(१)
निगाहें ठहरी हुईं ...
है किसी रेत-घड़ी-सी
.. बस यूँ ही ...
ज़िन्दगी हम सब की,
.. शायद ...
दो काँच के कक्षें जिसकी,
हो मानो जीवन-मृत्यु जैसे,
जुड़े संकीर्ण गर्दन से, एक साँस की।
टिकी हो नज़रें जो गर हमारी
ऊपरी कक्ष पर तो हर पल ही ..
कुछ खोती-सी है ज़िन्दगी
और .. निचली कक्ष पर हों
निगाहें ठहरी हुईं जो अपनी
तो .. हर क्षण कुछ पाती-सी
है ये .. हमारी ज़िन्दगी।
हमारी नज़रों, निग़ाहों,
नज़रियों, नीयतों के
कण-कण से ही हर क्षण
तय हो रही है ये ..
हर पल सरकती-सी,
कुछ-कुछ भुरभुरी-सी ..
पिंडी हमारी ज़िन्दगी की .. बस यूँ ही ...
(२)
ससुरी ज़िन्दगी का ...
आ ही जाता है हर बार,
हर पल तो .. बस यूँ ही ...
एक लज़ीज़ स्वाद ..
ससुरी ज़िन्दगी का।
हो अगर जो बीच में
बचा एक कतरा भी
आपसी विश्वास का।
हाँ .. एक विश्वास .. हो जैसे ..
बीच हमारे ठहरा हुआ,
ठीक ... 'टोस्टों' के बीच
पिघलते "अमूल" मक्खन की,
वर्षों से कायम,
गुणवत्ता-सा .. शायद ...
(३)
पल में पड़ाव ...
खोती ही तो
जा रही है,
पल-पल,
पलों में ज़िन्दगी।
ना जाने पल भर में,
किस पल में ..
ज़िन्दगी के सफ़र के
किस पड़ाव पर
ठहर सी जाए ज़िन्दगी।
कोई अंजाना पड़ाव,
या एक अंजाना ठहराव ही
कब मंजिल बन जाए।
यूँ .. ना जाने कब, किस
पल में ये पड़ाव आ जाए ?
और .. इस सफ़र का मुसाफ़िर
बस .. .. .. वहीं ठहर-सा जाए .. बस यूँ ही ...