Wednesday, June 10, 2020

जलती-बुझती लाल बत्ती ...


एक दिन मन में ख़्याल आया कि .. क्यों ना .. कागजी पन्नों वाले डायरी, जो बंद और गुप्त नहीं, बल्कि हर आयुवर्ग के लिए खुले शब्दकोश के तरह हो, की जगह वैज्ञानिकों के बनाए हुए अंतरिक्ष यानों के भरोसे चलने वाले इस ब्लॉग के इन वेव-पन्नों को ही अपना हमदर्द बनाया जाए। अब आपको इतना तो मालूम होगा ही कि अंतरिक्ष यानों के बदौलत ही ये सारे सोशल मिडिया के आपके पन्ने हम तक और हमारे पन्ने आप तक पहुँच पाते हैं और हाँ ..  मोबाइल से होने वाले बातचीत भी तो।

अब विश्व के विभिन्न प्रकार के आस्थावानों में से विश्व की कुल आबादी का लगभग 31-32% लोगों के देवदूत को ही गॉड (God) के रूप में विश्वास करने, 20-21% लोगों के पैगम्बर में विश्वास करने, 14-15% लोगों ( जो वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं शायद )  के क़ुदरत में विश्वास करने और 13-14% लोगों के द्वारा अवतारों और मिथक कथाओं पर या फिर शेषनाग नामक साँप के फन पर पृथ्वी के टिकी होने और विश्वकर्मा नामक भगवान विशेष द्वारा ब्रह्माण्ड के रचने जैसे चमत्कार में विश्वास करने से तो कुछ ज्यादा ही विश्वास किया ही जा सकता है वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित इन अंतरिक्ष यानों पर। यानि जब तक ये यान हैं, तब तक तो हमारे-आपके ये सारे वेव-पन्नों वाले ब्लॉग, फेसबुक जैसे सोशल मिडिया साँस ले ही सकते हैं ना ? है कि नहीं ?

इस तरह डायरी वाला ख़्याल आने से ही हम .. अपने जीवन के गुजरे पलों में मन को स्पर्श करने वाले सारे सकारात्मक या नकारात्मक पलों को भी बकबक करते हुए अपने मन के बोझ को यहाँ इस ब्लॉग के वेव-पन्नों पर उकेर कर या उड़ेल कर मन को हल्का करने का कुछ दिनों से प्रयास करते आ रहे हैं। 

ऐसे में आज बचपन की मेरी लिखी पहली कविता (?) और कुछ अन्य रचनाएँ  हाथ लगने पर यहाँ साझा करने का ख़्याल आते ही बचपन की कुछ यादें ताजा हो आयीं।

बचपन की बात हो तो बिहार की राजधानी पटना के बुद्धमार्ग पर बसे लोदीपुर मुहल्ले में स्थित बिहार फायर ब्रिगेड (दमकल ऑफिस) से कुछ ही दूरी पर अपने निवास स्थान से लगभग ढाई सौ मीटर की दूरी पर अवस्थित आकाशवाणी, पटना से 1972 से 1981 तक प्रत्येक रविवार को सुबह (अभी इस समय उन दिनों कार्यक्रम प्रसारित होने का समय ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा) बच्चों के लिए जीवंत प्रसारण  ( Live Broadcast) प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "बाल मण्डली" की याद आनी स्वाभाविक है।
साथ ही इसके संचालक द्वय- "दीदी" और "भईया" की वो कानों में रस घोलती गुनगुनी और खनकती आवाज़ और स्टूडियो की वो जलती-बुझती लाल बत्ती की याद भी अनायास आनी लाज़िमी है।
इतने दिनों बाद क्या .. अगर सच कहूँ तो उस वक्त भी .. 1975 में अपने नौ साल की उम्र में भी उन दीदी और भईया का मूल नाम मुझे नहीं मालूम था। बस दीदी और भईया ही मालूम था आज तक।
                                                 
                                    परन्तु आज ये संस्मरण लिखते हुए मन में एक उत्सुकता हुई नाम जानने की तो .. गूगल पर बहुत खोजा। गूगल पर कार्यक्रम के बारे में तो कुछ विशेष नहीं पर .. दीदी के कभी सदस्य, बिहार विधान परिषद रहने के कारण उनके नाम- श्रीमती किरण घई सिन्हा का पता चल पाया और उनके मोबाइल नम्बर का भी। उन के नम्बर मिलने पर खुद को रोक नहीं पाया और हिचकते हुए उनको फोन लगाया .. भईया का नाम जानने के लिए, क्यों कि उनका पता नहीं चल पा रहा था। खैर .. उनकी प्रतिक्रियास्वरूप बातचीत मेरी हिचक के विपरीत .. सामान्य से उत्साहित होती प्रतीत हुई। उनको भी अपने आपसी औपचारिक वार्तालाप के दौरान जब याद दिलाया ...  रेडियो स्टेशन के स्टूडियो में उस दौर के हम बच्चों का माईक के पास स्टूडियो के एक कमरे में जलती-बुझती हुई सूचक लाल बत्ती, जिसे ऑन-एयर लाइट (On-Air Light) कहते हैं, के इशारों के बीच उन दोनों को घेर के पालथी मार कर सावधानीपूर्वक बैठना और कार्यक्रम के तहत किसी देशभक्ति या बच्चों वाले गीत के बजते रहने तक स्टूडियो के उस कमरे की लाल बत्ती बुझते ही अपनी-अपनी रचना के पन्ने को अपने-अपने हाथ में लेकर भईया-दीदी को पहले दिखाने की होड़ में हमारा शोरगुल करना ... तो फोन के उस तरफ उनके  मुस्कुराने का एहसास हुआ। उनसे बालमंडली के भईया का नाम- श्री (स्व.) के. सी. गौर पता चला। उनसे ये भी पता चला कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा था उन्हें इस वक्त, तो उन्होंने शायद लगाते हुए कृष्ण चन्द्र बतलाया और आश्वासन भी दीं कि आकाशवाणी, पटना से किसी परिचित से मालूम कर के बतलाऊँगी सही-सही नाम। वैसे गूगल पर आकाशवाणी,पटना का एक सम्पर्क-संख्या उपलब्ध मिला भी तो उस पर घंटी बजती रही, पर उस तरफ से कोई प्रतिक्रिया मुझे नहीं मिली।

खैर .. उसी "बाल मण्डली" कार्यक्रम में पढ़ने के लिए अपने जीवन की ये पहली कविता (?), जो संभवतः 1975 में पाँचवीं कक्षा के समय लगभग नौ वर्ष की आयु में लिखी थी; जिसे पढ़ कर अब हँसी आती है और शुद्ध तुकबन्दी लगती है। यही है वो बचपन वाली तुकबन्दी, बस यूँ ही ...  :-

जय  जवान  और जय  किसान
जय  जवान  और जय  किसान,
भारत     के      दो     नौजवान।
जय   जवान  करे   दुश्मन   दूर,
जय किसान करे फसल भरपूर।

हम  सब  का भारत देश चमन,
जहाँ कमल,मोर जैसे कई  रत्न।
हम    नहीं   डरेंगे   तूफ़ान   से,
हम   सदा   लड़ेंगे   शान    से।

सदा   ही  दुश्मन  दूर  भगायेंगे,
सदा  आगे   ही   बढ़ते  जायेंगे।
खेतों में फसल खूब उपजाएंगे,
हम  सब  भारत नया  बसाएंगे।

आओ!    याद   करें    क़ुर्बानी,
वीर कुँवर सिंह, झाँसी की रानी।
क्या   शान  उन्होंने   थी  पायी,
हो शहीद आज़ादी हमें दिलायी।

आओ हम मिल हो जाएं क़ुर्बान,
रखें  बचा  कर वतन  की  शान।
जय  जवान  और जय  किसान,
भारत     के      दो     नौजवान।





Tuesday, June 9, 2020

तनिक चीखो ना ! ...

ऐ आम औरतों ! .. एक अलग वर्ग-विशेष की ..
फ़ुर्सत के पलों में बैठ कर, अक़्सर तुम औरतों के गोल में हो बतियाती
और .. ऐ संभ्रांत महिलाओं ! .. कुछ ख़ास वर्ग-विशेष की ..
समय निकाल कर कविताओं या कहानियों के भूगोल में हो छेड़ती,
मन मसोसती .. बातें बारहा आर्थिक ग़ुलामी की अपनी ..
या बातें बचपन से लगाई गई या .. ताउम्र लगाई जाने वाली
पुरुषों की तुलना में तुम पर कुछ ज्यादा ही पाबंदियों की भी।
पर .. करती क्यों नहीं बातें खुल के कभी शारीरिक ग़ुलामी की
और बातें अपनी मानसिक ग़ुलामी की भी ? ..
आ-खि-र क्यों न-हीं ? ...
इसलिए कि .. लोगबाग बोलेंगे शायद .. इसे बात गन्दी ?
या फिर उठेंगे अनगिनत सवालात गरिमा पर ही तुम्हारी ?

भारत है ये ..  और हैं भारत के एक स्वतन्त्र नागरिक हम सभी
भारत के संविधान ने दे रखी है हमें बोलने की आज़ादी।
तो बोलती क्यों नही तुम कि .. तुम जीती हो ताउम्र बनकर हिस्सा भर,
सेक्स-सर्वेक्षण के आंकड़े का किसी राष्ट्रीय पत्रिका की, कि ..
"चरम-सुख को 60 से 70% भारतीय महिलायें जानती ही नहीं ? "
जबकि पहली रात से ही .. हर रात .. दिन भर की थकी-हारी,
बिस्तर पर हो झेलती और होती जाती हो आदी-सी
किसी भी तम्बाकू की दुर्गन्ध की ..  मुँह से उनके जो है आती ..
चाहे वो सिगरेट की हो या फिर खैनी की,
या फिर अल्कोहल की दुर्गन्ध .. हो चाहे देशी की या हो विदेशी की।
कहीं-कहीं तो वर्गानुसार केंदू के पत्ते से बनी बीड़ियों की भी
या फिर मौसमानुसार बजबजाती किण्वित नीरा रस* की।

भले ही की गई हो नाकाम कोशिश उनकी कभी-कभी,
किसी रात झाग वाले या किसी नमक वाले 'टूथपेस्ट' से या फिर
कभी 'मिंट' की गोलियों या 'च्युइंगम' से उन दुर्गन्धों को दबाने की।
फिर भी वो गंधाती है .. बदतर किसी पायरिया वाले दाँतों से भी।
इतना ही नहीं .. फिर उस सुहाग के स्खलनोपरांत,
रह जाती हो जागती .. अलसायी आँखों से निहारती,
खर्राटे भरते उनके खुलते-बंद होते मुँह को .. रात सारी की सारी
चिपकायी हुई मन में एक आस .. कसमसाते चरम-सुख की।

जिन सुहाग के नाम पर .. या धर्म के नाम पर तुम ..
अक़्सर उपवास हो करती .. भूख और प्यास हो त्यागती,
प्रतीक मानसिक ग़ुलामी का .. हो रोज माँग में टहटह चमकाती।
फिर भी जब .. उन पर कोई फ़र्क पड़ता ही नहीं,
भले ही हो इन नशाओं के बोतलों और पैकटों पर
मोटे-मोटे अक्षरों में लाख चिपकायी या लिखी,
कोई भी .. कैसी भी .. संवैधानिक चेतावनी।
तो भला ऐसे में अंतर क्या पड़ना है तुम पर भी,
बोलने वाली आज़ादी की .. भारतीय संविधान वाली।

सुन रखा है तुमने भी शायद बचपन से ही पुरखों की कही हुई, कि ...
"विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिये,
 जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये।"
या ... जिन्दा हो मौन ये मान कर कि ..
"विधि -विधान किसी के मिटाए मिटता नहीं " ही है तुम्हारी नियति।
इन सब से इतर प्रताड़ित जीवन, आज भी कहीं-कहीं डायनों की ..
और ठिकाना गणिकाओं की, है बस्ती से दूर आज भी बसी  ..
कैसे मान लें हम फिर भी कि .. हमने चाँद तक की है यात्रा की,
और मंगल पर भी जाने में है कामयाबी हासिल कर ली।
कुछ बोलो ना! .. मुँह खोलो ना ! .. ओ री बावरी ! ...
खुद को देखो ना ! .. तनिक चीखो ना ! .. अब तो जाग री ! ...
तोड़ कर चुप्पी अपनी .. कु-छ भी क्यों न-हीं हो बो-ल-ती ?

( * - किण्वित नीरा रस - Fermented Toddy Palm Juice - Palm Wine - ताड़ी .)