अपना
हाँ, हाँ ..... अपना
अपना तो कोई व्यक्ति-विशेष तो होता नहीं,
जो दे दे स्नेह, प्रेम, श्रद्धा निस्वार्थ बस यूँ हीं
लगता तो है अपना वही ,
स्नेह, प्रेम, श्रद्धा की ही
बंधन होती अटूट है,
सगे वो क्या जिनमें फूट ही फूट है,
इस लौकिक रंगमंच पर शायद
कोई सगा अपना हो भी या ... ना भी,
पर बुरे वक्त में जो दे दे सहारा
लगता तो है अपना वही,
क्या !!!?
सगे को ही अपना कह सकते हैं!?
क्यों कहूँ भला सगे को अपना !?
क्यों ना कहें हम उसे पराया!?
हाँ, हाँ, उसे ... जो हमारे दुःख भरे लम्हों को
"किए" का फल बतला कर हँसते हैं
और हमारी ख़ुशी से सदा
स्वयं में आपादमस्तक
धधक-धधक कर जलते हैं
पल-पल कभी सुलगते हैं
या फिर उन्हें ...
जो हमारे दुःखी और दुर्घटनाग्रस्त अतितों को
किसी पुरातत्व की तरह
अँधेरे सीलन भरे अतीत के खंडहरों से
निकाला करें एक काई लगे सिक्के की तरह
और उलट-पलट कर उसे चुपचाप
एक सभ्य नागरिक की तरह
मंद-मंद मुस्कुराया करें
क्या !!?
अपना होने के लिए सगा होना
नितांत जरुरी है!? अच्छा !!!?
खून और DNA भी मिलना जरुरी है !?
ये तो सारा का सारा दिखावा है...
स्नेह, प्रेम, श्रद्धा .. के आदान-प्रदान मात्र से
क्या अपना हो सकते नहीं !!?
वाह !!!!
कैसी हम इन्सानों की भुलावा है
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