Saturday, July 27, 2019

दोषी मैं कब भला !? - सिगरेट

साहिब !
मुझ सिगरेट को कोसते क्यों हो भला ?
समाज से तिरस्कृत ... बहिष्कृत ...
एक मजबूर की तरह
जिसे दुत्कारते हो चालू औरत या
कोठेवाली की संज्ञा से अक़्सर ....

अरे साहिब !!
मैं तो किसी 'डिटर्जेंट पाउडर' के विज्ञापन जैसे
झकास सफ़ेद लिबास में पड़ा रहता हूँ
आगाह करते डिब्बे में जिस पर
चीख़ता रहता है शब्द बन कर
संवैधानिक चेतावनी कि ...
"धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।"
अब ... ये तथाकथित पढ़े-लिखे लोग
इसे पढ़ ही नहीं पाते तो
दोषी मैं कब भला !?
तनिक बोलो ना !?

सुलगाते हैं पहले मेरे तन को
ठीक उस तवायफ़ की तरह
जो पहली बार छली जाती है
किसी जाने-पहचाने प्रेमी या
फिर अन्जाने दलाल द्वारा और
पहुँचाई जाती है तथाकथित कोठे पर फिर ...
मेरे धवल तन से उड़ते धुएँ की तरह
उड़ ही जाते हैं ना उसके
बचपन से यौवन तक के संजोये सपने
मैं राख-राख बन बिखरता हूँ
वह हर रात बिस्तर पर बिछती-बिखरती है
मैं तो ठहरा निर्जीव पर उस सजीव का तो
तन ही नहीं मन भी तो दरकता होगा ना
ठीक बरसात में दरकते पहाड़ की तरह....

तम्बाकू से भरे-उभरे मेरे तन के
भुरभुरे राख में तब्दिल होने के मानिंद
उसके तन के उभार को
झुर्रियों में बदलने तक
होठों से लगाते तो हैं बारहा
तथाकथित सभ्य पुरुष
रात के अँधेरे में ... उसके बाद ...
उसके बाद मेरे बचे अवशेष
'फ़िल्टर' की तरह उसका झुर्रिदार
बुढ़ापा भी तो रौंदा जाता है पैरों के तले ...

मुझसे उपजे राख तो वैसे रखे जाते हैं
अक़्सर क़ीमती 'ऐश ट्रे' में पर ...
सुबह-सवेरे कर दिए जाते हैं
वे राख सब बस कचरे के हवाले
ठीक वैसे ही जैसे उनकी संतानों को
रखे तो जाते हैं बड़े-बड़े अनाथालय में
पर कौन बनाता है उन्हें
देकर अपनी पहचान अपना दामाद
अपनी बहू या फिर देकर अपना नाम
गोद ली हुई एक संतान
ये सवाल शायद कर रहा हो
आपको हैरान-परेशान ....
है ना साहिब !???


Tuesday, July 23, 2019

ट्रैक्टर : ज़िंदगी की ...

धान के बिचड़े सरीखे
कर ठिकाना परिवर्त्तन
मालूम नहीं सदियों पहले
कब और कहाँ से
लाँघ आए थे गाँव की पगडंडियों को
पुरखे मेरे
किसी शहर की एक बस्ती तक
एक अदद आस लिए कि
कर ठिकाना परिवर्तन
होंगे पल्लवित-पुष्पित और समृद्ध
धान की बालियों सरीखे
फिर भला शहरों की बस्तियों, मुहल्लों में
गलियों और सड़कों पर
हल चलाते किसान, लहलहाते हरे-भरे खेत
खेतों की क्यारियाँ, टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ
कब और किधर दिखती है भला !?
जैसे पलते-बढ़ते तो देखते हैं
अम्मा और बाबू जी रोज-रोज
अपनी कुवाँरी बेटियाँ
पर बुढ़ाते हुए अम्मा और बाबू जी को
रोज़-रोज़ कहाँ देख पाती हैं
ब्याही गई बेटियाँ !?
हाँ ... तो .. लहलहाते हरे-भरे खेत
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ
ये सब तो बस चित्रों में
चलचित्रों में या फिर
शयनयान की खुली खिड़कियों से या फिर
वातानुकूलित डब्बों की काँच-बंद
खिड़कियों से ही तो
देखी जाती हैं, निहारी जाती हैं...
हाँ, वैसे तो ...  ट्रैक्टर ही है एक जो
गाँव हो या शहर , दिखता है दोनों जगह
बस होते हैं इनके उपयोग, प्रयोग
अलग-अलग
गाँवों में तो खेतों को जोतने में
लगन में दूल्हे और बारातियों को ले जाने में
या मेले के लिए बस्ती वालों को ढोने में
हाँ, वैसे ढोयी जाती है कभी-कभी...
अपनों की अर्थियां भी
"राम नाम सत्य है"  के साथ
पर शहरों में, इस पर
कूड़ा-कर्कट ढोते हैं
नगर निगम वाले अपने सभ्य समाज के
ताकि सभ्य-समाज और भी सभ्य,
साफ़-सुथरा बना रहे
और स्वच्छता-अभियान सफल बने
या ढोते हैं पक्की ईंटें
जिनसे बनते है मन्दिर, मस्ज़िद,
गिरजाघर और गुरूद्वारे भी
घर, भवन,अस्पताल, विद्यालय,
पुस्तकालय और गगनचुम्बी इमारतें भी
गौर कीजिये ना ज़रा ....
इन सभी में समान हैं ये ईंटें
है ना !?...
जैसे इतनी जातियों, उपजातियों,धर्मों,
सम्प्रदायों के बावज़ूद समाज में हमारे
समान है हमारी साँसों वाली हवाएँ
है ना !? ...
हाँ.. तो हो रही थी बातें गाँव से शहर तक
और शहर से ट्रैक्टर तक
ये ट्रैक्टर का अगला-पिछला
असमान पहिया
दौड़ते हुए सड़कों पर
अक़्सर देते हैं एक सबक़
पुरुष-प्रधान समाज में
पुरुष होते तो हैं आगे
पर ट्रैक्टर के अगले पहियों जैसे
आगे... पर बौने ...
और औरतें - ट्रैक्टर की पिछले
पहियों जैसी पीछे
पर छोड़ देती हैं पीछे पुरुषों को
जब-जब ट्रैक्टर की पिछली पहियों-सी
फुलती-फूलती, फैलती, फलती हैं
गर्भवती बनकर और गढ़ती हैं
सृष्टि की नई-नई कड़ियाँ
सृष्टि की नई-नई कड़ियाँ ......


{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया)



मन का आरोही-अवरोही विज्ञान

विज्ञान का ज्ञान
हमारा मूलभूत जीवन-आधार
है अवरोही क्रम में
प्राण-वायु (ऑक्सीजन) , जल और भोजन ..
प्राण- वायु ... रंगहीन, गंधहीन,
स्वादहीन  और अदृश्य भी... 
जल ... रंगहीन, गंधहीन,
स्वादहीन पर दृश्य ...
भोजन रंगीन, गंधयुक्त,
स्वादयुक्त और दृश्य भी ...

कुछ रिश्ते भी  होते तो हैं
शायद ठीक-ठीक
अदृश्य प्राण-वायु की तरह
अदृश्य पर अति आवश्यक
जीवन-आधार जैसे
हर पल तन-मन से 
लिपटे इर्द-गिर्द, आस-पास, हर पल
दिन हो या रात पर अदृश्य... 
कुछ रिश्ते होते हैं और भी
आवश्यक  समय-समय पर
जल और भोजन की तरह

पर हाँ ... एक अंतर है
प्राण-वायु जैसे रिश्ते और प्राण-वायु में
ये रिश्ते होते हैं  प्राण-वायु से इतर
रंगीन, स्वादिष्ट, सुगन्धित और दृश्य भी
हर पल.. हर क्षण ... हर घड़ी..
तनिक ... मन की आँखों, मन की जिव्हा
और सरसों की फली-सी नर्म-नाजुक
मन की उँगलियों से टटोलकर ज़रा ...
तुम ही समझाओ ना ... मेरे नासमझ मन को
मन के रिश्तों का गूढ़ और अबूझ विज्ञान ....


{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया) ब्लॉग से }.






Sunday, July 21, 2019

स्वप्निल यात्रा ...

किसी दिन उतरेंगे हम-तुम
अपनी ढलती उम्र-सी
गंगाघाट की सीढ़ियों से
एक दूसरे को थामे .. गुनगुनाते
"छू-कित्-कित्" वाले अंदाज़ में
और बैठेंगे पास-पास
उम्र का पड़ाव भूलकर
गंग-धार में पैर डुबोए घुटने तक
और उस झुटपुटे साँझ में
जब धाराओं पर तैरती
क्षितिज  से 30 या 40 डिग्री कोण पर
ऊपर टंगे अस्ताचल के सूरज की
मद्धिम सिन्दूरी किरणें
खेलती जल से "डेंगापानी"
प्रतिबिंबित होकर
हमारे अंगों को छूकर फैल जायेगी
मेरे फिरोज़ी 'टी-शर्ट' से होकर
काली कुर्ती में तुम्हारी हो जायेगी एकाकार ...

हर पल लाख़ सवाल करने वाले
होंठ होकर मौन हमारे
करेंगे महसूस केवल और केवल
उस रूमानी मौन पल को
अवनत होते तन के
ज्यामितीय आयतन से परे
उन्नत मन के जटिल-से
बीजगणितीय सूत्रों को
दुहराएँगे उँगलियों के पोरों पर
अनायास फिर
अनजाने-जाने साँसों की
मदहोश जुगलबंदी पर
अनायास ही तर्जनी से टटोल कर
तुम्हारी अधरों को
वापस अपने होठों पर
फिरा कर वही तर्जनी
महसूस करूँगा तुम्हारे
कंपकंपाते अधरों की नमी ...

गंगोत्री के पारदर्शी जल-सा
तुम्हारे बहते मन में पल-पल
तलहट में लुढ़कता-सरकता
किसी पाषाण-खण्ड-सा
अनवरत दिखूँगा मैं हर पल
और ढलती सुरमई शाम की
धुंधलके की चादर में लिपटे
गुम होकर दोनों एक-दूसरे की
मासूम पनीली आँखों में
मुग्ध पलकें उठाए निहारेंगे
कभी एक-दूसरे को .. कभी क्षितिज
कभी आकाश .. कभी धुंधले-तारे
नभ के माथे पर लटका
तब मंगटीके-सा चाँद
बिखेरता चटख उजली किरणें
हमारी सपनीली .. गीली आँखों में
कुछ पल ठहर कर
ठन्डे पानी में उतर कर
हमारे अहसासों के साथ
"लुका-छिपी" खेलेगा और ...

मैं हौले से तुम्हारी
लरज़ती उँगलियों को
टटोलकर प्रेम से अपनी
हथेलियों में लपेट लूँगा ..
एक-दूसरे के काँधे पर टिकाकर
प्रेम भरे मन के सारे अहसास
फिर मूँद कर अखरोटी पलकें
उड़ चलेंगे हमारे-तुम्हारे मन संग-संग
प्रस्थान करेंगे महाप्रस्थान तक
स्वप्निल अविस्मरणीय यात्रा के लिए
और गंगा की पवित्र धाराओं से
स्नेहिल आशीष पाकर
प्रेम हमारा .. पा लेगा
अजर .. अमर .. अमरत्व ...


{ स्वयं के पुराने (जो तकनीकी कारण से नष्ट हो गया) ब्लॉग से }.

चन्द पंक्तियाँ - (६)- बस यूँ ही ....

(१)#

तुम साँकल बन
दरवाज़े पर
स्पंदनहीन
लटकती रहना

मैं बन झोंका
पुरवाईया का
स्पंदित करने
आऊँगा...

(२)#

चलो .... माना
है तुम्हारी तमन्ना
चाँद पाने की ...
बस पा ही लो !!!
रोका किसने है ...


हमारा क्या है
मिल ही जाएंगे
अतित के किसी
झुरमुट में
हम जुग्नू जो हैं ...

(३)#

मन्दिर की
सीढ़ियों पर
अक़्सर उतारे
पास-पास
तुम्हारे-हमारे
चप्पलों के बीच

अनजाने ही सही
किसी अज़नबी का
चप्पल का होना भी
ना जाने क्यों
मन को मेरे
मन की दूरी का ....
अहसास कराते हैं...

मन का सूप

कोमल भावनाओं और
रूमानी अहसासों की
आड़ी-तिरछी कमाचियों से
बुना सूप तुम्हारे मन का

गह के ओट में जिसके
अनवरत अटका हुआ है
हुलकता हर पल
बनारसी राई मेरे मन का

फटको-झटको लाख तुम
अपने मन का सूप
पर है अटका रहने वाला
बनारसी राई मेरे मन का
ताउम्र ......