाली बात से
याद आई एक बात ... आज ही तो तुम्हारे
तथाकथित राम वन-गमन के बाद
सीता और लक्ष्मण संग अयोध्या लौटे थे
पर आज हमने भी तस्वीर के सामने 'उनकी'
एल ई डी की रोशनी के बाद भी ..
की है एक रस्मअदायगी .. निभाया है एक परम्परा
अपनी संस्कृति जो ठहरी .. एक दिया है जलाया
फिर वापस घर मेरा सुहाग क्यों नहीं लौटा !???
कहते हैं सब कि वो ..  शहीद हो चुके ...

पर .. मानता नहीं मन मेरा ..एक उम्मीद अभी भी
इस दिया के साथ ही है जल रही
कर तो नहीं पाई तुम्हारी जलाई
अनेकों मोमबत्तियाँ भी रोशन घर मेरा ..
पर .. तुम्हारे जलते पटाखे .. चलते पटाखे ..
वो शोर .. वो धुआँ .. वो चकमकाहट ...
सारे के सारे .. उनके तन के चीथड़े करने वाले
गोलियों-बारूद की याद ताज़ा कर
बढ़ा देते हैं ... मन की अकुलाहट
ना मालूम कितनी दिवालियाँ बितानी होगी
मुझको इसी तरह उनकी तस्वीर के आगे
एक दिया जला कर ... और  संग अपने ..
बुझे-बुझे अपने मन को जला कर ...