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Wednesday, June 9, 2021

राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४). 【अन्तिम भाग】.

(१) "कलम आपकी, राजा आप का, अखबार आप का, लिखें, कौन रोक रहा है ?  जितना चाहे लिखें।" 

(२) "उन्हें मोहतरमा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह हमेशा स्त्री-पोशाक में ही रहती हैं। उन लोगों में भी नर-मादा जैसा, कुछ-कुछ भेद होता हो शायद।"

(३) "हम भी उस विज्ञापन के फंतासी या तिलिस्म में सम्मोहित होकर सनक जाते हैं- गोरा होने के लिए, ठंडा होने के लिए, सेहत बेहतर करने के लिए और अब तो 'इम्युनिटी पॉवर' (Immunity power) बढ़ाने के लिए भी।"

(४) "ठीक यही "तड़ीपार" की सजा देने वाली सामंती या मनुवादी मानसिकता, मुखौटों के साथ आज हमारे सोशल मीडिया के उपभोगकर्ता बुद्धिजीवियों के बीच भी अक़्सर पनपती दिखती है। नहीं क्या ?"

(५) "ये 'अनफ्रैंड' करना भी हमें "तड़ीपार" करने जैसा ही कुछ-कुछ लगता है .. शायद ..."

: - (आज के इसी "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४). 【अन्तिम भाग】."  के कुछ अंश ... ।).

ख़ैर ! .. बहुत हो गई फिल्मों और अंजान भाषाओं के शब्दों की बतकही .. अब "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४). 【अन्तिम भाग】." में बकैती कर लेते हैं, प्रसंगवश आये हुए शब्दों - "राजा आप का .." और "तड़ीपार" की।

इस से पहले बस .. केवल एक बार और ज़िक्र कर लेते हैं, हम सिनेमा के सम्मोहन, तिलिस्म, फंतासी (फैंटेसी) और सनक के असरों के विराट रूप वाले जाल या यूँ कहें, मायाजाल के बारे में। सुबह जागने पर किसी-किसी की चाय की तलब से लेकर लोगबाग के साबुन (या हैंड वाश भी) या दंतमंजन (या टूथ पेस्ट भी) तक की जरुरतों से लेकर रात में सोने के पहले पी जाने वाली किसी हेल्थ-ड्रिंक्स (Health Drinks) या फिर कंडोम जैसे उपयोग या उपभोग किए जाने वाले हरेक वस्तुओं के विज्ञापनों का जाल, हमारे आसपास सोते-जागते .. मोबाइल के पर्दे से लेकर, टीवी के पर्दे तक, दैनिक समाचार पत्र से लेकर चौक-चौराहों के बड़े-बड़े विज्ञापन-पट्ट (होर्डिंग/ Hoardings) तक भरे पड़े रहते हैं। ख़ासकर कुछ ख्यातिप्राप्त व्यक्ति (सेलिब्रेटी/Celebrity) को उस वस्तु विशेष को इस्तेमाल करते हुए दिखाया जाता है। भले ही वह विज्ञापन वाला पेय या खाद्य-पदार्थ, सौंदर्य-प्रसाधन वग़ैरह हमारे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो या विज्ञापन में दिखने वाला या वाली, वो 'सेलिब्रेटी' उनका कभी उपभोग भी ना करता/करती हों। परन्तु .. चूँकि उस विज्ञापन में अभिनय करने के लिए उन्हें लाखों रुपए मिलते हैं और वह इंसान धन के लिए, यानी अपने फ़ायदे के लिए, उस विज्ञापन देने वाली कम्पनी के साथ मिलकर हम लोगबाग को धोखा देने यानी ठगने के लिए आगे आ जाता है। हम भी उस विज्ञापन के फंतासी या तिलिस्म में सम्मोहित होकर सनक जाते हैं- गोरा होने के लिए, ठंडा होने के लिए, सेहत बेहतर करने के लिए और अब तो .. 'इम्युनिटी पॉवर' (Immunity power) बढ़ाने के लिए भी। ये सारी की सारी प्रक्रियाएं सिनेमा के उसी सम्मोहन, तिलिस्म, फंतासी (फैंटेसी) और सनक के असर जैसा ही हमारे ऊपर असर करता भी है। ख़ासकर .. बच्चों, युवाओं और महिलाओं पर। कई महिलाओं के तो कई सारे फैशन (Fashion) के पैमाने टीवी सीरियलों की नायिकाओं के फैशन के आधार पर ही तय होते हैं। बिलकुल दक्षिण भारतीय राजनीति में, वहाँ के सिनेमा-जगत के सम्मोहन भरे हस्तक्षेप के जैसा .. शायद ...

यूँ तो "तड़ीपार" जैसी सजा, सामंतवादी या मनुवादी सोच की उपज ही प्रतीत होती है। जो आज भी खाप पंचायत या गोत्र पंचायत के रूप में अनेक राज्यों में सिर उठाए खड़ी है। तथाकथित लोकतंत्र इन परिस्थितियों में एक लकवाग्रस्त रोगी से ज्यादा कुछ ख़ास नहीं जान पड़ता है। ठीक यही "तड़ीपार" की सजा देने वाली सामंती या मनुवादी मानसिकता, मुखौटों के साथ आज हमारे सोशल मीडिया के उपभोगकर्ता बुद्धिजीवियों के बीच भी अक़्सर पनपतती दिखती है। नहीं क्या ? कभी-कभार .. किसी के अपने फेसबुक (Facebook) की मित्रता सूची (Friend List) से किसी को, किसी बात पर, हटाना (Unfriend करना) एक आम बात है। चाहे वह बात या इंसान उचित हो या अनुचित। बस .. हटाने वाले के मन-मुताबिक़ किन्हीं बातों का नहीं होना ही काफ़ी होता है। ये 'अनफ्रैंड' करना भी हमें "तड़ीपार" करने जैसा ही कुछ-कुछ लगता है .. शायद ...

मेरे साथ ही घटित कई घटनाओं में से तीन घटनाएँ अभी भी याद हैं। वैसे घटनाओं की ज़िक्र करने के समय उन तीनों का नाम लेकर, गोपनीयता के नियम का उल्लंघन करना उचित नहीं रहेगा। तो.. बिना नाम लिए हुए ही ...

पहली घटना :-

यह किसी पुरुष या महिला के साथ घटित ना होकर, किसी किन्नर मोहतरमा के साथ घटी घटना है। उन्हें मोहतरमा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह हमेशा स्त्री-पोशाक में ही रहती हैं। उन लोगों में भी नर-मादा जैसा, कुछ-कुछ भेद होता हो शायद। ख़ैर ! .. आपको ये भी स्पष्ट कर दें कि वह कोई आम किन्नर नहीं हैं, बल्कि बिहार की राजधानी, पटना में वह काफ़ी विख्यात हैं। कुछ महकमें में उनका बड़ा नाम है। कई-कई कवि सम्मेलनों, मुशायरों में, सामाजिक संस्थानों द्वारा आयोजित समारोहों में, राजनीतिक गलियारों में आयोजकगण उन्हें अपने मंच पर सम्मानित कर के खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। गत वर्ष के लॉकडाउन की शुरुआत होने के कुछ पहले तक, कई मंचों पर या चित्र-प्रदर्शनियों में भी उन से यदाकदा मुलाकातें और कई विषयों पर बातें भी हुईं हैं, विचार-विमर्श या बहस के रूप में।

ठीक-ठीक .. अक्षरशः याद तो नहीं, पर संक्षेप में इतना याद है कि एक बार अपने फेसबुक पर उन्होंने जातिगत आरक्षण के लिए, वर्तमान से और भी ज्यादा प्रतिशत को बढ़ाने के पक्ष में कुछ पोस्ट (Post) किया था। साथ ही, वर्तमान में बिहार की सत्ता से बाहर एक राजनीतिक दल के नाम के क़सीदे भी पढ़ी/लिखी थीं उस पोस्ट में। उसी राजनीतिक दल की तारीफ़ की गई थी, जिस के शासन-काल में काल ही काल घिरा हुआ था। अपहरण, ट्रेन-डकैती, राहजनी, डकैती, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसे कई अपराध "छुट्टा" (खुला) साँढ़ की तरह चारों ओर मुँह मारने के लिए आज़ाद थे। उनकी मित्रता-सूची में होने के कारण मेरी नज़र से जब वह पोस्ट गुजरी तो आरक्षण के पक्ष वाली बात आदतन मुझे नागवार गुजरी। मैंने प्रतिक्रियास्वरुप उचित तर्क के साथ जातिगत आरक्षण के विरोध में अपनी कुछ बातें रखी। इस तरह एक-दो घन्टे के अंदर ही, 'न्यूटन के तीसरे नियम' के अनुसार दो-तीन बार क्रिया-प्रतिक्रियाएँ हुई। शायद, छुट्टी का दिन रहा होगा, तभी मैं भी त्वरित प्रतिक्रिया कर रहा था।

हमारी चल रही विषय विशेष की स्वस्थ बातें, तर्क-वितर्क और विचार-विमर्श अचानक उनकी ओर से उग्र हो गया। अंततः शर्मनाक बातें उनकी ओर से वेब पन्ने पर छपने लगीं। बहस की बेशर्मी वाले पहलू की पराकाष्ठा तो तब हो गयी, जब गुस्से में उन्होंने आरक्षण के समर्थन में "हमारी (उनके अनुसार तथाकथित सवर्णों की) माँ-बहनों को तथाकथित दलितों और आरक्षण-प्राप्त अन्य जातियों के पुरुषों के साथ बिस्तर पर सोने की छूट मिलने जैसी बातें लिख डाली।" हम तो हतप्रभ हो गए। वैसे तो उनकी इस तरह की कुछ अभद्र कही/लिखी बातें, मेरे लिए ज्यादा आश्चर्यजनक बातें नहीं थी। क्योंकि तब मुझे पुरखों की कही गयी, बहुत पते की एक पुरानी बात मेरे दिमाग में अचानक कौंध कर मेरे मन को शांत कर गयी; कि "बहुत गुस्से में या बहुत ही ख़ुशी में इंसान अपनी मातृभाषा का ही उपयोग कर जाता है। उस समय उनकी स्व-भाषा के साथ-साथ उनकी मानसिकता के अंतस का भी पता चल पाता है।" ऐसा ही उस विख्यात किन्नर मोहतरमा ने दिखलाया भी। पर उस वक्त तो तत्क्षण फेसबुक को देखना उचित नहीं समझते हुए, देखना बन्द कर दिया।

पर जब उसी दिन शाम तक दुबारा फेसबुक पर झाँका, तो पाया कि उनकी तरफ से हम 'अनफ्रैंड' यानी तड़ीपार किए जा चुके हैं। अफ़सोस इस बात की रही, कि हम वेब पन्ने के उस अपशब्द वाले हिस्से का स्क्रीन शॉट (Screen shot) नहीं ले पाए थे, जिसे उन किन्नर मोहतरमा की कलुषिता को प्रमाण के तौर पर, उस दिन या आज भी दिखलाने पर, उनको आदर देने वाले सभी पटना के बुद्धिजीवियों की आँखें फटी की फटी रह जाती .. शायद ...

दूसरी घटना :-

यह घटना भी एक मोहतरमा से ही जुड़ी हुई है, पर वह किन्नर नहीं हैं। सचमुच में महिला ही हैं और ऐसी-वैसी नहीं, बल्कि पटना शहर में सोशल मीडिया की एक जानी मानी आरजे (RJ -Radio Jockey) रह चुकी हैं या हैं। कई मंचों पर उन के साथ में शरीक़ होने का मौका भी मिला है। लगभग दो-ढाई साल पहले, एक बार उन्होंने कॉपी-पेस्ट (Copy & Paste) कर के दो पंक्तियाँ अपने फेसबुक पर कुछ यूँ चिपका दिया था, कि -"अक़्सर हम साथ साथ टहलते हैं ! / तुम मेरे ज़ेहन में और मैं छत पर !! " हूबहू दो पंक्तियाँ कुछ दिन पहले मेरी नज़रों से किसी एक के इंस्टाग्राम (Instagram) पर गुजरी थी। हमें लगा कि इनमें से कोई एक तो है, जो नक़ल कर रहा/रही है। हमने फेसबुक पर ही 'पब्लिकली' (Publicly) अपनी बतकही वाले मजाहिया अंदाज़ में कुछ यूँ बकबका दिया कि - "एक ही रचना की दो दावेदारी, एक FB पर, दूसरा इंस्टाग्राम पर, बहुत बेइंसाफी है ('शोले' वाले dialogue की पैरोडी के तर्ज़ पर .. आदमी दो और गोली तीन, बहुत बेइंसाफी है रे कालिया) ... वैसे copy & paste का जमाना है भाई 😪😪 "। (वैसे तो शोले फ़िल्म का संवाद था- "गोली छः .. और आदमी तीन .. बहुत बेइंसाफी है रे ...")

यह बात उन मोहतरमा को इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने कुछ दिनों बाद मुझे अपनी मित्रता-सूची से तड़ीपार कर दिया। फिर बाद में इन दो पंक्तियों के सही लेखक/लेखिका को खोजने की हमने कोशिश गूगल पर की तो पता चला कि ये दोनों पंक्तियाँ सोशल मीडिया के तमाम मंचों- फेसबुक, इंस्टाग्राम, यौरकोट, यूट्यूब इत्यादि पर हज़ारों लोगों ने अपने-अपने नाम से कॉपी-पेस्ट कर रखा है। पर इसके मूल रचनाकार का पता नहीं चल पाया। अगर आपको मालूम हो तो बतलाने का कष्ट कीजियेगा। धन्य हैं ! .. ऐसे साहित्य-चोर-चोरनियाँ ! .. नमन है उन सबों को .. बस यूँ ही ...

तीसरी घटना :-

अब संयोग कहें या क़ुदरत का क़माल, तीसरी घटना भी एक मोहतरमा के साथ ही हाल-फिलहाल ही में घटी है। यह भी पटना के कवि सम्मेलनों और मुशायरों में नज़र आती हैं। समाजसेविका भी बतलाती हैं स्वयं को। कई मंचों पर उनके साथ सहभागी बनने का मौका भी मिला है। एक दिन उनकी बिटिया द्वारा पढ़ी गई, अपनी ही एक रचना की वीडियो को उन्होंने अपने फ़ेसबुक पर साझा किया। कविता स्वतंत्रता से जुड़ी हुई थी और कविता व वाचन, दोनों ही, क़ाबिलेतारीफ़ भी थी। उनके घर के बैठकख़ाने में पढ़ी गई, कविता के समय, उनकी बिटिया के पीछे अलमारी पर रखी एक 'एक्वेरियम' (Aquarium) में कुछ मचलती रंगीन समुद्री मछलियाँ दिख रही थीं। स्वतंत्रता की कविता के समय, परतंत्र मछलियों को देख कर, कुछ-कुछ आँखों को खटक रही थी। बस फिर क्या था .. हमने औरों की तरह केवल तारीफ़ के पुल नहीं बाँधे, बल्कि तारीफ़ के साथ-साथ बिटिया को दुआ भी दिया और ... स्वतंत्रता की कविता के समय 'एक्वेरियम' में रखी परतंत्र मछलियों के खटकने की बात भी कह डाली। उस दिन औरों की प्रतिक्रियाओं पर उन्होंने प्रतिदान-प्रतिक्रिया तो दिया, पर मेरे लिए ख़ामोश ही रहीं। उनकी मर्ज़ी। ख़ैर ! ... बात आयी-गयी हो गई। मैं भी भूल गया।

इस साल तथाकथित किसान आंदोलन के नाम पर 26 जनवरी को लाल किले पर हुए हमले और तोड़फोड़ वाली घटना के लगभग सप्ताह-दस दिनों के बाद, लाल किला से सम्बंधित वर्षों पुराने अपने एक लम्बे रोचक यात्रा-वृत्तांत को मोहतरमा ने अपने फ़ेसबुक पर साझा किया। संक्षेप में कहें तो, उस के शुरू और अंत के अंश कुछ यूँ थे - 

"लाल किला

मैं लाल किला हूँ  । जहाँ हमारे देश के प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं।ऊँची -ऊँची दीवारें ,लाल रंग से सजी  हैं। लाल किला अपने दोनों हाथों से वहां आ रहे लोगों का स्वागत करता है, आओ मेरे अन्दर एक इतिहास छिपा है ,मेरी दिवारों को छू कर महसूस करो ।

बात उस वक्त की है, जब मैं अपने परिवार के साथ भारत का दिल कहे जाने वाली दिल्ली गई । गोद में 9 माह का बेटा और 7 साल की बिटिया। .............................................................................

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वहां पर फूलों का बाग भी है। पूरा लाल किला ही अद्भुत है ,पर *लता मंडप तो नायाब है ।बादशाह शाहजहाँ ने कहा था - अगर जमीं पर जन्नत है तो वो *लता मंडप है ,क्योंकि  नमाज़ के बाद बादशाह  शुकून के लिए यहीं बैठा करते थे,  मैं ये सोच रही थी कि पहले के बादशाह अधिक ज्ञानी थे या आज के शासक ,खैर, मेरे अंदर अनेकों सवाल थे। मैं अपने ख्यालों में खो गई और उस वक्त को महसूस करने लगी । मैं लाल किले की शान को देख रही थी । घूमते -,घूमते सूरज कब डूब गया, वक्त का पता ही नहीं चला।रंग बिरंगी रौशनी में नहाया लाल किला बेहद खूबसूरत लग रहा था   ।   मैं अपने बच्चों के साथ सड़क किनारे खड़ी इसे निहार रही थी ।।"

उनके इस संस्मरण के उपर्युक्त अंतिम अनुच्छेद में कही गई दो बातों में पहला- एक "सोच", कि - (1) "बादशाह शाहजहाँ ने कहा था - अगर जमीं पर जन्नत है तो वो *लता मंडप है ,क्योंकि  नमाज़ के बाद बादशाह  शुकून के लिए यहीं बैठा करते थे," और दूसरा- एक "सवाल", कि- (2) "पहले के बादशाह अधिक ज्ञानी थे या आज के शासक " ... कुछ-कुछ अटपटा-सा लगा। पहली वाली बात या सोच तो किसी के आस्था की बात हो सकती थी, पर दूसरी बात वाले उस सवाल पर मन में कई सवाल कौंध गए। हमने अपने मन में आये कुछ ऊहापोह को उस पोस्ट के नीचे सामान्य प्रतिक्रियास्वरूप लिख डाला कि :-

"आपका आलेख-सह-यात्रा वृत्तांत बहुत ही प्यारा है। पर अंतिम अनुच्छेद में पहले के बादशाह और आज के शासक की तुलनात्मक बात कुछ और भी लिखने के लिए मुझे मज़बूर कर गया, सुबह की व्यस्तता भरी दिनचर्या में भी ...

पहले के बादशाह ज़्यादा ज्ञानी थे और ताकतवर के साथ-साथ क्रूर भी , तभी तो उनके पूर्वज दूर-दराज़ के पड़ोसी देशों से यहाँ आ कर आक्रमण कर के अपना नाजायज़ कब्ज़ा जमाते गए और कई अपने से इतर तथाकथित धर्म-स्थलों को तहस-नहस तो करवाया ही और ज़बरन कइयों को धर्मान्तरण के लिए मज़बूर भी किया, तंग करने के लिए अन्य धर्म वालों पर "जजिया कर" तक लगाया।

ख़ैर ! लाल क़िला भले ही गर्व करने की बात हो, पर दिल्ली तो दूर है, कभी अपने पास के बड़ा गुरुद्वारा के मुख्य द्वार के पास बने अज़ायबघर की दीवारों पर टंगी तस्वीरें झाँक भर लें तो .. उन तथाकथित ज्ञानी बादशाहों की काली करतूतों की शर्मनाक दास्ताँ शर्मसार करने के लिए काफ़ी महसूस होती हैं .. शायद ...

अब आज के शासक भला उतने ज्ञानी तो हो ही नहीं सकते क्योंकि वे ज़बरन नहीं शासक बनते, बल्कि हमारी तथाकथित बुद्धिजीवी आबादी के मतों से ही तो चुन कर आते हैं .. शायद ..."





बड़ा गुरुद्वारा,पटना साहिब, पटना के संग्रहालय में इतिहास की चीखों और ख़ून से सनी टंगी तस्वीरों के और उसके नीचे लिखे अनुशीर्षकों के कुछ कोलाज़ हैं, जो बदनाम बादशाहों की क्रूरता को बयान करने के लिए काफ़ी हैं, .. शायद ... सम्बन्धित कई तस्वीरें अंत में भी ..】.

फिर क्या था .. वह अपने फ़ेसबुक पर तो शालीनता के साथ प्रतिदान-प्रतिक्रिया दीं, जिसका screen shot हम नहीं ले पाए। उसके बाद मैसेंजर (Messenger) पर अपनी निम्नलिखित उग्र प्रतिक्रिया देने के बाद .. हमें अपनी तथाकथित मित्रता-सूची से तड़ीपार भी कर दिया। हैरान कर देने वाली उनकी प्रतिक्रिया अक्षरशः :- "नमस्कार भैया मैंने अपनी यादो को लिखा  आप भी गुरुद्वारे या सिख समुदाय को मुस्लिम बादशाह ने जो किया लिखे कलम आपकी राजा आप का अखबार आप का लिखे कौन रोक रहा है  जितना चाहे लिखे" 

प्रतिक्रिया में सबसे चौंकाने वाली बात थी - "राजा आप का" - यहाँ समझ नहीं पाया कि ये "राजा" किस के लिए लिखा गया और "आप का" किसके लिए कहा गया ? यह "राजा" और "आप का" एक प्रश्नवाचक चिन्ह छोड़ गया मन को मथने के लिए .. शायद ...

आइए इन .. "आप का" और "मेरा" के भेद को मिटाने वाली साहिर लुधियानवी जी की एक रचना, मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में एक पुरानी फ़िल्म- "धूल का फूल" के गाने की शक़्ल में सुनते हैं और इस जाहिलियत से भरे मतभेद (मनभेद) को भुलाने की कोशिश करते हैं .. बस यूँ ही ...】.

























Sunday, June 6, 2021

राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-३).

अगर आपने अब तक हमारी बतकही झेलने की हिम्मत रखी है, तो अब "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-३)". के तहत अपनी बतकही आगे बढ़ाते हुए, जय संतोषी माँ फ़िल्म से जुड़ी और भी रोचक और अनूठी बातों के साथ फिल्मों के सम्मोहन वाले असर के विराट रूप की बातें करते हैं।

पहले इसके सम्मोहन की बात करते हैं। वैसे तो प्रायः फिल्मों को या इस की बातों को हम केवल मनोरंजन का साधन मात्र मानते हैं, परन्तु इसके सम्मोहन वाले असर के विराट रूप का अनुमान तब होता है .. जब हम अपनी एक नज़र दक्षिण भारतीय राजनीति के इतिहास से अब तक के पन्ने टटोलते हैं। दरअसल फिल्मों के शुरूआती दौर में तमिल कलाकारों ने बहुत सारी फिल्मों में पौराणिक कथाओं के किरदारों को निभाया था। जिस के कारण जनता के बीच उनकी छवि धार्मिक भावनाओं से भरी हुई बनती चली गयी। नतीज़न तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों की फ़ेहरिस्त में सी एन अन्नादुराई, एम करूणानिधि, एम जी रामाचंद्रन, उनकी धर्मपत्नी-जानकी रामाचंद्रन, जयराम जयललिता (अम्मा) का नाम और आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव का नाम एक के बाद एक जुड़ना, दक्षिण भारतीय जनता पर फिल्मी सम्मोहन के असर का ही एक सशक्त उदाहरण है। यूँ तो उत्तर भारत में भी फिल्मी दुनिया से अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, हेमा मालिनी, जया प्रदा, जया भादुड़ी, मनोज तिवारी, स्वरा भास्कर जैसे नाम जुड़े तो जरूर, पर वो रुतबा नहीं हासिल कर पाए कि उन में से कोई मुख्यमंत्री बन सकें। दक्षिण भारतीय फ़िल्म उद्योग (South Film Industry) के चिंरजीवी और पवन कल्याण जैसे फिल्मी कलाकारों ने तो अपनी अलग नयी राजनीतिक दल तक बनाने की हिम्मत दिखायी। अभी कमल हासन और रजनीकांत भी इसी तालिका में जुड़ते दिख रहे हैं।

फिल्म के तिलिस्मी असर के बारे में तब घर के बुज़ुर्गों का कहना था कि आज हमारे बीच हर साल सावनी पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला रक्षाबन्धन का स्वरुप आज के जैसा नहीं था। तब के समय उस दिन घर पर केवल पंडित (जी) आते थे और घर के सभी सदस्यों को रक्षा कवच के नाम पर मौली सूता कलाई पर बाँध कर, प्रतिदान के रूप में आस्थावान भक्तों के सामर्थ्य और श्रद्धा के अनुरूप दिए गए दक्षिणा को ले कर वापस चले जाते थे। पर बाद में बलराज साहनी और नन्दा अभिनीत छोटी बहन (1959) जैसी फिल्मों के शैलेन्द्र जी के लिखे और लता जी के गाए - "भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना, भैया मेरे, छोटी बहन को न भुलाना, देखो ये नाता निभाना, निभाना, भैया मेरे..." - जैसे मन को छूते गीतों से सम्मोहित (Hypnotize) होने के कारण राखी का त्योहार आज वाले स्वरूप में धीरे-धीरे बदलता चला गया। साथ ही, बहन द्वारा राखी, मिठाई और भाई द्वारा बदले में दिए जाने वाले उपहार; सब मिलाकर आज इस राखी के त्योहार ने भारत को करोड़ों का बाज़ार बना दिया है। ठीक इस वैलेंटाइन डे (Valentine's Day) की तरह जो बाहर से आकर सोशल मीडिया की सीढ़ी चढ़ते हुए, चोर दरवाज़े से हमारे देखते-देखते हमारे बीच आ कर डेरा जमा चुका है।
ये सब परिवर्त्तन बस वैसे ही होता चला गया, जैसे हमारे बुज़ुर्गों ने विदेशों से आने वाली चाय को आने का मौका दिया, तो हमारी युवा पीढ़ी ने चाऊमीन, मोमो, पिज़्ज़ा को बाहर से आने दिया। देखते-देखते ही देश में ही सिगरेट, शराब, पान, खैनी (तम्बाकू) के अलावा गुटखा का भी सेवन होने लगा। अब तो नए व्यसन- ड्रग्स (Drugs) की भी लम्बी फ़ेहरिस्त बन गई है। पर इनके आने में सिनेमा का योगदान कम रहा है .. शायद ...
फ़िल्मों का ही छोटा पर्दा वाला रूप शायद हमारे-आपके घरों में टेलीविजन का पर्दा बन कर आया हुआ है। इसलिए इसके सम्मोहन भी फिल्म जैसे ही हैं। नयी पीढ़ी को तो शायद याद या पता भी ना हो, पर आप अगर अपने जीवन के चार-पाँच दशक या उस से ज्यादा गुजार चुके हैं, तो इसका एक सशक्त प्रमाण आपको अच्छी तरह याद हो शायद कि .. लोगबाग पहली दफ़ा रामायण टी वी सीरियल आने पर नहा-धोकर, अगरबत्ती-आरती जला कर सपरिवार देखने बैठते थे। कई लोग तो सीरियल खत्म होने के बाद ही अपना मुँह जुठाते (?) थे। यहाँ तक तो सनातनी श्रद्धा का प्रभाव कुछ-कुछ समझ में आता था। पर तब के आए हुए एक समाचार के अनुसार, तब एक बीयर बार (Beer Bar) में जीन्स (Jeans) पहने बैठे हुए अरुण गोविल (राम के पात्र को जीने वाले) पर पत्थर से कुछ लोगों ने हमला किया था, कि "आप राम हैं .. तो आप शराब का सेवन नहीं कर सकते।" ये उनके अनुसार उनके राम का अपमान था। च्-च् च् .. तरस आती है उन लोगबाग के नकारात्मक सम्मोहन पर कि वह भूल गए कि वह राम का अभिनय करने वाला एक कलाकार है, सच में राम नहीं। उस कलाकार का निजी जीवन भी है और वह हमारी तरह ही एक इंसान ही है, ना कि तथाकथित भगवान (राम) .. शायद ...
ये कह कर हम कोई पक्षधर नहीं हैं शराब पीने के। वैसे तो मद्यपान और धूम्रपान, दोनों ही बुरी लतें हैं। सेहत के लिए नुकसानदेह भी। प्रसंगवश ये भी बक ही दें कि कभी 'चेन स्मोकर' (Chain Smoker) रहे अरुण गोविल को राम के अभिनय करने के दरम्यान लोगों के गुस्साने पर सिगरेट की लत छोड़नी पड़ी थी, जो बाद में हमेशा के लिए छुट गई थी/है। यह है फिल्मों की फैंटेसी (Fantasy) भरी अजीबोग़रीब दुनिया.. शायद ...
फ़िल्म (Film) देखने के लिए सिनेमा हॉल (Cinema Hall) तक जाना तो होता ही था और उसकी अनुभूति भी किसी टूरिस्ट प्लेस (Tourist Place) घुमने जाने से कम नहीं होती थी। उस दौर में हमारे जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के लिए शैम्पू आज की तरह भारतीय बाज़ार में सहज उपलब्ध नहीं होता था, तो मेहा मेडिक्योर कम्पनी (Meha Medicure , Solan, Himachal Pradesh) के पीले रंग के रैपर (Wrapper) में लाल-कत्थई रंग के मशहूर स्वास्तिक शिकाकाई नामक सिर (बाल) और देह, दोनों को चमकाने के लिए, उपलब्ध 'टू इन वन' (2 in 1) साबुन से धुले हुए सिर के हवा में लहराते हुए बाल पर बारम्बार

हाथ फिराते हुए, घर के हैंगर (Hanger) में लटके या लॉन्ड्री (Laundry) के तह लगे कपड़ों में से चुनकर सबसे अच्छा वाला क्रिच लगा पोशाक पहन कर .. किसी समारोह में जाने के जैसा ही बन-ठन कर अभिभावक के साथ सपरिवार सिनेमा हॉल तक सिनेमा/फ़िल्म देखने के लिए जाया जाता था। तब मैटिनी शो (Matinee Show) यानी तीन बजे अपराह्न से छः बजे शाम तक वाली शो लोगों की पसंदीदा शो हुआ करती थी। कभी-कभार गर्मी के मौसम में ईवनिंग शो (Evening Show/शाम छः बजे से रात के नौ बजे तक) भी जाया जाता था। सिनेमा हॉल के टिकट काउंटर (Ticket Counter) पर टिकट उपलब्ध होने के अनुसार चार-पाँच रूपए की डी सी (DC - DressCircle) या तीन-चार रूपये की बी सी (BC - Balcony Class) या फिर दो-ढाई रुपए की स्पेशल क्लास (Special Class) की सीट (Seat) पर बैठ कर फ़िल्म देखी जाती थी। एक-डेढ़ रुपए वाली फ्रंट क्लास (Front Class या General Class) में तो पर्दे पर नायक-नायिका का मुँह टेढ़ा-सा और बड़ा नज़र आता था। उनमें प्रायः निम्न मध्यमवर्गीय लोग देखा करते थे। कभी-कभार धार्मिक या देशभक्ति फिल्मों को राज्य-सरकार द्वारा कर-मुक्त कर देने पर या बाद में बने स्थायी नियम के तहत विद्यार्थी रियायत दर (Student Concession Rate) पर, फिल्म देखने में कुछ अलग ही आनन्द मिलता था। 

पूरे साल भर में दो या तीन फ़िल्मों को देखने का मौका मिल जाता था तो बहुत होता था। स्कूल (School) में जो भी सहपाठी अपने अभिभावक के साथ किसी विगत छुट्टी के दिन फ़िल्म देख कर स्कूल आता था, तो उसके चेहरे पर एक अलग तरह की मुस्कान टपक रही होती थी। उस दिन जलपान की छुट्टी (Tiffin Time) में सारे खेल स्थगित कर के हम सारे सहपाठी मित्रगण उसको घेर के बैठ जाते थे और वह सिनेमा देख कर आया हुआ मित्र मानो किसी लोकप्रिय कुशल आर. जे. (रेडियो जॉकी/Radio Jockey) की तरह पूरी फ़िल्म का बखान कर देता था। हम सब भी रेडियो पर आकाशवाणी द्वारा विविध-भारती कार्यक्रम के तहत प्रसारित होने वाले हवामहल जैसे मनोरंजक नाटक की तरह सुन कर खुश हुआ करते थे। अगली बार कोई दूसरा छात्र या दूसरी छात्रा, वही सिनेमा देख कर आते तो वह अपने तरीके से सुनाता/सुनाती और पहले वाले की कमियों को गिनाता/गिनाती कि पहला वाला तो फलां-फलां सीन (Scene) या डॉयलॉग (Dialogue) के बारे में तो बतलाना ही भूल गया था। तब चॉकलेट-टॉफी के साथ उपहारस्वरूप मिलने वाले या अलग से बिकने वाले फ़िल्मी कलाकारों के तरह-तरह के पोस्टर और स्टीकर जमा करने का भी एक अलग ही शग़ल था।

दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा (Board Exam.) पास (Pass) हो जाने के बाद नदिया के पार या सावन को आने दो जैसी फ़िल्मों को दोस्तों के साथ देखने की अनुमति मिलने लगी थी। वैसे भी तब राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्में रूमानी होने के बावज़ूद भी पारिवारिक मानी जाती थीं। ऐसा इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि रुमानियत को पाप मानते थे तब या आज भी अनेक जगहों पर। तभी तो 'ऑनर किलिंग' (Honour Killing) का मामला आज भी हमारे कई समाज में सिर उठाए खड़ा है। है कि नहीं ? .. ओमपुरी-स्मिता पाटिल की आक्रोश फिल्म से कला फिल्मों (Art Movies) का चस्का लगा था, जो आज तक बरकरार है।
तब कुछ लोगों में फ़िल्म आने के पहले दिन ही पहला शो को देखने का या एक फ़िल्म को कई बार देखने का एक शग़ल होता था। सिनेमा की टिकटें ब्लैक (गैरकानूनी तरीके से उचित मूल्य से ज्यादा क़ीमत पर क्रय-विक्रय) में बेचीं और ख़रीदी भी जाती थी। बचपन में जीवन का यह पहला अनुभव था, क़ानून और प्रशासन की आँखों के सामने होने वाली किसी कालाबाजारी की। संभ्रांत समाज में ऐसे लोगों की छवि अच्छी नहीं होती थी।
तब का सिनेमा हॉल आज के 'मल्टीप्लेक्स' (Multiplex) की तरह 'पुश बैक' (Push back) कुर्सी से सुसज्जित पुश बैक कुर्सी की तरह ही मखमली, आरामदायक और भव्य ना होकर; किसी कोल्ड स्टॉरेज (Cold Storage) की इमारत की तरह होता था। तब ना तो हॉल में ए सी (AC) होता था, बल्कि हॉल के दीवारों व छत पर लगे बड़े-बड़े पंखे चलते रहते थे। ना ही आज की तरह स्टीरियोफोनिक डॉल्बी साउंड सिस्टम (Stereophonic Dolby Sound System) थे। पर हाँ, ईस्टमैन कलर (Eastman Color) वाली रंगीन फिल्में बाद में आने लगी थीं।
आज के मल्टीप्लेक्स की तरह तब मंहगे पॉपकॉर्न (Popcorn) या समोसे जैसे मंहगे स्नैक्स (Snax) भी नहीं मिला करते थे। बल्कि लोग दस पैसे के टनटन भाजा (मतलब नमकीन मिक्सचर (Mixture)) या चवन्नी (पच्चीस पैसे) के समोसे खा कर, दो रुपए के 


दो सौ मिलीलीटर वाली बोतल में डीप फ्रीजर (Deep Freezer) वाला ठंडा कोका-कोला (Coca-Cola) या फैंटा (Fanta) पीकर आह्लादित हो जाते थे। साथ ही अंत में हॉल से निकलते वक्त बाहर ही बिक रहे दस पैसे की उसी फ़िल्म के गाने की किताब खरीद कर और वो किताब हाथ में लेकर, हम लोग जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के लोगों को रिक्शा पर बैठ कर घर लौटते हुए मुहल्ले में प्रवेश करने पर किसी खेल में जीते गए शील्ड (Shield) को लेकर लौटने का एहसास होता था। चेहरे पर एक मुस्कान लिए घर लौटते समय लगता था, मानो किसी पर्यटन स्थल का दौरा कर के लौट रहें हैं। चूँकि मनोरंजन (?) के लिए आज की तरह कई-कई टीवी चैनलों, सीरियलों या यूट्यूब की बाढ़ या यूँ कहें कि सुनामी-सी नहीं थी उस ज़माने में; तो साल-छः महीने में देखी गई एक फ़िल्म कई-कई दिनों तक दिमाग में तारी रहती थी और एक दिलचस्प चर्चा का विषय बना रहता था।

अब जय संतोषी माँ फिल्म की अपरम्पार महिमा की और भी बातें दुहरा लेनी चाहिए। उस फिल्म को दिखाने वाले सिनेमा घर-रूपक के मालिक ने हॉल के बाहर प्रांगण में ही बजाप्ता एक अस्थायी मन्दिर का निर्माण करवा कर सन्तोषी माता की एक विशाल मूर्ति की स्थापना करवा दी थी। शो के दरम्यान धोती और जनेऊ से सुसज्जित हुए एक तिलकधारी और तोंदधारी भी, पंडी (पंडित) जी वहाँ लगातार तैनात रहते थे। विशेषकर हर शो के शुरू होने के समय वह आरती करते और लोगों का चढ़ावा दोनों हाथों से बटोरते। बल्कि इस बटोरने के लिए दो-चार और लोग भी बहाल थे पंडी जी के सहयोग में, जो तथाकथित आस्थावान भक्तगणों के हाथों से अगरबत्ती, नारियल, फूल-माला, चुनरी-साड़ी, मुख्य रूप से प्रसादस्वरूप गुड़-चने के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की मिठाईयों के डिब्बे तथाकथित भक्तिभाव से ले-ले कर जमा करते थे।
वैसे धर्म-ग्रंथों में इन देवी की चर्चा कहीं है भी या नहीं, पता नहीं ; पर इनकी व्रत-कथा के आधार पर फिल्मकार ने फ़िल्म में इनको चूहे की सवारी करने वाले और हाथी के सिर वाले तथाकथित गणेश भगवान की बेटी बतलाया था। सिनेमा हॉल वाले मन्दिर के सामने महिलाओं और पुरुषों की अलग-अलग लम्बी-लम्बी कतारें लगी रहती थी। लोग आरती लेकर (?) और पंडी जी (?) से टीका लगवा कर ही सिनेमा देखने के लिए हॉल में प्रवेश करते थे। तीन साल से कुछ ज़्यादा ही बिहार की राजधानी पटना शहर के एक ही हॉल- रूपक में टिकी रही थी ये फ़िल्म। तब लोगों का अनुमान था कि इसके मालिक ने टिकट से ज्यादा तो चढ़ावे से कमाया होगा। वैसे इसके व्रत-कथा की पुस्तिका और कई आकारों में तस्वीरें छापने वाली प्रेसों ने भी खूब कमाया। जैसे टी वी सीरियल रामायण आने के बाद बाज़ारों के तथाकथित राम (तस्वीरों) में अरुण गोविल नज़र आने लगे थे/हैं, वैसे ही इस फ़िल्म के बाद संतोषी माता की तस्वीरों में अनिता गुहा नज़र आने लगी थीं।
कुछ जानकारों से पता चलता था कि अगले दिन उस अस्थायी मन्दिर की वही सारी एकत्रित पूजन सामग्रियाँ आसपास कुकुरमुत्ते की तरह नयी खुली हुई पूजन-सामग्री की उन्हीं दुकानों में कुछ कीमत कम कर के पुनः बेचने के लिए भेज दी जाती थी; जहाँ से भक्तगण इसको खरीद कर एक दिन पहले चढ़ावा चढ़ाते थे। जैसे .. अक़्सर ब्राह्मण लोग श्राद्ध के तहत दान में मिले तकिया-तोशक, कम्बल-दरी, बर्त्तन, खटिया-चौकी इत्यादि पुनः उन्हीं दुकानों को बेच देते हैं तथा हम और हमारा (अंध)आस्थावान समाज इस मुग़ालते में रहता है, कि पंडी जी इसका उपयोग/उपभोग करेंगे तो .. हमारे मृत परिजन के अगले जन्म लेने तक इसका तथाकथित सुख तथाकथित स्वर्ग में आसानी से मिलता रहेगा .. शायद ... 
तब तो मुहल्ले-शहर के हर तीसरे-चौथे हिन्दू घर में शुक्रवार को इनकी पूजा कर के उपवास रखने वाली महिलाएं मिल ही जाती थीं, जो सोलह शुक्रवार के बाद इस व्रत-कथा का उद्यापन करती थीं। उद्यापन के दिन शाम में आस-पड़ोस से पाँच, सात, नौ या ग्यारह की विषम संख्या में बच्चों को प्रसादस्वरूप शुद्ध शाकाहारी भोजन के रूप में खीर, पूड़ी, चना-आलू की सब्जी के अलावा कुछ मिठाइयाँ भी घर में बैठा कर बहुत ही आदरपूर्वक और श्रद्धापूर्वक खिलायी जाती थी। प्रत्येक शुक्रवार की तरह चना-गुड़ वाला प्रसाद भी मिलता था। साथ में एक-दो रूपये नक़द भी मिलते थे दक्षिणास्वरूप। बस, शर्त ये होती थी कि उस दिन कुछ भी खट्टा नहीं खाना होता था, वर्ना उस बच्चे को उस उद्यापन के भोज से वंचित रह जाना पड़ता था। क्योंकि मान्यताओं के अनुसार उस व्रत में खट्टा खाना पूर्णतः वर्जित था। खट्टा खा कर प्रसाद खाने से अनिष्ट होने का तथाकथित भय रहता था। पढ़ने का ज्ञान होने के बावज़ूद भी सत्यनारायण स्वामी की कथा को किसी पंडित(ब्राह्मण) से ही पढ़वाने जैसी कोई पाबन्दी इस व्रत-कथा में नहीं होती थी। इसी कारण से व्रत के दौरान प्रत्येक शुक्रवार को एक दिन में आस-पड़ोस के दो-तीन घरों में कथा पढ़ने के लिए बुलावा आने पर जाना पड़ता था। ऐसे में उद्यापन के दिन खिलाते समय कथावाचक पर विशेष ध्यान दिया भी जाता था।
आसपास किसी को किसी भी समस्या का हल चाहिए होता था, तो सब कहते- "सन्तोषी माता है ना ! बस .. सोलह शुक्रवार कर लो .. और मिल जाएगा समस्या का समाधान .. बस यूँ ही ... चुटकी बजा के हो जाएगा।" परन्तु कई व्रत करने वाली महिलाओं को विधवा होते भी देखा, अन्य और भी कई कारणों से उनके घर को उजड़ते देखा, उनके बच्चों को कई बार फेल होते देखा, मुक़दमा हारते हुए देखा, बीमार होते हुए देखा। वैसे तो आज हमारे समाज में वो सोलह शुक्रवार वाला परिदृश्य इतिहास बन चुका है। नयी पीढ़ी को तो इसके बारे में कोई भान या अनुमान भी ना हो .. शायद ...
ख़ैर ! .. बहुत हो गई फिल्मों और भाषाओं की बतकही .. अब "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४)." में बकैती करते हैं, विस्तार से राजा आपका और तड़ीपार की .. बस यूँ ही ...


(तब तक आगामी सावनी पूर्णिमा की फैंटेसी (फंतासी) में अभी से खोने के लिए नीचे वाले गाने की लिंक को छेड़ भर दीजिए .. बस यूँ ही ...).



Saturday, June 5, 2021

राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-२).

अब आज "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-२)." की तख़्ती पर फ़िल्मों के बहाने अंजानी भाषाओं के अंजाने शब्दों के साथ-साथ अपनी कई आपबितियों की भी बतकही को आगे पसारने की कोशिश करते हैं।

हाँ .. तो .. "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-१)."  के तहत अन्त में बात हो रही थी- सन् 1993 ईस्वी में फ़िल्म ग़ुलामी की तरह ही संयोगवश मिथुन चक्रवर्ती की ही एक और फ़िल्म आने के बाद फिर से एक अंजान शब्द से पल्ले पड़ने की। वह शब्द था, उस फ़िल्म का नाम- "तड़ीपार"। दरअसल .. यूँ तो बचपन में शैतानी से किसी के सिर पर चपत लगाने के लिए स्थानीय बोली में तड़ी मारना शब्द तो सुना था। पर तड़ीपार का शाब्दिक अर्थ बाद में जानकारों से जान पाया कि इसका अर्थ होता है- निर्वासन यानी देश निकाला। मतलब किसी दोषी को उसके किसी गैरकानूनी कृत्य के लिए या फिर किसी विशेष संक्रमण से संक्रमित किसी रोगी को बलपूर्वक कुछ नियत समय के लिए या हमेशा-हमेशा के लिए घर, गाँव, मुहल्ले, शहर या देश से बलपूर्वक निकाल देना।

अंजान शब्दों की बातें करते-करते बीच-बीच में कुछ फ़िल्मी बातें भी होती रहें तो हमारा मनोरंजन होता रहता है। है कि नहीं ? ... दरअसल सत्तर-अस्सी के दशक तक हमारे कई समाज में, जिनमें एक हमारा समाज भी था, गाने में प्रयुक्त शब्द या फ़िल्म के नाम वाले शब्द का अर्थ एकदम से घर में या शिक्षक से पूछना या उसकी चर्चा करना, अनुशासनहीनता मानी जाती थी। तब फ़िल्में देख पाना भी आज की तरह इतना सहज़-सुलभ और आसान नहीं था। जितना कि आज .. स्मार्ट फ़ोन (Smart Phone) के स्क्रीन (Screen) पर उंगलियाँ दौड़ाने-फिसलाने भर से पलक झपकते ही स्क्रीन पर मनपसंद फ़िल्मों के गाने या कई सारी पूरी की पूरी फ़िल्में ही/भी हमारी इंद्रियों को फ़ौरन तृप्त करने में लग जाती हैं। उस दौर में तो अभिभावक की मर्ज़ी से फ़िल्म देखने की अनुमति मिलती थी, जो बच्चों या किशोरों के लिए अभिभावकों की नज़र में उचित होती थी। अधिकांशतः तो उन लोगों के साथ ही जाना होता था।
और फ़िल्में भी कैसी-कैसी ? .. बिहार (तत्कालीन बिहार = वर्तमान बिहार + वर्तमान झाड़खण्ड) की राजधानी पटना के सिनेमाई पर्दे पर दोबारा-तिबारा आयी हुई पुरानी श्वेत-श्याम फ़िल्में- दो बीघा जमीन, जिस देश में गंगा बहती है, मुग़ल-ए-आज़म, दोस्ती या फिर रंगीन फ़िल्में- वक्त (पुरानी), मदर इंडिया, हाथी मेरे साथी, आराधना, एक फूल दो माली, जानवर और इंसान, रानी और लाल परी, हक़ीकत (पुरानी), आँखें (पुरानी), अमन, अनुराग, अँगूर, खट्टा-मिट्ठा, गोलमाल (पुरानी), रोटी कपड़ा और मकान, शोर, जय संतोषी माँ जैसी फ़िल्में ही दिखलाने के लिए ले जाया जाता था।

इसके अलावा जब एक ही फ़िल्म, एक ही सिनेमा हॉल में तीन-तीन साल तक अपने चारों या पाँचों शो (Show) के साथ टिकी रह जाती थी, तो लोकप्रियता के कारण शोले जैसी फ़िल्म पटना के एलफिंस्टन (Elphinstone) सिनेमा हॉल में देखने के लिए मिल जाती थी। छुटपन में शोले हो या जिस देश में गंगा बहती है, इन फिल्मों के डाकूओं द्वारा की जाने वाली गोलीबारी या मारधाड़ वाले दृश्यों के आने पर हॉल ही में कुर्सी के नीचे डर कर रोते हुए छुप जाने वाली बात पर, आज ख़ासकर तब स्वयं पर हँसी आती है, जब कभी भी आज दो-तीन साल के बच्चों को भी मोबाइल पर गेम (Game) खेलते हुए आराम से 'ठायँ-ठायँ', 'ढ-ढ-ढ-ढ' कर के बन्दूक चलाते हुए देखता हूँ।

उन दिनों राजकपूर जी की मेरा नाम जोकर नामक फ़िल्म सामान्य से तुलनात्मक ज़्यादा लम्बी अवधि की फ़िल्म होने के कारण इसके होने वाले दो मध्यांतरों (Intervals) का भी एक अलग रोमांच और कौतूहल था, जिस कारणवश मेरा नाम जोकर को भी पटना के अशोक सिनेमा हॉल में देखने का अवसर मिल पाया था। पद्म विभूषण व साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित एक प्रसिद्ध लेखक- आर॰ के॰ नारायण के उपन्यास पर आधारित फ़िल्म होने के कारण गाइड फ़िल्म को भी देखने का अवसर मिला था। तब "काँटों से खींच के ये आँचल, तोड़ के बंधन बाँधी पायल" या फिर "ओ मेरे हमराही ! मेरी बाँह थामे चलना" जैसे गीतों का भावार्थ कम ही समझ में आता था। बस यह लगता था कि नायक-नायिका अभी खुश हैं, इसी कारण से दोनों ख़ुशी में गा रहे हैं-  "गाता रहे मेरा दिल, तू ही मेरी मंज़िल, हाय ~~, कहीं बीते ना ये रातें, कहीं बीते ना ये दिन, .. गाता रहे मेरा दिल ..~~ ..."
सन् 1972 ई. में आयी मनोज कुमार की शोर फ़िल्म संयोग से पटना के तत्कालीन आधुनिकतम तकनीक से सुसज्जित अप्सरा नामक नए सिनेमा हॉल में आयी थी। यह पटना के प्रसिद्ध गाँधी मैदान के दक्षिण की ओर, एक्सिबिशन रोड के उत्तरी छोर पर अवस्थित था। "था" इस लिए बोल रहा हूँ, क्योंकि वर्तमान में मल्टीप्लेक्स युग आने के कारण यह पटना के और भी कई पुराने गोदामनुमा सिनेमा हॉलों की तरह वर्षों से बन्द पड़ा है। अप्सरा सिनेमा हॉल के उद्घाटन के दिन वाले शोर फ़िल्म के इकलौते शो का निमंत्रण-सह-प्रवेश पत्र मेरे अभिभावक को भी मिला था। हमलोग गए भी शोर फ़िल्म, वो भी नए हॉल में पहला दिन, देखने के लिए। मध्यांतर (Interval) में समोसा-कचौड़ी और मिठाई से भरा एक-एक स्नैक्स-बॉक्स (Snax Box) भी सभी निमन्त्रित दर्शकगण को हॉल के मालिक की ओर से बाँटा गया। छः वर्ष की उम्र में तो अपनी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। मानो खुशियों का खज़ाना मिल गया था।

इसमें सोने पर सुहागा वाली एक और बात ये हुई थी कि इस फिल्म में ख़ान बादशाह के क़िरदार को निभाने वाले प्रेमनाथ जी उस दिन अपनी इंडियन एयरलाइन्स (Indian Airlines) की  फ्लाइट/उड़ान (Flight) में किसी तकनीकी कारण से बिलम्ब होने के कारण उस अप्सरा सिनेमा हॉल के पास के ही इंडिया होटल (India Hotel) में ठहराए गए थे। तब पटना का यह आलीशान (Posh)  होटल हुआ करता था। उस समय तो गाँधी मैदान में बीचोबीच खड़ा हो कर चारों ओर नज़रें घुमाने पर इकलौती सबसे ऊँची बिल्डिंग (Building) आरबीआई (RBI - Reserve Bank of India) की बिल्डिंग ही नज़र आती थी। पर आज तो चारों ओर के ज्ञान भवन और उसके प्रांगण में अवस्थित बापू सभागार व सभ्यता द्वार, श्री कृष्ण मेमोरियल हॉल, ट्विन टॉवर-बिज़नेस सेंटर्स (Twin Tower-Business Centres), पाँच सितारा मौर्या होटल, दो-दो गगनचुम्बी बिस्कोमान भवन, जिनमें से एक के ऊपर एक रिवॉल्विंग रेस्टुरेन्ट (Revolving Resturant)- पिंड बालूची (Pind Balluchi), एलफिंस्टन (Elphinstone) और मोना सिनेमा के मल्टीप्लेक्स (Multiplex) वाली बिल्डिंग के समक्ष आरबीआई की बिल्डिंग तो मानो 'गुलिवर्स ट्रेवल्स' (Gulliver's Travels) के उस 'गुलिवर' के सामने 'लिलिपुट' की तरह प्रतीत होती है।

हाँ तो .. बातों-बातों में अप्सरा सिनेमा हॉल, शोर फिल्म और प्रेमनाथ जी की बातें कहीं और भटक गई। ख़ैर ! ... जब प्रेमनाथ जी को यह पता चला कि उनकी फ़िल्म शोर से ही यहाँ किसी नए हॉल का उद्घाटन हो रहा है तो, वह मध्यांतर में आकर अपनी अदा और आवाज़ के साथ हँसते हुए सभी को सम्बोधित किए थे। तब पटना की आबादी आज के पटना की तरह, गंगा नदी पर उत्तरी बिहार को पटना से जोड़ने वाले पुल- गाँधी सेतु को 1980 में चालू होने के बाद, घनी-बढ़ी आबादी वाली नहीं हुआ करती थी। तब भी और आज भी फ़िल्मी कलाकारों को देखना, उन से मिलना, हाथ मिलाना, ऑटोग्राफ (Autograph) लेना, अब तो सेल्फ़ी (Selfie) लेना भी एक सनक (Craze) तो है ही ना .. शायद ...

साहित्य की कोख़ से ही जन्मी फ़िल्में भी साहित्य की तरह ही किसी भी कोमल मन पर सहज़ ही अपनी गहरी छाप छोड़ जाती हैं। बचपन में देखी गई फ़िल्म- वक्त (बलराज साहनी वाली) का असर कुछ ऐसा पड़ा था बालमन पर; कि आज तक .. किसी भी बात पर रत्ती भर भी घमंड मन में पनपना चाहता भी है, तो वक्त फ़िल्म में "ऐ मेरी ज़ोहरा-ज़बीं तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हंसीं और मैं जवाँ .. तुझपे क़ुरबान मेरी जान, मेरी जान" ... वाले गाने के बाद वो अचानक आया क़ुदरती क़हर- भूकम्प की याद ताजा हो जाती है। इस फ़िल्म ने तभी से छुटपन में ही प्रकृति या समय से सहम कर जीना समझा दिया था। आज भी किसी भी बात पर गर्दन अकड़ाने की हिम्मत या नौबत नहीं आती है और ताउम्र आएगी भी नहीं या आनी भी नहीं चाहिए  .. शायद ...

और हाँ ... फ़िल्म जय संतोषी माँ फ़िल्म की तो कुछ अलग ही महिमा देखी गई थी। देश भर में हिन्दी भाषी अन्य राज्यों के शहरों-गाँवों का तो नहीं पता, पर बिहार की राजधानी पटना के रूपक सिनेमा हॉल का तो पता है, कि पर्दे पर जब-जब फ़िल्मी अवतार के रूप में तथाकथित संतोषी माता परंपरागत सिनेमाई "ढन-ढनाक" वाली आवाज़ (संगीत) के साथ अवतरित होतीं थीं .. अपनी दुखियारी भक्तिन की विपदा की घड़ी में उसके दुःख भरे गाने- "मदद करो हे संतोषी माता ~~~" की समाप्ति पर; तब-तब दर्शकगण में से अधिकांश लोगों द्वारा उनकी अपनी हैसियत और श्रद्धा के मुताबिक सिनेमा हॉल में पर्दे की तरफ, मतलब फ़िल्मी संतोषी माँ की तरफ, तत्कालीन प्रचलन वाले पाँच, दस, बीस, पच्चीस (चवन्नी), पचास (अठन्नी) पैसे या एक रुपए के सिक्के, फूल-माले उछाले जाते थे। कई बार पीछे से या ऊपर के डी सी, बी सी (DC, BC) क्लास (class) के दर्शकों द्वारा उछाले गए सिक्के अपनी रफ़्तार वाले संवेग से आगे बैठे हुए कई दर्शकों के कान या सिर चोटिल कर देते थे। लगभग प्रत्येक शो के बाद सिक्के हॉल में इतना ज़्यादा जमा हो जाते थे कि हर शो के बाद सारे सिक्के बुहार कर सिनेमा हॉल के कर्मचारियों द्वारा बोरे में भरे जाते थे। जिस कारण से हर अगला शो आधे घन्टे-पैंतालीस मिनट देर से ही शुरू हो पाता था।


 वैसे तो प्रायः फिल्मों को या इस की बातों को हम केवल मनोरंजन का साधन मात्र मानते हैं, परन्तु इसके सम्मोहन के असर के विराट रूप का अनुमान तो तब होता है .. जब हम अपनी एक नज़र ...... फ़िलहाल तो हम अपनी आँखों को थोड़ा विश्राम दे लें आज अभी और फिर कल मिलते हैं "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-३)". के तहत जय संतोषी माँ फ़िल्म से जुड़ी और भी रोचक और अनूठी बातों को लेकर। साथ ही फिल्मों के सम्मोहन वाले असर के विराट रूप की बातों के साथ .. बस यूँ ही ...

(तब तक अगर आपके पास समय हो तो गाइड फ़िल्म के इस लोकप्रिय और सदाबहार गाने से अपने मन के तार को छेड़ने के लिए इस की साझा की गई लिंक को छेड़ने की बस ज़हमत भर कीजिए ... .. बस यूँ ही ...)





Thursday, June 3, 2021

राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-१).

कुछ-कुछ ऊहापोह-सा है कि ... आज हम अपनी बतकही शुरू कहाँ से शुरू करें ? ... वैसे अगर हम वर्तमान परिवेश की बातें करें, तो ऐसे में परिहास का मि. इंडिया (Mr. India- एक फ़िल्म का नाम) हो जाना यानी मि. इंडिया की तरह अदृश्य हो जाना स्वाभाविक ही है .. शायद ...। क्योंकि जब आज का परिवेश परेशानियों के दौर से गुजर रहा हो, तो ऐसे में परिहास का गुजारा हो भी तो भला क्योंकर ? ..  ख़ैर ! .. बातों-बातों में फ़िल्म मि. इंडिया के ज़िक्र होने से ये ख़्याल आ रहा है कि क्यों ना .. मनोरंजन के साधनों में से एक साधन - फ़िल्मों की ही कुछ फ़िल्मी बातें कर ली जाएं। शायद .. आज के इस तनावग्रस्त अवसाद भरे क्षणों को कुछ राहत ही मिल पाए .. बस यूँ ही ...

आपने कभी भी किसी गाने के ऐसे मुखड़े को सुना या गाया-गुनगुनाया है क्या ? -

"जो हाल है मस्ती में, कौन है रंजिश, बेहाल बेचारा दिल है" -

शायद .. आपका जवाब "ना" हो और .. अगर आपका जवाब सच्ची-मुच्ची "ना" है, तो आप बिलकुल सही हैं। क्योंकि लगभग अपनी किशोरावस्था के बाद जब सन् 1985 ई. में "गुलामी" नाम की फ़िल्म अपने शहर के सिनेमा हॉल में आयी थी, तो उसके जिस गीत का मुखड़ा हम टीनएज (Teenage) के आख़िरी पड़ाव यानी उन्नीसवें साल में किसी तरह टो-टा कर (अनुमान लगा कर) गुनगुनाने या गाने की भूल भरी कोशिश कर रहे थे .. उस के बारे में बहुत सालों के बीत जाने के बाद जानकारों से जान पाया कि दरसअल उस गीत का मुखड़ा फ़ारसी भाषा में लिखा गया है और अंतरा हिन्दी में। उस लोकप्रिय गीत का वह फ़ारसी मुखड़ा कुछ यूँ है :-

"ज़े-हाल-ए-मिस्कीं, मकुन-ब-रन्जिश, बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है" 

जिसका हिन्दी मतलब भी उन्हीं जानकारों से ही कुछ यूँ ज्ञात हुआ था कि :-

"मुझे रंजिश से भरी इन निगाहों से ना देखो क्योंकि मेरा बेचारा दिल जुदाई के मारे यूँ ही बेहाल है।"

इस फ़िल्म का यह गीत काफी लोकप्रिय हुआ था; जो कि राग भैरवी पर आधारित था। जिसके संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल थे और गायिका-गायक थे लता मंगेशकर और शब्बीर कुमार। जिसको फ़िल्मी पर्दे के लिए मिथुन चक्रवर्ती, अनीता राज और हुमा खान के साथ राजस्थान की पृष्ठभूमि में फ़िल्माया गया था। हुमा क़ुरैशी मत समझ लीजिएगा, क्योंकि उनका तो जन्म ही उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् 1986 ई. में हुआ था। आधिकारिक तौर पर इस लोकप्रिय गीत के गीतकार सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ़ जाने-माने गुलजार साहब हैं। 
किसी गीत में इस तरह से मुखड़ा फ़ारसी में और अंतरा अन्य भाषा में रचने का एक अनूठा प्रयोग साहित्य जगत में शायद पहली बार नहीं किया था गुलज़ार साहब ने। बल्कि सदियों पहले तेरहवीं-चौदहवीं सदी (1253 - 1325) के दरम्यान ही सूफ़ी गीतों के रचयिता और एक अच्छे संगीतज्ञ अबुल हसन यमीनुद्दीन उर्फ़ अमीर ख़ुसरो जी ने, जिन्हें हिन्द का तोता और मुलुकशुअरा (राष्ट्रकवि) भी कहा गया है, फ़ारसी और ब्रज भाषा के सम्मिश्रण से एक अद्भुत और अनूठी रचना रची थी। इस पूरी रचना में पहली पंक्ति फ़ारसी में है, जबकि दूसरी पंक्ति ब्रज भाषा में .. जो आज भी एक मील का पत्थर प्रतीत होता है .. शायद ...
यूँ तो इस अनन्त ब्रह्माण्ड का एक अल्पांश भर ही है हमारी पृथ्वी .. जिस पर बसे हम इंसानों द्वारा अनुमानतः छः हजार से भी ज्यादा बोलने-लिखने वाली उपलब्ध भाषाओं को किसी भी एक व्यक्ति विशेष के लिए बोल-सुन पाना या जान-समझ पाना असम्भव ही होता होगा या यूँ कहें कि .. वास्तव में असम्भव ही है .. शायद ...
केवल एक भाषा मात्र ही क्यों .. वैसे तो विश्व भर में उपलब्ध विज्ञान या सामान्य ज्ञान के अलावा और भी विभिन्न प्रकार की कई-कई तकनीकों व ज्ञानों की जानकारी का दायरा भी इस ब्रह्माण्ड की तरह ही असीम-अनन्त जान पड़ता है। जितना भी हम जान-सीख जाएँ, पर हम अपनी गर्दन अकड़ाने के लायक नहीं बन सकते हैं कभी भी। क्योंकि हम ताउम्र अपनी अन्तिम साँस तक जितना कुछ भी जान-सीख पाते हैं ; वो सब विश्व के समस्त ज्ञान-भंडार की तुलना में नगण्य ही जान पड़ता है। सम्भवतः प्राकृतिक रूप से भी विश्व के सम्पूर्ण ज्ञान को जान-समझ पाने की माद्दा हम में से किसी एक व्यक्ति विशेष के पास है भी नहीं .. शायद ...
ऐसे में .. अक़्सर जो बुद्धिजीवी लोग "मेरी भाषा - तेरी भाषा" जैसी बातें करते रहते हैं या हिन्दी-अंग्रेजी के सम्बन्ध में वैमनस्यता का राग अलापते रहते हैं या फिर जिनको आवश्यकतानुसार भी दूसरी भाषा का किया गया प्रयोग एक घुसपैठ की शक़्ल में दिखता है या दूसरी अन्य भाषओं के प्रयोग से अपनी भाषा का अस्तित्व खतरे में जान पड़ता है; उन सभी महानुभावों की सोच पर तरस खाने के लिए अमीर ख़ुसरो जी की यह रचना ही काफ़ी है  .. शायद ...

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, (फ़ारसी)
दुराये नैना बनाये बतियां | (ब्रज)
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान, (फ़ारसी)
न लेहो काहे लगाये छतियां || (ब्रज)

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
(फ़ारसी)
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां || (ब्रज)

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
(फ़ारसी)
किसे 
पड़ी है जो जा सुनावे

पियारे पी को हमारी बतियां || (ब्रज)


चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान

हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह | (फ़ारसी)
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां || (ब्रज)

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ |
 (फ़ारसी)
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां ||
 (ब्रज)

इस रचना की शुरू की चार पँक्तियों -

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां ।
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ।।

- का अर्थ इसके जानकारों के अनुसार है :-

"आँखें फेर कर और बातें बना के मेरी बेबसी को नजरअंदाज मत करो। जुदाई की तपन से जान निकल रही है। ऐसे में तुम मुझे अपने सीने से क्यों नही लगा लेते ?"

कुछ जानकारों के अनुसार गुलज़ार साहब के मन को उस लोकप्रिय गीत के मुखड़े के लिए अमीर ख़ुसरो जी की वर्षों पुरानी इसी रचना ने कुछ हद तक या शायद बहुत हद तक अभिप्रेरित किया था।
ख़ैर ! .. इन बातों में जो भी सच्चाई हो ..  फ़िलहाल बात हो रही है फिल्मों के बहाने, अंजान भाषा या शब्दों की .. जिनके अर्थ नहीं जान पाने से उनका अर्थ और भाव नहीं जान पाते हैं हम। अपनी भाषा से इतर अन्य भाषाओं की जानकारी नहीं होने की कुछ ऐसी ही विवशता होती रहती हैं, कभी न कभी हमारे जीवन में हमारे साथ।
परन्तु उस दौर में (1998 में गूगल के आने के पहले तक) अनसुलझे सवालों को सुलझाने के लिए गूगल नामक कोई सहज-सुलभ माध्यम उपलब्ध नहीं था।  जिस से पलक झपकते ही किसी भी तरह की जानकारी प्रायः हासिल की जा सकती हो। तब तो जिस भाषा का शब्दकोश पास में नहीं होता था, तो उस भाषा के किसी भी अंजान शब्द का अर्थ जानने के लिए हमें अपने अभिभावक, शिक्षक या मुहल्ले के किसी अभिभावकस्वरुप जानकार व्यक्ति पर ही निर्भर होना पड़ता था।

एक बार एक और ऐसा ही अंजाना शब्द पल्ले पड़ा था, जिसका अर्थ पहली बार में पल्ले नहीं पड़ा था ; जब वह शब्द सुना था। वह भी तब, जबकि सन् 1993 ईस्वी में फ़िल्म ग़ुलामी की तरह ही संयोगवश मिथुन चक्रवर्ती की ही एक फ़िल्म आयी थी - " ...... " ... ख़ैर ! .. अब उस फ़िल्म और उस से जुड़े अंजाने शब्द की बातें "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-२)." के लिए छोड़ते हैं और अगली बार मिलते हैं .. बस यूँ ही ...

(तब तक आप नीचे साझा किए गए लिंक से फ़ारसी मुखड़े वाले उस लोकप्रिय गीत से रूबरू हो लीजिए , अगर समय हो तो .. 

"ज़े-हाल-ए-मिस्कीं, मकुन-ब-रन्जिश, बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है").








Tuesday, May 26, 2020

ऊई माँ ! ~~~


प्रायः टी. वी. पर कोई भी अपना प्रिय कार्यक्रम देखते समय बीच-बीच में अत्यधिक या कम भी विज्ञापन आने पर अनायास ही हमारी ऊँगलियाँ चैनल बदलने के लिए हरक़त में आ जाती हैं, जबकि उस देखे जा रहे प्रसारित कार्यक्रम को, उन्हीं बीच में आने वाले अनचाहे विज्ञापनों वाली कम्पनियों द्वारा प्रायोजित होने के कारण हम देख पाते हैं। खैर .. आज का विषय इन से इतर है।
ऐसे ही चैनलों को बदलते वक्त कभी-कभार हमारे सामने मूक-बधिरों के लिए दिखाए जा रहे समाचार से भी अनचाहे हमारा सामना हो जाता है। है ना ? उस वक्त समाचार वाचक/वाचिका की भावभंगिमाओं से अनायास दिमाग में दो बातें कौंधती हैं। एक तो उस युग या कालखंड का मानव जाति की, जब उनकी कोई भाषा या बोली नहीं रही होगी उनकी अभिव्यक्ति के लिए और दूसरी अपनी युवावस्था में, (वो भी तब .. जब मोबाइल और व्हाट्सएप्प नहीं हुआ करता था) अपने प्रेमी/प्रेमिका से छुप-छुपा कर इशारों में बात करने की या फिर सयुंक्त परिवार में किसी सगे (?) की बातें/शिकायतें करते वक्त उस के द्वारा सुन लेने के डर से आपस में इशारे में बात करते दो रिश्तेदारों की।
मतलब .. भाषा, बोली और लिपि अगर ना हो तो हम फिर से आदिमानव या मूक-बधिरों के लिए प्रसारित होने वाले समाचार के वाचक/वाचिका बन जाएं .. शायद ...।
गूगल बाबा के मार्फ़त सर्वविदित है कि दुनिया में संयुक्त राष्ट्र के अनुसार  कुल भाषाएँ  6809 हैं , जिनमें से नब्बे प्रतिशत भाषाओं को बोलने वालों की संख्या एक लाख से भी कम है। लगभग दो सौ से डेढ़ सौ भाषाएँ ऐसी हैं जिनको दस लाख से अधिक लोग बोलते हैं।
इनमें से सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा चीन की राजकीय भाषा मंडारिन है।
विश्व की बोलने वालों की संख्या के आधार पर मुख्य दस भाषाओं का क्रम निम्न प्रकार है - मंडारिन, अंग्रेजी, हिन्दी, स्पेनिश,रुसी,अरबी,बंगाली, पुर्तगीज,मलय-इंडोनेशियन,फ्रेंच।
विश्व में बोलने वालों की जनसंख्या के आधार पर तीसरे क्रम की भाषा हिन्दी, जो की भारत की राष्ट्रभाषा/राजभाषा भी है, की भारत में लगभग अट्ठारह उपभाषाएँ/बोलियाँ हैं। जिनमें अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, हड़ौती,भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुमाउँनी, मगही आदि प्रमुख हैं।
तमिल भाषा को दुनिया की सबसे पुरानी भाषा के तौर पर मान्यता मिली हुई है और यह द्रविड़ परिवार की सबसे प्राचीन भाषा है. करीब 5000 साल पहले भी इस भाषा की उपस्थिति थी.
प्रत्येक भाषा का विकास बोलियों से ही होता है। जब बोलियों के व्याकरण का मानकीकरण हो जाता है और उस बोली के बोलने या लिखने वाले इसका ठीक से अनुकरण करते हुए व्यवहार करते हैं तथा वह बोली भावाभ्यक्ति में इतनी सक्षम हो जाती है कि लिखित साहित्य का रूप धारण कर सके तो उसे भाषा का स्तर प्राप्त हो जाता है। किसी बोली का महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि सामाजिक व्यवहार और शिक्षा व साहित्य में उसका क्या महत्व है।
लिपि या लेखन प्रणाली का अर्थ होता है, किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग। ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है। लिपि और भाषा दो अलग अलग चीज़ें होती हैं। भाषा वो चीज़ होती है जो बोली जाती है, लिखने को तो उसे किसी भी लिपि में लिख सकते हैं।
हमारे पुरखों ने अक़्सर कहा है कि ..
" कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर वाणी "
वैसे कोस दूरी नापने का एक भारतीय माप (इकाई) है। अभी भी गाँव में बुजुर्ग लोग दूरी के लिये कोस का प्रयोग करते हुए मिल जाते हैं।
एक कोस बराबर दो मील और एक मील बराबर 1.60 किलोमीटर होता है। मतलब एक कोस बराबर लगभग 3.20 किलोमीटर होता है।
विश्व की अन्य भाषाएँ और अलग-अलग धर्मग्रंथें जहाँ एक तरफ इंसानों को अलग-अलग समूहों में बाँटती हैं ; वहीं दूसरी तरफ विज्ञान की भाषा या किताबें सम्पूर्ण विश्व के इंसानों को एक भाषा के सूत्र में जोड़ती है। मसलन - पानी या जल के लिए विज्ञान की भाषा में पूरे विश्व के लिए एक ही नाम है - H2O. चाँदी के लिए - Ag, सोना के लिए - Au, वग़ैरह-वग़ैरह। मतलब विश्व के किसी भी हिस्से या सम्प्रदाय का वैज्ञानिक होगा, वह पानी को H2O ही कहेगा। इस विज्ञान की भाषा के लिए कोसों दूरी का भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। फिर न्यूटन के गति के नियमों या पाइथागोरस के प्रमेय को विज्ञान का विश्व एक-सा मानता है। विज्ञान या गणित का विषय हर बार, हर पल जोड़ने का काम करता है।
कभी-कभी आसपास देख कर बहुत ही दुःख होता है, जब कोई भी बुद्धिजीवी अपने जन्मस्थल की भाषा को लेकर अपनी गर्दन अकड़ाता है और उसे विश्व में अव्वल साबित करने की कोशिश करता है। एक बार एक कवि सम्मेलन में देखने और सुनने के लिए मिला भी कि मंच से एक महोदय अपनी गर्दन अकड़ाते हुए भोजपुरी (उप)भाषा को विश्व की सर्वोत्तम और सब से ज्यादा बोली जाने वाली भाषा तक कह गए। कमाल की बात कि हॉल में बैठे सभी बुद्धिजीवी लोगों का समूह उसे सुनता रहा। किसी ने इस बात का तार्किक विरोध नहीं किया, सिवाय मेरे। साथ ही ऐसे लोग अन्य भाषा, खासकर अंग्रेजी को और वह भी साल में एक बार हिन्दी पखवाड़े के दौरान, अपना दुश्मन मानते हैं। मानो भाषा ही अंग्रेजों जैसी भारत की दुश्मन हो। जबकि अंग्रेजों के दिए कई परिधान, कई तौर-तरीके और कई राष्ट्रीय इमारतें स्वीकार्य हैं इन्हें। आज भी हमारे स्वतन्त्र भारत में जज, वक़ील, रेल कर्मचारी, पुलिसकर्मी इत्यादि अंग्रेजों के तय किए गए लिबासों में ही दिखते हैं। 
अब ये तो स्वाभाविक है कि हमारी स्थानीय भाषा हमको अच्छी लग सकती है, लगनी भी चाहिए। अपनी माँ की तरह प्यारी और पूजनीय भी लग सकती है। पर हम उनके विश्वसुंदरी होने की घोषणा नहीं ही कर सकते ना ? और हाँ ... पड़ोस की अन्य भाषा को माँ नहीं तो कम से कम अपनी चाची, मौसी या बुआ की तरह तो मान दे सकते हैं ना ? या नहीं ? उस से तो हम और समृद्ध ही होंगे, ना कि विपन्न ..शायद..।
                              आज हम फिलहाल बिहार की पाँच आंचलिक भाषाओं - अंगिका, बज्जिका, भोजपुरी, मगही और मैथिली में से बिहार की राजधानी- पटना जिला , उसके आसपास के क्षेत्रों और बुद्ध के ज्ञान-प्राप्ति वाला पावन स्थल- बोधगया वाले गया जिला की मूल उपभाषा - मगही उपभाषा की विशेषता के लिए बिना अपनी गर्दन अकड़ाए एक रचना/ विचार और उसके वाचन का विडिओ लेकर आएं हैं।
दरअसल ब्लॉग के कई मंचों द्वारा साप्ताहिक रूप से दिए गए किसी विषय/शब्द या चित्र पर चिट्ठाकारों द्वारा रची गई रचनाओं की तरह ही यह भी पटना के एक ओपन मिक वाले मंच पेन ऑफ़ पटना (Pen of Patna = POP) द्वारा 2018 में दिए गए एक विषय/वाक्य - " मेरी भाषा ही मेरी पहचान है " के लिए इसा लिखा था। POP के द्वारा ही इसके वाचन का वीडियो भी बनाया गया था। वीडियो बनने का :-

स्थान :- पटना के गंगा किनारे का दीघा घाट पर .. दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल के पास, जिसे लोकनायक जय प्रकाश नारायण सेतु के नाम।से बुलाते हैं।
दिनांक :- 10.06.2018, लगभग दो साल पहले।
समय :- सुबह लगभग छः बजे से आठ बजे के बीच।

POP द्वारा इस वीडियो का यूट्यूब पर प्रसारण 23.10.2018 को किया गया था। इस दिन बिहार में मगही-दिवस मनाया जाता है।          मगही का पहला महाकाव्य - गौतम - महाकवि योगेश द्वारा 1960-62 में रचे जाने के बाद से ही उनके जन्मदिन के दिन यह मनाया जाता है।
पहले मगही भाषा में रचना की प्रस्तुति कर रहे हैं और कुछ भी पल्ले ना पड़े तो आपकी सुविधा के लिए उसका हिन्दी अनुवाद भी इसके नीचे लिख रहा हूँ। उम्मीद है .. आप सभी डोमकच, ठेकुआ, छठ, द्वार-पूजा जैसे शब्दों से भली-भाँति परिचित होंगे। इसी उम्मीद के साथ आपके लिए मगही उपभाषा यानि बोली और हिन्दी भाषा, दोनों  ही में रचना/विचार प्रस्तुत है। साथ ही पारम्परिक परिधान में इसके वाचन का वीडियो भी है। तो ...पढ़िए भी .. साथ ही ..सुनिए और देखिए भी ... (मेरी आवाज़ अगर थोड़ी कमजोर लगे तो शायद इअरफ़ोन लगाना पड़ सकता है वैसे।) ...

मागधी के गंगोत्री
( मगही भाषा में ).
हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई
मागधी के गंगोत्री से निकलल
समय-धार पर बह चललई कलकल
समय बितलई , मगही कहलैलई
जन-जन के भाषा बन गैलई
हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

जहाँ बुद्ध छोड़ अप्पन राज-पाट,
कनिया आ बुतरू के अलथिन
मागधी में ही जन-जन के उपदेश हल देलथिन
मागधिए में ही महावीरो अप्पन संदेश हल कहलथिन
वही मागधी से बनलई मगही
जे हई आज हमनीसभे के भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

आज मैथिली आ भोजपुरी सहोदर बहिन हई जेक्कर
लिपि देवनागरी के सिंगार-पटार हई ओक्कर
मुगलो अएलई, अएलइ हल इंग्लिस्तान
तइयो ना मरलई मगही भाषा हम्मर
अंग्रेजी मुँहझौंसा चाहे जेतनो बढ़ैतई झुट्ठो- मुट्ठो के शान ई
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

मौगिन सभे गाबअ हत्थिन मगहीए में
चाहे सादी-बिआह के दुआर-पुजाई होवे
चाहे डोमकच के गीत, आ चाहे ठेकुआ गढ़े बखत
छट्ठी मईया के पावन गीत, बजअ हई संघे ढोलक के संगीत।
दुःख, विपत्ति के बखत होए, चाहे खुसी के बतिया
मुँहवा से अकबका के निकल पड़अ हई
मींड़ लगल मगहीए में - " अगे ~~ मईया ~~ ... " *
काहे से कि हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।

नएकन शहरू लइकन-लइकियन
ना जाने काहे ई बोले में सरमाबअ हथिन
माए-बाबु चाहे रहथिन जईसन
माए-बाबु तअ ओही रहथुन
अप्पन माए-बाबु जईसन हई मगही हम्मर भाषा
हम्मर भाषा ही हम्मर पहचान हई।
★~~~~~~~~~~~~~~~◆■◆~~~~~~~~~~~~~~★
मागधी की गंगोत्री
( हिन्दी भाषा में अनुवाद ).
है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है
मागधी की गंगोत्री से निकली
समय-धार पर बह चली कलकल
कालान्तर में वही मगही कहलायी
जन-जन की भाषा बन गई
है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

बुद्ध जहाँ अपना राज-पाट आए थे छोड़ कर
अपनी पत्नी और अपने बेटे को भी छोड़ कर
दिए थे उपदेश बौद्ध-धर्म का जन-जन को मागधी भाषा में ही
महावीर के जैन-धर्म के सन्देश की भाषा भी थी मागधी
उसी मागधी से बनी भाषा मगही
जो है आज हम सभी की भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

आज मैथिली और भोजपुरी हैं सगी बहनें जिसकी
श्रृंगार है जिसकी लिपि देवनागरी
यहाँ मुग़ल भी आए, आए थे अंग्रेज भी
तब भी मिटी नहीं मगही भाषा हमारी
चाहे जितनी बढ़ाए अंग्रेजी हमारी झूठी शान
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

औरतें सारी यहाँ की मगही में ही गाती हैं लोकगीत
चाहे शादी-विवाह की द्वार-पूजा की रस्म हो या डोमकच के गीत
या फिर छठ पूजा में ठेकुआ बनाते समय छठी मईया के गीत
साथ बजा-बजा कर ढोलक के संगीत
दुःख की घड़ी हो या ख़ुशी के लम्हें
अनायास मुँह से निकल पड़ती है आवाज़
मींड़ लगी मगही में ही - " अगे ~~  मईया ~~.. " *
क्यों कि है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।

ना जाने क्यों शहरी युवा लड़के-लड़की
शरमाते हैं बोलने में अपनी भाषा मगही
माँ-पिता जी जिस हाल में हों, हों वे जैसे भी,
बदले जा सकते नहीं, वे तो किसी के भी रहेंगे वही
हमारे अभिभावक जैसा ही है मगही हमारी भाषा
हमारी भाषा ही हमारी पहचान है।
★~~~~~~~~~~~~~~~◆■◆~~~~~~~~~~~~~~★
{ * :-  अगे मईया  = ओ माँ ! = ऊई माँ ! }.

{ विशेष :- दरअसल मगही एक बोली या उपभाषा है, परन्तु में रचना में इसे बार-बार भाषा कहा गया है। इस भूल को नजरअंदाज कर के ही आप सभी पढ़िए या विडियों को सुनिए या देखिए। }.

फिर मिलेंगे .. इसी उम्मीद के साथ ...☺
                             






                 

Thursday, December 19, 2019

हम कब होंगें कामयाब ...?

" हम होंगे कामयाब एक दिन "... जैसा मधुर , कर्णप्रिय और उत्साहवर्द्धक समूहगान जिसे हम में से शायद ही कोई होगा, जिसने जन्म लेने और बोलना शुरू करने के बाद विद्यालय जाने वाले बचपन से लेकर अब तक ..चाहे वह जिस किसी भी आयुवर्ग का हो, वह लयबद्ध गाया ना हो या फिर सुना या गुनगुनाया ना हो। जब कभी भी हम निजी जीवन में भी नकारात्मक भाव से ग्रसित होते हैं तो यह समूहगान हमें तत्क्षण ऊर्जावान कर देता है। कई बार तो इस गाने को हम गुनगुनाते हुए स्वयं को और कभी कभार अपनों या अन्य को भी आशावान बना देते हैं। उम्मीद के पौधों को कुम्हलाने से बचाने का प्रयास करते हैं।
इसके विषय में कुछ अन्य बातों की चर्चा आगे बढ़ाने के पहले , उस गाने को हम गा या गुनगुना या सुन नहीं सकते तो कम से कम आइए एक बार हम सब मिल कर पढ़ ही लेते हैं -

"होंगे कामयाब, होंगे कामयाब
हम होंगे कामयाब एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
नहीं डर किसी का आज
नहीं भय किसी का आज
नहीं डर किसी का आज के दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज के दिन
हम होंगे कामयाब एक दिन ... "

दरअसल यह समूहगान अंग्रेजी भाषा की रचना (जिसकी चर्चा आगे करते हैं) से हिन्दी में अनुवाद भर है, जिसका अंग्रेजी रूप इस प्रकार है -

"We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
I do believe
I do believe
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day.
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand, some day.
We'll walk hand in hand, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We shall live in peace,
We shall live in peace,
We shall live in peace,
We shall live in peace,
We shall live in peace, some day.
We shall live in peace, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We shall all be free,
We shall all be free,
We shall all be free,
We shall all be free,
We shall all be free, some day.
We shall all be free, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We are not afraid,
We are not afraid,
We are not afraid,
We are not afraid,
We are not afraid, TODAY
We are not afraid, TODAY
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
I do believe
I do believe
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day."

हम में से कई लोगों को इसके अंग्रेजी से हिंदी रूपांतरण वाली बात  की सच्चाई का शायद पता भी हो ।
परन्तु शायद अधिकांश लोगों को ये ज्ञात हो कि ... इसे गिरिजा कुमार माथुर जी ने पहले हिन्दी में लिखा है और बाद में हिन्दी से अंग्रेजी में रूपांतरण हुआ है।
परन्तु ... इतिहास पर गौर करें तो इस विश्व-प्रसिद्ध समूहगान के अंग्रेजी भाषा से  हिन्दी भाषा में रूपांतरण होने की बात की पुष्टि होती है। दरअसल .. इसे सर्वप्रथम अमेरिकी मेथोडिस्ट मंत्री ( American Methodist ( प्रोटेस्टेंट चर्च के एक सदस्य )  Minister ) - Charles Albert Tindley द्वारा अंग्रेजी में ईसामसीह के सुसमाचार भजन (Hymn) के रूप में लिखा गया था, वे संगीतकार भी थे। यह लगभग 1900 में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसे 1954 से 1968 तक चलने वाले नागरिक अधिकारों के आंदोलन ( Civil Rights Movement ) में विरोध-गान (Protest-Anthem) के रूप में गाया गया था।

भारत में भी इसका भावान्तर रूप सहर्ष बिना भेद भाव किए अपनाया गया। मध्यप्रदेश के रहने वाले गिरिजा कुमार माथुर जी , जो स्वयं स्कूल-अध्यापक थे,  ने इसका हिन्दी अनुवाद किया था। इस तरह यह भावान्तर-गीत एक समूह-गान के रूप में प्रचलित हो गया। हमारे रगों में रच-बस गया। तब से अब तक बंगला भाषा ( "आमरा कोरबो जॉय..." के मुखड़े के साथ) के साथ-साथ कई सारी भाषाओं में रूपांतरित किया जा चुका है। कहते हैं कि गिरिजा कुमार माथुर जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ-साथ व्यास सम्मान, शलाका सम्मान से भी सम्मानित किया गया था। उन्हें साहित्य और संगीत से काफी लगाव था। उन्होंने कई कविताएँ भी रची थी। कहते हैं कि वे एक लोकप्रिय रेडियो चैनल - विविध भारती - के जन्मदाता थे।
इस तरह अमेरिकी Charles Albert Tindley की लेखनी और सोचों से जन्म लेकर यह उत्साहवर्द्धक समूहगान गिरजाघर में शैशवास्था बीता  कर और फिर भारतीय गिरिजा कुमार माथुर की लेखनी से रूपान्तरित हो कर विरोध-गीत और उत्साह-गान तक का यौवनावस्था का सफर तय कर .. आज भी हमारे देश-समाज का चिरयुवा समूहगान बन कर हमारा तन-मन अनवरत तरंगित करता आ रहा है।
दरअसल आज इसका उल्लेख उन बुद्धिजीवियों तक पहुँचाना जरूरी महसूस हुआ, जो लोग अक़्सर अपनी भाषा, बोली, जाति-धर्म, सभ्यता-संस्कृति की अक्षुण्णता बनाये रखने के नाम पर एक दायरे में बाँध कर उन्हें जकड़े रहने की कोशिश करते हैं या सपाट भाषा में कहें तो एक बाड़े में उन्हें घेरने की बात करते हैं। अपने से इतर इन्हें अन्य सभ्यता-संस्कृति, भाषा-बोली, जाति-धर्म सभी हेय लगते हैं।
ऐसे सोंचों पर तरस तो तब आती है, जब कुछ बुद्धिजीवी वर्ग विश्व में हजारों की संख्या में बोली जाने वाली किसी एक बोली या भाषा को लेकर मिथ्या भरी अपनी गर्दन अकड़ाते हैं। अपनी भाषा या बोली पर गर्व करना एक अच्छी बात है। करनी भी चाहिए और स्वभाविक भी है। पर समानान्तर में अपनी भाषा को बोलने वाली जनसंख्या को ज्यादा या कम की तुलनात्मक अध्ययन के होड़ में अन्य भाषा या बोली का तिरस्कार करना या उसे लघुतर व कमतर मानना, कहना या किसी मंच से बार-बार ऊँची आवाज़ में इसकी घोषणा करना .. शायद मेरी समझ से उस व्यक्ति विशेष की संकुचित मानसिकता को दर्शाता है।
खैर ! अब आते हैं - इस समूहगान ..  जिसे गाते-गाते, सुनते-सुनते हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी बड़े हो कर इस धरती से अनन्त, अंतहीन यात्रा पर गमन कर जाते हैं, पर  ... सच में हम सभी जीवनकाल में पूर्णरूपेण कभी कामयाब हो भी पाते हैं क्या !?
हमें अगर कामयाबी का सही अर्थ जानना हो तो पूछना चाहिए उस आम युवा से या उसके आम गरीब अभिभावक से जो उच्च ब्याज़-दर पर कर्ज़ लेकर, अपने कुछ सपनों का गला घोंट कर, अपने बुढ़ाते भविष्य को असहाय कर के अपनी भावी पीढ़ी को उच्च शिक्षा दिलवाने का प्रबन्ध करता हो और ... ऐन मौके पर उसे एक मानसिक आघात तब लगता हो, जब उसे मालूम होता है कि उनकी संतान से बहुत कम प्राप्तांक के बावजूद .. एक औसत प्राप्तांक के आधार पर ही पड़ोस के या मुहल्ले या शहर के एक उच्च-अधिकारी दम्पति या फिर कोई धनाढ्य दम्पति की संतान का नामांकन देश के किसी उच्च शैक्षिक-संस्थान में हो गया या कोई यथोचित नौकरी मिल गई ... परन्तु उनकी संतान को नहीं ... कारण ... केवल और केवल जाति के आधार पर मिलने वाले आरक्षण के कारण। उस पल यह उत्साहवर्द्धक समूहगान उस युवा और उसके अभिभावक के कान में पिघले शीशे की तरह जलाता है। लगता है कि आखिर आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी कामयाबी का क्या यही मतलब है - आरक्षण ?

आज़ादी की रात विभाजन के आड़ में या फिर जाति-धर्म के नाम पर समाज, शहर, देश में होने वाले तमाम दंगों से हताहत परिवार .. चाहे दंगे की वजह जो भी रही हो .. को भी ये समूहगान मुँह चिढ़ाता लगता होगा।
सोचते होंगे कि आखिर इस गाने की पंक्तियाँ कब चरितार्थ होगी भला !!! है ना? यही हमारी कामयाबी है क्या ???
आज हमारी सामाजिक मानसिकता की मनःस्थिति बद-से-बदतर होने की वजह से अगर उस तेज़ाब-ग्रस्त लड़की से या फिर बलात्कृत लड़की या मासूम बच्ची से या फिर बलात्कार के बाद जलाई या मारी गई युवती के परिवार से पूछा जाए तो इस गाने का अर्थ उनके लिए बेमानी होगा शायद ...

बचपन में स्कूल के सांस्कृतिक-कार्यक्रमों के सुअवसरों पर सजे मंचों से लेकर युवाकाल में कॉलेजों और सरकारी या राजनीतिक कार्यक्रमों में सजे मंचों से भी गाया और सुना जा रहा यह गाना जब व्यवहारिक जीवन में , समाज में ... समझ से परे और निर्रथक लगने लगता है, तो मन में बस एक ही सवाल कौंधता है ... कि ..
आखिर हम कब होंगें कामयाब ? कब होगी शांति चारों ओर ?
कब चलेंगें हम साथ-साथ ? भला कब हम किसी से डरेंगें नहीं ?
कब नहीं होगा किसी का भी भय ?
आखिर कब तक ..आखिर कब तक रखें .. मन में विश्वास ?
आखिर इन सारे सवालों का जवाब कब तलाश पायेंगें हम सब ?
आइए मिल कर पूछते हैं .. पहले स्वयं से ही .... कि ...
हम कब होंगें कामयाब ...???