Showing posts with label नदी. Show all posts
Showing posts with label नदी. Show all posts

Thursday, July 27, 2023

पुष्पा नहीं, सुसवा ...

आपको भी शायद याद होंगे ही तेलुगु भाषी भारतीय अभिनेता- अल्लू अर्जुन की फ़िल्म "पुष्पा: द राइज" के सबसे ज्यादा बहुचर्चित और लोकप्रिय दोनों संवाद जिसे 'बॉलीवुड' के श्रेयस तलपड़े ने हिंदी में 'डबिंग' किया है। पहला संवाद जिसमें वह कहते हैं- "मैं पुष्पा... पुष्पराज... मैं झुकेगा नहीं स्स्साला .." और दूसरे संवाद में बोलते हैं- “पुष्पा नाम सुन के फ्लावर समझे क्या... फ्लावर नहीं, फायर है। ” .. याद है ना .. ये दोनों संवाद ? ...


उसी फ़िल्मी संवाद के तर्ज़ पर अभी-अभी किसी की सोंधी-सी फ़ुसफ़ुसाहट ने हमारे कर्णपटल पर दस्तक दी है- "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। " .. आप सब भी ऐसा सुन पा रहे हैं क्या ? .. नहीं ? ..  नहीं क्या ? ...


ख़ैर ! .. कोई बात नहीं .. हो सकता है आपके आसपास की ध्वनि के प्रदूषण में आपको नहीं सुनायी दे रही हो ये सोंधी-सी फुसफुसाहट .. कई दफ़ा तो एक ही छत के नीचे गहरी नीरवता में अपनों के क़रीब रह कर भी हम एक-दूसरे के मन की मीठी बातों को भी सुन-समझ नहीं ही पाते हैं .. है ना ? ... 


फ़िलहाल अभी हम चर्चा कर रहे हैं "सुसवा साग" का, जो उत्तराखंड की एक विशेष पहचान है। जैसे मैदानी क्षेत्रों में लोकप्रिय है "नोनी" या "नोनिया" का साग। सुसवा साग एक मौसमी उपज है, जो समस्त उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर बहते पानी के प्राकृतिक स्रोतों में और उसके आसपास स्वतः उग आता है, ठीक "कर्मी साग" के पैदावार की तरह। प्रायः सुसवा का साग अक्टूबर के आसपास उपजता है और अमूमन मार्च-अप्रैल तक उपलब्ध रहता है।  


उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के आसपास के इलाकों में भी अब से पहले यह प्राकृतिक रूप से एक नदी विशेष की उपज हुआ करता था। स्थानीय जानकार वृद्ध-वयस्क जन बतलाते हैं कि इस नदी में उपजने वाले सुसवा साग के कारण ही इस नदी विशेष को "सुसवा नदी" के नाम से बुलाया जाता था या है भी। तब कुछ गरीब तबक़े के लोग इस निःशुल्क प्रकृति-प्रदत्त साग को शहरी क्षेत्रों में बसे हुए हम जैसे साग प्रेमियों से बेच कर अपने परिवार का जीवनयापन करते थे। 


हालांकि उत्तर प्रदेश से विभाजित होकर बनने वाले नए राज्य- उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून बनने के बाद, पहले से ही मनमोहक स्वच्छ आबोहवा और मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्य के आकर्षण की वज़ह से अन्य राज्यों से यहाँ आकर स्थायी-अस्थायी बसने वालों की लगी हुई होड़ के कारण यहाँ की जनसंख्या ताबड़तोड़ बढ़ती गयी है। जिसके फलस्वरूप उसी अनुपात में प्रदूषण भी बढ़ता गया है। नतीजन अब प्रदूषित सुसवा नदी में सुसवा साग का नामोनिशान तक नहीं मिलता है। परन्तु .. चूँकि ये साग और नदी, दोनों ही हमनाम हैं और अतीत में ही सही, दोनों के गहरे सम्बन्ध रहे हैं तो साग के साथ-साथ प्रसंगवश नदी की भी कुछ तो चर्चा करनी जायज़ ठहरती है .. शायद ...


दरअसल सुसवा नदी गंगा की सहायक नदियों में से एक है, जो उत्तराखंड के दक्षिणी शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलती है और देहरादून की घाटियों से गुजरती हुई सौंग नदी की सहायक नदी बन कर मैदानी क्षेत्र के रास्ते गंगा नदी में जा मिलती है। जैसे हमारे अभिभावक होते हैं और हमारे अभिभावक के भी अभिभावक होते हैं, उसी प्रकार गंगा की सहायक नदी सुसवा की भी सहायक नदियाँ हैं। वो सब भी अब निष्प्राण-सी ही दिखती हैं। उन सहायक नदियों के भी नामभर के लिए ही नाम शेष बचे हैं-  बिंदाल नदी और रिस्पना नदी। स्थानीय जानकार जन बतलाते हैं कि रिस्पना नाम दरअसल ऋषिपर्णा नाम का अपभ्रंश स्वरुप है और यही अपभ्रंश नाम ही वर्तमान में प्रचलित भी है।


कहते हैं कि सुसवा नदी कभी अपने पौष्टिक व स्वादिष्ट सुसवा साग और मछलियों के साथ-साथ देहरादून में उपजने वाले अपने विशेष सुगंध के कारण विश्व भर में लोकप्रिय बासमती चावल के खेतों में अपने पानी की सिंचाई से उस चावल विशेष में सुगंध भरने के लिए जानी जाती थी। वही सुसवा नदी की स्वच्छ धार आज हम बुद्धिजीवियों के तथाकथित विकास की बलिवेदी पर चढ़ कर, अल्पज्ञानियों की बढ़ती जनसंख्या की तीक्ष्ण धार वाली भुजाली से क्षत-विक्षत हो कर सिसकी लेने लायक भी शेष नहीं बची है .. शायद ...


फलतः बासमती चावल में सुगंध भरने वाली नदी आज स्वयं ही दुर्गन्धयुक्त हो गयी है। लगभग निष्प्राण हो चुकी इस नदी में बरसात की शुरुआत में पानी भरने के क्रम के साथ-साथ शहर भर की गंदगियों सहित मिलने वाले बड़े-बड़े नालों ('सीवर') के हानिकारक 'प्लास्टिक', 'थर्माकोल' समेत 'मैग्नीशियम', 'कैल्शियम' और अन्य कई विषैले रसायन .. मसलन- 'क्रोमियम', 'जिंक', 'आयरन', शीशा, 'मैंगनीज़', 'ग्रीस', तेल इत्यादि बहुतायत मात्रा में आकर मिलते हैं। नतीजन इसके पानी के उपयोग से या सम्पर्क में आने से भी कैंसर, विशेष कर बड़ी आँत का कैंसर, चर्म रोग, 'कोमा', 'गॉल ब्लैडर', गुर्दे की पथरी, 'हाइपर टेंशन', हृदयघात या मोटापा जैसी खतरनाक बीमारी होने की प्रबल सम्भावना रहती है। इसके साथ ही इसमें कचरे के रूप में मिले हानिकारक तत्व वाले पानी से सिंचाई करने पर अनाज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती हैं, जो परोक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित होते हैं .. शायद ... 


इसीलिए इन दिनों देहरादून के आसपास के इलाकों में सुसवा साग प्रेमी लोगों के लिए कहीं-कहीं अपने जीवकोपार्जन के लिए कुछ लोगों द्वारा सुनियोजित ढंग से इसकी खेती की जाती है। अक्तूबर के आसपास इसे रोपा जाता है, जो लगभग डेढ़ माह में काटने लायक हो जाता है। अक्तूबर से मार्च-अप्रैल तक इसे खेती करने वाले लोगों द्वारा छः-सात बार काटा जाता है। हर बार काटने के बाद यह बरसीम चारा की तरह तेजी से पनप भी जाता है। चूँकि इसकी पैदावार केवल पानी पर निर्भर करती है, वो भी बहते हुए पानी पर, तो खेतों में ठीक उसी तरह की बहते पानी जैसी व्यवस्था करनी होती है, जैसी नदियों में होती है। खेतों में पानी रुकने से सुसवा की उपज को खराब होने की आशंका रहती है। हालांकि उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी इलाकों में जहाँ अभी तक शहरी प्रदूषण की पैठ नहीं हुई है, वहाँ अभी भी प्राकृतिक रूप से बिना खेती किये हुए ही बहते पानी के स्रोतों में और उसके आसपास यह मौसमानुसार स्वतः उपजता है और स्थानीय सुसवा प्रेमियों को अपना सोंधापन निछावर करता रहता है।


उत्तराखंडी लोगों को मालूम है, कि सुसवा साग बहुत ही स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होता है। इसमें 'विटामिन सी', 'प्रोटीन' और 'आयरन' जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें कैलोरी बहुत ही कम होती है, पर भरपूर मात्रा में 'एंटीऑक्सीडेंट' होते हैं, जो हृदय रोग और कई प्रकार के कैंसर से बचने में सहायता करते हैं। यह अन्य कई खनिजों का भी एक अच्छा स्रोत है, जो हमारी हड्डियों की रक्षा करता है। अन्य स्रोतों के साभार से यह पता चलता है कि विदेशों में भी कई जगहों पर इसको Water Cress (जलकुम्भी) के नाम से बुलाते हैं। वहाँ पर यह ज्यादातर सलाद की तरह उपभोग किया जाता है।


आइए ! .. मिलकर एक बार सुसवा वाले संवाद को अपनी ज़ुबान से बोल कर आज की बतकही की इतिश्री करते हैं .. बस यूँ ही ... - "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। "

















सुसवा के लिए यथोचित मौसम में देहरादून की स्थानीय सब्जी मंडी-बाज़ारों में बेचने के लिए वर्तमान में भी प्रायः गरीब लोग ही टोकरी में लेकर बैठते या बैठती हैं या फिर कुछ पुरुष लोग अपनी साइकिल पर लादे कॉलोनीयों-मुहल्लों में घूम घूम कर फेरी लगाते नज़र आ जाते हैं। इस वर्ष पुनः प्रतीक्षारत हैं हम सुसवा के मौसम के आगमन के .. बस यूँ ही ...

Monday, June 7, 2021

धाराएँ ...

 (1) 

धाराएँ

नदियों की हों

या कानून की,

लागू ना हों,

यदि

सच्चे और 

अच्छे ढंग से 

तो बेकार हैं .. शायद ...


धाराएँ

दोनों की ही,

कभी 

498-ए की तरह

मूक या फिर

18-ए जैसी

वाचाल हों,

तो बेकार हैं .. शायद ...

【भारतीय दंड संहिता की धारा - 498A & 18A धाराएँ . (Sections 498A & 18A of Indian Penal Code (IPC) 】.



(2) 

अनवरत 

हैं तर तेरी

यादों की

तरलता से

सोचें 

हमारी ..


मानो ..

धाराएँ

नदियों की 

हो धमनियाँ-सी,

अपनी

धरा की ...







Saturday, April 25, 2020

किनारा


(1)@ :-

जानाँ !
निर्बाध बहती जाना तुम बन कर उच्छृंखल नदी की बहती धारा
ताउम्र निगहबान बनेगी बाँहें मेरी, हो जैसे नदी का दोनों किनारा ।


(2)@ :-

हो ही जाती होगी कभी-कभी भूल
नभ के उस तथाकथित विधाता से
अक़्सर होने वाली हम इंसानों सी।

वैसे भले ही पूर्व जन्म के पाप-पुण्य
और कर्म-कमाई से इसे ब्राह्मणों के
पुरखों ने हो ज़बरन जोड़ कर रखी।

कुछ अंगों की ही तो है बात यहाँ
जिसे जीव-विज्ञान सदा है मानता
अंतःस्रावी ग्रंथि की मामूली कमी।

संज्ञा तो "हिजड़ा" का दे दिया मगर
करता है क्यों उन से समाज किनारा
भेद आज तक मुझे समझ नहीं आयी।


(3)@ :-

नफ़रत "जातिवाचक संज्ञा" से तुम्हारे
और समाज से दूर बसी बस्ती तुम्हारी
हिक़ारत भरी नजरों से देखते तुम्हें सब
पर गुनाह करते सारे ये मर्द व्यभिचारी।

तुम भी तो किसी की बहन होगी
या लाडली बेटी किसी की कुवाँरी
तथाकथित कोठे तक तेरा आना
मर्ज़ी थी या कोई मजबूरी तुम्हारी।



किनारा करने वाला समाज अगर
पूछ लेता हाल एक बार तुम्हारी
देख पाता समाज अपना ही चेहरा
तब अपने ही पाप की मोटी गठरी।








Tuesday, April 14, 2020

तट-सा मन मेरा ... - चन्द पंक्तियाँ - (२५) - बस यूँ ही ...

बस यूँ ही ...

इन उदासी भरे पलों में आओ कुछ रुमानियत जीते हैं ..
मायूसी भरे लम्हों में यूँ कुछ सकारात्मक ऊर्जा पीते हैं ..
आओ ना !...  ( कोरोना की दहशत और लॉकडाउन की मार्मिक अवधि में ... ).

#(१) हर पल तुम :-

गूँथे आटे में ज़ब्त
पानी की तरह
मेरे ज़ेहन में
हर पल तुम
रहते हो यहीं
चाहे रहूँ मैं जहाँ ...

लोइयाँ काटूँ जब
याद दिलाती हैं
अक़्सर तुम्हारी
शोख़ी भरी
गालों पर मेरे
काटी गई चिकोटियाँ ...

पलकें मूँदी हों
या कि खुली मेरी
घूमती रहती है
छवि तुम्हारी
मानो गर्म तेल में
तैरती इतराती पूड़ियाँ ...

#(२) तट-सा मन मेरा :-

निर्झर से सागर तक
किसी और की होकर
शहर-शहर गुजरती
बहती नदी-सी तुम
बहती धार-सा
प्यार तुम्हारा ...

छूकर गुजरती धार
उस अजनबी शहर के
तट-सा मन मेरा
बहुत है ना .. जानाँ !
भींग जाने के लिए
आपादमस्तक हमारा ...

Monday, January 6, 2020

हाईजैक ऑफ़ पुष्पक ... - भाग- १ - ( आलेख ).

#१) गंगा तू आए कहाँ से ... :-

हम सभी गर्वीली "हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है" से लेकर पश्चातापयुक्त "राम तेरी गंगा मैली हो गई , पापियों के पाप धोते-धोते" तक का सफ़र, फ़िल्मी दुनिया की दो अलग-अलग पीढ़ियों में ही सही, तय कर चुके हैं और ऐसा ही लगभग मिलता-जुलता बहुत कुछ वास्तविकता के धरातल पर भी .. क्योंकि दरअसल अक़्सर बुद्धिजीवियों से सुना है कि - " साहित्य और सिनेमा हमारे समाज का ही दर्पण है। अगर समाज कुत्सित होगा तो इन दोनों में भी कुत्सितता की झलक बिना लाग लपेट के दिख ही जाती है।
बहरहाल गंगा पर ही केंद्रित होते हैं .. एक तरफ हम गंगा-आरती करते हैं और दूसरी तरफ अपने शहर से हो कर गुजरने वाली गंगा में ही पूरे शहर की आबादी की गंदगी को बड़े-बड़े नाला से बहा कर गिरने देते हैं। धार्मिक दृष्टिकोण में सही मानते हुए हम सालों भर पूजन-सामग्री के अवशेषों और मूर्तियों का विसर्जन कर के गंगा को प्रदूषित करने की सारी रही-सही कसर भी पूरी कर देते हैं।
                                     हम गंगा को नदी कभी मानते ही नहीं हैं। हमेशा उसे देवी या माँ के रूप में मानते हैं। उसको पौराणिक कथाओं को सत्य मानते हुए राजा भागीरथ, स्वर्ग, शंकर की जटा इत्यादि से जोड़ कर महिमामंडित करते हैं। अपने पुरखों से विरासत में मिली इस विचारधारा को अपनी भावी पीढ़ी के मनमस्तिष्क में लपेस देते हैं। वही भावी पीढ़ी जब अपने पाठ्यपुस्तक में पढ़ती है कि गंगा हिमालय नामक पहाड़ से निकली है तो वह द्विविधा में पड़ जाती है कि वह किसे सही माने भला!? भागीरथ को या हिमालय को ?
अपने पुरखों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिलती आ रही मान्यता वर्त्तमान बड़े-बुजुर्गों से सम्प्रेषित होकर भावी पीढ़ी को इतना ज्यादा भक्तिभाव में डूबो देती है कि उन्हें विश्व की सबसे बड़ी नदी अमेजन, नील, यांग्त्ज़ी आदि तो क्या अपने देश की अन्य कई नदियों का महत्व ही नहीं समझ आता। मसलन - तीस्ता, गोदावरी, अलकनंदा, ब्रह्मपुत्र इत्यादि। कमोबेश यमुना नदी भी गंगा की तरह पौराणिक कथाओं से जुड़ी है और सर्वविदित है कि वह भी बुरी हालात में हैं।

#२) जेही विधि राखे राम ... :-

हम लोगों को बनी बनाई लीक और वो भी पुरखों द्वारा अगर तय की हुई हो तब तो उस से हटना बिल्कुल भी मंजूर नहीं है। हम कुछ बातों में तो पुरखों की तय की गई सभ्यता और संस्कृति के लिहाफ़ में स्वदेशी और देश की मिट्टी का राग अलापते हुए चिपके रहना चाहते हैं और दोहरी मानसिकता के तहत दूसरी ओर अनेकों मामलों में अनुसन्धान या आविष्कार किए गए आधुनिक उपकरणों के इस्तेमाल से भी नहीं हिचकते ... भले ही वे सारे विदेशी हों।
दरअसल "जेही विधि राखे राम, वही विधि रहिए" .. "अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम" ..  "होइएं वही जे राम रूचि राखा" - जैसे सुविचारों से हमारी संस्कृति सुसज्जित है।
तब भला हम तो राम के भरोसे बैठेगें ही ना !? है कि नहीं !? हम तो राम में पक्के वाले भक्तगण हैं। काम करने की जरूरत ही नहीं है। अपने परम भक्तों की सुविधा के लिए तो राम ने अपने तथाकथित अनुचर हनुमान की तरह कई-कई अनुचर बना कर धरती पर भेजे हैं। वह भी भारत के बाहर।
भारत में तो सभी राम के भक्त हैं तो उन्हें मेहनत या काम करने की जरुरत कब और क्यों हैं भला ? है कि नहीं भाई !? अब देखिए ना - हमलोग माइक पर सारी रात जागरण के नाम पर या सुबह-सुबह भजन या राम के नारे चिल्लाते तो हैं .. और हाँ .. हर एक दिन दिन-रात पाँच-पाँच बार अज़ान भी चिल्लाते हैं । कभी-कभी धर्म को महिमामंडित करने के लिए विज्ञान को कोसते हुए लंबे-चौड़े भाषण भी देते हैं। पर उसी विज्ञान के तहत माइक यानी माइक्रोफोन का आविष्कार किया था जर्मनी के Emile Berliner ने।

#३) हाइजैक ऑफ़ पुष्पक ... :-

पौराणिक कथाओं या तुलसीदास के रामायण के मुताबिक़ हमारे राम कभी पुष्पक-विमान पर उड़ा करते थे। फिर उस विमान के बनाने वाले लोग और फैक्ट्री या विमान भारतवर्ष से गायब हो गए, जैसे मुहावरा है ना .. गधे के सिर से सींग का गायब हो जाना। हमने उसकी फैक्ट्री या निर्माता को नहीं ढूँढ़ा कभी। बस अतीत पर गर्दन अकड़ाये रहे। मालूम नहीं कब और किसने हमारे पुष्पक का हाइजैक कर लिया और हम सभी एक नामी डिटर्जेंट पाउडर - सर्फ-एक्सेल के विज्ञापन में गायब दाग-धब्बे की तरह उसे ढूँढ़ते रह गए। या फिर शायद ढूंढ़ने की कोशिश ही नहीं किए। हम तो बस कथाओं में पुष्पक विमान, गरुड़, हनुमान, उल्लू पर लक्ष्मी .. सब उड़ाते रहे पर वर्त्तमान हवाईजहाज का पहला प्रयास या आविष्कार हुआ अमेरिका में राइट-बंधुओं द्वारा।
हम हर असम्भव बेतुकी बातों को अपने पुरखों से धर्म के नाम पर स्वीकार करते आ रहे हैं और भावी पीढ़ी को भी मनवा रहे हैं। यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनवरत चल रहा है। शायद बुद्धिजीवियों और सुसंस्कारी समाज के कारण चलता भी रहेगा।
हम आज्ञाकारी पुत्र को अच्छा मानते हैं। मसलन राम अपने पिता के आदेशनुसार बिना किन्तु-परन्तु किए ही अपने भावी राज-पाट त्याग कर नवविवाहिता संग सपत्नीक वन-गमन कर गए चौदह वर्षों के लिए। भले उनके तथाकथित भक्तों ने उनके जन्म-भूमि पर मंदिर बनाने के लिए कोर्ट-कचहरी करके वांछित जगह-जमीन हासिल कर ली हो।

#४) सेफ्टी पिन से सिलाई मशीन तक- विश्वकर्मा भगवान की जय हो ... :-

हमारे सुसंस्कारी समाज में अपने से बड़े-बुज़ुर्ग से तर्क करने वाला कुतर्की माना जाता है। कुसंस्कारी माना जाता है। कहा जाता है कि वह जुबान लड़ा रहा है। उसे कुछ भी नया सोचने का हक़ नहीं।
यही कारण है कि आधा से ज्यादा आविष्कार भारत से बाहर हुए हैं। कारण - वहाँ तर्कशील होना बुरा नहीं माना जाता है। सारे आविष्कार लीक से हट कर सोचने से ही हुए हैं। वर्ना हम आज भी आदिमानव की तरह ही उसी पाषाणयुग में जी रहे होते।
                               एक मामूली-सी सेफ्टी पिन भी पहली बार बनाई गई वाल्टर हंट नामक एक अमेरिकी के द्वारा। सिलाई मशीन का आविष्कार भी एलायस होवे नामक एक अमेरिकी द्वारा ही किया गया। भारत में पहली सिलाई मशीन भी अमेरिका से सिंगर कम्पनी की आई। बाद में भारत में उषा कम्पनी ने भले ही इसे बनाया। पर हम अपनी भावी पीढ़ी को तथाकथित विश्वकर्मा भगवान का ही ज्ञान थोपते हैं। आखिर ये विश्वकर्मा आज भी छेनी-हथौड़ी थामे हैं और विदेशों में ना जाने कितने आधुनिक से आधुनिक यंत्रों का आविष्कार और निर्माण आज तक होता आ रहा है।
हमें तो बस भगवान का पूजन-भजन-कीर्तन, जागरण (?), उपवास-व्रत इत्यादि करना है और बाक़ी के आविष्कार तो विदेशियों से संसार में ये भगवान लोग करवा ही दे रहे हैं। है ना !?

#५) जय-जय जै हनुमान गोसाईं ... :-

हम अपने समाज में - "सूरज आग का गोला है।" ... "अतीत में काम के आधार पर समाज में जाति का बँटवारा किया गया था।" .. Pythagoras Theorem .. Newton's Law .. Perodic Tables .. Darwin's Theory ..  Faraday's Law of Induction .. इत्यादि अपनी भावी पीढ़ी को केवल अंक लाने और क्लास में पोजीशन लाने के लिए बतलाते या पढ़वाते हैं ताकि भविष्य में वह मेधावी छात्र बनकर कोई प्रतियोगिता परीक्षा योग्य हो कर कोई बड़ा वाला (?) IAS, IPS, Engineer, Doctor, Professor, Officer इत्यादि बन सके। फिर अगर उस पद पर दो नंबर की कमाई हो तो फिर तो सोने में सुहागा। विदेशों में हुए कई-कई विलक्षण आविष्कारों के बारे में भी वह मेधावी पढ़ता भी है या जानता  भी है तो केवल अंक लाने के लिए। ज्ञानवर्द्धन या लीक से हट कर सोचने के लिए नहीं।
कारण -  उसे अपने अभिभावक से यह ज्ञान मिलता है कि वह जो कुछ भी कर रहा है, सब भगवान की कृपा से कर रहा है। हनुमान (जी) या सरस्वती (माता) की कृपा से उत्तीर्ण होता है। मतलब उसकी अपनी योग्यता का कोई महत्व नहीं है। सब कुछ राम भरोसे। यह ज्ञान उसके आत्मबल को कमजोर बनाता है।
कई दफ़ा तो उस बच्चे का जन्म भी किसी देवी-देवता या पीर-मज़ार की कृपा से हुआ होता है। वह यह सुन कर ताउम्र उस मंदिर या मज़ार के सामने माथा या घुटने टेकता रहता है बेचारा। उसे अपनी क़ाबिलियत पर हमेशा शक रहता है। वह मन ही मन भगवान नामक मिथक पर आश्रित होता जाता है। वह अपनी अगली पीढ़ी को फिर वही का वही हूबहू परोस देता है।
इन प्राप्तांक वाले ज्ञान से एक नंबरी या दो नंबरी  कमाई वाली सरकारी, अर्द्धसरकारी या सफल कोई निजी कंपनी में नौकरी मिलने के बाद .. फिर भले देश में दहेज़ विरोधी क़ानून,1961 लागू हो, एक तगड़ी रक़म वाली दहेज़ लेकर/देकर उसकी शादी कर दी जाती है। ये सिलसिला अनवरत चलता आ रहा है। चल रहा है। शायद चलता भी रहेगा।

#६) Odd-Even वाली शैली ... :-

साल में कुछ दिन किसी भी विषय पर तथाकथित दिवस मना कर हम एक सुसंस्कृत नागरिक होने का प्रमाण दे देते हैं। आज तो यह और भी आसान है , सोशल मिडिया पर अपनी उस करतूत की सेल्फ़ी को चिपका कर चमका देना।
हम कभी "दिवस" को "दिनचर्या" में बदलने की भूल नहीं करते।
कर भी नहीं सकते। कौन रोज-रोज की परेशानी मोल ले भला। ये ठीक उस ढोंग की तरह है - जैसे हमने दिल्ली सरकार की यातायात वाली Odd-Even वाली शैली में धर्म से जोड़कर मांसाहार-शाकाहार की नियमावली बना डाली है। मंगल, गुरु, शनि को शाकाहार और बाक़ी दिन मांसाहार।
हमने बाल-दाढ़ी कटवाने-बनाने के भी दिन तय कर रखे हैं। इन सोच के मुताबिक़ तो प्रतिदिन Shave करने वाले Clean Shaved अम्बानी को फ़क़ीर होना चाहिए था शायद।
युवा पीढ़ी को युवा होने के पहले ही हम उसके जन्म के पूर्व ही कई सारे अपने पुरखों से मिले रेडीमेड पूर्वाग्रहों के बाड़े में कैद कर देते हैं। उसे अपनी महिमामंडित अंधपरम्पराओं और विडम्बनाओं से ग्रसित कर देते हैं। ज्यादा से ज्यादा अंक-प्राप्ति वाली पढ़ाई की भट्ठी में झोंक देते हैं।

( विशेष :- यह आलेख अभी जारी रहेगा .. "हाईजैक ऑफ़ पुष्पक" का भाग-२ भी आगे फिर कभी .. फिलहाल इस कुतर्की की बतकही वाली बातों पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित रहेगी ... )