दिखती हैं अक़्सर
फूलों की अर्थियां
दुकानों .. फुटपाथों
चौक-चौराहों पर
चीख़ते .. सुबकते
पड़े बेहाल ..
बेजान फूल ही
चढ़ते यहाँ
बेजान 'पत्थरों' पर ...
हम लोग तो हैं
श्रद्धा-सुमन से ही
अंजान .. बेख़बर
सिसकते हैं फूल भी
डाली से टूटकर
बेआवाज़ चीखें
मछलियों-सी इनकी
बलिवेदीयों पर कटती
गर्दनों से नहीं हैं इतर ...