प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१६) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (१७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ... :-
गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-
इन्हीं बातों को सुनकर मन्टू को अंजलि के घर के कचरों से जासूसी करने वाली 'आईडिया' आयी थी। इसी से उसे अंजलि की कई अनबोले बातों की जानकारी होती रहती है। इंसान को जिसमें भी दिलचस्पी होती है, वह उसके बारे में जितना भी जान ले .. उसे कम ही महसूस होता है। अब मन्टू क्या-क्या जानता रहता है अंजलि के बारे में .. ये सब तो हमलोगों को भी जानना ही चाहिए .. शायद ...
गतांक के आगे :-
स्वच्छ भारत अभियान के तहत या उससे पहले से भी स्वच्छता पसंद कोई भी प्राणी अपनी दिनचर्या के दौरान उत्पन्न कचरों का यथोचित निष्पादन करके स्वयं के एक जिम्मेवार नागरिक होने का परिचय सदैव देता रहा है। परन्तु हम अपने घरों के अनुपयोगी कचरों को यथोचित स्थान पर डाल कर उसे प्रायः भूल ही जाते हैं। यूँ तो हमारा ऐसा करना स्वाभाविक भी है और .. उचित भी है ही .. शायद ...
परन्तु इस प्रक्रिया में हम जाने-अंजाने अपनी दिनचर्या की कई सारी निजी बातें सार्वजनिक करने से भी नहीं चूकते हैं। मसलन - कचरे में शामिल हमारे द्वारा खाए गए फलों और सब्जियों के अनुपयोगी छिलके या लहसुन-प्याज के छिलके, 'ब्रेड' के 'रैपर', 'कोल्ड ड्रिंक' के खाली 'कैन' या बोतल, 'केचप'-'सॅस' की खाली बोतलें या 'पाउच', 'चॉकलेट'-'टॉफ़ी' के 'रैपर', विभिन्न प्रकार के 'ब्रांडेड' मसालों के खाली 'पाउच' या 'पैकेट्स' के 'ब्रांड' या 'साइज़' इत्यादि हमारे खानपान के बारे में बहुत कुछ बोल देते हैं। इनके अलावा कचरे में माँसाहारी परिवार के घरों से डाले गए शेष बचे अंडे के छिलके, मछलियों के काँटे या माँस की बड़ी या छोटी आकार की हड्डियाँ हमारे माँसाहारी होने की चुग़ली तो करती ही हैं और .. बड़ी या छोटी हड्डियाँ क्रमशः "बड़का" (बीफ /Beef) या "छोटका" (मटन/Mutton) के मुर्दे-माँस को खाने वालों की श्रेणी में हमें स्वतः बाँट देती हैं। इसी प्रकार हमारे 'अंडरगारमेंट्स' या अन्य नए खरीदे गए परिधानों के अनुपयोगी डब्बे हमारी रूचि के साथ-साथ हमारे जीवन स्तर और ... हमारे 'अंडरगारमेंट्स' के माप की भी जानकारी आम करते हैं .. शायद ...
इन सब के अलावा हमारे द्वारा कचरे में फेंकी गयी 'टॉनिक' की खाली शीशी, 'टैबलेट' के खाली 'रैपर', 'इन्सुलिन' की खाली 'पैकिंग', 'सिरिंज', 'नीडल', 'बैंडेज' इत्यादि हमारे द्वारा या हमारे परिवार में किसी भी सदस्य के द्वारा भी सेवन की गयी दवाईयों और उनसे सम्बंधित हमारी विभिन्न बीमारियों की पोल खोल देती हैं। दूसरी तरफ ... घर से निकले कचरों में पड़े सिगरेट के शेष बचे 'फिल्टर'युक्त टुकड़े, शराब की छोटी शीशी या बड़ी बोतलें, चखना के तौर पर 'चिप्स' या 'मिक्सचर्स' के 'रैपर्स' .. धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही के हमारे आदी होने की ओर इंगित करते हैं .. शायद ...
अक़्सर दूरदर्शन पर विभिन्न समाचार 'चैनलों' द्वारा हम दर्शकों को किसी भी घटना से सम्बन्धित विचलित करने वाले दृश्यों या दृश्य के कुछ हिस्सों को 'ब्लर' (धुँधला) कर दिया जाता है। यथासम्भव यह क़ानून की हद का भी ध्यान रखते हुए किया जाता है। परन्तु शब्दों के माध्यम से कुछ भी कहने (लिखने) के क्रम में 'ब्लर' करने जैसी कोई तकनीक अभी तक नहीं बन पायी है और अगर होगी भी तो मुझे ज्ञात नहीं है। अब ऐसे में अगर कथ्य के संदर्भ में शर्म, लज्जा, संकोच, झिझक या हिचकिचाहट की जाए तो तथ्य के साथ न्याय नहीं हो पाता .. शायद ... अब तथ्य या कथ्य ? .. दोनों में से एक के चुनाव के लिए हम जैसे अनुभवहीन और अतुकांतों की बतकही करने वालों के लिए तो तथ्य ही महत्वपूर्ण है .. शायद ...
तथ्यों को उजागर करने के लिए हो सकता है कई सारे आपत्तिजनक शब्दों या शब्द-चित्रों को भी इस्मत आपा जी (इस्मत चुग़ताई) या मंटो जी (सआदत हसन मंटो) की तरह (?) लिखनी पड़ जाए या यूँ कहें कि लिखना पड़ रहा है, तो .. मेरी बतकही पर अपनी सरसरी नज़र दौड़ाने वाले या वाली आप सभी सभ्य-सुसंस्कृत लोगों से .. अग्रिम क्षमाप्रार्थी ...
हाँ .. तो .. प्रसंगवश उपरोक्त क्षमा याचना के पश्चात कचरे के कुछ और भी गुणगान-बखान कर ही लेते हैं। मसलन .. सर्वप्रथम तो कचरे में पड़े अगर रक्तसिक्त कपड़े के टुकड़े हों, तो यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है, कि घर के किसी सदस्य के किसी अंग के कटने से बहे हुए ये रक्त हैं या किसी सदस्या के रजस्वला होने के कारण बहे रक्त से सने कपड़े का टुकड़ा है। पर हाँ .. अगर कचरे में व्यवहार किए गए रक्तसिक्त 'सैनिटरी नैपकिन' यानी 'पैड्स'हो या 'टैम्पोन' या फिर 'मेन्सट्रुअल कप' हो, तो यकीनन उन कचरों को बाहर फेंकने वाले घर में किसी के रजस्वला होने की ओर इंगित करता है। साथ ही इन सारे विभिन्न साधनों से उस परिवार विशेष की जीवन शैली और जीवन स्तर का भी पता चलता है .. शायद ...
कभी-कभी किसी तो यूँ .. घर-परिवार विशेष के फेंके गए कचरे में पड़ी 'प्रेगनेंसी टेस्ट किट' और 'किट' पर रंगहीन या गुलाबी-नीली रेखाएँ भी बहुत कुछ कह जाती हैं और कई दफ़ा तो इस्तेमाल किए गए वीर्य से लथपथ 'कंडोम' और साथ में उसके 'रैपर' बीती रात की निजी घटना को सार्वजनिक कर जाते हैं .. और 'रैपर' के 'ब्रांड' से उस युगल जोड़ी की पसंद या उनके जीवन स्तर की जानकारी सार्वजनिक हो जाती है .. शायद ...
अपनी-अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार हालांकि हम अपने अत्यंत निजी प्रसंग से जुड़े कूड़े को पुराने अख़बार के पन्ने या घर के बेकार ठोंगे या 'पॉलीथीन बैग' में लपेट कर उन मामलों को सार्वजनिक होने से बचाने का भरसक प्रयास करते तो हैं ही, पर .. मंडला (मध्य प्रदेश) के एक शिक्षक- श्याम बैरागी जी की रची और गायी हुई पंक्तियाँ .. "गाड़ी वाला आया, घर से कचरा निकाल" ... बजाते हुए आने वाली नगर-निगम की गाड़ी पर सवार निगमकर्मी जब अपनी 'ड्यूटी' निभाते हुए "सूखा कूड़ा" और "गीला कूड़ा" अलग-अलग करने के क्रम में हमारे कूड़ेदान को पलट कर सारे कचरों को अपने पैरों से बिखेर कर अलग-अलग करते हैं या हमारे फेंके गए बेकार कचरों में से अपने जीवन आधार को बीनने वाले नाबालिग़ बच्चों द्वारा उसे कुरेदे जाते हैं या फिर ज़ंजीर से जकड़े पालतू विदेशी नस्ल के किसी कुत्ते-कुतिया की तरह खाने-पीने व रहने की उचित व व्यवस्थित व्यवस्था नहीं होने के कारण अपनी जठराग्नि को बुझाने की कुछ भी सामग्री मिल जाने की आस लिए गली-मुहल्ले के स्वतन्त्र कुत्ते-कुतिया द्वारा उन कचरों को उलट-पलट कर बिखेरे जाते हैं, तो हमारे द्वारा की गयी अत्यन्त निजी क्रिया-कलापों से उत्पन्न कचरों को ढँक-तोप कर छुपाने की हमारी बुद्धिमत्ता तो धरी की धरी ही रह जाती है .. शायद ...
और हाँ .. यही सारी बातें कचरे के साथ-साथ कबाड़ के साथ भी लागू होती हैं। हमारे घर से छाँट कर कबाड़ी को बेचे गये कबाड़ से भी हमारे जीवन स्तर का पता चलता है।कभी-कभी तो अचरज भी होता है .. जब कभी मुहल्ले भर की नज़रों में किसी व्यक्ति विशेष की छवि निहायत शरीफ़ और चरित्रवान इंसान की बनी हो और कबाड़ी वाला उसके घर से अक़्सर शराब की बोतलें गिन कर या तौल कर ले जाता हो या प्रतिदिन सुबह-सुबह जोर-जोर से शंख बजाने और मन्त्रोच्चार करने की वजह से किसी सभ्य समाज द्वारा किसी सभ्य माने जाने वाले व्यक्ति के घर से रद्दी वाले प्रायः पुराने अख़बारों के बीच फ़ुटपाथी अश्लील (?) किताबें भी लेकर निकलते हों .. जिनका प्रचलन आजकल 'यूट्यूब' जैसी सुविधा-साधन पर अनगिनत 'पोर्न साइट्स' उपलब्ध होने के कारण कम-सा हो गया है .. शायद ...
ख़ैर ! .. ये सब तो चलता ही रहेगा .. लोग दिन के उजाले में चालीसा भी चिल्लाएंगे और रात के अँधियारे में 'पोर्न साइट्स' भी देखने से नहीं चूकेंगे .. दोहरी मानसिकता .. दोहरे चरित्र .. सदियों से होते रहे हैं .. होते ही रहेंगे .. बस यूँ ही ...
इतनी विस्तृत अनर्गल बतकही वाली भूमिका के बाद लौटते हैं हम .. हमारे धारावाहिक के जीवंत पात्रों की ओर .. तो .. मन्टू अभी-अभी प्रतिदिन सुबह-सुबह स्कूल जाते समय अंजलि द्वारा फेंकी गयी घर के कूड़ों से भरी थैली के 'पोस्टमार्टम' के लिए मुहल्ले भर की दुलारी गली की काली कुतिया- बसन्तिया को पुचकार कर, फिर ना मानने पर पत्थर से मार कर भी रोज की तरह सामान्य रूप से उसकी बात मान लेने वाली बसन्तिया को ना मानने पर .. सब की नज़र बचा कर पहले अपने दाएँ पैर से और फिर .. अपने हाथों से उस थैली के कचरों को बिखेर कर अंजलि की दिनचर्या का 'पोस्टमार्टम' करने लगा है। इसी से उसे हर माह पता चलता रहता है, कि अंजलि के "मुश्किल से भरे वो चार दिन" कब शुरू होते हैं और कब ख़त्म .. जिसके बाद उसके 'शैम्पू' किए .. अपने खुले बालों में उसके दर्शन हो जाने से वह मन ही मन .. बहुत ही खुश होता रहता है। पर ये क्या .. अभी तो उसकी आँखें फ़टी की फ़टी रह गयीं है .. चेहरे पर एक तनाव की गहरी रेखा अचानक खींच गयी है। आख़िर ऐसा क्या दिख गया भला उसे अंजलि के घर से निकले आज के कचरे में ... ?
【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को .. "पुंश्चली .. (१८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】