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Friday, September 20, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (१७) - "चहलकदमियाँ"- बस यूँ ही ...

(१):-

बस रात भर
मोहताज़ है
दरबे का
ये फ़ाख़्ता

वर्ना दिन में बारहा
अनगिनत मुंडेरों
और छतों पर
चहलकदमियाँ
करने से कौन
रोक पाता हैं भला

आकाश भी तो
नाप ही आता है
परों के औक़ात भर
ये मनमाना ...

(२):-

मेरी ही
नामौज़ूदगी के
लम्हों को
अपनी उदासी का
सबब बताते तो हैं
अक़्सर...

पर बारहा
उन लम्हों में
उन्हें गुनगुनाते
थिरकते
और मचलते भी
देखा है
रक़ीबों के गीतों पर...

(३):-

शौक़ जो पाला है
हमने मुजरे गाने के
तो ..... फिर ...
साज़िंदों पर रिझने
और उन्हें रिझाने का
सिलसिला
थमेगा कब भला !?...

मुजरे हैं तो
साजिंदे होंगे
और ...
फिर साजिंदे ही क्यों
अनगिनत क़द्रदानों के
मुन्तज़िर भी तो
ये मन
होगा ही ना !?...

(४):-

मदारी और मुजरे
कभी
हुआ करते थे
नुमाइश
और
वाह्ह्ह्ह्ह्-वाही के
मुन्तज़िर ...

इन दिनों
हम शरीफ़ों के
शहर में भी
ये चलन कुछ ...
पुरजोर हो चला है ...