एक शाम कारगिल चौक के पास
कुम्हार के आवाँ के मानिंद पेट फुलाए
संभवतः संभ्रांत गर्भवती एक औरत ...
साक्षात स्रष्टा , सृष्टि को सिंझाती
अपने कोख में पकाती, अंदरुनी ताप से तपाती
मानव नस्ल की कड़ी, एक रचयिता थी जाती
लगभग अपनी तीन वर्षीया बेटी की
नाजुक उँगलियों से लिपटी अपनी तर्जनी लिए हुए
इस बेटी को जनने के लिए स्वयं को दोषी मानती
इस आस में कि शायद अबकी बार खुश कर पाएं
अपने ससुराल वालों को कोख से बेटा जन कर
बेटा यानि तथाकथित कूल-ख़ानदान का चिराग
खानदान को आगे बढ़ाने वाला - एक मोक्षदाता
फिलहाल स्वयं को दोषी मानने वाली
ससुराल वालों द्वारा दोषी ठहरायी जाने वाली
वो तो बस इतना भर जानती है कि
कोख के अंधियारे की तरह ही अँधेरी एक रात को
इस सृजन की वजह, बस इतना ही और शायद ही
उसे मालूम हो एक्स और वाई गुणसूत्रों के बारे में
काश ! ये एक्स व वाई भी ए, बी, सी, डी की तरह
जान पाती वह संभ्रांत गर्भवती औरत।
खैर ! अभी वह औरत अपने पेट के उभार को
दुपट्टे से, दाएँ से, बाएं से, सामने से, पीछे से
असफल किन्तु भरसक प्रयास करती छुपाने की
सड़क पर छितराये छिछोरों की, छोरों की और
टपोरियों की, मनचलों की, कुछ सज्जन पुरुषो की
एक्स-रे वाली बेधती नजरों से
पर कहाँ छुप पाता है भला !?
एक्स-रे तो एक्स-रे ठहरा, है ना ज़नाब !?
अन्दर की ठठरियों की तस्वीर खींच लेता है ये
ये तो फिर भी तन का उभार है ... जिसे टटोलते हैं
अक्सर टपोरी इन्हीं एक्स-रे वाली बेंधती नज़रों से
और कुछ सज्जन भी, अन्तर केवल इतना कि
टपोरी बेहया की तरह अपनी पूरी गर्दन घुमाते हैं
360 डिग्री तक आवश्यकतानुसार और ये तथाकथित सज्जन
180 डिग्री तक हीं अपनी आँखों की पुतलियों को घुमाकर
चला लेते है काम
डर जो है कि - ' लोग क्या कहेंगें '।
तभी कुछ तीन-चार ... तीन या चार ....नहीं-नहीं
चार ही थे वे -' जहाँ चार यार मिल जाएँ, वहाँ रात गुजर जाए '
गाने के तर्ज़ पर चार टपोरियों की टोली
अचानक उन छिछोरों ने की फूहड़ छींटाकसी
और बेहया-से लगाए कानों को बेंधते ठहाके
साक्षात स्रष्टा ... सकपकायी-सी झेंपती औरत
असफल-सी स्वयं को स्वयं में छुपाती, समाती
ठीक आभास पाए खतरे की किसी घोंघे की तरह।
बस झकझोर-सा गया मुझे झेंपना उसका
मैं बरबस बेझिझक उनकी ओर लपका, जिनमे
था गुठखा चबाता एक सज्जन तथाकथित
जिन्हें किया संबोधित -
"भाई ! जब हम-आप पैदा हुए होंगे
धरती पर अवतरित हुए होंगे
उसके पहले भी ... माँ हमारी-आपकी
इस हाल से, हालात से गुजरी होगी
उनके भी कोख फुले होंगे
और कोई अन्य टपोरी ठहाका लगाया होगा
कोई सज्जन पुरुष शालीनता से मुस्कुराया होगा।"
उसके सारे दोस्त... तीनों ... दोस्त होने के बावजूद भी
पक्ष में मेरे बोलने लगे, वह बेशर्मी से झेंप-सा गया।
देखा अचानक उस संभ्रांत औरत की तरफ
वह साक्षात स्रष्टा झेंपती, सकपकाती, सकुचाती
अपने रास्ते कब का जा चुकी थी और ....
अब तक झेंपना उस आदमी का
ले चूका था बदला उस औरत की झेंप का
और मैं सुकून से गाँधी-मैदान में बैठा
ये कविता लिखने लगा ... 'साक्षात स्रष्टा'....
कुम्हार के आवाँ के मानिंद पेट फुलाए
संभवतः संभ्रांत गर्भवती एक औरत ...
साक्षात स्रष्टा , सृष्टि को सिंझाती
अपने कोख में पकाती, अंदरुनी ताप से तपाती
मानव नस्ल की कड़ी, एक रचयिता थी जाती
लगभग अपनी तीन वर्षीया बेटी की
नाजुक उँगलियों से लिपटी अपनी तर्जनी लिए हुए
इस बेटी को जनने के लिए स्वयं को दोषी मानती
इस आस में कि शायद अबकी बार खुश कर पाएं
अपने ससुराल वालों को कोख से बेटा जन कर
बेटा यानि तथाकथित कूल-ख़ानदान का चिराग
खानदान को आगे बढ़ाने वाला - एक मोक्षदाता
फिलहाल स्वयं को दोषी मानने वाली
ससुराल वालों द्वारा दोषी ठहरायी जाने वाली
वो तो बस इतना भर जानती है कि
कोख के अंधियारे की तरह ही अँधेरी एक रात को
इस सृजन की वजह, बस इतना ही और शायद ही
उसे मालूम हो एक्स और वाई गुणसूत्रों के बारे में
काश ! ये एक्स व वाई भी ए, बी, सी, डी की तरह
जान पाती वह संभ्रांत गर्भवती औरत।
खैर ! अभी वह औरत अपने पेट के उभार को
दुपट्टे से, दाएँ से, बाएं से, सामने से, पीछे से
असफल किन्तु भरसक प्रयास करती छुपाने की
सड़क पर छितराये छिछोरों की, छोरों की और
टपोरियों की, मनचलों की, कुछ सज्जन पुरुषो की
एक्स-रे वाली बेधती नजरों से
पर कहाँ छुप पाता है भला !?
एक्स-रे तो एक्स-रे ठहरा, है ना ज़नाब !?
अन्दर की ठठरियों की तस्वीर खींच लेता है ये
ये तो फिर भी तन का उभार है ... जिसे टटोलते हैं
अक्सर टपोरी इन्हीं एक्स-रे वाली बेंधती नज़रों से
और कुछ सज्जन भी, अन्तर केवल इतना कि
टपोरी बेहया की तरह अपनी पूरी गर्दन घुमाते हैं
360 डिग्री तक आवश्यकतानुसार और ये तथाकथित सज्जन
180 डिग्री तक हीं अपनी आँखों की पुतलियों को घुमाकर
चला लेते है काम
डर जो है कि - ' लोग क्या कहेंगें '।
तभी कुछ तीन-चार ... तीन या चार ....नहीं-नहीं
चार ही थे वे -' जहाँ चार यार मिल जाएँ, वहाँ रात गुजर जाए '
गाने के तर्ज़ पर चार टपोरियों की टोली
अचानक उन छिछोरों ने की फूहड़ छींटाकसी
और बेहया-से लगाए कानों को बेंधते ठहाके
साक्षात स्रष्टा ... सकपकायी-सी झेंपती औरत
असफल-सी स्वयं को स्वयं में छुपाती, समाती
ठीक आभास पाए खतरे की किसी घोंघे की तरह।
बस झकझोर-सा गया मुझे झेंपना उसका
मैं बरबस बेझिझक उनकी ओर लपका, जिनमे
था गुठखा चबाता एक सज्जन तथाकथित
जिन्हें किया संबोधित -
"भाई ! जब हम-आप पैदा हुए होंगे
धरती पर अवतरित हुए होंगे
उसके पहले भी ... माँ हमारी-आपकी
इस हाल से, हालात से गुजरी होगी
उनके भी कोख फुले होंगे
और कोई अन्य टपोरी ठहाका लगाया होगा
कोई सज्जन पुरुष शालीनता से मुस्कुराया होगा।"
उसके सारे दोस्त... तीनों ... दोस्त होने के बावजूद भी
पक्ष में मेरे बोलने लगे, वह बेशर्मी से झेंप-सा गया।
देखा अचानक उस संभ्रांत औरत की तरफ
वह साक्षात स्रष्टा झेंपती, सकपकाती, सकुचाती
अपने रास्ते कब का जा चुकी थी और ....
अब तक झेंपना उस आदमी का
ले चूका था बदला उस औरत की झेंप का
और मैं सुकून से गाँधी-मैदान में बैठा
ये कविता लिखने लगा ... 'साक्षात स्रष्टा'....