दस पैसे का
एक सिक्का
जेबख़र्च में
मिलने वाला
रोजाना कभी,
किसी रोज
रोप आते थे
बचपन में
चुपके से
आँगन के
तुलसी चौरे में
सिक्कों के
पेड़ उग
आने की
अपनी
बचकानी-सी
एक आस लिए .. बस यूँ ही ...
धरते थे
मोरपंख भी
कभी-कभी
अपनी कॉपी
या किताबों में
चूर्ण के साथ
खल्ली के ,
एक और
नए मोरपंख
पैदा होने के
कौतूहल भरे
एक विश्वास लिए .. बस यूँ ही ...
हैं आज भी कहीं
मन के कोने में
दुबकी-सी यादें ,
बचपन की सारी
वो बचकानी बातें ,
किसी संदूक में
एक सुहागन के
सहेजे किसी
सिंधोरे की तरह।
पर .. लगता है मानो ..
गई नहीं है आज भी
बचपना हमारी ,
जब कभी भी
खड़ा होता हूँ
किसी मन्दिर के
आगे लगी लम्बी
क़तार में
तथाकथित आस्था भरी
आस और विश्वास लिए .. बस यूँ ही ...
{ चित्र साभार = छत्रपति शिवाजी महाराज अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र में प्रदर्शित भित्ति शिल्प वाली कोलाज़ ( Kolaj as Wall Crafts ) से। }.