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Wednesday, June 16, 2021

चौथा कंधा ...

लगभग दो साल पहले :-

सन् 2019 ईस्वी। अप्रैल का महीना। शाम का लगभग सात-साढ़े सात बजे का समय। अवनीश अपने घर में शयन कक्ष से इतर एक अन्य कमरे के एक कोने में जमीन पर ही बिछे हुए दरी-चादर वाले बिछौने पर लेटे हुए थे। कुछ ही घन्टे पहले अपने चंद रिश्तेदारों और कुछ पड़ोसियों-दोस्तों के साथ मिलकर "बाँस-घाट" (पटना में गंगा नदी के किनारे एक श्मशान घाट) पर अपने पापा का दाह-संस्कार कर के घर लौटे थे। दाह-संस्कार के क्रम में हुई भाग-दौड़ से ऊपजी शारीरिक थकान और अपने पापा के खोने की पीड़ा से ऊपजी मानसिक थकान के मिलेजुले कारणों से अनायास ऊपजी अवनीश की गहरी नींद की कोख़ से कुछ ही देर में खर्राटों की आवाज़ जन्म लेने लगी थी, जो घर में पसरी हुई बोझिल ख़ामोशी वाले रिक्त स्थानों को भर रही थी।

अचानक उनके पास ही 'एक्सटेंशन बोर्ड/कॉर्ड' में चार्ज हो रहे उनके और उनकी धर्मपत्नी अवनि के फोन में से एक फोन के बजने से उनकी नींद टूट गई और खर्राटों की आवाज़ की जगह 'मोबाइल' की 'रिंग टोन' ने ले ली थी। वह 'मोबाइल' बिना देखे, अपनी आँखें बन्द किये हुए ही, बस इतनी ही जोर से बोले, ताकि अंदर के कमरे में मम्मी के पास उपस्थित उनकी अवनि उनकी आवाज़ सुन सके और फोन ले जाए - "अव्वी ! .. तुम्हारा फोन .."

 अक़्सर दोनों ही एक-दूसरे को प्यार भरे इसी नाम से सम्बोधित करते हैं। मतलब, अवनीश के लिए अवनि- अव्वी और अवनि के लिए अवनीश भी- अव्वी, यानी अवनीश भी अव्वी और अवनि भी अव्वी .. दोनों ही एक दूसरे के लिए "अव्वी"। यूँ तो दोनों के फोनों के अलग-अलग 'रिंग टोन' होने के कारण, वे दोनों ही फोन आने पर, बिना फोन देखे ही दूर से समझ जाते हैं, कि किसके फ़ोन पर फ़ोन आया है। साथ ही .. एक बात और कि .. आपसी अच्छी तालमेल होने के कारण कोई भी फोन आने पर उत्सुकतावश या जासूसीवश एक दूसरे के मोबाइल के 'स्क्रीन' पर आपस में कोई भी ताकता या झाँकता तक नहीं है और ना ही पूछता भी है, कि किसका फोन आया था या उस से क्या बातें हो रही थी।
अवनि चार्ज होते फोन को चुपचाप निकालकर, कॉल रिसीव कर के धीरे से - "हेल्लो" कहते हुए दूसरे कमरे में चली गई। ताकि उसकी फोन पर बातें करने से अवनीश की नींद ना खराब हो जाए।
फिर पाँच-दस मिनट के बाद ही अवनि वापस आकर अपना मोबाइल फिर से उसी जगह पर चार्ज में लगाने लगी। तभी बस यूँ ही अवनीश ने पूछ भर लिया कि - "किसका फोन था ?"
"मँझले मामा जी का था।"
"क्या कह रहे थे ?"
"कह रहे थे कि एक ही शहर में, पास में ही रह कर, वे पापा जी के दाह संस्कार में शामिल नहीं हो सके हैं, इसका उनको बहुत ही खेद है।"
"कोई बात नहीं, समय नहीं मिल पाया होगा शायद !"
"ना ! ना-ना, बोल रहे थे, कि अभी ढाई महीने पहले ही तो सरिता का कन्यादान किए हैं। इसी कारण से वे लोग अपने सामाजिक रस्म-रिवाज़ वाले नियम-कायदे से बंधे हैं। मज़बूरी है, वर्ना आते जरूर। ये भी बोले कि मेरी तरफ से माफ़ी माँग लेना अवनि बेटा।"
"ओ ! .. कोई बात नहीं। पर बड़े होकर माफ़ी माँगने वाली बात तो .. अच्छी नहीं है। है ना ?"
"बाद में आएंगे मिलने मम्मी जी से .. ऐसा भी बोले हैं।"
"अच्छा ! ठीक है, आने दो, जब उनके समाज के बनाए रस्म-रिवाज उनको आने की अनुमति दे दें, तो आ जाएं, किसने रोका है भला। है कि नहीं।"
सरिता- अवनि के मंझले मामा जी की तीन बेटियों- सरिता, मनीषा और समीरा में से उनकी बड़ी बेटी यानी अवनि की ममेरी बहन है।अभी ढाई माह पहले ही जनवरी महीने वाले शादी के शुभ मुहूर्त में, इसी शहर के एक अच्छे मैरिज हॉल से उसकी शादी हुई थी, जहाँ अवनीश और अवनि भी सपरिवार निमंत्रित थे। तब अवनीश के मम्मी-पापा यानी अवनि की मम्मी जी और पापा जी भी गए थे। पापा जी .. जो अभी कुछ घन्टे पहले ही सनातनी विचारधारा के अनुसार पंच तत्वों में विलीन हो चुके थे।
यह तो सर्वविदित है कि हमारे हिन्दू धर्म में एक लोक(अंध)परम्परा है, जिसके अनुसार जो कोई भी किसी लड़की की शादी में कन्यादान करते हैं या फिर लड़के की शादी करने पर भी, शादी के बाद साल भर तक, किसी के यहाँ भी किसी के मरने पर नहीं जाते हैं। जब तक मृतक के परिवार को "छुतका" (सूतक) रहता है, तब तक उस के यहाँ जाना वर्जित है। हमारे हिन्दू समाज की एक मान्यता है कि अगर ऐसी परिस्थिति में भूले से भी, जो कोई भी, शादी करवाने वाले अभिभावक या नवविवाहित दम्पति जाते हैं, तो उनके साथ कुछ भी अपशकुन घटित हो सकता है। तथाकथित भगवान जी नाराज़ हो जाते हैं .. शायद ...
अभी इस दुःखद घड़ी में भी मंझले मामा जी के आए हुए फोन से, केवल अपनी भगनी- अवनि से बातें होना और अवनीश या उनकी मम्मी से आज की दुःखद घटना के बारे में कोई भी बात ना करना; आपको-हमको शायद अटपटी बात लगे, पर अवनीश के लिए यह कोई भी आश्चर्य का विषय नहीं है। वह अपनी शादी के अब तक के दो-तीन सालों में, अपने ससुराल वालों के इस अलग अंदाज़ वाली आदत से अच्छी तरह वाकिफ़ हो चुके हैं; कि किसी भी तरह के दुःख या ख़ुशी के मौके पर, अवनि के मायके से किसी का भी फोन प्रायः अवनि को ही आता है। और तो और .. यहाँ तक कि उनकी शादी की सालगिरह की शुभकामनाएं भी अवनि के मायके वाले अकेले अवनि से ही साझा करके उस दिन की औपचारिकता की इतिश्री कर देते हैं हर बार।
वैसे तो अवनीश बचपन से अपने घर-परिवार में ये चलन देखते हुए आए हैं, कि अगर किसी बुआ जी, मौसी जी या किसी भी 'कजिन' दीदी लोगों के ससुराल में किसी ख़ास आयोजन के मौके पर आमन्त्रित करने के लिए या किसी अवसर पर शुभकामनाएं देने के लिए या फिर दुःख की घड़ी में शोक प्रकट करने के लिए उन लोगों के अलावा तदनुसार फूफा जी, मौसा जी या जीजा जी या फिर उनके मम्मी-पापा से बातें की जाती रहीं हैं। हो सकता है यह पुरुष-प्रधान समाज होने के कारण ऐसा होता हो। पर अवनीश करें भी तो क्या भला .. अवनि का मायका इस मामले में है ही कुछ अलग-सा। वैसे तो अवनीश को इन में भी सकारात्मकता नज़र आती है, कि यह पुरुष-प्रधान समाज को चुनौती देती हुई, किसी महिला-प्रधान समाज को गढ़ने की प्रक्रिया वाली शायद कोई चलन या जुगत हो।

इसी साल :-

सन् 2021 ईस्वी। अप्रैल का महीना। अवनीश अपनी सुबह की दिनचर्या निपटाने के बाद रोज़ाना की तरह ही 'वाश रूम' के पास वाले 'वाश-बेसिन' के ऊपर टंगे आइने में अपनी छवि निहारते हुए, अपने 'मैक-थ्री' के 'ट्रिपल ब्लेड' वाले 'शेविंग रेज़र' से दाढ़ी बना रहे थे। वह मंगलवार, बृहस्पतिवार या शनिवार को दाढ़ी नहीं बनाने और ना ही बाल कटवाने से अपशकुन होने जैसी मान्यता या परम्परा को एक दक़ियानूसी सोच की या एक बेबुनियाद ढकोसला की पैदावार भर मानते हैं। उनकी सोच के अनुसार, अगर ऐसा हो रहा होता तो रत्न टाटा, बिरला, अंबानी, अडानी .. ये सब के सब रोज ही 'शेव' करने वाले लोग इतने बड़े आदमी नहीं होते।

तभी पास ही मेज पर पड़े फोन के बजने पर, रसोईघर में नाश्ता की तैयारी कर रही अवनि को उन्होंने आवाज़ दी कि- "अव्वी ! तुम्हारा फोन .."
"आ रही हूँ ..."
"अपने पास ही क्यों नहीं रखती हो, ताकि कोई फोन आए तो तुमको पता चल सके।"
"अच्छा बाबा ! सुबह-सुबह इतना गुस्सा मत होओ।"
"मोबाइल की फिर जरूरत ही क्या है भला .. ऐसे में एक 'लैंड लाइन' फोन लगवा लो।"
"तुम्हारे बकबक में ना ... फोन भी कट गई।"
अवनि फोन लेकर वापस रसोईघर में चली गई। 'कॉल' आए हुए 'नंबर' पर 'कॉल बैक' कर के बातें करने लगी - "प्रणाम मामा जी !,  मामी जी कैसी हैं ? ..." कुछ ही देर में बातें खत्म करते हुए - "अच्छा, प्रणाम मामा जी ... जी, जी, हाँ-हाँ, ठीक है। जी ! बोल दूँगी "इनको"। हाँ, हाँ, समझ रही हूँ। समझा भी दूँगी इनको। अब रखती हूँ। जी, मामा जी। जी, प्रणाम मामा जी।"
अब तक अवनीश 'शेव' करने के बाद अपने गालों पर 'सुथॉल एंटीसेप्टिक लिक्विड' मलते हुए, नाश्ते के लिए 'डाइनिंग टेबल' तक आ चुके थे। पिछले साल की तरह ही, इन दिनों भी 'लॉकडाउन' के तहत 'वर्क फ्रॉम होम' के अंतर्गत वह घर से ही अपने 'ऑफिस' का काम निपटा रहे थे। अतः नियत समय पर 'ऑफिस' पहुँचने की उन्हें कोई हड़बड़ी नहीं होती है। इसी कारण से नाश्ता आने तक आज का अख़बार खोल कर पन्नों पर छपे समाचारों पर अपनी नज़रें फिराने लगे।
तभी अवनि गर्मागर्म नाश्ता ले कर आ गई। लगभग आठ बजने वाले थे। अवनि नाश्ता की थाली मेज पर रख कर, 'टीवी' चालू कर के, 'इंडिया टीवी चैनल' पर बाबा राम देव के रोजाना आने वाले लगभग चालीस-पैंतालीस मिनट के कार्यक्रम को 'रिमोट' से चला कर गौर से देखने लगी। मम्मी जी भी मनोयोग से योग वाला कार्यक्रम देखने के लिए आ कर साथ में बैठ गईं। कुछ देर में नाश्ता, अख़बार और योग का कार्यक्रम सब कुछ ख़त्म होने के बाद सभी अपने-अपने काम में लगने के लिए वहाँ से  उठ गए। मम्मी अपने कमरे में लेटने चली गईं, अवनीश अपने काम के मेज पर 'कंप्यूटर' के सामने और अवनि रसोईघर में सभी के लिए काढ़ा बनाने।
पर जाने से पहले, पहले मम्मी जी के जाने के बाद, अवनि .. अवनीश के पास बैठ कर कहने लगी कि- "सुबह उस समय मँझले मामा जी का फोन आया था। कह रहे थे कि परसों उनकी मँझली बेटी- मनीषा की शादी है। पर अभी 'लॉकडाउन' में सरकार के दिशानिर्देश के अनुसार अधिकतम पचास लोग ही शादी के आयोजन में शामिल हो सकते हैं। इसी कारण से वे इस शादी में हमलोगों को नहीं बुला पा रहे हैं।"
"वैसे भी तो .. अभी कोरोना के समय भीड़-भाड़ वाले जगहों में जाने से बचना ही चाहिए। अच्छा हुआ जो निमन्त्रण नहीं आया। आता भी तो शायद नहीं जा पाते हमलोग।"
"कह रहे थे कि उनके गोतिया लोग और लड़के वालों का परिवार मिला कर ही पचास से ज्यादा लोग हो जा रहे हैं। तो गोतिया में से ही कई लोगों को आने से रोका जा रहा है। बाहर से या मुहल्ले से किसी को भी नहीं बुलाया गया है।"
"स्वाभाविक है .. वैसे भी सरकारी दिशानिर्देशों को मानने में हम आम लोगों की ही भलाई है। हमारी रक्षा-सुरक्षा के लिए ही तो बनाए जाते हैं तमाम नियम-क़ानून। है कि नहीं ?"
"एक छोटे-से 'कम्युनिटी हॉल' में सब कुछ सम्पन्न हो रहा है। कोई धूम-धड़ाका नहीं होगा। दरअसल लड़के की माँ बीमार रहती हैं, तो उनकी ज़िद्द से, सरिता की शादी के समय ही ये तय की हुई शादी, जल्दी में निपटायी जा रही है। बोल रहे थे, कि बाद में वे लोग मिलने आ जायेंगे या हमलोग जा कर मिल लेंगें।"
"कोई बात नहीं। चलो .. फ़िलहाल अभी तो 'किचेन' में जल्दी से जा कर अपने इन हाथों से एक 'कप' अदरख़-तेजपत्ता वाली कड़क चाय बना कर लाओ। फिर काम करने बैठूं। काढ़ा दोपहर में पिला देना।"
"ठीक है .. अभी आयी ..."

आज :-

सन् 2021 ईस्वी का जून महीना। तेरह तारीख़, दिन-रविवार। सुबह लगभग साढ़े पाँच बजे का समय।
"अव्वी !" - अवनि लगभग झकझोरते हुए अवनीश को जगा रही है।
"अरे ! .. क्या हुआ ?.. इतनी क्यों चीख़ रही हो। आज 'सन्डे' है। आज तो कम से कम आराम से सोने दो ना अव्वी ! .. 'प्लीज़' .. अभी सोने दो ..."
"अव्वी, अभी-अभी मंझले मामा जी की छोटी वाली बेटी- समीरा का फ़ोन आया था। मामी जी भी बात कीं। रो -रो के बुरा हाल है दोनों का"
"अरे ! .. क्या हुआ ? .. क्या हो गया सुबह-सुबह ?"- अवनीश घबरा कर बिस्तर पर उठ बैठे।
" मंझले मामा जी नहीं रहे अव्वी।" - अवनि रुआँसी हो गयी।
"मामी जी कह रही थीं, कि कल रात ठीक ही थे। समय से खा-पीकर और कल शनिवार को रात दस बजे आने वाले रजत शर्मा की "आपकी अदालत" 'इंडिया टीवी' पर देख कर देर से सोए थे।"
"फिर ? .. अचानक ?.."
"समीरा बतला रही थी, कि सुबह चार-सवा चार बजे अचानक अपने सीने में दर्द कहते हुए उठे। मामी जी और समीरा को आवाज़ दिए। मामी जी तो पास में ही सोयी थीं, आवाज़ पा कर जाग गईं और समीरा भी बगल वाले कमरे से जाग कर फ़ौरन आयी।"
"बहुत ही दुःखद बात है .."
"अंत समय में .. समीरा के हाथ को कस के पकड़ लिए थे और रोने लगे थे। कहने लगे .. बेटा माफ़ कर देना। तुम्हारी शादी नहीं ... कहते-कहते उनकी जुबान लड़खड़ा गयी। शरीर निढाल हो गया। समीरा के हाथ को पकड़े हुए उनके हाथ की पकड़ ढिली पड़ गयी।"
"ओह ! ..."
"फोन कर के पास वाले डॉक्टर अंकल को बुलाया गया था। वह आकर जाँच कर के बतलाए कि मामा जी अब नहीं रहे। उनको 'मैसिव हार्ट अटैक' आया था। डॉक्टर अंकल बोल रहे थे, कि समय पर इलाज मिल पाता तो .. शायद ..." - अवनि बोलते-बोलते रो पड़ी -
"पर इतनी जल्दी में सारा कुछ हो गया, कि किसी को कुछ भी करने का मौका ही नहीं मिला .."
अब तक अवनीश नींद की गिरफ़्त से पूर्णतः बाहर आ चुके थे। बिस्तर से उठ कर, तेजी से 'वाश रूम' की ओर भागते हुए अवनि को बोले -"तुम भी जल्दी से 'फ़्रेश' होकर तैयार हो जाओ। हम भी आ रहे हैं। हम दोनों को फ़ौरन वहाँ जाना चाहिए।"
आधे घन्टे में दोनों झटपट मामी जी के घर जाने के लिए तैयार हो गए। पर .. अवनि से नहीं रहा गया। वह अपने मन की एक ऊहापोह मिटाने के लिए अवनीश से सवाल पूछ ही बैठी, कि - "अव्वी, पापा जी के वक्त मामा जी, जिस किसी भी कारण से हो, एक शहर में रह कर भी नहीं आए थे। मंझली बेटी की शादी में, जिस किसी भी कारण से हो, बुलाये भी नहीं।"
"तो ?"
"तो फिर ..  अव्वी .. आप कैसे बिना बुलाए उनके यहाँ जाने के लिए अपने मन से तैयार हो गए ?"
"देखो (सुनो) अव्वी, मामा जी उस वक्त नहीं आए, ये उनकी सोच पर आधारित उनका फैसला था। वैसे भी तो ... तुम गौर से देखोगी, कि हमारे समाज की अधिकांश परम्पराएं सभ्यता-संस्कृति के नाम पर सदियों से चली आ रही अंधपरम्पराएँ हैं। जिनमें समय के अनुसार परिवर्त्तन की आवश्यकता है। सोचो ना जरा .. कोई भी परम्परा इंसान की सुविधा के लिए होनी चाहिए, ना कि बाधा बनने के लिए।"
"हाँ ... वो तो है ..."
"आज देखो कि दो माह पहले ही शादी किए हैं मनीषा की और स्वयं ही चले गए। ऐसे में धाराशायी हो गयी ना सूतक मानने वाली अंधपरम्परा और हाँ .. एक और बात, कि किसी के घर उसकी ख़ुशी में शरीक़ होने ना भी जाओ, तो कम से कम और जरूर से जरूर उसकी विपदा की घड़ी में उसके क़रीब जाना चाहिए। ऐसे मौकों पर कोई बुलाता नहीं अव्वी, बल्कि मानवता के नाते हमें जाना होता है या यूँ कहो कि जाना ही चाहिए।"
"हम तो तैयार ही हैं .. बस यूँ ही ... मन में एक बात आयी तो, पूछ लिया आपसे।"
"फिर .. इस शहर में हमलोगों के सिवाय उनका नजदीकी रिश्तेदार कोई है भी तो नहीं। उनके किसी भी रिश्तेदार को अन्य शहर से यहाँ आने में कम से कम सात से आठ घण्टे लगेगें। हो सकता है कि इस कोरोनाकाल में कोरोना के डर से कई लोग आएं भी ना।"
"हाँ, सही कह रहे आप। ऐसा हो सकता है।"
मम्मी को इस दुःखद घटना की जानकारी देकर, दोनों अपनी 'बाइक' पर अपने घर से मात्र लगभग सात किलोमीटर दूर मामा जी के घर के लिए निकल पड़े हैं।

आज ही मामा जी के घर पर :-

घर में प्रवेश करते ही मामी जी और समीरा अवनि से लिपट कर रोने लगीं- "पापा हम को छोड़ के चले गए दीदी। अब हम अनाथ हो गए।"
अवनि ने दोनों को सम्भाला- "ऐसा नहीं बोलते। अभी मामी जी हैं। और हमलोग भी तो हैं ही ना .. ऐसा क्यों सोचती हो तुम।"
अवनीश एक टक से अतिथि कक्ष में जमीन पर एक बिछाए चादर पर पड़े हुए मामा जी के शव को निहार रहे थे। लग रहा था मानो अभी सोए हुए हों। बस .. जाग कर उठ बैठेंगे। पास ही आठ-दस अगरबत्तियाँ सुलग रही हैं। अवनीश के दिमाग में चल रहा है, कि जिस बाँस के सहारे अभी अगरबत्तियाँ सुलग रही हैं, उसी बाँस की अर्थी पर सवार हो कर हम इंसानों का शरीर भी सुलग कर .. ना, ना, धधक-धधक कर जल कर राख हो जाता है।
थोड़ा सामान्य होने पर समीरा से पता चला कि रमण 'अंकल' सुबह आये थे। कुछ देर में 'फ़्रेश' हो कर आने बोल गए हैं। दरसअल रमण 'अंकल' मामा जी के गाँव के ही, चार घर छोड़ कर, रहने वाले हैं। एक ही जाति के भी हैं। दोनों साथ ही गाँव के 'हाई स्कूल' से पास किये और शहर के एक ही 'कॉलेज' में पढ़ाई पूरी कर के एक ही साथ इस शहर की 'स्टील' की बड़ी 'फैक्ट्री' में नौकरी 'ज्वाइन' कर ली थी। दोनों साथ ही 'रिटायर' भी हुए हैं। लब्बोलुआब ये कि दोनों लँगोटिया यार रहे हैं। एक बार नौकरी करने आए इस शहर में तो फिर इसी शहर में दोनों ही बस गए हैं।
मामी जी से ये भी पता चला कि सरिता और "मेहमान" (सरिता के पति) पाँच-छः घंटे में आ जायेंगे। मनीषा और मेहमान 'हनीमून' के लिए मालदीव गए हुए हैं, इसलिए उनका समय पर आना सम्भव नहीं है। मुहल्ले में आस-पड़ोस से भी कोरोना के डर से कोई भी झाँकने नहीं आया। अभी किसी तरह भी, किसी की भी मृत्यु हो, तो लोग कोरोना के डर से नहीं आते हैं।
लगभग आधे घन्टे बाद रमण 'अंकल' अपने लगभग तीस वर्षीय इकलौते बेटे- पवन के साथ आ गए हैं। पंडित जी से फोन पर बात कर के एक 'लिस्ट' लिख ली गई है। बाद में अवनीश, रमण 'अंकल' और पवन, सभी आपस में सलाह-मशविरा कर के उस एक 'लिस्ट' से दो 'लिस्ट' बना लिए हैं और बाँस-कफ़न की जुगत में निकल पड़े हैं। पवन अपनी 'बाइक' से अलग और अवनीश रमण 'अंकल' के साथ अलग ओर, ताकि सारा काम समय से निपट जाए।
अब तक रमण 'अंकल', अवनीश और पवन बाज़ार से आ गए हैं। सरिता से समीरा की बात हुई है अभी-अभी। बस .. वह और मेहमान पहुँचने ही वाले हैं। तब तक घर में मामा जी को नहलाने, हल्दी लगाने जैसी रस्में सब लोग पूरी कर रहे हैं। अर्थी सजते-सजते मनीषा और उनके पति आ गए। एक बार फिर से समूह-रुदन की आवाज़ सीने को चीरने लगी है। अब मामा जी को श्मशान घाट ले जाने की भी बारी आ चुकी है।
इधर अवनीश के दिमाग में चल रहा है, कि आज मामा जी की अर्थी को मिलने वाले चार कन्धों में चौथा कंधा उनका होगा। एक- रमण 'अंकल', दूसरा सरिता के पति का, तीसरा रमण 'अंकल' के बेटे पवन का और .. चौथा .. स्वयं अवनीश का। बस ... चार दिन की ज़िन्दगी के पटाक्षेप के बाद मात्र चार कंधे ही तो चाहिए। बाक़ी तो सब .. कहते हैं ना .. कि बाक़ी सब तो मोह-माया है। चाहे समाज की भीड़ हो या समाज की रस्म-रिवाजें। अब आज ही कहाँ गई उन पचास लोगों की भीड़, जो इनकी मँझली बेटी की शादी में जुटी थी। आज कहाँ पालन हो पा रहा है, उस परम्परा की, जिसमें शादी करने के बाद एक साल तक अभिभावक या वे नवविवाहित जोड़ें किसी के मृत्यु होने वाले घर में नहीं आ-जा सकते हैं, वर्ना अपशकुन हो जाता है। मामा जी ने भी तो अपनी मनीषा की शादी लगभग ढाई महीने पहले ही तो की है और आज खुद ही, ख़ुद के घर में मृत पड़े हैं।
अब तक देखते-देखते मामा जी के जाने का समय भी आ ही गया है। मामी जी, सरिता और समीरा, तीनों दरवाजे को छेक कर खड़ी हो गई हैं, किसी शादी में होने वाली द्वार-छेकाई वाली रस्म की तरह-
"मत ले जाइए पापा को।"
"मत ले जाइए मेहमान इनको .. इनके बिना कैसे जी पाएंगे हम। सरिता ! .. समीरा ! .. रोक लो ना पापा को। सरिता ! तुम्हारी बातें तो पापा कभी नहीं टालते हैं ना ! समीरा ! जगाओ ना पापा को । "
मामी जी बेहोश होकर गिर गईं हैं। अवनि ग्लास में पानी अंदर से लाकर मामी जी के मुँह पर छींटा मारती है - "संभालिए मामी जी अपने आप को। अगर आप ऐसे करेंगी तो समीरा, सरिता का क्या होगा। ये सोची हैं अभी? 'प्लीज' संभालिए अपने आप को। समीरा चुप हो जाओ। अपने मन पर काबू रखो सरिता। तुम लोग ऐसे अगर देह छोड़ दोगी, तो घर कौन संभालेगा भला .. बोलो ?"
अब चारों लोगों के कंधे पर सवार होकर मामा जी अपनी अनन्त यात्रा पर निकल पड़े हैं- "राम नाम सत्य है।" ... पर अवनीश के मन में राम-नाम की जगह कुछ और ही चल रहा है- "काश ! समाज की उन तमाम बेबुनियाद रस्म-रिवाजों, दकियानूसी सोचों वाली परम्पराओं को भी वह इसी तरह अर्थी पर सजा कर किसी धधकती चिता पर जला पाता .. काश ! ... बस .. केवल तीन अन्य कंधों की तलाश है; क्योंकि  उसका तो है ही ना .. चौथा कंधा .. शायद ...

(आइये .. इस बोझिल माहौल के बोझ को कुछ हल्का करने के लिए सुनते हैं ... साहिर लुधियानवी जी के शब्दों-सोचों को .. गाने की शक़्ल में .. बस यूँ ही ... )




Monday, March 30, 2020

याद आई भूली-बिसरी बातें ... ( बस यूँ ही ... कोरोना के बहाने ).

अनायास अनचाहे रूप से वैश्विक स्तर पर आई कोरोना नामक वायरस वाली विपदा या यूँ कहें विश्व वायरस युद्ध ने पूरे विश्व को एक मंच पर ला खड़ा किया है या यूँ कहें कि ला पटका है।
अमीर-गरीब के भेद, उच्च-नीच के भेद, जाति-धर्म के बँटवारे, देश-विदेश की सीमा-रेखाएँ, मन्दिर-मस्जिद-गुरूद्वारे-चर्च की असीम महिमाएँ ... इन सब को झुठला कर केवल और केवल सफाई, सावधानी, सामाजिक दूरी, लॉकडाउन और .. और अन्ततः विज्ञान के दरवाजे पर ला खड़ा कर दिया है। अस्पताल और वहाँ होने वाली जाँच, इलाज इत्यादि सभी ही/भी तो विज्ञान की ही देन है।
या यूँ कहें कि सत्यता से रू-ब-रू करवा दिया है। क़ुदरत या प्रकृति के बाद विज्ञान ही सबसे बलवान है .. बाकी सारी मिथक या मिथ्या वाली कोरी कल्पना बेमानी है।
किसी भी दुष्ट देश या समाज की विषाक्त सोचों के परिणाम से उपजे क़हर से लड़ने में हमारे-आपके हौसलों के साथ-साथ क़ुदरत और क़ुदरत से उपजा विज्ञान ही मदद कर पाता है।
ऐसे मौके पर इन से जुड़ी तीन भूली-बिसरी पुरानी बातों की यादें कौंधती है दिमाग में अनायास ही ...

(१) # पहली :- 

पहली भूली-बिसरी बात की याद आती है ... हाई स्कूल में अर्थशास्त्र विषय के तहत पढ़ाया गया एक अध्याय " माल्थस जनसंख्या सिद्धान्त " जिसे यूनाइटेड किंगडम के सामजिक अर्थशास्त्री - माल्थस जी की 1779 में  लिखी "जनसंख्या के सिद्धान्त" नामक किताब से ली गई थी।
जिसमें विश्लेषण किया गया है कि संसाधनों की उपलब्धता से जनसंख्या की वृद्धि होती है और वो भी ज्यामितीय या गुणोत्तर अनुपात में होता है। संसाधनों से समसामयिक मतलब मूलतः प्राकृतिक संसाधनों से था। उनके मतानुसार जनसंख्या एवं संसाधनों की अनुपात की तीन अवस्थाएं होती हैं।
1. जब संसाधन उस समय की जनसंख्या से अधिक हो
2. जब संसाधन और जनसंख्या दोनों लगभग समान हो
3. जब संसाधन के तुलना में जनसंख्या अधिक हो
इनमें से तीसरी अवस्था में जनसंख्या वृद्धि एक भयावह चुनौती बन कर सामने आती है। तब प्रकृति जनसंख्या को पूर्ववत लगभग संसाधन के समान करने या नियंत्रित करने के लिए युद्ध, प्राकृतिक आपदा, भुखमरी या महामारी द्वारा उपाय करती है।
वैश्विक स्तर पर कालान्तर में हालांकि माल्थस के सिद्धान्त को अस्वीकृत कर दिया गया।

(२) # दूसरी :-

दूसरी भूली-बिसरी बात की याद आती है .. अभी हाल ही में गुजरे वैश्विक रंगमंच दिवस के अवसर पर कि कभी विख्यात रहे रंगमंच कलाकार और नास्तिक डॉ श्रीराम लागू जी के वर्षों पुराने हमारे कॉलेज के जमाने में दिए गए दो वक्तव्य -
(१) " मैं ईश्वर को नहीं मानता, मुझे लगता है कि समय आ गया कि ईश्वर को रिटायर कर दिया जाए। " और ...
(२) " लोग कहते हैं कि भगवान ने इंसान को बनाया है; पर मैं मानता हूँ कि इंसान ने भगवान को बनाया है। "
आपको शायद ही यह ज्ञात हो कि वे अपने मन और रूचि की आवाज़ सुनकर आँख-नाक-गला के सर्जन वाले अपने जमे-जमाए पेशे को छोड़ कर अपने 42 वर्ष की उम्र में लगभग 1969-70 के आसपास पूर्णरूपेण मंच और फ़िल्म से जुड़ गए थे।
फिर साथ ही जर्मनी के महान दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे की प्रसिद्ध उक्ति की भी याद आती है कि -
" ईश्वर की मृत्यु हो गई है। "
साथ ही उनका कथन भी गूँजता है कि -
" व्यक्ति को रूढ़ियों का नहीं श्रेष्ठ पुरुषों का अनुकरण करना चाहिए। "

(३) # तीसरी :-

तीसरी भूली-बिसरी बात की याद आती है ...  फ़रवरी 1997 में प्रदर्शित फ़िल्म - " यशवंत " में समीर जी का लिखा और आनन्द श्रीवास्तव का संगीतबद्ध किए हए गाने की , जिसे गाया था  - नाना पाटेकर जी ने। इसे फिल्माया भी गया था नाना पाटेकर जी के धाँसू अभिनय के साथ। हम में से अधिकांश लोग गाने के बोल पर कम धुनों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। वैसे गज़लप्रेमी लोग विशेष कर गाने के बोल पर ध्यान देते हैं।
इसकी अतुकान्त पंक्तियों पर आज भी नज़र दौड़ाएंगें तो शायद आज भी आप इसकी समानुभूति से हाँफने और काँपने लगें शायद .. आपकी इन पंक्तियों को टटोलती नज़र शायद भींग जाए ...
तो आइए एक बार पढ़ते हैं .. फिर इस गाने को साझा किए गए लिंक पर सुनते भी हैं ...

"एक मच्छर, एक मच्छर साला आदमी को हिजड़ा बना देता है
एक खटमल पूरी रात को अपाहिज कर देता है
एक मच्छर साला आदमी को हिजड़ा बना देता है
मत आओ मेरे पास रहने दो मुझे अकेला
लड़ने दो मुझे अपनी लड़ाई
कभी न कभी तो झूठ का
गाला घोंटेगी सच्चाई
लेकिन साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
सुबह घर से निकलो
भीड़ का एक हिस्सा बनो
शाम को घर जाओ
दारू पीओ
और सुबह तलक फिर एक बार मर जाओ
क्यों कि आत्मा और अंदर का इंसान मर चूका है
जीने के घिनौने समझौते कर चुका है
साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
ऊँची दुकान फीके पकवान
खद्दर की लंगोटी
चाँदी का पीकदान
सौ में से अस्सी बेईमान
फिर भी मेरा देश महान
टोपी लगाये मच्छर कहता है
देश के लोगों में
समता की भावना आ रही है
इसीलिए तो बड़ी मछली
छोटी को खा रही है
हमारे चुने हुए कुत्ते
हमे ही खाते हैं
हमारे हिस्से की रोटियाँ
आपस में बाँटते हैं
अमानुष गंध से भरी उनकी
आवाज से नंगे रस्ते काँपते है
कल पैदा हुए बच्चे
एक सांस लेते हुए हाँफते हैं
शैतानों की नाजायज औलाद
तहलका मचा रही है
और हम हम भगवान के
चहेते जानवर इंसान
ज़िन्दगी को गाली बनाये बैठे हैं .. क्या करें?
साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
गिरो सालों .. गिरो, गिरो, गिरो , लेकिन गिरो तो
उस झरने की तरह जो पर्वत की ऊंचाई से
गिर के भी अपनी सुंदरता खोने नहीं देता
जमीन के तह से मिल के भी
अपने अस्तित्व को नष्ट नहीं होने देता
लेकिन इतना सोचने के लिए
वक़्त है किसके पास
साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है
मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में मर गये लाखों इंसान
धर्म और मजहब के नाम पर
हो गए हजारों कुर्बान
जिस ने अन्याय के विरोध में बाली को मारा
रावण को मौत के घाट उतारा
पुण्य को पाप से उभारा
मुझे उस राम की तलाश है मगर
लगता है इस युग के
राम को आजीवन वनवास है
क्यों कि आदमी को हिजड़ा बना देता है ये मच्छर
जिसका कीचड़ों में घर है
नालियों में बसेरा है
इसकी पहचान
ये है कि ..  ये न तेरा है .. न मेरा है
ये मच्छर हिजड़ा बना देगा
हिजड़ा बना देगा
कभी शैतान आएंगे
मेरे दरवाजे पर दस्तक देंगे
जहाँ की तलाशी लेंगे
फिर जल उठेंगे
उस वक़्त मैं डरूँगा नहीं
अपने शरीर को ढाल
हाथ को तलवार बनाऊँगा
एक न एक दिन तो
तुम मेरा हाथ चूमोगे
आज मुझे बदनाम करो नीलाम करो
नीलामी के लिए क्या है मेरे पास
बस जलते हुए आँसुओ का शैलाब
मगर तुम्हारी आखिरी गोली पर
मेरे दो साँसों के बीच का ठहराव
तुम्हें फ़ोकट में दूँगा
क्यों कि सालों एक मच्छर ने तुम्हें हिजड़ा बना दिया है...

फिलहाल आज घोषित 21 दिनों के लॉक डाउन का छठा दिन है ..अभी लॉकडाउन की इस अवधि में इस गाने का आंनद (?) लीजिए ...
अब ये मत कह दीजिएगा कि ... ये सर्वविदित कुतर्की .. हँसुआ के बिआह आ खुरपी के गीत गा रहा है ...
हाँ ... इस गीत के तर्ज़ पर कुमार विश्वास और राहत इंदौरी के नकल करने वाले कुछ नकलची रचनाकार बेशक़ पेरौडी गा कर ताली बटोर सकते हैं - " एक (साला) वायरस पूरे विश्व को निकम्मा बना देता है ..." ... ...




Friday, March 27, 2020

हे माँ भवानी ! ...


हे माँ भवानी ! ...
दूर करो जरा मन की मेरी हैरानी  
कि .. मिट्टी भला मेरे दर की 
आते हैं हर साल क्यों लेने
कुम्हार .. तेरी मूर्त्ति गढ़ने वाले ...

सदियों से हम भक्त ही तो सारे
उपवास या फलाहार हैं करते
अबकी तो तेरी भी हुई है फ़ाक़ाकशी
पड़े हैं तेरे सारे दरों पर ताले ...

तू तो मूरत है .. लोग तेरे हैं दीवाने
पर हम रोज़ कमाने-खाने वाली
कामुकों के बिस्तर गरमाने वाली
पड़े हैं मेरे कोठे पर खाने के लाले ...

मज़दूर-भिखारी सब सारे के सारे
पा भी जायेंगें शायद सरकारी भत्ते
आज पा रहे कई संस्थाओं से खाने
भला कोई मेरी ओर भी तो निगाह डाले ...

थमा है आज प्रगति का प्रतीक - पहिया
सामाजिक प्राणी का है बन्द मिलना-जुलना
जाति-धर्म-वर्ग में कोई भेद रहा ना
 कट रही संग तेरे अपनी भी बस यूँ ही बैठे ठाले ...