अक्षत् ...
हाँ ... पता है .. ये परिचय का मोहताज़ नहीं
जो होता तो है आम अरवा चावल
पर तथाकथित श्रद्धा-संस्कृति का ओढ़े घूँघट
बना दिया जाता है साथ हल्दी व दूब के
तथाकथित पवित्र अक्षत् ...
जो अक़्सर इस्तेमाल किये जाने के
कुछ लम्हे बाद हो जाते है स्वयं क्षत-विक्षत ...
चाहे ...तथाकथित सत्यनारायण स्वामी का हो कथा
या घर के पूजाघर का कोना या फिर ....
शादी के मड़वे में वर-वधू के ऊपर आशीर्वादस्वरूप छींटे जाने वाले तथाकथित अक्षत् या हो फिर
वर-वधु के चुमावन के रस्म में छींटा गया अक्षत्
अक़्सर जो हो जाते हैं क्षण भर में क्षत-विक्षत
कभी-कभी तो चूमते हैं कई-कई तलवे इनको
हाँ .. वैसे कुछ ख़ुशनसीब दाने ही बन पाते हैं
कभी-कभार कुछ पशु-पक्षियों के निवाले
कचरे के ढेर पर या कभी-कभी मछलियों के भी
जब प्रवाह किये जाते हैं नदी या तालाब में
"पाप ना लग जाए कहीं" का बहुमूल्य सोच लिए
शादियों में तथाकथित 'लावा छिंटाई' का हो रस्म या
परिजनों की शवयात्रा में अर्थी के पद-चिन्हों पर
लावे एवं सिक्के का मुहर लगाते हुए हम
गुजर तो जाते हैं और जिसके सिक्के तो
लपक लिए जाते हैं राह चलते आमजन
या फिर सम्बन्धियों या साथ गए जान-पहचान वालों द्वारा
जो कभी-कभी ख़र्च कर दिए जाते हैं या फिर प्रायः
तथाकथित आशीर्वाद का एक रूप मान कर
रख लिया जाता है घर में कहीं संभाल कर
किसी संग्रहालय की धरोहर की तरह
पर लावे बेचारे जो धान से बने मानो
गर्व से सीना चौड़ा किए पल भर में
पैरों तले रौंदे ही तो जाते हैं बारहा ...हाँ ...
कुछ-कुछ , कभी-कभी बेशक़ किसी पशु-पक्षी या
मछलियों के भी बन पाते हैं निवाले
ठीक-ठीक अक्षत् की तरह
साहिब !!!
करते तो हैं आप आस्तिकता की बात
पर साथ ये अन्नपूर्णा देवी का निरादर ऐसा
दिखता नहीं आपको क्या.. इन दानों में
किसी भूखे-गरीब का छितराया- बिखरा निवाला
कह नहीं रहा वैसे मैं इसे अंधपरम्परा .. ना.. ना !
पर साथ समय के समय-समय पर चाहती हैं
संशोधन ठीक हमारे संविधान-सा
चाहे वे संस्कृति हों या परम्पराएँ अक़्सर
कल तक अगर नहीं तो कम से कम अब से
एक बार तो साहिब सोचना जरा ..
हाँ साहिब ! ... सोचना जरा .....
किसी भूखे-गरीब का छितराने से पहले
उनका निवाला ......
हाँ ... पता है .. ये परिचय का मोहताज़ नहीं
जो होता तो है आम अरवा चावल
पर तथाकथित श्रद्धा-संस्कृति का ओढ़े घूँघट
बना दिया जाता है साथ हल्दी व दूब के
तथाकथित पवित्र अक्षत् ...
जो अक़्सर इस्तेमाल किये जाने के
कुछ लम्हे बाद हो जाते है स्वयं क्षत-विक्षत ...
चाहे ...तथाकथित सत्यनारायण स्वामी का हो कथा
या घर के पूजाघर का कोना या फिर ....
शादी के मड़वे में वर-वधू के ऊपर आशीर्वादस्वरूप छींटे जाने वाले तथाकथित अक्षत् या हो फिर
वर-वधु के चुमावन के रस्म में छींटा गया अक्षत्
अक़्सर जो हो जाते हैं क्षण भर में क्षत-विक्षत
कभी-कभी तो चूमते हैं कई-कई तलवे इनको
हाँ .. वैसे कुछ ख़ुशनसीब दाने ही बन पाते हैं
कभी-कभार कुछ पशु-पक्षियों के निवाले
कचरे के ढेर पर या कभी-कभी मछलियों के भी
जब प्रवाह किये जाते हैं नदी या तालाब में
"पाप ना लग जाए कहीं" का बहुमूल्य सोच लिए
शादियों में तथाकथित 'लावा छिंटाई' का हो रस्म या
परिजनों की शवयात्रा में अर्थी के पद-चिन्हों पर
लावे एवं सिक्के का मुहर लगाते हुए हम
गुजर तो जाते हैं और जिसके सिक्के तो
लपक लिए जाते हैं राह चलते आमजन
या फिर सम्बन्धियों या साथ गए जान-पहचान वालों द्वारा
जो कभी-कभी ख़र्च कर दिए जाते हैं या फिर प्रायः
तथाकथित आशीर्वाद का एक रूप मान कर
रख लिया जाता है घर में कहीं संभाल कर
किसी संग्रहालय की धरोहर की तरह
पर लावे बेचारे जो धान से बने मानो
गर्व से सीना चौड़ा किए पल भर में
पैरों तले रौंदे ही तो जाते हैं बारहा ...हाँ ...
कुछ-कुछ , कभी-कभी बेशक़ किसी पशु-पक्षी या
मछलियों के भी बन पाते हैं निवाले
ठीक-ठीक अक्षत् की तरह
साहिब !!!
करते तो हैं आप आस्तिकता की बात
पर साथ ये अन्नपूर्णा देवी का निरादर ऐसा
दिखता नहीं आपको क्या.. इन दानों में
किसी भूखे-गरीब का छितराया- बिखरा निवाला
कह नहीं रहा वैसे मैं इसे अंधपरम्परा .. ना.. ना !
पर साथ समय के समय-समय पर चाहती हैं
संशोधन ठीक हमारे संविधान-सा
चाहे वे संस्कृति हों या परम्पराएँ अक़्सर
कल तक अगर नहीं तो कम से कम अब से
एक बार तो साहिब सोचना जरा ..
हाँ साहिब ! ... सोचना जरा .....
किसी भूखे-गरीब का छितराने से पहले
उनका निवाला ......
आदरणीय सुबोध जी -- मैंने भी बहुत से अक्षत देवों को अर्पित किये हैं | कर्मकांडी पूजा विधान के अंतर्गत बहुत ही चीजें [ क्योकि परम्पराओं के विरोध का साहस नहीं है शायद या फिर भीतर परम्परावाद इतनी गहरी पैठ बना चुका है कि इस तरह के प्रश्न भीतर ही दम तोड़ देते है ] मात्र अक्षत नहीं , दूध , फल , निर्मल जल सभी कुछ बिना हिचक भगवान् को समर्पित कर खुद को संतुष्ट किया है कि पूजा हो गयी | पर ये प्रश्न मैं भी खुद से करती हूँ [ अपने एक लेख में मैंने इस ओर इशारा भी किया था ] कि चढ़ावे के रूप में अन्न की बर्बादी कब तक ? धर्म के विषय में बात -बात पर तलवार म्यान से निकालने वाले धर्मावलम्बी क्यों नहीं सोचते कि आज धर्म को एक सार्थक मार्गदर्शन की आवश्यकता है जिसमें चढ़ावे को सार्थक किये जाने के लिए , उसका सूखा संग्रह बहुत जरूरी है - जिससे वह अनेक अन्नहीनों का निवाला बन सके |मोबाइल और महंगी कारों से लैस ये कथित धर्मावलम्बी एक एश्वर्यपूर्ण जीवन जीकर भी सन्यासी कहलाये जा रहें है इन्हें किसी विपन्नता में घिरे व्यक्ति की भूख का एहसास कहाँ ? ये उस जिम्मेवारी से कोसों दूर अपने निजी स्वार्थों में रत हैं | पर यदि मैं अपनी आँखों देखि कहूं तो , चढ़ावे के रूप में कई लोक देवताओं के दर पर तो पूरी , हलवे , गुलगुलों का पहाड़ भी देखा है मैंने , जिसपर से सभी अंध भक्त [ जिनमें से मैं भी एक रही हूँ कई जगह पर एक अव्यक्त ग्लानि के साथ ] बिना किसी ग्लानिभाव के उपर चढ़कर पूजा अर्चन कर अपना भाग्य सराहते हैं | अगर ये चढ़ावा आटे , गुड तेल इत्यादि के रूप में स्वच्छता से संग्रहित किया जाता तो ना जाने कितने लोग , कितने महीनों इसके जरिये अपना पेट भर पाते | गुरुद्वारों में अन्न का सदुपयोग अनुकरणीय है | एक सार्थक विमर्श का सूत्रपात करती रचना के लिए आपको साधुवाद | आशा है अन्य सजग पाठक इस विषय में अपनी बेबाक राय जरुर रखेंगे | मेरा विशवास है ईश्वर अपने चढ़ावे से अधिक अपने भूखी संतानों का पेट भरने से अधिक प्रसन्न होता होगा | सादर --
ReplyDeleteमेरी रचना से बेहतर आपकी प्रतिक्रिया को नमन रेणु जी। मेरी रचना पर आपका ध्यानाकर्षण मेरे लिए सौभाग्य है।
Deleteमुझे मेरी रचना के लिए ना तो कोई अँगूठा या दिल वाला स्माइली चाहिए होता है और ना ही कई -कई प्रतिक्रियाओं का अंबार।
अगर आप की तरह एक या दो लोग भी मेरी सोच (रचना) से धनात्मक प्रभावित हो कर अपने हृदय-परिवर्त्तन की ओर अग्रसर या प्रयासरत होते हैं तो मैं अपने लेखन को सफल मान कर आह्लादित हो लेता हूँ।
गुरुद्वारों की एक और भी ख़ास बात जो मेरे मन को छूती है, ये लंगर में खाने वाले किसी की जाती-धर्म नहीं पूछते।
मैं पटना-साहिब के बड़े गुरूद्वारे के समीप ही रहता हूँ।
(मैं फॉलोवर्स की संख्या के भेड़-चाल में यक़ीन नहीं रखता और ना ही प्रतिक्रियाओं के अम्बार के।
एक दो हृदय-परिवर्त्तन में ही मैं खुश हूँ ....शायद मेरी बात अटपटी लग रही हो, पर ये सच है ...).
आदरणीय विचारणीय विषय बिखरा निवाला
ReplyDeleteयह सवाल अक्सर मेरे मन में भी उठता है परन्तु श्रद्धा और अंधविश्वास की दौड़ में चाह कर भी कुछ नहीं कर सकी क्योंकि जहां बात परम्पराओं की हो और एक बड़ा समाज वर्ग उसे मानता हो तो उस परम्परा के चाहे वो अन्न की बर्बादी की हो ,हर पल स्वयं को असाहाय ही महसूस किया
आपकी स्वयं की गुनाह कबूल करती प्रतिक्रिया सुकून दे रहा है ... पर महोदया हमें अपने लिए नहीं तो कम से कम अपनी भावी पीढ़ी के लिए तो अपनी (अन्ध) परम्पराओं के विरूद्ध आवाज उठानी होगी ना और किसी को तो पहल करना होगा ना ... लेखनी के फॉलोवर्स गिनकर, अंगूठे और दिल वाली स्माइली गिनकर , पुरस्कार जीत कर , छप कर हम सभी आह्लादित तो हो लेते हैं पर एक की भी हृदय-परिवर्त्तन कर पाये या नहीं ... इसका मूल्यांकन हम कब और कहाँ करते हैं !???
ReplyDeleteकरना चाहिए ना !? वरना रचना मुर्दे पर सजने वाले फूल की तरह है।
आवाज़ तो हम-आप को ही उठानी है, वर्ना रचना बेमानी है।
अगर राजा राम मोहन राय ने आवाज़ नहीं उठाई होती तो हमारे आपके घर की विधवाएँ जिन्दा चिता पर जल रही होती और समाज तथाकथित सती के आगे ढोल-मंजीरे बजा रहा होता ....
आइये एक संशोधन की कोशिश करते हैं .....
जी निसंदेह प्रयास जारी है और रहेगा
Deleteजी !
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04 -08-2019) को "आया है त्यौहार तीज का" (चर्चा अंक- 3417) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
मेरी रचना का लिंक साझा करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपको। कल के चर्चा अंक -3417 के लिए मेरी असीम शुभकामनाएं ....
Deleteबिखरा निवाला ...बहुत ही सटीक... आज मै निसंकोच अपनी बात लिखना चाहुँगी जिसे आज तक छुपाती हूँ कि इसी सोच के कारण मैं मन्दिर में अन्न फल तो क्या फूल भी नहीं चढा पाती जब भी किसी पेड़ पर फूल तोड़ने जाती हूँ मुझे लगता है जैसे मैं बलि ले रही हूँ फूल की....एक बार नीचे गिरे ताजे फूल उठाते किसी ने टोक दिया
ReplyDeleteगिरे हुए फूल भगवान को ?....
मन्दिर में केले के ऊपर भक्तो को अगरबत्ती ठूँसते हुए देखती हूँ तो बगावत करने को मन करता है....मन्दिर में मन की शान्ति की जगह अशांति का भाव लेकर लौटती हूँ तो मन डरता है कि मैं कन्जूस तो नहीं भगवान भी क्या सोचते होंगे मेरे बारे में......ऐसी दुविधा एक दो से शेयर की तो उनको विचारों में खुद को ही गलत पाया फिर भी अपनी सोच न बदल सकी तो मंदिर जाना ही कम कर दिया....सच में इस चढावे फल और प्रसाद को झुग्गी -झोपड़ियों के बच्चों में बाँटकर देखें कितना संतोष मिलता है दिल को...पेड़ की टहनी से टूटा फूल मन को भी सूना कर देता है भगवान कण कण में हैं फिर उस पुष्प में वहीं प्रभु के दर्शन करें तो कैसा हो....
बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति आपकी।
जी इतना सोचने के लिए नमन आपको। दरअसल मैं तो इतना भर भी नहीं करता, क्योंकि मैं पूर्णरूपेण तथाकथित नास्तिक हूँ मूर्ति पूजा के मामले में। प्रकृत्ति की शक्ति को नमन करता हूँ, क्यों कि हमारा जन्म-मृत्यु हमारे वश में नहीं है।
ReplyDeleteफूल के मामले में मेरी भी यही सोच है। हम लिखने वाले लोग प्रायः अपने छपे किताबों का बंद कमरे में विमोचन कर, पुरस्कार पाकर, फेसबुक-ब्लॉग पर अंगूठे और दिल वाली स्माइली को देखकर, प्रशंसा में रस टपकाती प्रतिक्रियाओं को पढ़कर रोमांचित होते हैं। पर मेरा मानना है कि अगर आपकी एक भी रचना किसी एक भी इंसान की सोच ना बदल पाये या समाज में फैली अंधपरम्पराओं व कुरीतियों को ना बदल पाये तो सारा लेखनी का घमंड बेकार है।
हमारा निःसंकोच बनना ही हमारी भावी पीढ़ी को एक स्वस्थ समाज देगा। आइये .. मिलकर कदम बढ़ाते हैं और अंधपरम्पराओं का बहिष्कार अपने घर से करते हैं .... कल की पीढ़ी यकीं मानिये आप और हम पर गर्व करेगी ...करे ना करे कम से कम कुप्रथाओं से मुक्ति तो पा सकेगी, जिसे हम -आप झेल रहे हैं....
भगवान पर अक्षत चढ़ाने के पीछे धार्मिक आडंबर पोगापंथी या स्वयं की सुख-समृद्धि की कामंंना में किया
ReplyDeleteगया कर्मकांड, मान्यता जो रही है उससे कहीं पावन और पवित्र आपकी यह लोक कल्याणकारी भावना से परिपूर्ण विचार है।
हमारे वेद पुराण भी यही सिखलाते हैं किसी भूखे को दो निवाले खिलाने से बढ़कर कोई पूजा नहीं।
आपकी ऐसी सोच का समाज में स्वागत भले न हो पर चौद समझदार संवेदनशील मन पर अवश्य आसर पड़ रहा और पड़ेगा भी।
समाज में व्याप्त आडंबर पर आपका वैचारिकी मंथन सराहनीय और अनुकरणीय है।
लिखते रहे और मानस मन पर नयी मान्यताएं गढ़ते रहे।
सादर।
शुक्रिया महोदया आपकी इस सोच के लिए !
Delete