कल सुबह रविवार के दिन (10.05.2020) 'लॉकडाउन-3.0' में बाज़ार को मिली आंशिक छूट और 'सोशल डिस्टेंसिंग' का पालन करता हुआ अपनी धर्मपत्नी के साथ 'मोर्निंग वॉक' के साथ-साथ फल-सब्जी की मंडी की ओर रूख़ किया तो लुप्तप्रायः मौसमी फल फ़ालसा पर नज़र पड़ी। तब मन चहक गया उसके आभासी स्वाद को महसूस कर के। कीमत पूछने पर मालूम हुआ - 70 रुपए का सौ ग्राम - मतलब 700 रुपए किलो। बस स्वाद बाहर चखने के ख़्याल से 50 ग्राम लेने की ही हिम्मत जुटा पाया।
फिर उसी उच्च विद्यालय में अर्थशास्त्र विषय के अन्तर्गत पढ़ाई गई "माँग और पूर्ति" के 'मिलान बिन्दु' पर किसी वस्तु की कीमत तय होने वाले सिद्धान्त की याद आ गई।
चूँकि मैं जहाँ वर्त्तमान में अस्थायी रूप में रहता हूँ - पटना साहिब - बिहार राज्य की राजधानी पटना का पूर्वी और प्राचीन भाग है। पुराने शहर के नाते कहीं-कहीं इसका लुप्तप्राय पेड़ उपलब्ध होने के कारण यह फल - फ़ालसा अपने मौसम में मिल जा रहा है। याद है कि बचपन में यह फल इसी पटना शहर में इसी मौसम में बहुतायत मात्रा में मिल जाया करता था। भारत के अन्य भाग का तो नहीं पता, पर हमारे बिहार में यह कम नज़र आने लगा है।
गूगल , वीकिपीडिया या सामान्य विज्ञान में उपलब्ध जानकारी के अनुसार - फालसा दक्षिणी एशिया में भारत, पाकिस्तान से कम्बोडिया तक के क्षेत्र मूल का फल है। इसकी पैदावार अन्य उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में भी खूब की जाती रही है।
इसकी झाड़ी 8 मीटर तक की हो सकती है और पत्तियां चौड़ी गोलाकार और 5 से 18 सेंटीमीटर लम्बी होती हैं। इसके फ़ूल गुच्छों में होते हैं, जिनमें एक-एक पुष्प 2 सेंमी. व्यास का होता है और इसमें 12 मि.मी. की 5 पंखुड़ियाँ होती हैं। इसके फल 5 से 12 मि.मी. व्यास के गोलाकार फ़ालसई वर्ण के होते हैं, जो पकने पर लगभग काले हो जाते हैं।
कल खाते वक्त निम्नलिखित पंक्ति अचानक मन / दिमाग में कौंधी, जो हूबहू लिख रहा हूँ। इसका स्वाद लगभग खट्टा-मिट्ठा होता है। इसे जीभ और तालू के बीच दबा कर इमली की तरह चूसा जाता है और गुदा चूसने के बाद एक छोटा-सा अवशेष बचे बीज को "फूह" की आवाज के साथ फेंक दिया जाता है।
आपके किसी क्षेत्र में अगर बहुतायत में मिलता हो तो मेरी इस बतकही पर मुस्कुराइएगा नहीं या गुस्सा भी मत होइएगा।
फिर उसी उच्च विद्यालय में अर्थशास्त्र विषय के अन्तर्गत पढ़ाई गई "माँग और पूर्ति" के 'मिलान बिन्दु' पर किसी वस्तु की कीमत तय होने वाले सिद्धान्त की याद आ गई।
चूँकि मैं जहाँ वर्त्तमान में अस्थायी रूप में रहता हूँ - पटना साहिब - बिहार राज्य की राजधानी पटना का पूर्वी और प्राचीन भाग है। पुराने शहर के नाते कहीं-कहीं इसका लुप्तप्राय पेड़ उपलब्ध होने के कारण यह फल - फ़ालसा अपने मौसम में मिल जा रहा है। याद है कि बचपन में यह फल इसी पटना शहर में इसी मौसम में बहुतायत मात्रा में मिल जाया करता था। भारत के अन्य भाग का तो नहीं पता, पर हमारे बिहार में यह कम नज़र आने लगा है।
गूगल , वीकिपीडिया या सामान्य विज्ञान में उपलब्ध जानकारी के अनुसार - फालसा दक्षिणी एशिया में भारत, पाकिस्तान से कम्बोडिया तक के क्षेत्र मूल का फल है। इसकी पैदावार अन्य उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में भी खूब की जाती रही है।
इसकी झाड़ी 8 मीटर तक की हो सकती है और पत्तियां चौड़ी गोलाकार और 5 से 18 सेंटीमीटर लम्बी होती हैं। इसके फ़ूल गुच्छों में होते हैं, जिनमें एक-एक पुष्प 2 सेंमी. व्यास का होता है और इसमें 12 मि.मी. की 5 पंखुड़ियाँ होती हैं। इसके फल 5 से 12 मि.मी. व्यास के गोलाकार फ़ालसई वर्ण के होते हैं, जो पकने पर लगभग काले हो जाते हैं।
कल खाते वक्त निम्नलिखित पंक्ति अचानक मन / दिमाग में कौंधी, जो हूबहू लिख रहा हूँ। इसका स्वाद लगभग खट्टा-मिट्ठा होता है। इसे जीभ और तालू के बीच दबा कर इमली की तरह चूसा जाता है और गुदा चूसने के बाद एक छोटा-सा अवशेष बचे बीज को "फूह" की आवाज के साथ फेंक दिया जाता है।
आपके किसी क्षेत्र में अगर बहुतायत में मिलता हो तो मेरी इस बतकही पर मुस्कुराइएगा नहीं या गुस्सा भी मत होइएगा।
इसी आशा के साथ चंद पंक्तियों या शब्दों वाली मेरी रचना/विचार ....
मन के जीभ पर ...
जानाँ ! ...
साँझ-सवेरे
तू पास रहे
या ना रहे
फ़ालसा-से
छोटे-छोटे
खट्टे-मीठे
संग बीते
पलों के
स्वाद तैरते
हैं मन के
जीभ पे ...
साँझ-सवेरे
तू पास रहे
या ना रहे
फ़ालसा-से
छोटे-छोटे
खट्टे-मीठे
संग बीते
पलों के
स्वाद तैरते
हैं मन के
जीभ पे ...
साथ ही इस ताज़ी रचना के साथ-साथ एक और छोटी-सी पुरानी रचना/विचार भी ...
क्षणभंगुर अनाम रिश्ते
बाद लम्बी तपिश के
उपजी पहली बारिश से
मिट्टी की सोंधी ख़ुश्बू की तरह
उपजते हैं कुछ अनाम रिश्ते।
उपजी पहली बारिश से
मिट्टी की सोंधी ख़ुश्बू की तरह
उपजते हैं कुछ अनाम रिश्ते।
सर्दी की ठिठुरती हुई
शामों से सुबहों तक
फैली ओस की बूँदों की तरह
उभरते हैं कुछ अनाम रिश्ते।
शामों से सुबहों तक
फैली ओस की बूँदों की तरह
उभरते हैं कुछ अनाम रिश्ते।
अमावस की काली रातों में
रातों की अँधियारों में
मचलते जुगनूओं की तरह
चमकते हैं कुछ अनाम रिश्ते।
रातों की अँधियारों में
मचलते जुगनूओं की तरह
चमकते हैं कुछ अनाम रिश्ते।
पर क्षणभंगुर होकर भी
ना जाने क्यों
मन से अक़्सर ही
लिपट जाते हैं कुछ अनाम रिश्ते।
ना जाने क्यों
मन से अक़्सर ही
लिपट जाते हैं कुछ अनाम रिश्ते।