Showing posts with label मदारी. Show all posts
Showing posts with label मदारी. Show all posts

Tuesday, July 27, 2021

बंद है मधुशाला ...

ऐ जमूरे !!
             हाँ .. उस्ताद !!!  
                                      
खेल-मदारी तो हुआ बहुत रे जमूरे,
आज ले लें हम क्यों ना कुछ संज्ञान ...

साहिबान !
               क़द्रदान !!
                              सावधान !!!
                         
होता था मतलब कभी शिकंजी का-
- तरावट, पर भला अब किसे पता !?
है बच्चा-बच्चा भी अब तो जानता,
होता है ठंडा मतलब 'कोका-कोला'।

आदत पड़ी कोसने की घोटालों को,
पर फूलती हैं जी, रोटियाँ तो हमारी,
रसोई में आज भी इसकी आँच पर।
बता ना ! है भला ये कैसा घोटाला?

यूँ चुभती तो हैं अक़्सर उन्हें भी जी,
धूल से भरी पड़ी वो तमाम किताबें,
छोड़ देते हैं पर निज सेहत के लिए,
धूल से 'एलर्जी' का वे देकर हवाला।

कभी दौलत, तो कभी शोहरत, तो ..
तौल कर कभी पद के भी तराजू पर,
है इंसानों के वजूद को तो तवज्जोह
देने का यहाँ, युगों पुराना सिलसिला।

स्वतः ही हो अनुवांशिक उपनाम से,
उगे जाति-उपजाति, धर्म-पंथ जिनके,
हैं खुद ही वो एक नमूना पूर्वाग्रही के,
कहें दूजों को जो, है ये गड़बड़झाला।

होता आस्वादन खारापन का जीभ को
उनकी, रिसे हैं जिनकी आँखों से आँसू।
लड़खड़ाते भी देखे हैं उनके ही कदम,
पड़ता है अक़्सर जिनके पाँव में छाला।

यूँ हैं आडंबरें, बाधाएं, विडंबनाएं घुली,
हर दिन, हर ओर, हर बार ही जीवन में।
निकले लाख दिवाला, दीवाली मनाने में
पर, हम भी हैं मतवाला, तू भी मतवाला।

जरूरी तो नहीं साहिब! अर्द्धनग्नता औ'
रंगीन रासायनिक सौन्दर्य प्रसाधनें कई।
ना हो यक़ीन जो, तो  एक बार निहारिए,
श्वेत-श्याम 'पोस्टर' में बाला .. मधुबाला।

हुक्मरान का हुंकार - "बनाने से कानून *
कुछ नहीं होगा", सही, तभी तो राज्य में,
मिलती क़बाड़ में खाली बोतलें, जब कि
मद्यपान निषेध है यहाँ, बंद है मधुशाला।

सड़ने ही दूँ दाँतों को मीठी गोलियों से,
या करूँ पेश कड़वे पानी चिरायते के?
तू कहे तो कुछ बतकही कर लें हम या ..
जड़ लें मुँह पर अपने फिर एक ताला? .. बस यूँ ही ...

ऐ जमूरे !!
             हाँ .. उस्ताद !!!  
                                      
खेल-मदारी तो हुआ बहुत रे जमूरे,
आज ले लें हम क्यों ना कुछ संज्ञान ...

साहिबान !
               क़द्रदान !!
                              सावधान !!!

* - एक राज्य विशेष के योग्य मुख्यमंत्री महोदय ने बढ़ती आबादी से पनपे हालात की नज़ाकत समझते हुए, अपने राज्य में परिवार नियोजन की बात कही, तो दूसरे राज्य विशेष के योग्य (?) मुख्यमंत्री महोदय जी ने जुमला उछाला कि "खाली क़ानून बनाने से कुछ नहीं होगा।"
ऐसा इन ज़ुमले वाले योग्य (?) महोदय के द्वारा कहा जाना फबता भी है, कोई फबती नहीं कस रहे हैं महोदय, क्योंकि इनके राज्य में तो वर्षों से "बच्चन जी" (मधुशाला) कानूनन निषेध हैं, पर कबाड़ी के पास खाली बोतलों की भरमार है .. शायद ...
हालांकि बात भी तो कुछ हद तक सही ही/भी है कि जब तक लोगबाग की मानसिकता नहीं बदलेगी, केवल क़ानून से कुछ नहीं होना है। "दहेज निषेध अधिनियम, 1961" जैसे क़ानून बना कर हमने क्या उखाड़ लिया भला ? और भी ऐसे सैकड़ों कानूनें है यहाँ  .. बस यूँ ही ... 】



Sunday, June 14, 2020

दायरे की त्रिज्या ...

सर्वविदित है कि आज, 14 जून को,  विश्व रक्तदान दिवस  या विश्व रक्तदाता दिवस है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा 2004 में 14 जून को इस रूप में मनाने का उद्देश्य पूरे विश्व में रक्त, रक्त उत्पादों की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाना और सुरक्षित जीवन रक्षक रक्त के दान करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हुए उन्हें आभार व्यक्त करना था। वैसे 1970 से प्रतिवर्ष जनवरी महीने को राष्ट्रीय रक्तदाता माह के रूप में भी मनाया जाता है।
इसको दिनचर्या में शामिल नहीं कर सकते क्योंकि स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार कोई भी स्वस्थ इंसान लगभग तीन महीने में एक ही बार अपना रक्त दे सकता है। एक औसत व्यक्ति के शरीर में 10 यूनिट यानि 5-6 लीटर रक्त होता है और रक्तदान में केवल 1 यूनिट रक्त यानि 1 पिंट या 450 मिली या कभी-कभी 400-525 मिली लीटर तक ही लिया जाता है। जिसकी भरपाई शरीर लगभग 24 घन्टे में कर लेता है। अलग-अलग इंसान की क्षमता भी उनके स्वास्थ्य के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है।

आज की रचना के पहले इतनी सर्वविदित बात के लिए भी बकबक करने और इसको पढ़ने में आपका समय नष्ट करवाने का बस एक ही मक़सद है कि अगर हो सके तो हमारे द्वारा, जैसा कि निजी तौर पर मेरा सोचना भी है, रक्तदान को "रक्तसाझाकहा जाए तो बेहतर अनुभव होता .. शायद ...। कारण, ये दान जुड़ा हुआ शब्द हमारे सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज के कन्यादान शब्द जैसा कान को चुभता है। आपको नहीं क्या ???...नाराज़ मत होइएगा, आपसे पूछ भर लिया .. बस यूँ ही ...
खैर ... सोचने के लिए तो बुद्धिजीवी लोगों की भीड़ हैं ही यहाँ पर, हमें क्या करना .. चलिए .. आज की रचना/विचार की ओर ...


दायरे की त्रिज्या ...
"जमूरे!"

"हाँ, उस्ताद!"

"जमूरे ! चल बतला जरा, स्वतंत्र हुए हमें हो गए कितने साल ?"

"भला मुझे क्या पता उस्ताद, मेरा तो तूने कर रखा है बुरा हाल,
माना, मेरी दाल-रोटी है चलाता, साथ चलाता तो है तू अपनी दुकान,
स्वतंत्र भारत में, कर परतंत्र मुझे, कर रखा है जीना मेरा मुहाल"

"जमूरे! कमोबेश .. सबकी है यहाँ यही हाल, बात दाल-रोटी की
कर-कर के दूसरे की,  सब चलाते हैं बस अपनी ही दुकान"

"उस्ताद!, स्वतंत्र तो हैं इधर-उधर टहलने वाले यहाँ के कुत्ते सारे,
गली के लावारिस हों वो या फिर पालतू विदेशी भिन्न-भिन्न नस्ल वाले,
सुबह-शाम सड़कों पर, कचरों पर, सार्वजनिक पार्कों में हगने वाले"

"जमूरे! चुप .. ठहर, अनर्गल बातें मत कर, दिखता नहीं तुझे बदकार
तमाशबीन जुटे हैं यहाँ सारे सभ्य, पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी, साहित्यकार,
कुत्ते के हगने जैसी बात करने पर, कर देंगे विद्वजन तेरा बहिष्कार,
बोलने के लिए तू स्वतंत्र है, पर संविधान का इतना भी नहीं अधिकार,
हो कर उकड़ू श्वान और श्वानी करते हैं जो विष्ठा का त्याग इधर-उधर, 
हैं सच में स्वतंत्र वही यहाँ, ऐसी सभ्य भाषा बोलनी होती है ना यार?"

"क्या जाने ये भाषा-वाषा, ना हम बुद्धिजीवी और ना ही साहित्यकार"

"जमूरे!, श्वान भी भला स्वतंत्र होता कहाँ, हो वो पालतू या गली का,
गली वाले का तय होता है मुहल्ला, इंसानों के राज्य या देश के जैसा।
पालतू के गले का सिक्कड़ या पट्टा होता है, उसके दायरे की त्रिज्या,
ठीक जैसे जिसे जन्म से पहले, माँ के गर्भ ही में दिया जाता है पहना,
गले में इंसान के धर्म, जाति-उपजाति का अनचाहा अदृश्य एक पट्टा।
दुनिया में आने से पहले नौ माह तक कैद था, तू अपनी माँ के गर्भ में,
आने से पहले ही धरती पर, बन गया परतंत्र जाति-धर्म के सन्दर्भ में।"

"उस्ताद! मुझे बस दाल-रोटी चाहिए, जाति-धर्म का क्या करना ?"

"हाँ.. वैसे तो कहीं भी थूकने के लिए, मूतने के लिए तू स्वतंत्र है यहाँ,
जिन्दाबाद, मुर्दाबाद के लिए कहीं भी, कभी भी तू स्वतंत्र है यहाँ,
उपवास, रोज़ा, भूख हड़ताल या अनशन के लिए तू स्वतंत्र हैं यहाँ,
धर्मों और त्योहारों के नाम पर शोर करने के लिए तू स्वतंत्र है यहाँ
और शादी के नाम पर दहेज देने-लेने के लिए भी तू स्वतंत्र है यहाँ,
पर स्वतंत्र हो कर भी ऑनर किलिंग को कभी मत जमूरे तू भूलना।
चाहे लड़की हो या लड़का कोई, कितना भी हो स्वतंत्र वो यहाँ,
पर शादी के लिए स्वदेश में, अपनी जाति-धर्म में ही पड़ता है ढूँढ़ना।"


"अच्छा!!! .. पर मैंने तो सुना है कि ..."

"अब बातें मत करने लगना तुम, बड़े नेता या किसी सिने-स्टार की,
देवताओं या ऋषियों को भी आती थी कभी तिकड़म बलात्कार की।"

"छिः, छिः, उस्ताद! देवी, देवताओं के लिए ऐसी बातें नहीं करते,
नहीं तो, लाख उपकार कर के भी नर्क जाओगे, जब तुम मरोगे।"

"जमूरे! तू निरा मूर्ख ही रह जाएगा .. अगर ऐसी ही बात है तो हम
कल ही सत्यनारायण स्वामी की कथा हैं करवाते, शंख हैं बजवाते,
या चलो किसी देवी का नाम लेकर किसी पहाड़ पर हैं चढ़ जाते,
या फिर किसी पादरी के सामने चल कर 'कन्फ़ेस' हैं कर आते,
या रियायती 'हज़-सब्सिडी' पर मिलकर हम हज़ हैं कर आते"

"चलो, चलते हैं उस्ताद, खाने और घूमने में बड़ा ही मजा आएगा,
  .. है ना ?"

"पर नहीं, इतने भी स्वतंत्र नहीं जमूरे, जो हम सारे जगहों पर जाएँ।
किसी एक ही जगह जाना होगा, धर्म-मज़हब के अनुसार ही अपने,
फिर किए गए अपने पापों से हो जाएंगे हम स्वतंत्र, तय है ये जमूरे!"

"तो, उस्ताद! ..."

"बोल, जमूरे! ..."

"आज मदारी यहीं खत्म करते हैं, पाप मिटाने हम तीर्थ पर चलते हैं।"

"हाँ जमूरे!, .. तो बच्चे लोग बजाओ ताली, बोलो सब हाली-हाली,
जय काली, कलकत्ते वाली, तेरा वचन जाए ना खाली।
जो देगा उसका भला, जो ना देगा उसका भी भला।
फ़िलहाल .. करने स्वतंत्र देश को कोरोना से .. टालने बला ..
जमूरा और .. मैं मन्दिर चला।"