Saturday, July 3, 2021

नयी जोड़ी से 'रिप्लेसमेंट' ...

'रिप्लेसमेंट' ...
तो है यूँ
अंग्रेजी का 
एक शब्द मात्र,
हिंदी में 
कहें जो
अगर तो ..
प्रतिस्थापन,
जिनसे यूँ तो
होता है 
बेहतर ही 
कभी भी 
हमारा जीवन .. शायद ...

'रिप्लेसमेंट' हो
चाहे घर के
पुराने 'फ़र्नीचरों' का
या हो मामला 
पूरे किसी पुराने 
घर का भी
या फिर हो
भले ही ख़र्चीले
शल्य चिकित्सा से
गुर्दे या दिलों के
या फिर घुटनों के
'रिप्लेसमेंट' का,
मिलता है जिनसे 
उन बीमारों को
नया जीवन .. शायद ...

कई बार
साथ समय के 
बदलते समाज में
किसी विधवा के
भूतपूर्व पति का
'रिप्लेसमेंट' 
या फिर 
किसी विधुर की
मृत पत्नी का
'रिप्लेसमेंट',
अक़्सर ही ..
बसा देता है
इनका सूना
घर-आँगन,
उजड़ा जीवन .. शायद ...

पतझड़ में
पियराए पत्तों के
'रिप्लेसमेंट' के बाद
किसी बसंत 
या हेमंत के मोहक
बदलते रंगत हों,
या पुरानी बिछिया
या किसी पायल के
बदले में मनपसंद
नयी जोड़ी से 'रिप्लेसमेंट',
या फिर कलाइयों में
पुरानी चूड़ियों से
हरी-हरी, नयी-नयी
चूड़ियों के 'रिप्लेसमेंट' से
हो सजता सावन .. शायद ...

पर कुछ रिश्ते
होते हैं 
ऐसे भी दुर्लभ,
जो अक़्सर
'रिप्लेसमेंट' या
प्रतिस्थापन वाले
दिल से भी
होते नहीं हैं
प्रतिस्थापित 
यानी अंग्रेजी में
कहें तो
'रिप्लेसड' ...
सारा जीवन .. बस यूँ ही ...


Thursday, July 1, 2021

मचलते तापमानों में ...

(1) मानो इस संस्कारी बुद्धिजीवी समाज को आज तक भी किसी मैना बाई की प्रतीक्षा हो।
(2) अपने ऊपर होने वाली हिंसा के विरोध में प्रदर्शन के लिए लाल छतरी को प्रतीक चिन्ह की तरह प्रयोग किया था, जिसे आज भी व्यवहार में लाया जाता है।
(3) वह भी तब, जबकि इस की दशा (दुर्दशा) समाज या सरकार की नज़र में धूम्रपान की तरह केवल सार्वजनिक स्थानों के लिए तो निषेध हैं, परन्तु पूरी तरह वर्जित नहीं है।
(4) ये शरीफ़ों का शहर है,
      यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
      हर तरफ शराफ़त बरसती है
      पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

     
(निम्नलिखित "मचलते तापमानों में ... " नामक बतकही/रचना/विचार के चारों खण्डों से हैं उपर्युक्त पंक्तियाँ ...)

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-१) :-

मुहल्ले से बचने के लिए :-
कभी .. कहीं .. विवेकानंद जी के एक आत्मसंस्मरण में पढ़ा था, कि वह जब युवावस्था में पहली-पहली बार धर्म की ओर अग्रसर हुए थे, तो उनके घर का रास्ता वेश्याओं के मोहल्ले से होकर गुजरने के कारण, स्वयं को संन्यासी और त्यागी मानते हुए उस मुहल्ले से बचने के लिए मील-दो मील अतिरिक्त घूम कर इतर रास्ते से कलकत्ता (कोलकाता) के गौरमोहन मुख़र्जी 'लेन/स्ट्रीट' में अवस्थित अपने घर आया जाया करते थे।

प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो :-
इतिहास की मानें तो राजपूताना वंश की एक शाखा- शेखावत (क्षत्रिय) वंश के राजा अजीत सिंह ने झुंझुनूं (राजस्थान) के अपने खेतड़ी कस्बे में एक बार विविदिशानंद जी को स्वामी के रूप में आमन्त्रित किया था। स्वामी जी के जीवन में राजा साहब की एक अहम भूमिका रही थी। इनको विश्व स्तर पर प्रसिद्धि प्रदान करने वाले शिकागो के धर्म सम्मेलन में इनके जाने के लिए उन्होंने ही अपने दीवान- जगमोहन लाल के मार्फ़त आर्थिक सहायता देकर सारी व्यवस्था करवायी थी। वहाँ जाने से पहले उन्होंने ही इनको विविदिशानंद की जगह विवेकानंद नाम दिया था। शिकागो के धर्म सम्मेलन में इनके पहने गए पोशाक- चोगा, कमरबंद (फेंटा), साफ़ा (पगड़ी) आदि तक राजा साहब की ही सप्रेम भेंट थी। बाद में स्वामी जी के रामकृष्ण मिशन की शुरुआत करने वाले सपने के सच हो पाने में भी आर्थिक सहयोग का उनका योगदान रहा था।
उन्हीं राजा साहब ने एक बार अपने राजा-रजवाड़े की परम्परा के अनुसार विवेकानंद जी के स्वागत-समारोह के लिए राज नर्तकी- मैना बाई को बुलवा लिया था। सन्‍यासी विवेकानंद जी उस वक्त अपनी युवावस्‍था में अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में करना नहीं सीख पाए थे। अतः ब्रह्मचर्य टूटने के भय से स्वयं को एक कमरे में बंद कर लिए थे। तब इस घटना को मैना बाई ने अपनी कला और अपने आप को तिरस्कृत समझ कर, स्वामी जी को लक्ष्य करते हुए, सूरदास जी के भजन को बहुत ही तन्मयता से गाया :-
"प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो |
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ||
एक लोहा पूजा मे राखत, एक घर बधिक परो |
सो दुविधा पारस नहीं देखत, कंचन करत खरो ||
एक नदिया एक नाल कहावत, मैलो नीर भरो |
जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, सुरसरी नाम परो ||
एक माया एक ब्रह्म कहावत, सुर श्याम झगरो |
अबकी बेर मोही पार उतारो, नहि पन जात तरो ||"

बंद कमरे में भी स्वामी जी तक उसकी दर्द भरी, पर सुरीली आवाज़ पहुँच पा रही थी। वह उसकी भावना को समझ पा रहे थे। वह भजन के माध्यम से बतलाना चाह रही थी, कि एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है और कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि वह दोनों को ही सोना कर दे। अगर पारस पत्थर देवता के मंदिर में पड़े लोहे के टुकड़े को ही सोना कर दे और कसाई के घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को नहीं कर सके, तो वह पारस के नकली होने में कतई संदेह नहीं होना चाहिए।
कहा जाता है, कि स्वामी जी ने राज नर्तकी के इस भजन से प्रभावित होकर मैना बाई को नमन कर के कहा कि - "माता मुझसे भूल हुई है। मुझे माफ कर दो। मुझे आज ज्ञान की प्राप्ति हुई है।" तत्पश्चात उस दिन उन्होंने माना था, कि उस राज नर्तकी को देखकर पहली बार उनके भीतर ना तो आकर्षण हुआ था और न ही विकर्षण। उसके लिए ना प्रेम जागा और न ही नफरत। उन्होंने माना कि - "अब मैं पूरी तरह से संन्यासी बन चुका हूँ। क्योंकि यदि विकर्षण भी हो, तो वह आकर्षण का ही रूप है, बस दिशा विपरीत है। नर्तकी या वेश्या से बचना भी पड़े तो कहीं अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ यह वेश्या का आकर्षण ही है; जिसका हमें डर रहता है। दरअसल वेश्याओं से कोई नहीं डरता, वरन् अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के प्रति आकर्षण से डरता है।"

जिन्हें तुम सज्जन कहते हो :-
एक बार एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की इस शिकायत पर कि कलकत्ता के दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण परमहंस के वार्षिकोत्सव में बहुत सारी वेश्याओं के आने के कारण बहुत से सभ्य लोग वहाँ आने से कतराते हैं; उन्होंने अपनी इतर राय देते हुए कहा था, कि "जो लोग मन्दिर में भी यह सोचते हैं, कि यह औरत एक वेश्या है, यह मनुष्य किसी नीच जाति (तथाकथित) का है, दरिद्र है या फिर यह एक मामूली आदमी है; ऐसे लोगों की संख्या, जिन्हें तुम सज्जन कहते हो, यहाँ जितनी कम हो उतना ही अच्छा होगा। क्या वे लोग, जो भक्तों की जाति, लिंग या व्यवसाय देखते हैं, हमारे प्रभु को समझ सकते हैं? मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ, कि सैकड़ों वेश्याएँ यहाँ आयें और ईश्वर के चरणों में अपना सिर नवायें और यदि एक भी सज्जन (?) न आये तो भी कोई हानि नहीं। आओ वेश्याओं, आओ शराबियों, आओ चोरों, सब आओ, श्री प्रभु का द्वार सबके लिए खुला है।"

स्वामी विवेकानंद जी के जीवन से जुड़े उपर्युक्त तीनों बिन्दुओं का लब्बोलुआब ये है, कि जो स्वामी जी अपने शुरूआती दौर में वेश्यालयों से कतरा कर गुजरते थे, वही मैना बाई के गाए भजन से प्रेरित हो कर बाद में उन लोगों के लिए धर्मालयों में भी प्रवेश की वक़ालत करने लगे थे। पर .. हमारा संस्कारी बुद्धिजीवी समाज आज भी इन के विषय में खुल कर बातें करने से भी कतराता है। दूसरों को भी बातें करने की अनुमति नहीं देता है। पर प्रायः लोगबाग किसी यौन रोगों की चर्चा की तरह दबी जुबान में बातें करते मिलते हैं। मानो इस संस्कारी बुद्धिजीवी समाज को आज तक भी किसी मैना बाई की प्रतीक्षा हो।

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-२) :-

लाल छतरी :-
तभी तो वर्तमान दौर में मनाए जाने वाले तमाम "विश्वस्तरीय दिवसों" की होड़ में हमारे संस्कारी बुद्धिजीवी समाज ने लगभग एक माह पहले, 2 जून को मनाए जाने वाले "अंतरराष्ट्रीय वेश्या दिवस" की अनदेखी की है। जबकि सर्वविदित है, कि सन् 1975 ईस्वी में फ्रांस के ल्योन शहर में 2 जून को, वहाँ की पुलिस द्वारा वहाँ के यौनकर्मियों के साथ क़ानून की आड़ में ग़ैरक़ानूनी तरीके से अत्यधिक ज़ुल्म किए जाने के विरुद्ध में, जुलूस और धरना-प्रदर्शन के माध्यम से लगभग सौ यौनकर्मियों ने एकत्रित होकर विरोध प्रकट करने का साहस किया था। उसके अगले वर्ष, सन् 1976 ईस्वी से इसी दिन यानी 2 जून को "अंतरराष्ट्रीय वेश्या दिवस"  (International Whores’ Day या International Sex Worker's Day) के रूप में हर साल मनाया जाता है। यह दिन उन को सम्मानित करने और उनके द्वारा हमारे समाज में झेली जाने वाली तमाम कठिनाइयों को पहचान कर दूर करने के लिए मनाया जाता है।
यूँ तो संयुक्त राज्य अमेरिका के वाशिंगटन में सन् 2003 ईस्वी के 17 दिसम्बर को "अंतरराष्ट्रीय यौनकर्मियों के हिंसा का अन्त दिवस" (International Day to End Violence Against Sex Workers) मनाए जाने के बाद से इस दिवस को भी हर साल मनाया जाता है। सर्वप्रथम सन् 2001 ईस्वी में इटली के वेनिस में यौनकर्मियों ने अपने ऊपर होने वाली हिंसा के विरोध में प्रदर्शन के लिए लाल छतरी को प्रतीक चिन्ह की तरह प्रयोग किया था, जिसे आज भी व्यवहार में लाया जाता है।
इन दो दिवसों के विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका के ही कैलिफोर्निया में 5 अक्टूबर, सन् 2002 ईस्वी को "अंतरराष्ट्रीय वेश्यावृति उन्मूलन दिवस" (International Day of No Prostitution / IDNP) मनाए जाने के बाद से इसे भी हर वर्ष मनाया जाता है।

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-३) :-

वैसे तो सच्चाई यही है, कि समाज का कोई भी अंग या इतिहास का कोई भी कालखंड, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, इनसे विहीन नहीं था और ना ही है और ना शायद रहेगा भी। समाज के विकास का इतिहास और इनके विकास का इतिहास समानांतर चलता रहा है। जो हमारे वैदिक काल में अप्सराएँ और गणिकाएँ कहलाती थीं, वही मध्ययुग में देवदासियाँ और नगरवधुएँ .. कहीं-कहीं गोलियाँ और लौंडियाँ ग़ुलामें भी पुकारी जाती रहीं तथा मुग़ल काल में तवायफ़, वारांगनाएँ या वेश्याएँ बन गर्इं, जो नाम आज भी उपस्थित हैं। और हाँ .. यौनकर्मियों जैसी संज्ञा या सम्बोधन भी जोड़ा है हमारे आधुनिक वर्तमान समाज ने।
प्रारंभ में ये धर्म से संबद्ध थीं और चौसठों कलाओं में निपुण मानी जाती थीं। मध्ययुगीन काल में सामंतवाद की प्रगति के साथ इनका पृथक् वर्ग बनता चला गया और कलाप्रियता के साथ कामवासना संबद्ध हो गईं, पर यौनसंबंध सीमित और संयत था। कालांतर में नृत्यकला, संगीतकला एवं सीमित अनैतिक यौनसंबंध द्वारा जीविकोपार्जन में असमर्थ वेश्याओं को बाध्य होकर अपनी जीविका के लिए तथाकथित समाज की तय की गई सीमारेखा वाली लज्जा तथा संकोच को छोड़ कर अश्लीलता की हद को भी पार कर के अपना जीविकोपार्जन चलाना पड़ा।
समाज में बहु विवाह, रखैल प्रथा और दासी प्रथा ने भी वैश्यावृति को प्रोत्साहित किया। पहले अनेक वेश्याएँ छोटी उम्र की लड़कियों को खरीद लेती थीं, ताकि अपने बुढ़ापे में उनके युवा होने पर उनसे अनैतिक पेशा करवा कर अपनी जीविका चला सकें। पहले संगीत और नृत्य में निपुण प्रमुख वेश्याओं को तो राजकीय संरक्षण प्रदान किया जाता था और उन्हें राजकोष से नियमित कई तरह के भत्ते भी दिए जाते थे। अनेक वेश्याओं द्वारा कई मंदिरों में भी नृत्य-गान की प्रथा थी, जिस के बदले में उन्हें धन आदि मिलता था। सामान्य वेश्याएँ नृत्य-संगीत तथा यौन व्यापार के मिलेजुले कार्य द्वारा अपना जीवन निर्वाह करती थीं। आज हमारे तथाकथित आधुनिक समाज में उसी के बदले हुए रूप में 'रेड लाइट एरिया' (Red Light Area) और 'डांस बार' (Dance Bar) जैसे ठिकाने मौजूद हैं।
तमाम तथाकथित रोकथाम संशोधन अधिनियम या उन्मूलन विधेयक के होते हुए भी समाज के अपेक्षित नैतिक योगदान के अभाव में इस समस्या का समाधान संभव नहीं है। वह भी तब, जबकि इस की दशा (दुर्दशा) समाज या सरकार की नज़र में धूम्रपान की तरह केवल सार्वजनिक स्थानों के लिए तो निषेध हैं, परन्तु पूरी तरह वर्जित नहीं है। वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहन प्रदान करने वाली मान्यताओं और रूढ़ियों का बहिष्कार करना होगा। परन्तु आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी की तरह नहीं, जिन्होंने इस कुप्रथा का विरोध करते हुए, जोधपुर के महाराज यशवंत सिंह को इन सब से विमुख करने की कोशिश की थी, तो इतिहासकारों के मुताबिक़ महाराज के दरबार की ही नन्हीं जान नाम की एक वेश्या ने रसोइए से स्वामी जी के खाने में जहर डलवा कर उनकी हत्या करवा दी थी। अतः हमें तो ईमानदारी और मनोयोग से उनके और उनके आश्रितों के जीविकोपार्जन के लिए यथोचित प्रतिस्थापन को भी तलाशना ही होगा .. शायद ...

मचलते तापमानों में ... (खण्ड-४) :-

ऐसी बहुत ही कम लड़कियाँ या महिलाएं होती हैं, जो अपनी मर्जी से देह व्यापार के धंधे में आती हैं। ज़्यादातर महिलाएं ऐसी ही होती हैं जिनके सामने या तो कोई मज़बूरी होती है या अनजाने में ही इन्हें इन बदनाम बाज़ारों में बेच दिया जाता है। ऐसी ही मज़बूर यौनकर्मियों की अनकही पीड़ा और पीड़ा की कोख़ से जन्मे चीत्कारों को समर्पित हैं, शब्दकोश से उधार लिए निम्नलिखित कुछ शब्दों की तहरीर .. बस यूँ ही ...

(१)
मुश्किल भरे चार दिन :-

यूँ मुश्किल भरे जो लगते हैं
हर महीने के चार दिन तुम्हें,
मिलती है निजात ग्राहकों से,
मिलते हैं उन्हीं दिनों चैन हमें।

(२)
सजी .. सुलगती ..

चंद रुपयों में
क़ीमत अदा
करने वाले शरीफ़ों !
सौन्दर्य प्रसाधनों से
सजी .. सुलगती ..
गोश्त लगी बोटियों की,
हमारे गर्म-नर्म लोथड़ों की ...

पर दर्द से
कटकटाती
हड्डियों की,
मन में दबे
अरमानों की,
सपनों की उड़ानों की
क़ीमत भी दे दो ना ! ...

(३)
सौभग्य बनाम सौ भाग्य :-

पाकर जीवन में बस.. एक सुहाग,
सौभाग्यवती तुम तो कहलाती हो।
भाग्य पर घर वाले खूब इतराते हैं।

भाग्य तनिक तुम मेरे भी तो देखो,
सौ भाग्य चल द्वार हर रात हमारे,
रोटी की यूँ तक़दीर बनाने आते है।

(४)
मचलते तापमान में :-

ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।
आदम की औलाद,
बने फ़िरते हैं मर्द, फ़ौलाद,
मौका मिले तो भला कब,
छोड़ते ये मस्ती हैं ?
फिर भी भईया !!! ...
ये मस्ती की बातें,
कोठे की रातें,
रंगीन रातों की बातें,
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

अरी सलमा !
ओ री नग़मा !
तू बता ना जरा
फिर हर शाम भला
किसकी जाम छलकती है ?
किसके लिए तू मटकती है,
तू इतनी सजती-संवरती है,
लिपस्टिक-पाउडर चुपड़ती है।
सारी रात जाग-जाग कर,
सारा दिन तू कहँरती है।
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

पेट की आग बुझाने और
चूल्हा जलाने की ख़ातिर,
लंपटों की तू लपटें बुझाती है,
जो नसों में उनके लपलपाती है।
ना जाने कितनों के बदन की
तू गर्मियाँ सोखती है ?
अलग-अलग मनचलों के
मचलते तापमानों में
अपने बदन के तापमान,
थर्मामीटर-सा तू बदलती है ?
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।

यूँ हैं तो इस शहर के मर्द सारे,
स्कूल-कॉलेजों से मिले
"चरित्र प्रमाण पत्र" वाले,
शरीफ़ हैं सारे, जो आ नहीं सकते।
तो ऐसे में अहिल्या वाले इंद्र या
क्या कुंती वाले सूरज देव की
छली नज़रें तुम्हें रोज़ छलती हैं ?
उघाड़ने वाले तमाशबीनों में
लगाता है क्या कोई पैबंद भी वहाँ,
जहाँ से तुम्हारी नन्हीं-नन्हीं
अक़्सर आशाएं रिसती हैं ?
ये सब किसी से ना कहना;
क्योंकि ...
ये शरीफ़ों का शहर है,
यहाँ शरीफ़ों की बस्ती है,
हर तरफ शराफ़त बरसती है,
पर थोड़ी सी मौकापरस्ती है।








Wednesday, June 30, 2021

रूमानी पलों में भी ...

पसीने केवल मजदूरों के ही नहीं,

अय्याशों के भी यों बहा करते हैं।

हाथापाई ही तरबतर नहीं करती।

रूमानी पलों में भी हम भींगते हैं।


सताते तो हैं लकड़ी के चूल्हे मगर,

आधुनिक चौके भी कब छोड़ते हैं?

बहने का बस इन्हें बहाना चाहिए,

कसरतों से भी यों बह निकलते हैं।


सूख भी जाएं कड़ी धूप में सागर,

मजबूरों के पसीने नहीं सूखते हैं।

चाहे हो वातानुकूलित कमरा भी,

जुर्म धराए तो माथे से छलकते हैं।


भेदभाव ना जाति-धर्म में और ये

ना करते हैं अच्छे-बुरे में कभी भी।

पसीने पसीने होते हैं  बलात्कारी,

बलात्कृत के भी पसीने छूटते हैं।


यूँ तो कई तरह के होते हैं पसीने,

आँसू-से खारे मजदूरों के पसीने,

प्रेमी-प्रेमिकाओं के गुलाब जल के

बोतलों-से यों ये शायद गमकते हैं।


अचानक सामना हो कभी मौत से,

या जो चोरी से प्रेमी बाँहों में भर ले;

झरोखों से झाँकती पटरानियों-से, 

उत्सुक ये रोम छिद्रों से हुलकते हैं।


पसीना बहाता कभी कोई आदमी,

तो कोई ख़ून पसीना है एक करता,

पसीना पसीना हो जाता है आदमी,

एक अदद घर तभी चला करते हैं।


धर्मालयों में विराजमान विधाता से

माँग के सुखी जीवन की भीख भी;

यूँ तो ज़लज़लों, जिहादी धमाकों, 

सुनामियों से हमारे पसीने छूटते हैं।


बच्चों की जननी माँ के भी तो ..

बहते हैं यूँ प्रसव पीड़ा में पसीने।

उधर किसी मय्यत की ख़ातिर,

क़ब्र खोदने वाले भी भींगते हैं।


पसीने केवल मजदूरों के ही नहीं,

अय्याशों के भी यों बहा करते हैं।

हाथापाई ही तरबतर नहीं करती,

रूमानी पलों में भी हम भींगते हैं।