Saturday, November 2, 2024

कुछ सौग़ात अख़बार में ...


यूँ बुलाया तो था उसने .. फोन कर, बड़े ही प्यार से,

व्यंजन भी तो फिर .. परोसे उसने अनेक प्रकार के। 

पर पास बैठे, करे बातें कुछ देर, हम रहे इंतज़ार में,

चलते वक्त मिले खाने के सौग़ात भी तो अख़बार में।

आज की उपरोक्त चार पंक्तियों वाली बतकही .. मन के पन्ने पर क्यों पनपी, कब पनपी, कहाँ पनपी, कैसे पनपी .. इन सब से परे .. हम अभी तो .. हमारी मूल बतकही की ओर अग्रसर होते हैं .. बस यूँ ही ...

एक उपलब्ध अनुमानित आँकड़े के अनुसार भारत में प्रतिदिन अख़बारों की लगभग करोड़ों प्रतियाँ मुद्रित होती हैं और इनमें से लाखों प्रतियाँ आज भी प्रायः समोसे, जलेबियों, कचौड़ियों, कचड़ी-पकौड़े, रोटी, पराठे, नान, कुलचे, भटूरे, कतलम्बे, बन टिक्की, झालमुड़ी, घुघनी, वड़ा पाव, 'टोस्ट-आमलेट' जैसे व्यंजनों को 'पैक' करने में या परोसने में, ख़ास कर सड़क के किनारे ठेले पर बिकने वाले भोजन के लिए, 'स्ट्रीट फूड वेंडर्स' (Street Food Vendors) द्वारा धड़ल्ले से उपयोग की जाती हैं। 

जबकि "भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India = FSSAI)" तो "खाद्य सुरक्षा और मानक (पैकेजिंग) विनियम, 2018" के तहत समस्त देश के हम उपभोक्ताओं और खाद्य विक्रेताओं को आगाह करते हुए आग्रह कर चुका है, कि पके खाद्य पदार्थों की 'पैकिंग', भंडारण या परोसने के लिए या फिर उपरोक्त तले हुए खाद्य पदार्थों से अतिरिक्त तेल को सोखने के लिए भी अख़बारों यानि समाचार- पत्रों के पन्नों का उपयोग हमें नहीं करनी चाहिए। 

क्योंकि .. इस संस्थान के अनुसार समाचार-पत्रों में व्यवहार की जाने वाली स्याही में सीसा और भारी धातुओं जैसे कुछ ऐसे विषैले रसायन होते हैं ; जो समाचार-पत्रों में परोसे गए या लपेटे गए खाद्य पदार्थों के जरिए मानव शरीर में प्रवेश कर के विभिन्न प्रकार की घातक बीमारियों को उत्पन्न कर सकते हैं।

साथ ही .. समाचार-पत्रों के वितरण के दौरान उसको प्रायः विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, जिनके कारण वे बैक्टीरिया, वायरस या अन्य रोगजनकों द्वारा संदूषित हो सकते हैं। जिनमें परोसा या लपेटा गया भोजन संभवतः खाद्य जनित गंभीर बीमारियों का वाहक बन सकता है।

वैसे भी हमारे जैसे आम लोग तो आम दिनों में या त्योहार विशेष के मौकों पर भी .. अपने मुहल्ले में नित्य आने वाले नगर निगम के सफ़ाईकर्मियों तक को भी .. कुछ भी खाने के सौग़ात समाचार-पत्रों के पन्नों या रद्दी काग़ज़ों में लपेट कर नहीं देते ; पर आज भी कई घरों के लोग या तो अपनी नासमझी के कारण या त्योहारों के दिन दिनभर उनके घर आए मेहमानों के जूठन को निपटाने के ख़्याल से भी या फिर सामने वाले को कमतर आँकते हुए भी .. खाने के सामान को जैसे-तैसे समाचार-पत्रों के पन्नों या रद्दी काग़ज़ों में लपेट कर दे देते हैं .. शायद ...

लब्बोलुआब ये है, कि हमें इस प्रकार से किसी को भी कमतर नहीं आँकना चाहिए और भूले से भी .. किसी को भी अख़बार के पन्नों में खाने के सामान नहीं देने चाहिए और किसी का जूठन तो कतई नहीं .. बस यूँ ही ...

क्योंकि अगर .. सामने वाला कोई भी आपको स्नेह, प्रेम या श्रद्धा और आदर की दृष्टि से देखता है, तो फिर .. आप से एक करबद्ध निवेदन है, कि आप उसके विश्वास को मत तोड़िए, ताकि उसे ये महसूस ना हो कि वह आपके घर गलत समय पर आकर उसने कोई गलती कर दी है .. शायद ...

क्योंकि .. अगर सामने वाला आपसे .. आपका विषैला सौग़ात (?) बिना कुछ बोले .. हँस कर स्वीकार कर लेता है, तो .. वो कोई बुड़बक, बकलोल, बकचोंधर या बकलण्ड यानि मूर्ख इंसान थोड़े ही ना है !!! .. शायद ...




Sunday, October 27, 2024

लज्जा की लाज ...


एक ताज़ातरीन घटना पर नज़र डालें तो .. अपने देश भारत की वर्तमान सरकार, विशेषकर गृह मंत्रालय, की उदारता की पराकाष्ठा नज़र आती है ; जब तसलीमा नसरीन जी द्वारा इसी 21 अक्टूबर को सामाजिक माध्यमों  (Social Media) में से किसी एक पर गृह मंत्री को सम्बोधित करते हुए एक प्रार्थना पत्र लिखने के बाद .. अगले ही दिन उनके (अस्थायी) निवास अनुज्ञा-पत्र (Residence Permit) का नवीकरण (Renew) कर दिया गया, जो कि इसी वर्ष जुलाई माह में ही रद्द हो चुका था।

जब कि दूसरी तरफ़ .. यही सरकार अपने देश में रोहिंग्या समुदाय के लोगों की होने वाली घुसपैठ का कड़ा विरोध करती रहती है और उन्हें खदेड़ने के लिए आमादा भी रहती है। चाहे उनकी घुसपैठ का उद्देश्य मजबूरीवश विस्थापन का हो या आतंकवाद से प्रेरित हो। जबकि वोट बैंक के निजी स्वार्थवश कई अन्य राजनीतिक दलों का उन्हें परोक्ष रूप से समर्थन ही मिलता रहता है। फलस्वरूप इस मामले में केन्द्र में वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार को कई विपक्षी राजनीतिक दलों के द्वारा अनुचित विरोध का निरन्तर सामना करना पड़ता है .. शायद ...

यूँ देखा जाए तो .. तसलीमा जी और रोहिंग्या लोगों के समान सम्प्रदाय से जुड़े होने के बावजूद दोनों के साथ हमारी वर्तमान सरकार द्वारा किये जाने वाले बर्ताव में अन्तर का कारण है .. दोनों के हमारे देश में यहाँ आने के उद्देश्य में अन्तर का होना .. शायद ...

एक तरफ़ तसलीमा नसरीन, तारिक़ फ़तह, सलमान रुश्दी, कलबुर्गी, गोविंद पंसारे, नरेन्द्र अच्युत दाभोलकर, भगत सिंह, कबीर इत्यादि जैसे लोग, जो धर्म-सम्प्रदाय या समुदाय से तटस्थ होकर, उनकी बुराईयों के लिए बेबाक बयानबाजी करने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं ; तो दूसरी तरफ़ शिवानी जी, इस्मत चुग़ताई, सआदत हसन मंटो जैसे लोग भी थे या हैं, जो तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों पर चोट करते हुए तनिक भी नहीं सहमते। और तो और .. कभी मीराबाई, तो कभी अमृता प्रीतम जैसी महान आत्माएँ अपने-अपने प्रियतम से हुए मन के जुड़ाव की बेबाक बयानी में कहीं भी .. कभी भी .. कोताही नहीं बरतती हैं .. शायद ...

खास बात तो ये है, कि इनमें अधिकांश लोग लेखन या पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। परन्तु उन तुकबंदियों वाले और 'पैरोडीनुमा' लेखन से तो कतई नहीं, जिसे आज अधिकांश लोग अपनी उपलब्धि मानते हुए .. अपनी गर्दन को अकड़ाते नज़र आते रहते हैं .. शायद ..

वैसे भी ग़ौर करने वाली बात ये है, कि किसी भी कालखंड में, किसी भी समाज, प्रान्त या देश भर में तसलीमा नसरीन या सआदत हसन मंटो जैसे लोग विरले ही मिलते हैं। जिन्हें प्रायः भेड़चाल वाली भीड़ द्वारा एक सिरे से नकार दिया जाता है तथा उन्हीं भेड़चाल वाली भीड़ द्वारा ऐसे विरले बेबाक बयानबाजी करने वालों के विचारों वाले मार्ग या मार्गदर्शन में अनगिनत अड़चनें लगायी जाती हैं। जिनके फलस्वरूप प्रायः उन्हें उन भेड़चाल वाली भीड़ से प्रायः फ़तवा, कारावास, निर्वासन या हत्या तक जैसी अनुचित प्रतिक्रियाएँ झेलनी पड़ती हैं .. शायद ...

कभी सत्येंद्र नाथ बोस जी जैसे लोग भी हुए थे और आज भारतीय चलचित्र जगत के जॉन अब्राहम व अमोल पालेकर जैसे लोग भी हैं, जो बेबाक बयानबाजी तो नहीं करते ; परन्तु भेड़चाल वाली भीड़ के लिए ये लोग तथाकथित नास्तिक कहे / माने जाने वाले लोग हैं।

हमें हमारे पूर्वजों से विरासत में मिली शास्त्रार्थ वाली परंपराओं वाले भारत देश में भी ऐसे किसी विषय पर तर्कसंगत तथ्यात्मक विचार विमर्श करने की जगह लोग अक्सर सामने वाले का उपहास करते हुए .. अन्ततः उसको चुप करा देते हैं। हँसी आने के साथ-साथ अफ़सोस भी तो तब होता है, जब आज सहज उपलब्ध सामाजिक माध्यम (Social Media) के स्रोतों पर होने वाले तथ्यात्मक वार्तालाप के दौरान तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा यदाकदा 'अन्फ्रेंड' (Unfriend) कर दिए जाने वाली टपोरी धमकी दी जाती है या फिर .. कर ही दी जाती है .. शायद ...

सर्वविदित है, कि सन् 1993 ईस्वी में बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन जी का उपन्यास "लज्जा" पहली बार बांग्ला भाषा में प्रकाशित हुआ था ; जिसमें एक काल्पनिक कहानी ना होकर .. तत्कालीन बांग्लादेश में बचपन से उनकी आँखों देखी और उनके द्वारा जी गयी नारकीय ज़िन्दगी का बखान है। उसमें वहाँ की साम्प्रदायिकता और महिला अधिकारों को कुचले जाने की घटनाओं के साथ- साथ एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों की वास्तविक आलोचना की गयी है।

हम सभी ने भी तो .. अभी हाल ही में इसी वर्ष अगस्त महीने में उन सभी के प्रत्यक्ष प्रमाण-स्वरुप वहाँ के आरक्षण विरोधी छात्र आंदोलन की आड़ में एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों द्वारा घटित .. मन को विचलित करने वाली उन्हीं सारी भयावह घटनाओं वाले दृश्यों को किसी डरावने वृत्तचित्र की तरह दूरदर्शन के तमाम समाचार 'चैनलों' के माध्यम से देखा है।

बांग्लादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेग़म खालिदा जिया जी की सरकार ने उनकी उस "लज्जा" के साथ-साथ अन्य कई किताबों को भी प्रतिबन्धित कर दिया था। फिर वहाँ के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों द्वारा उनके लिए फ़तवा जारी कर दिए गए थे। जिससे कुछ दिनों तक उनको वहीं गुप्त रूप से भूमिगत रहना पड़ा था और अंततोगत्वा बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था। तब से लेकर आज तक तसलीमा जी निर्वासन में ही हैं।

हालांकि बाद में बेग़म शेख हसीना जी के शासनकाल में भी उन्हें वही सारे विरोध झेलने पड़े थे। बांग्लादेश और एक समुदाय विशेष वाले अन्य कई देशों में भी भले ही आज भी "लज्जा" प्रतिबन्धित है ; परन्तु सन् 1993 ईस्वी के बाद के वर्षों से लेकर आज तक में "लज्जा" के अंग्रेजी व हिंदी के अलावा अन्य कई भाषाओं में अनगिनत संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।

निर्वासन के पश्चात तसलीमा जी शुरू के लगभग दस वर्षों तक अलग-अलग समय में अलग-अलग देशों - स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका में रहीं और सन् 2004-05 ईस्वी में वह भारत आकर कोलकाता शहर में रहने लगीं ; ताकि वह अपने स्वदेश से दूर रह कर भी अपनी स्वदेशी सभ्यता व संस्कृति की अनुभूति पश्चिम बंगाल की राजधानी में रह कर कर सकें।

लेकिन सन् 2007 ईस्वी में भारत में पुनः उनका विरोध बढ़ने लगा था। उस समय पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री थे और केंद्र में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री। मतलब .. केंद्र में यूपीए (UPA) की सरकार थी और पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की।

उसी दौरान समुदाय विशेष के कट्टर गुटों ने तसलीमा जी को भारत से निकालने की अनुचित माँग करते हुए .. जगह- जगह पर अनेक हिंसक विरोध-प्रदर्शन किए थे ; जिन कारणों से उनको कोलकाता छोड़ कर पहले तो दिल्ली और फिर उसके बाद लगभग तीन माह के बाद दोबारा अमेरिका जाना पड़ा था। अमेरिका से पुनः वह सन् 2011 ईस्वी में भारत लौटीं और तब से अब तक वह भारत में ही रह रहीं हैं। हालांकि उनके पास स्वीडन की नागरिकता है, पर उन्हें भारत में ही सुकून मिलता है और इसीलिए वह फ़िलहाल भारत की राजधानी नई दिल्ली में रह रही हैं।

तसलीमा जी अपनी किताबों और बेबाक बयानों की वजह से आज भी भारत, बांग्लादेश समेत दुनियाभर के समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों की आँखों की किरकिरी बनी हुई .. उनके निशाने पर रहती हैं।

मसलन - अभी हाल ही में उन्होंने एक सामाजिक माध्यम (Social Media) पर अपने एक 'पोस्ट' में लिखा / कहा है, कि - "बांग्लादेश में हर कोई झूठ बोल रहा है। सेना प्रमुख ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। राष्ट्रपति ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। यूनुस ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। लेकिन किसी ने भी त्यागपत्र नहीं देखा है। त्यागपत्र भगवान की तरह है, हर कोई कहता है कि यह वहाँ है, लेकिन कोई भी यह नहीं दिखा सकता या साबित नहीं कर सकता कि यह वहाँ है।"

वैसे तो ग़ौर करने वाली उनकी सभी खास अनुकरणीय व सराहनीय कृत्यों में से एक सबसे खासमखास है, कि कुछ वर्षों पूर्व ही उन्होंने अपने सम्प्रदाय या समुदाय के कठमुल्लाओं की परवाह किए बिना, भेड़चाल वाली भीड़ से परे हट कर स्वेच्छा से एक निर्णय लिया है और सामाजिक माध्यम (Social Media) पर इसकी घोषणा भी कीं हैं, कि वह  स्वयं के मरणोपरान्त दफ़न होना नहीं चाहती हैं। बल्कि वह अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स / AIIMS), नई दिल्ली के चिकित्सा अनुसंधान विभाग को अपना देहदान कर चुकी हैं।

यूँ तो अभी हाल ही में हमारे भारत की वर्तमान सरकार की एक और उदारता देखने / सुनने के लिए मिली है, जब हाल ही में बांग्लादेश की पदच्युत प्रधानमंत्री - शेख हसीना जी के बांग्लादेश से जान बचाकर भारत भाग आने के बाद से आज तक यहाँ किसी गुप्त स्थान पर उनको सुरक्षित शरण मिली हुई है।

लब्बोलुआब यही है, कि तसलीमा नसरीन जी के निवास अनुज्ञा-पत्र (Residence Permit) के नवीकरण (Renew) हो जाने से .. उनकी "लज्जा" की लाज आज रह गयी है .. बस यूँ ही ...