शरद-पूर्णिमा की सारी-सारी रात
चर्चे में था ये मुआ चाँद ..
है ना सजन !? ...
सुना है वो बरसाता रहा
प्रेम-रस .. अमृत-अंश ..
जिसे पी सभी होते रहे मगन
शहर सारा अपना निभाता रहा
जाग कर सारी-सारी रात
कोजागरी .. कौमुदी व्रत का चलन
वृन्दावन के निधिवन में रचाए
महारास श्री कृष्ण भी
राधा और गोपियों संग
हुआ बावरा .. करता कोजागरा
सागर करके ज्वार-भाटा का आवागमन
है ना सजन !? ...
पर ये चाँद .. ये कृष्ण .. ये सागर ...
कब भाता इन्हें भला
किसी एक का बंधन !? ...
चाँद मुआ सारे शहर का ..
सागर के भी किनारे कई ..
कृष्ण की राधा भी
संग कई-कई गोपियाँ ...
है ना सजन !? ...
पर जब होते हैं हम-दोनों साथ-साथ
होता नहीं साथ कोई दूसरा
ना हमारे-तुम्हारे बीच
और ना हमारे-तुम्हारे
रिश्ते के दरमियाँ .. है ना !?
हृदय-सागर के अलिंद-निलय तट पर
सजता रक्त-प्रवाह का ज्वार-भाटा
पूरी रात जब-जब संग जागते
हो जाता अपना कोजागरा
हथेलियों में जो अपनी थाम लो
सूरत मेरी तो हो जाए पूर्णिमा
सीने में तुम्हारे जो
छुपा लूँ मुखड़ा अपना
हो जाए पल में अमावस्या
रख दो जो मेरे अधरों पर
अधर अपना .. बरसाता ...
प्रेम-रस .. अमृत-अंश ..
जिसका ना कोई बँटवारा
केवल हमदोनों का यूँ
मन जाता है ना
हर रात सजन शरद-पूर्णिमा
है ना सजन !? ... बोलो ना ! ...