बस यूँ ही ...
गत दिनों 'सोशल मीडिया' पर नज़र से एक नाम गुजरा .. गुजरा ही नहीं, बल्कि उस पर नज़र ठिठकी .. स्वाभाविक है, क्योंकि ना तो ये नाम कभी इतिहास की किताबों में पढ़ने मिला था या मिलता है और ना ही इससे पहले किसी से मौखिक सुनने के लिए मिला है कभी .. वह नाम है - नीरा आर्य 'नागिन' ...
एक बकलोल और आलसी पाठक होने के बाद भी इन नाम से जुड़ी जो भी 'पोस्ट' सामने से गुजरी सभी को तन्मयता से पढ़ा। इन से जुडी मार्मिक घटनाओं के बारे में छिटपुट पढ़ कर इनके बारे में जानने की और भी उत्सुकता बढ़ती गयी। तभी सहज-सुलभ उपलब्ध 'गूगल' पर 'सर्च' करके तसल्ली हुई कि ये सारे दिख रहे 'पोस्ट' 'फेक' नहीं हैं। फिर 'अमेजॉन' पर खँगालने पर मिल ही गयी, वह मार्मिक इतिहास के घटनाक्रम की दफ़न पवित्र गीता .. शायद ... जिसका नाम है - "मेरा जीवन संघर्ष (दुर्लभ चित्रों सहित) -नीरा आर्य 'नागिन' की आत्मकथा" ...
वैसे प्रसंगवश हमको सही-सही ज्ञात नहीं कि "घटना" को भी "कहानी" कहते-लिखते हुए लोगबाग सुने-पढ़े जाते हैं, तो किसी घटनाक्रम को कहानी कहना कहाँ तक उचित है, ये सच में नहीं मालूम हमको। वैयाकरण महानुभावों के दृष्टिकोण में क्या सही, क्या गलत .. ये छिद्रान्वेषण उनके जिम्मे है .. मेरे नाम के आगे 'डॉक्टर' भी तो नहीं लगा हुआ है .. ख़ैर ! ... आगे मन नहीं माना .. 'आर्डर' लगा दिया 'अमेजॉन' को, पर आया भारतीय डाक विभाग के 'बुकपोस्ट' द्वारा .. उनकी आपसी कुछ ऐसी अंदरुनी व्यवस्था रही होगी। उनसे हमें क्या करना भला, हमें तो बस सुविधा भर चाहिए .. शायद ...
यूँ तो दो दिन पहले ही यह किताब घर आ गयी थी। पर व्यस्त दिनचर्या की वजह से आज-अभी किताब को महक पाया और हमेशा की तरह पुनः सोचने पर विवश हो गया कि सदियों स्वयं को क़बीलों में रख कर सुरक्षित मानने वाले हम मनुज आज भी प्रायः किसी राजनीतिक दल से, समुदाय से, सम्प्रदाय से, जाति से या किसी भी झुण्ड से स्वयं को जोड़ कर या सामने वाले को भी ज़बरन जोड़ कर ही दम लेते हैं। जबकि हमें किसी भी दलगत सोच से तटस्थ हो कर, उस से बिना जुड़े या जोड़े, अपनी स्वयं की विचारधारा कहने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए, तभी हम सही इतिहास पढ़ भी सकते हैं और .. गढ़ भी सकते हैं .. शायद ...
हम तो अक़्सर देखते हैं कि किसी दलगत विशेष के समर्थक, अन्य किसी दलगत विशेष के समर्थक के लिए "अंधभक्त" जैसा विशेषण धड़ल्ले से व्यवहार में लाते हुए पाए जाते हैं, जबकि इस तरह के प्रमाणित इतिहास वाली किताब पढ़ने के बाद वो सारे तुलनात्मक और भी बड़े वाले अंधभक्त नज़र आने लगते हैं .. शायद ...
इसी किताब के एक पन्ने पर उकेरी गयी, स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की विचारधारा :-
शहीद दिवस, शिक्षक दिवस और बाल दिवस के झुनझुने की आवाज़ में इतिहास की तमाम सिसकियाँ और चीखें तिरोहित हो कर रह गयीं .. शायद ...
आदरणीय
ReplyDeleteशानदार समीक्षा
अब काहे खरीदें किताब
आभार,
सादर
जी ! नमन संग आभार आपका .. आप तो फ़िल्म की 'टीज़र' भर देख कर ही 'फ़िल्म' देखने से मना कर रही हैं .. ये तो 'फ़िल्म' के साथ सरासर अन्याय है .. शायद ... 😀😀
Deleteनमस्कार सर, जंतर मंतर पर जो अंतराष्ट्रीय महिला पहलवानो के साथ हुआ उस पर भी कुछ लिखेंगे या यूं ही जो जख्म अब भर गए है उन्हें कुरेद कर नासूर बन कर अपनी बातों को सही साबित करते रहेंगे
ReplyDeleteचूँकि आपकी प्रतिक्रिया "Anonymous" के रूप में आयी है, तो ये ज्ञात नहीं हो पा रहा है , कि आप श्रीमान हैं या सुश्री या श्रीमती हैं .. ख़ैर ! ... आप जो भी हैं, आपको बतलाता चलूँ कि हम रहे तो हैं गणित के विद्यार्थी पर गणितज्ञ नहीं हैं, जो किसी प्रमेय (Theorem) की तरह किसी बात को साबित करें और ना ही मेरी बौद्धिक क्षमता ही इतनी तीक्ष्ण है, जो कुछ भी साबित करने की काबलियत हो मेरे भीतर .. वैसे भी यह काम इन दिनों राजनीतिज्ञों की है .. रचना करने वालों या बतकही करने वालों का काम केवल दृश्य को शब्द, रंग या मंच प्रदान करना है, चाहे वह किसी भी कालखण्ड का हो .. शायद ...
Deleteऔर आप जिन घटना की बात कर रहे हैं, तो उस पर कुछ लिखने का भी भला क्या लाभ, जबकि आप स्वयं इस बात के पक्षधर हैं कि "घटना" एक "जख़्म" है, जो भर जाता है, तो बस आप भी प्रतीक्षा ही कीजिए .. ये भी जख़्म है, समय के साथ भर जाएगा .. वर्ना आप या हम कुरेदेंगे तो ये भी नासूर ना बन जाए कहीं .. बस यूँ ही ...
जो आज इतिहास है वो कल वर्तमान था, और आज का वर्तमान है कल इतिहास होगा।निसंदेह अतीत में गलतियां हुई इसका मतलब ये तो नहीं है कि आज जो गलत हो रहा है उसे सही ठहराया जाये , अगर ज़िंदा है तो ज़िंदा दिखना भी जरूरी है।
Deleteबंधु या बंधुनी , आप जो भी हैं, हमने किसी और पुरानी मार्मिक घटना को उकेरा, आप दूसरी को ले कर आ धमके .. आप भी तो अपने जिन्दा होने का प्रमाण दे सकते हैं ? आप क्यों नहीं लिखते अपनी नज़र की उलझने ?
Deleteआप की लिखी किताब पर हम समीक्षा लिखने के लिए बेताब बैठे हैं .. बस यूँ ही ...
अतीत में जो हुआ वो सही था या गलत ,अब वो इतिहास है, और इतिहास हम बदल नहीं सकते लेकिन वर्तमान में जो हो रहा वो हम जरूर बदल सकते है ,लेकिन जो अपनी आँखें मूंद ले आज की सच्चाई को नही देखे वो ज़िंदा है शायद नहीं। समीक्षक निष्पक्ष होता है ,और जैसा कि आपने लिखा है कि आप गणित के छात्र रहे है तो पहले इतिहास को पढ़िए और समझिये ,किसी विषय को नहीं जानना ज्यादा अच्छा होता है ,अधकचरा ज्ञान ज्यादा खतरनाक होता है।और आप लोगों जैसे बुद्धिजीवी समाज को संवारने का काम नही जहर और नफरत फैला कर बाँटने का काम करते हैं।। अब आप मेरी बातों को गलत साबित करने के लिए अपने कुतर्क का पिटारा ले कर आ जाएंगे
Delete"अतीत में जो हुआ वो सही था या गलत ,अब वो इतिहास है, और इतिहास हम बदल नहीं सकते " - उपरोक्त ये लिखा/कहा गया पहला वाक्य ही आधारहीन है और सामने वाले के पूर्ण प्रतिभा को प्रश्नचिन्ह के साथ परिभाषित कर रहा है .. शायद ...
Deleteइतिहास अगर सही रहा हो या गलत भी रहा हो तो उससे तदनुरूप सबक़ लेने और साथ ही सही हो तो उसको अपनाने या दुहराने के काम आता है तथा गलत हो तो उस गलती को सुधारने हेतु तत्पर होने के लिए प्रेरणा मिलती है। तभी शायद इतिहास को पाठ्यक्रम से जोड़ा गया है। वर्ना सहेजा नहीं जाता।
चंद क्षण के लिए मूर्ख की तरह मान भी लिया जाए कि इतिहास की गलती को हम सुधार नहीं सकते तो कुछ दिन रुक जाने के बाद वर्तमान भी तो इतिहास बन जाएगा, जिसको अतीत में हुआ गलत कार्य कह कर नज़रअंदाज़ कर देने जैसा कृत शायद "पूर्णकचरा" ही कहलाएगा .. शायद ...
इतिहास की भूल को भुलाया भला कैसे जा सकता है , जबकि उसका तेज़ाबी असर से वर्तमान सुलग रहा हो।
जिन महान विभूति ने कभी आरक्षण का "आ" भी उपभोग नहीं किया बल्कि अपनी यथोचित योग्यता भर अतुल्य उपलब्धियां प्राप्त की, उनके नाम पर अतीत में केवल दस वर्षों के लिए आरक्षण का लंगर चालू किया गया, वो आज कई दशकों से उस लंगर तो क्या लंगर पक रहे पूरे रसोईघर पर बढ़ते % का कुण्डली मारे बैठा हैं।
वैसे भी समाज में तो ज़हर और नफ़रत फ़ैलने की कई वजहें हैं। आरक्षण के आधार पर समाज बंटने से नफ़रत ही फैलती है। नफ़रत ना फैले, समाज ना बंटे इसके लिए भी किसी आरक्षणभोगी से उसका आरक्षण त्याग करवा कर कोई अपनी ज़िन्दादिली का परिचय दे पाएगा क्या ???
'डॉक्टर' भी 'डेथ सर्टिफिकेट' देने के बाद मुर्दे को हटा देता है और कितना भी कोई नजदीकी रिश्तेदार हो, मरने पर मुर्दे से लोग दूर ही रहना चाहते हैं। फिर एक ज़िंदा इंसान बार-बार एक आँखें मूँदे मुझ मुर्दे के पास अपना ज्ञान बघारने क्यों आ टपकता है भला ? उसे तो जहाँ-जहाँ धारा-144 लगी हो, वहाँ-वहाँ अपनी ज़िन्दादिली जाकर दिखलानी चाहिए।
ख़ैर ! .. हम जैसे ऐरा गैरा नत्थू खैरा लोग अपनी ऊर्जा किसी आप जैसे महान और प्रतिभावान विद्वान के लिए तर्क-कुतर्क में बर्बाद नहीं करते।
आप जैसे प्रतिभावान लोग तो मालूम पड़ता है, कि अब शायद 'कंप्यूटर' विज्ञान और 'सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग' में स्नातक किए हुए शंकर महादेवन जी जैसे लोगों को भी गायन और संगीत सीखने-पढ़ने की नसीहत देने से नहीं चूकेंगे।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 26 जून 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ... ये मौका प्रदान करने हेतु ...
Deleteउफ्फ ..... स्वतंत्र भारत में इतिहास को किस कदर बदला गया है कि आज आम नागरिक भ्रमित हो कर रह गया है । 1974 में जब मैं बी०एड० कर रही थी तब एक पुस्तक हाथ लगी थी गाँधी वध नाथू राम गोडसे और मैं ..... गोपाल गोडसे द्वारा लिखी गयी ये किताब तुरंत बैन कर दी गयी थी ।
ReplyDeleteऐसे ही एक किताब पढ़ी थी आज़ाद की पिस्तौल और उनके साथी .... अब ये पुस्तक पढ़ने की भी जिज्ञासा हो रही है ।इस पुस्तक का लिंक मिलेगा क्या ?
इस प्रस्तुति के लिए आभार ।
जी ! नमन संग आभार आपका .. शुक्र है, जिस किसी के भी प्रयास से हो, ये आत्मकथा पुनः छप तो पायी, वर्ना 'बैन' की गयी तत्कालीन 'फ़िल्म' - "किस्सा कुर्सी का" के सारे 'प्रिंट' तत्कालिक सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिए गए थे, जो सम्भवतः जला कर नष्ट भी कर दिए गए थे, जिनका आज तक "शास्त्री जी" के नीले मृत बदन के राज की तरह कुछ भी पता नहीं चल पाया .. शायद ...
Deleteजिस 'लिंक' की आप ज़िक्र कर रहीं हैं, अगर कुछ भी ऐसा ज्ञात हुआ तो आप से अवश्य साझा किया जाएगा ...
सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाना, इतिहास को तोड़-मरोड़ कर अपनी सुविधानुसार प्रस्तुत करना, गांधी, नेहरू को रावण,कंस के रूप प्रदर्शित करना, गोडसे को शहीद बताना, ख़ुद को देशभक्त समझना और अपने विरुद्ध विचारधारा वाले को ग़द्दार घोषित करना. क्या यही - 'बस यूँ ही' का काम है? मैंने कुल मिला कर दो विश्वविद्यालयों में 36 साल भारतीय इतिहास पढ़ाया है लेकिन 'बस यूँ ही' जितना मौलिक ज्ञान मैं कभी नहीं बाँट पाया.
ReplyDeleteमहानुभाव जी आप स्वयं ही कह (लिख) रहे हैं, कि आपने " 36 साल विश्वविद्यालयों में भारतीय इतिहास पढ़ाया है। " .. मतलब ? .. केवल पढ़ाया है, आपने इतिहास की किताबों को लिखा नहीं है। बस .. किसी के लिखे का ज्ञान आपने आगे की पीढ़ी को प्रेषित भर किया है।
ReplyDeleteअब जब आपने तथाकथित भारतीय इतिहास को लिखा ही नहीं , तो श्रीमान आप सही और गलत का निर्णय कैसे कर सकते हैं भला ???
घटित घटनाओं से आँखें मूँद लेने भर से इतिहास बदल नहीं जाता या वैमनस्य फैलाने जैसी बातें नहीं होती, जबकि जो भी तत्कालीन प्रतिबंधित पुस्तकें दोबारा आयीं हैं बाज़ारों में, वह साक्ष्य के साथ आयीं हैं।
महोदय ! बुद्धिजीवी जी ! .. आपका "किस्सा कुर्सी का" के बारे में क्या अहम राय है ???
एक सच्चे देशभक्त की "बस यूँ ही" की एक टुच्ची सोच में बस एक ही परिभाषा है कि कुछ भी मनन-चिंतन करें तो तटस्थ होकर करें।
आपको पुनः कह रहा हूँ कि आपने 36 वर्षों तक केवल किसी के लिखे को पढ़ाया है, स्वयं लिखा नहीं है, तो आपका सही-गलत का दावा शत्-प्रतिशत गलत है।
एक बार पुनः विचार कीजियेगा, पर तटस्थ होकर और साक्ष्यों के साथ कि तोड़-मरोड़ तब हुई थी या अब हो रही है ?
और हाँ "किस्सा कुर्सी का" पर और 25 जून 1975 पर भी हो सके तो अपने ज्ञान का प्रकाश अवश्य देने का कष्ट किजिएगा .. बस यूँ ही ...🙏
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ReplyDelete🙏
Deleteबेहद जरूरी और जानकारी पूर्ण समीक्षा।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteजी सुबोध जी,एक किताब को सार्थकता मिल गयी जब उसे आप जैसा जिज्ञासु पाठक मिला।निसन्देह आजादी का उपभोग करने वाले ज्यादतर लोग अवसरवादी रहे जिन्होने देश की आजादी के नाम पर भुगती गयी जेल में भी जी भर मलाई चाटी और आजादी के बाद जी भर सत्ता -सुख भोगा।और जिस क्रान्तिकारी की बात ये पन्ने कह रहे हैं उन गुमनामी बाबा को नेता जी माना गया।पर वे गुमनामी को अपना कर जीते जी अपनी पहचान छुपाने में सफल रहे।आश्चर्य होता है कि संकीर्णता की ऊँची दीवारों को लाँघ कैसे नीरा आर्या सरीखी वीरांगनाएँ स्वाभिमान के साथ ताउम्र जीती रही।और गुमनामी बाबा के बहाने ही सही उन्होने तत्कालीन समाज की वीभत्स सच्चाईयों को उजागर किया।दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सभी को इतिहास की कड़वी सच्चाई को खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए।अभी समय नहीं है कि किताब पढूं पर समय मिलते ही जरुर पढना चाहूंगी।आखिर एक साहसी नारी ने अपने समय को किस दृष्टि देखा है।बहुत ही सधी समीक्षा के लिए कोटि कोटि आभार आपका 🙏
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. इतनी रूचि के संग बतकही वाली समीक्षा की गहन समीक्षा करने के लिए .. बस यूँ ही ...
Deleteनोट कर लिया है इसका सभी विवरण।सच में बच्चों ने किताब उठाकर पढना बंद ही कर दिया😔😔
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteसत्य उजागर हो ही जाता है ...इतिहास के सम्पूर्ण सत्य भी एक एक कर उजागर हो ही रहे हैं....।
ReplyDelete🙏
Deleteसत्य उजागर हो ही जाता है ...इतिहास के सम्पूर्ण सत्य भी एक एक कर उजागर हो ही रहे हैं....।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
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