साहिब !
मुझ सिगरेट को कोसते क्यों हो भला ?
समाज से तिरस्कृत ... बहिष्कृत ...
एक मजबूर की तरह
जिसे दुत्कारते हो चालू औरत या
कोठेवाली की संज्ञा से अक़्सर ....
अरे साहिब !!
मैं तो किसी 'डिटर्जेंट पाउडर' के विज्ञापन जैसे
झकास सफ़ेद लिबास में पड़ा रहता हूँ
आगाह करते डिब्बे में जिस पर
चीख़ता रहता है शब्द बन कर
संवैधानिक चेतावनी कि ...
"धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।"
अब ... ये तथाकथित पढ़े-लिखे लोग
इसे पढ़ ही नहीं पाते तो
दोषी मैं कब भला !?
तनिक बोलो ना !?
सुलगाते हैं पहले मेरे तन को
ठीक उस तवायफ़ की तरह
जो पहली बार छली जाती है
किसी जाने-पहचाने प्रेमी या
फिर अन्जाने दलाल द्वारा और
पहुँचाई जाती है तथाकथित कोठे पर फिर ...
मेरे धवल तन से उड़ते धुएँ की तरह
उड़ ही जाते हैं ना उसके
बचपन से यौवन तक के संजोये सपने
मैं राख-राख बन बिखरता हूँ
वह हर रात बिस्तर पर बिछती-बिखरती है
मैं तो ठहरा निर्जीव पर उस सजीव का तो
तन ही नहीं मन भी तो दरकता होगा ना
ठीक बरसात में दरकते पहाड़ की तरह....
तम्बाकू से भरे-उभरे मेरे तन के
भुरभुरे राख में तब्दिल होने के मानिंद
उसके तन के उभार को
झुर्रियों में बदलने तक
होठों से लगाते तो हैं बारहा
तथाकथित सभ्य पुरुष
रात के अँधेरे में ... उसके बाद ...
उसके बाद मेरे बचे अवशेष
'फ़िल्टर' की तरह उसका झुर्रिदार
बुढ़ापा भी तो रौंदा जाता है पैरों के तले ...
मुझसे उपजे राख तो वैसे रखे जाते हैं
अक़्सर क़ीमती 'ऐश ट्रे' में पर ...
सुबह-सवेरे कर दिए जाते हैं
वे राख सब बस कचरे के हवाले
ठीक वैसे ही जैसे उनकी संतानों को
रखे तो जाते हैं बड़े-बड़े अनाथालय में
पर कौन बनाता है उन्हें
देकर अपनी पहचान अपना दामाद
अपनी बहू या फिर देकर अपना नाम
गोद ली हुई एक संतान
ये सवाल शायद कर रहा हो
आपको हैरान-परेशान ....
है ना साहिब !???
मुझ सिगरेट को कोसते क्यों हो भला ?
समाज से तिरस्कृत ... बहिष्कृत ...
एक मजबूर की तरह
जिसे दुत्कारते हो चालू औरत या
कोठेवाली की संज्ञा से अक़्सर ....
अरे साहिब !!
मैं तो किसी 'डिटर्जेंट पाउडर' के विज्ञापन जैसे
झकास सफ़ेद लिबास में पड़ा रहता हूँ
आगाह करते डिब्बे में जिस पर
चीख़ता रहता है शब्द बन कर
संवैधानिक चेतावनी कि ...
"धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।"
अब ... ये तथाकथित पढ़े-लिखे लोग
इसे पढ़ ही नहीं पाते तो
दोषी मैं कब भला !?
तनिक बोलो ना !?
सुलगाते हैं पहले मेरे तन को
ठीक उस तवायफ़ की तरह
जो पहली बार छली जाती है
किसी जाने-पहचाने प्रेमी या
फिर अन्जाने दलाल द्वारा और
पहुँचाई जाती है तथाकथित कोठे पर फिर ...
मेरे धवल तन से उड़ते धुएँ की तरह
उड़ ही जाते हैं ना उसके
बचपन से यौवन तक के संजोये सपने
मैं राख-राख बन बिखरता हूँ
वह हर रात बिस्तर पर बिछती-बिखरती है
मैं तो ठहरा निर्जीव पर उस सजीव का तो
तन ही नहीं मन भी तो दरकता होगा ना
ठीक बरसात में दरकते पहाड़ की तरह....
तम्बाकू से भरे-उभरे मेरे तन के
भुरभुरे राख में तब्दिल होने के मानिंद
उसके तन के उभार को
झुर्रियों में बदलने तक
होठों से लगाते तो हैं बारहा
तथाकथित सभ्य पुरुष
रात के अँधेरे में ... उसके बाद ...
उसके बाद मेरे बचे अवशेष
'फ़िल्टर' की तरह उसका झुर्रिदार
बुढ़ापा भी तो रौंदा जाता है पैरों के तले ...
मुझसे उपजे राख तो वैसे रखे जाते हैं
अक़्सर क़ीमती 'ऐश ट्रे' में पर ...
सुबह-सवेरे कर दिए जाते हैं
वे राख सब बस कचरे के हवाले
ठीक वैसे ही जैसे उनकी संतानों को
रखे तो जाते हैं बड़े-बड़े अनाथालय में
पर कौन बनाता है उन्हें
देकर अपनी पहचान अपना दामाद
अपनी बहू या फिर देकर अपना नाम
गोद ली हुई एक संतान
ये सवाल शायद कर रहा हो
आपको हैरान-परेशान ....
है ना साहिब !???