Thursday, February 1, 2024

पुंश्चली .. (३०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२९)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - " ऐसा ही होना चाहिए .. ऐसा ही होगा .. आप मन छोटा मत कीजिए मन्टू भैया .. हमको अंदर से होकर आने दीजिए .. जहाँ तक सम्भव होता है .. उनके बारे में अंदर से मालूम करके आते हैं .. तब तक सब्र से बैठिए आप .. "

गतांक के आगे :-

यह कह कर मन्टू को ढाढ़स बँधाती हुई रेशमा अभी अपनी टोली के साथ 'नर्सिंग होम' के अंदर जा रही है। मन्टू कुछ चिन्तित .. कुछ-कुछ उदास अपनी टोटो गाड़ी की 'ड्राइविंग सीट' पर बैठे-बैठे इन लोगों को अंदर जाते हुए देख रहा है। 'नर्सिंग होम' के अंदर से अभी-अभी निकली अंजलि के बारे में रेशमा और उसकी टोली कुछ ना कुछ मालूम कर के ही बाहर आएगी .. कुछ ऐसा ही भरोसा मन्टू के चेहरे से झलक रहा है। 

अब उनलोगों के अंदर जाते ही मन्टू अपनी टोटो गाड़ी को एक किनारे खड़ी करते हुए .. 'लॉक' करके तेजी के साथ लपक कर अंजलि के वापस जाने वाली दिशा में जा रहा है। पर .. पिछले 'गेट' के बाहर कुछ दूर तक जाने पर भी दूर-दूर तक अंजलि और अम्मू की झलक तक भी नहीं मिली है। कुछ देर इधर-उधर गौर से निहारने के बाद मन्टू नाउम्मीद होकर वापस अपनी टोटो गाड़ी में आ कर बैठ गया है।

अक़्सर अपने ग्राहक के लिए प्रतीक्षा करते वक्त टोटो गाड़ी में ही 'ऍफ़ एम्' चालू कर के या अपने 'मोबाइल' में 'यूट्यूब' चला कर अपने मनपसन्द गाने सुनने-देखने वाला मन्टू का अभी तो .. सब शान्त पड़ा है .. सिवाय उसके अशान्त व विचलित मन और तेज धड़कन के। अंजलि की उधेड़बुन में खोया हुआ मन्टू .. कुछ ही देर बाद .. अब रेशमा और उसकी टोली को बाहर निकलती हुई देख कर .. एक उम्मीद की किरण महसूस कर रहा है। हालांकि अभी भी रोज की तरह ही दूसरे 'नर्सिंग होम' जाने के लिए वो लोग इसकी टोटो की ओर ही आ रही हैं, पर .. अंजलि के यहाँ आने की वजह को जानने की उत्सुकता के कारण मन्टू अपनी 'ड्राइविंग सीट' से उठकर दस क़दम की दूरी को भी नापते हुए उनकी ओर बढ़ चला है।

मन्टू - " कुछ मालूम चला ? "...

मायूसी के साथ रेशमा ..

रेशमा - " नहीं भईया .. वो लोग केवल कल इस 'नर्सिंग होम' में जन्म लिए हुए बच्चों की ही जानकारी दिए .. जो अमूमन देते हैं .. बच्चे के अभिभावक का नाम और पता .. बस्स .. बाक़ी कुछ भी और बतलाने से एकदम से मना कर दिया .. 'स्टाफ' लोगों का कहना है कि चारों तरफ कैमरा लगा हुआ है .. अगर "ऊपर" के किसी को भी उनकी इन हरकतों पर शक़ .. "

मन्टू - " ख़ैर ! .. कोई बात नहीं .. अभी तो चलो .. मेरी गाड़ी में आप लोग अपनी अगली मंज़िल की ओर .."

रेशमा - " हाँ .. वो तो चलना ही है .. पर आपकी ये .. अंजलि भाभी वाली गुत्थी को सुलझाना भी तो हम सभी का ही काम है ना मन्टू भईया ? .."

मन्टू - " अच्छा-अच्छा ! .. वो सब तो होता ही रहेगा, पर .. अभी तो तुमलोगों का और हमारा भी तो काम-धंधे का वक्त है .. है ना ? .. इस विषय पर हमलोग आज रात में या कल सुबह बात करते हैं .. "

रेशमा - " हाँ .. ये सही कह रहे आप .."

मन्टू - " और .. ये सब बातें आज .. शनिचरी चाची को भी बतलाना पड़ेगा .. नहीं तो .. कहेंगी कि .. अरे मन्टुआ ! .. हमको इ (ये) सब पहिले काहे (क्यों) नहीं बतलाया था ? "

रेशमा - " हाँ .. ये भी सही .."

मन्टू - " अच्छा .. ये बोलो कि .. इस 'नर्सिंग होम' में कल कितने बच्चों का जन्म हुआ था ? .. मने .. आज के लिए कितने ग्राहकों का पता चला और उनका पता मिला ? .. जहाँ-जहाँ से आज नेग मिल पाएगा  " ..

रेशमा - " यहाँ से तो छः बच्चों के घर का पता मिला है .. बाकी और .. चार का भी अगर पता मिल गया "ममता नर्सिंग होम" से तो .. आज के लिए दस ही बहुत है .. क्यों मोना ? "

मोना से पूछने पर टोली की लगभग सभी का समवेत स्वर में - " हाँ-हाँ ! " की आवाज़ आयी है।

अंजलि प्रकरण के कारण कुछ पल पहले वाला बोझिल माहौल .. मन्टू द्वारा ही बात का विषय बदलने से .. अब पुनः सामान्य-सा हो चला है। 

वैसे भी तो .. किसी अन्य की क्या .. अपनी स्वयं की भी तो दुःख-परेशानी टिक ही कब पाती है भला ? .. ख़ुशी के साथ भी तो समान नियम ही लागू होता है। दुःख-परेशानी या ख़ुशी ही क्यों .. हम .. मतलब .. हमारा शरीर और हमारे शरीर की असंख्य कोशिकाएँ भी तो .. हर पल क्षयग्रस्त होकर अपना रूप बदलती रहती हैं।

दुःख-परेशानी (या ख़ुशी भी) भले ही अस्थायी या नश्वर हों .. कुछ लोग उसे अपने-आप में ही समाहित करके झेल लेते हैं .. या परिस्थितियों को सम्भालते हुए, स्वयं भी सम्भले रहते हैं .. चूँ तक नहीं करते हैं .. ठीक .. धैर्यशील इस मन्टू की तरह ..

पर .. कुछ लोग अपनी परेशानियों का महिमामंडन अपने आसपास के लोगों के समक्ष करके, उन लोगों से सहानुभूति बटोरने में आत्मसुख का अनुभव करते हैं .. आसपास के लोग बोलने (लिखने) का मतलब .. चाहे परिवार के लोग हों, मुहल्ले-पड़ोस के लोग हों, जान-पहचान वाले लोग हों या फिर 'सोशल मीडिया' पर जुड़े (?) आभासी लोग हों .. ऐसे सहानुभूति बटोरने वाले लोग अक़्सर .. विभिन्न 'सोशल मीडिया' पर अपने 'प्लास्टर' चढ़े अंगों की या अन्य घायल अंगों की तस्वीर का प्रदर्शन करके घड़ी-घड़ी 'कॉमेन्ट बॉक्स' निहारते हुए पाए जाते हैं। 

कुछ तो अपने साथ-साथ .. अपनी पत्नी या पति के साथ घटी दुर्घटना की तस्वीर डाल कर भी सहानुभूति को बटोरने में तनिक भी नहीं हिचकते .. कुछेक तो किसी मुशायरे में अपनी रचनाओं के लिए श्रोताओं से ताली की भीख माँगने वालों की तरह .. दुआ देने की दुहाई तक देते हुए दिख जाते हैं। कई तो अपने सगे-सम्बन्धी की अर्थी या चिता तक की भी तस्वीर 'सोशल मीडिया' पर चिपकाने से तनिक भी गुरेज़ नहीं कर पाते हैं।

इन्हें और इनकी हरक़तों को देख कर किसी सार्वजनिक स्थल .. मसलन - अपनी किसी भी यात्रा के दौरान किसी रेलगाड़ी के डब्बे में  या रेलगाड़ी के आने की प्रतीक्षा के दौरान किसी सशुल्क या निःशुल्क प्रतीक्षालय में या फिर 'प्लेटफॉर्म' पर .. अन्य सहयात्रियों द्वारा बगल में या आसपास बैठकर बिना 'इयरफोन' या 'हेडफोन' के तेज आवाज़ में भजन, फ़िल्मी गाने, फूहड़ 'कॉमेडी' वाले 'वीडियो' या फिर हदीस या गुरुवाणी देखने-सुनने वाले असभ्य बुद्धिजीवियों की बरबस यादें ताज़ी हो आती हैं .. शायद ...

रेशमा और उसकी टोली की सभी किन्नरों के मन्टू की टोटो गाड़ी में बैठते ही, मन्टू दूसरे 'नर्सिंग होम' की ओर तेजी से बढ़ चला है ...

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

बुलबुले ...


चंद बुलबुले

दिखते हैं अक़्सर,

पारदर्शी काँच के बने

'पेपरवेट' के भीतर।

सम्भालते पल-पल, हर पल,

जीवन के तलपट से भरे 

रोज़नामचा के पन्ने

वर्षों से पड़े मेज पर।

शाश्वत नहीं, नेह-से मेरे,

ना रोज़नामचा के पन्ने, 

ना ही बुलबुले 'पेपरवेट' के .. शायद ...


पर उतने भी नहीं नश्वर

जितने वो सारे बुलबुले,

जो अनगिनत थे तैरते 

कुछ पल के लिए हवा में

हमारे बचपन में

खेल-खेल में,

रीठे के पानी में

डूबो-डूबो कर

पपीते के सूखे पत्ते की 

डंडी से बनी

फोंफी को फूँकने से .. बस यूँ ही ...


वो असंख्य बुलबुले, 

ना शाश्वत, ना ही नश्वर, 

बस और बस होते थे 

और आज भी हैं होते,

वैसे ही के वैसे, पर

'पपरवेट' के 

बुलबुले से इतर,

क्षणभंगुर ..

वो सारे के सारे ..

हे प्रिये ! ...

तेरे नेह के जैसे .. शायद ...