अक़्सर आए दिन अधिकांश घरों में अभिभावकगण अपने बच्चों या युवाओं के बिगड़ने का सबसे बड़ा कारण या कई कारणों में से एक कारण या फिर मुख्य कारण मानते हैं - 'मोबाइल' या 'टीवी' को या फिर दोनों को ही और उनके बिगड़ने का कारण मानते हुए, इन दोनों आधुनिक वैज्ञानिक 'इलेक्ट्रॉनिक' उपकरणों को मन भर कोसते भी नज़र आते हैं। उन अभिभावकों के मतानुसार- ये दोनों ही उपकरण दो तरीके से बच्चों या युवाओं को बिगाड़ते हैं। एक तरफ तो इनका उचित उपलब्ध समय बर्बाद कर के और दूसरी तरफ अनुचित 'साइट्स' या 'चैनल' व 'प्रोग्राम' परोस कर .. शायद ...
और तो और .. अक़्सर कई सारे बुद्धिजीवियों की अनुपम लेखनी के सौजन्य से हम सभी की नज़रों से होकर इन आधुनिक वैज्ञानिक 'इलेक्ट्रॉनिक' उपकरणों के लिए उलाहने से भरे कई सारे अनमोल आलेख भी गुजरते रहते हैं; जिनमें नयी पीढ़ी को बिगाड़ने का दोषी मुख्य रूप से इन दोनों को ठहराया जाता है .. शायद ...
लेकिन हमें लगता है, कि शायद ऐसा नहीं है या होना भी नहीं चाहिए। आइए ! .. आज एक बार फिर इसी बहाने खुरपी के ब्याह में हँसुआ का गीत गा लेते हैं .. बस यूँ ही ...
यूँ तो कोरोनकाल में बच्चों या युवाओं के 'ऑनलाइन क्लासेज' के कारण झक मार कर, अभिभावकों को इन्हें 'मोबाइल' सुपुर्द करना पड़ा है और साथ ही इसके चलते इसके 'पॉजिटिव' पक्ष को भी आँकने की सहज सम्भावना ऐसे अभिभावकों के लिए अनायास बन पड़ी है .. शायद ...
सर्वविदित है कि प्रायः किसी ग्रामीण क्षेत्र में लगने वाली हटिया में या किसी शहर या नगर की बहुमंजिली 'मॉल' में खुलने वाली सारी की सारी विभिन्न दुकानों में कोई भी आगन्तुक ग्राहक नहीं जाता, बल्कि सभी अपनी-अपनी रूचि या अपनी-अपनी तत्काल ज़रूरत के अनुसार दुकान-विशेष में ही जाते हैं और उसी में ख़रीदारी करते हुए पाए जाते हैं। नहीं क्या !? ...
मसलन- कोई शाकाहारी ग्राहक किसी हटिया की मछली या माँस की दुकानों में नहीं जाता है, बल्कि शाक-सब्जी की दुकानों में जाता भी है और ख़रीदारी भी करता है। वह भूले से भी माँस-मछली की दुकान की ओर नहीं जाता और शायद नज़र पड़ भी जाए तो घृणा महसूस करता हुआ अपना मुँह फेर लेता है या उन दुकानों से फ़ैलने वाली गन्दी गंध के कारण अपनी नाक पर, अपने पास उपलब्ध गमछा, रुमाल या पल्लू रख लेता या लेती है। दूसरी ओर 'मॉल' में भी लोग हर तल्ले पर अपनी शारीरिक क्षमता और उपलब्ध समय के आधार पर बेशक़ इधर-उधर टहल लें, ताक-झाँक कर लें; पर वो खरीदारी अपनी पसंद, अपनी आवश्यकता और निःसन्देह अपनी क्रय-क्षमता के आधार पर ही करते हैं। एक और आम बात है, कि आम बाज़ार में भी तो, चाहे गाँव हो या शहर, व्यसन की सामग्रियाँ बिकने वाली कई क़ानूनन मान्यता प्राप्त दुकानें खुली होती हैं, पर वहाँ उसके व्यसनी ही खरीदारी करने जाते हैं। चाहे वह दुकान शराब की हो या सिगरेट की या फिर गैरकानूनी ढंग से बिकने वाले अन्य तथाकथित 'ड्रग्स' की हो .. शायद ...
दूसरी तरफ देखें तो, ये सारे बाज़ार और इनकी दुकानें प्रशासन द्वारा या इनके ही 'यूनियन' द्वारा तय समयानुसार या फिर स्थानीय चलन के अनुसार ही नियत समय पर प्रायः खुलते और बंद भी होते हैं। पर हर समय यानी पूरे समय कोई भी ख़रीदार बाज़ारों या दुकानों में नहीं खड़ा होता है, बल्कि अपने आवश्यकतानुसार सामान खरीद कर वापस हो जाता है .. शायद ...
अब हम इन बातों से यानी विभिन्न अच्छे-बुरे सामानों के विक्रय से सम्पूर्ण बाज़ारों या दुकानों को गलत नहीं ठहरा सकते, तो फिर भला अच्छी और बुरी, दोनों ही बातों को परोसने वाले मोबाइल या टीवी को किसी भी बच्चे या युवा को बिगाड़ने के लिए दोषी ठहराना भी तर्कसंगत नहीं लगता है .. शायद ...
जैसे हम बाज़ार तो जाते हैं, परन्तु अपनी आवश्यकतानुसार ही किसी दुकान में जाते-आते हैं या वहाँ अपना बेशकीमती समय व्यतीत करते हैं। इसे तय करने में, यहाँ हमारी आवश्यकता और क्रय-शक्ति के साथ-साथ हमारी बुद्धि और हमारा विवेक भी काम करता है। इसी तरह हमें केवल और केवल .. अच्छी बातों और बुरी बातों के बारे में और उन से होने वाले क्रमशः लाभ-हानि के बारे में विस्तार से बच्चों या युवाओं को बतला- समझा कर, अपना ज्ञान बघारने या बाँटने या एकदम से किसी भी काम की मनाही थोपने से ज्यादा, उनमें यथोचित विवेक उत्पन्न करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए; ताकि वे 'मोबाइल' या 'टीवी' इस्तेमाल तो करें, पर उन से होने वाले लाभ-हानि को अपने विवेक से मापते हुए, यथोचित समय के अनुसार, यथोचित 'साइट्स', 'चैनल' या 'प्रोग्राम' का अवलोकन करें और वो भी हमारे समक्ष ही, बिना हमसे नाज़ायज लुका-छिपी किये हुए .. शायद ...
स्पष्ट शब्दों में कहें, तो अगर सीधा-सीधा हम उन्हें इन उपकरणों के लिए मना करेंगें या उनको इस्तेमाल नहीं करने देंगें, तो इन उपकरणों के लिए उनकी लालसा या उत्सुकता और भी बढ़ जायेगी। तब वे मौका पाते ही हमसे-आपसे छुपा कर चोरी-छिपे इनका इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगें। तब शायद उनकी हमारी नज़रों से ओझल होकर, अच्छी बातों के बजाय इन उपकरणों से बुरी बातों को ही ज्यादा ग्रहण करने की सम्भावनाएँ बढ़ सकती हैं, क्योंकि हमने उनके सामने केवल इन उपकरणों को बुरा बतलाने का ही काम किया है। सर्वविदित है, कि चींटियों को जिस ओर जाने से रोका जाता है, उधर ही उनकी कतारें बार-बार जाने का प्रयास करती हैं।
सबसे बड़ी हमारी चूक तो ये होती है, कि हम अपने बच्चों या युवाओं पर बरसने के समय या उनका छिन्द्रान्वेषण करते समय, यह पूर्णतः भुल ही जाते हैं, कि हम भी कभी बच्चे या युवा रहे थे और उन अवस्थाओं में हमने भी कई सारी शरारतें कीं थीं, कुछ अपने अभिभावकों की नज़रों के सामने भी और कुछ .. उन की नज़रों से लुका- छिपा कर भी .. शायद ...
नगण्य अपवादों को छोड़ कर, तब प्रायः अभिभावकों से छिपाने की नौबत इसीलिए आती थी, कि उन से डाँट खाने की या पिटाई की सजा मिलने का भय होता था। अगर वे लोग हमारे साथ अभिभावक जैसे कम और मित्रवत् ज्यादा पेश आते तो शरारतें, कम से कम, उनसे छुपा कर करने की नौबत तो नहीं ही आती। हैरत की बात तो ये है, कि हम आज भी अपने अभिभावकों की वही गलती अपने संतानों के साथ दोहराने की गलती अक़्सर करते हैं। परन्तु अपनी इसी गलती को सुधारने के लिए हम में इतनी हिम्मत और पारदर्शिता भी होनी चाहिए, कि हम अपनी संतान को अपने अतीत के सारे अच्छे- बुरे कर्मों को पारदर्शिता के साथ किसी इतिहास की कक्षा में पढ़-पढ़ा रहे विद्यार्थी-अध्यापक/अध्यापिका की तरह बतला सकें और साथ ही इन से हमें हमारे वर्तमान जीवन में मिलने वाले अच्छे-बुरे परिणामों से भी अवगत करा सकें। जिनसे वे सबक़ लेकर अपना विवेक बढ़ा सकेंगे। हमें अपने अतीत की अच्छी- बुरी घटनाओं के लिए तो शायद किसी इतिहासकार की भी दरकार नहीं पड़ेगी, जिनसे कि किसी भी इतिहास को तोड़-मरोड़ के पेश करने की भी कोई संभावना बनेगी, बल्कि हम तो स्वयं ही अपने इतिहास के इतिहासकार हैं। पर सनद रहे कि यह हमारा आपसी वार्तालाप केवल प्राप्तांक के लिए पढ़ने-पढ़ाने वाले विद्यार्थी-अध्यापक/अध्यापिका जैसा ना होकर, उस से ज्ञान, विवेक और सबक़ लेने-देने वाले विद्यार्थी-अध्यापक/अध्यापिका जैसा ही हो .. बस यूँ ही ...
एक बात और गौर करने वाली है, कि जिन राज्यों या देश में जो भी वस्तु क़ानूनी तौर पर निषेध हैं और वहाँ अगर चोरी-छिपे उन निषेध वस्तु का क्रय-विक्रय होता है, तो उसके लिए उसके उपभोक्ताओं को नाज़ायज तरीके से विशेष अतिरिक्त क़ीमत चुकानी होती है .. शायद ...
मसलन - बिहार में ही तो मद्यपान क़ानूनन ज़ुर्म है। पर पड़ोसी राज्यों से चोरी-छिपे अवैध तस्करी द्वारा तिगुनी क़ीमत पर आसानी से या मुश्किल से, जैसे भी हो, व्यसनियों के लिए ग़ैरक़ानूनी तौर पर उपलब्ध हैं। उसी प्रकार अगर हम उन्हें बिना विवेक दिए, केवल अपनी मनाही उन पर ज़बरन थोपेंगे, तो उनको भी चोरी-छिपे किये गए अपने कृत्यों के लिए, अपने भावी जीवन की मँहगी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है .. शायद ...
अब ऐसे में अगर हम अक़्सर अभिभावक होने के नाते अपना पल्ला झाड़ते हुए, अपने अभिभावक होने का भ्रम पाले, इन दोनों उपकरणों को उपयोग करने की मनाही अपनी संतान पर थोप के, अभिभावक पद की इतिश्री समझते हैं, तो ये भी/ही हमारी भूल है .. शायद ... अब आप से उम्मीद है .. और करबद्ध निवेदन भी है, कि अब से आप अभिभावक या बड़े होने के नाते किसी बच्चे या युवा को सीधे-सीधे किसी वस्तु या काम के लिए मना करने के बदले, उन्हें अच्छे-बुरे का विवेक देंगें और उनके हाथ में 'मोबाइल' या 'टीवी' का 'रिमोट' होने पर भूले से भी 'अनसा' (चिड़चिड़ा) कर नहीं कहेंगे, कि .. "निगोड़ा बिगाड़ रहा है" .. बस यूँ ही ...
( वैसे .. चलते-चलते ये बतलाते चलें, कि यह कोई कोरी बतोलाबाजी नहीं है, बल्कि स्वयं की एकलौती संतान के साथ उसके बाल्यावस्था में, उसे ज्ञान से ज्यादा "विवेक" देने वाला सफल प्रयोग किया हुआ है। )