Thursday, May 18, 2023

सादिक नहीं हैं हम .. शायद ...


कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम

हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम


पता नहीं किया कभी, क्या भाव बिकता है बाज़ारों में सोना

बहुत है अपने जीने की ख़ातिर,कुछ मिलेट्स या चना-चबेना

ना पद, ना पैसा, ना सूरत भली, माना कि नायक नहीं हैं हम 

पर करते तो किसी का बुरा नहीं, खलनायक भी नहीं हैं हम

कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम

हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम


सात फेरों और शादियों के नाम तो,सौदागरी के बोल-बाले हैं

उनके तो सब चकाचक,अपने तो अंदर जूते के फ़टे जुराबें हैं

सुबह-शाम गुनगुना-गा लेते हैं बस, कोई गायक नहीं हैं हम

खुले कुत्ते,उड़ते पंछियों से प्यार भर,कोई लायक नहीं हैं हम

कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम

हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम


शादी हो या पूजा-जागरण, होते खूब डी जे के शोर-शराबे हैं

धर्म-मज़हब के नाम पे,हो रहे क्यों चारों तरफ ख़ून-ख़राबे हैं

मंचों पर शपथ लेने वाले साहिबों जितने सादिक नहीं हैं हम

जब मर के हो जाना एक दिन देहदान, तो तनिक नहीं अहम्

कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम

हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम


सेल्फ़ी लेकर सेलिब्रिटी संग स्टेटस में चेपना स्वभाव नहीं है

मदद कर किसी को,ले सेल्फ़ी, चमकाने में कोई चाव नहीं है

बुद्धिजीवी हैं सारे, पुलिंदे ज्ञानों के, उतने अधिक नहीं हैं हम

नेमी-धर्मी धुले दूध के सारे, उतने तो ठीक-ठीक नहीं हैं हम

कहते हैं यहाँ के ज्ञानी सब लोग, कि व्यवहारिक नहीं हैं हम

हाँ सच ही कहते होंगे शायद,क्योंकि औपचारिक नहीं हैं हम


Thursday, April 27, 2023

फिर क्यूँ भला मन दरबदर है ? ...

साहिबान ! .. मिसरा, बहर, मतला, तख़ल्लुस, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ .. इन सबसे अनभिज्ञ .. ग़ज़ल की सऊर (शऊर) भला क्योंकर होगी मुझ में .. पर मन के बाढ़ को हल्का करने के क्रम में जो बतकही शब्दों के साँचे में ढली है, वो सारी की सारी हूबहू हाज़िर है आपकी नज़र .. पर साहिबान !! .. इस बतकही को मिसरा, बहर, मतला, तख़ल्लुस, मक़ता, काफ़िया और रदीफ़ की नज़रों से कतई ना पढ़ी जाए .. बस और बस .. बतकही को बतकही की तरह सरसरी निग़ाहों से  देखी/पढ़ी जाए .. बस यूँ ही ...


चारों तरफ सनसनीखेज़ खबर है,सोया हुआ सारा शहर है।

है मौसम में कनकनी,किस डर से पसीने में सब तरबतर हैं?


लुटी बस्ती, बने अवशेष जले-टूटे घर,सब की टूटी कमर है।

हैं लम्बी कतारें,यतीमों-बेवाओं की, किसने ढाया क़हर है?


रब ने रगों में बहाया,जमीं पे फिर क्यूँ बना लहू का नहर है?

आग लगी यूँ तो जंगल में,पर आना जल्द ज़द में हर घर है।


सर तन से जुदा कर गया वो,अभी तो रात नहीं, दोपहर है।

हैं पूजते कई पत्थर, कोई चोटिल करने को मारता पत्थर है।


सभी भाड़ोती इस धरती के, फिर किस वास्ते मची ग़दर है?

आपसी तनातनी क्यूँ, जग का हर कोना तो रब का घर है?


होड़ बाड़े में क़ैद करने की धर्म-मज़हब के, कैसा जबर है?

कोई हिन्दू या मुसलमां, लापता इंसाँ, किसने रोपी ज़हर है?


मन मारना है हिस्से में मेरे,वो मनमानी करता सारी उमर है।

नुमाइंदे ख़ाक होंगे वो रब के,जिन्हें इंसान की नहीं क़दर है।


सोचों में मेरे आना रुका ना,यूँ पहरा तो तुझ पे हर पहर है।

यूँ डबडबायी तो हैं तेरी आँखें, पर क्यूँ धुंधली मेरी नज़र है?


सूना मन का आँगन,भले ही बनता रहा वो .. हमबिस्तर है।

हमनवा नहीं वो, पर कहने को जीवन-सफ़र में हमसफ़र है।


लेटा नर्म-गर्म बिस्तरों में तन,फिर क्यूँ भला मन दरबदर है?

बंजारा बस्ती के वाशिंदे बता, सोया या मरा हुआ शहर है? 








Thursday, April 20, 2023

21.04.2023 को .. बस यूँ ही ...

( I ) :-

अगर किसी राज्य विशेष में "जुगाड़" और "पैरवी" शब्द आम चलन में हो, तो वहाँ के लोगबाग इन दोनों के मार्फ़त हासिल की गयी छीन-झपट को उपलब्धियों की श्रेणी में सहर्ष सहजता से रख देते हैं और ऐसी छीन-झपट करने वालों को समझदार, सफ़ल और व्यवहारिक का तमग़ा बाँटने में हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के तथाकथित सुसंस्कारी लोग भी तनिक गुरेज़ नहीं करते, बल्कि लोग इस कृत के लिए शेख़ी बघारते नज़र आते हैं। वैसे तो अब तक वैसे राज्य विशेष के उपरोक्त माहौल को महसूस ही नहीं बल्कि प्रत्यक्ष रूप से जीते-जीते ऐसा लगता रहा, कि मानो सारी दुनिया ही ऐसी है या होती होगी।
परन्तु उत्तराखण्ड की अस्थायी राजधानी देहरादून आने के उपरान्त घर से लगभग महज़ दो-ढाई किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित प्रसार भारती के प्रांगण में जाने के बाद, जहाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन एक ही प्रांगण में है, जान पाया कि सारी दुनिया "जुगाड़" और "पैरवी" की क़ायल नहीं है। अनायास हमें ऐसा क्यों लगा, इसकी चर्चा अभी आगे करते हैं।
कुछ अन्य और भी अन्यायपूर्ण घटनाएँ अक़्सर देखने/झेलने पड़ते हैं अपने आसपास कि कई स्थानीय पत्रिकाओं के सम्पादकों की निग़ाह में या कई साहित्यिक संस्थानों में भी अगर आपके-हमारे नाम के आगे-पीछे डॉक्टर (पीएचडी वाले), प्रोफ़ेसर, सरकारी अधिकारी या रिटायर्ड (पेंशनधारी भी) सरकारी अधिकारी लगा हो तो, आपकी-हमारी रचनाएँ भले ही तुकबंदी या पैरोडी हों, फिर भी अमूमन उनको विशेष तरजीह दी जाती है। प्रायः आपकी-हमारी पहचान आपके-हमारे पद से की जाती है, आपकी-हमारी प्रसिद्धि से की जाती है, ना कि आपकी रचनाओं के स्तर और उसकी गंभीरता से। और तो और स्वजाति विशेष या अपने क्षेत्र के होने पर भी विशेष कृपा दृष्टि रखी जाती है। वैसे तो पाया ये भी जाता है, कि सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र है .. किसी का लल्लो-चप्पो कर के अपना काम निकालना, किसी एक के लल्लो-चप्पो से सामने वाले को बस ख़ुश हो जाना चाहिए।




परन्तु इन सभी से परे प्रसार भारती, देहरादून के प्रांगण स्थित आकाशवाणी में अपनी रचनाओं के वाचन/प्रसारण हेतु जाकर कार्यक्रम अधिशासी- श्री दीपेन्द्र सिंह सिवाच जी से पहली बार दिसम्बर'2022 की शुरुआत में मिला तो उन्होंने 30.12.2022 को एक कवि गोष्ठी की रिकॉर्डिंग के दौरान अन्य दो कवयित्रियों और एक कवि के साथ मेरी भी तीन कविताओं के वाचन को मौका दिया था। जिसका प्रसारण 02.01.2023 को रात के 10 बजे से 10.30 बजे तक "कविता पाठ" कार्यक्रम के तहत किया गया था।




यहाँ पर ना तो मेरा पद पूछा गया, ना जाति, ना क्षेत्र और ना ही मुझे किसी भी तरह का लल्लो-चप्पो, जुगाड़ या पैरवी करनी पड़ी। बस .. फॉर्म भर कर रजिस्ट्रेशन की आवश्यक औपचारिकता भर और मेरी बतकही की एक प्रति भी। आकाशवाणी या दूरदर्शन के कुछ प्रतिबंध हैं, जिनके अन्तर्गत बस एक-दो शब्दों को अपनी बतकही से हटानी पड़ी यानि उन पर क़ायदे के मुताबिक सेंसर लगाए गए।

यूँ देखा जाए तो यहाँ जुगाड़, पैरवी, लल्लो-चप्पो जैसी कोई प्रतियोगिता नहीं दिखी; बस हम जैसे हिन्दी भाषी लोगों की प्रतियोगिता है तो यहाँ की स्थानीय भाषाओं से। जिनसे ही सम्बन्धित यहाँ ज्यादातर कार्यक्रम होते हैं। मसलन- गढ़वाली, कुमाऊँनी, जौनसारी भाषाओं में।

ख़ैर ! .. अब आज की बतकही का रुख़ अलग दिशा में मोड़ते हैं .. बस यूँ ही ...

( II ) :-

आगामी शुक्रवार यानि 21.04.2023 को रात आठ बजे आप सभी को मिलवाएंगे हम हमारी "मंझली दीदी" से .. बस यूँ ही ...
आप भी मिलना चाहेंगे क्या ? .. आयँ !! ... कहीं आप सभी शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जी की "मंझली दीदी" या फिर उस पर आधारित ऋषिकेश मुख़र्जी जी के निर्देशन में बनी श्वेत-श्याम फ़िल्म की तो नहीं सोचने लग गये ?
ना, ना .. हम तो उपन्यास और लघुकथा की मंझली बहन जी यानि मंझली दीदी- "कहानी" की बात कर रहे हैं .. हाँ ! .. और नहीं तो क्या ... अब अगर आपको भी उस कहानी से रूबरू होनी है, तो 21.04.2023/शुक्रवार के पहले अपने जीवन की दिनचर्या वाली आपाधापी के बीच मौका मिले तो .. आप सर्वप्रथम ...

1) अपने Mobile में *Play Store* से *newsonair* App को Download कर लीजिए।
2) फिर उसको Open कर के उसकी दायीं ओर सबसे ऊपर कोने में उपलब्ध दर्जनों भाषाओं के विकल्पों में से *हिन्दी (Hindi)* भाषा वाले Option को Select कर लीजिए।
3) उस के बाद बायीं ओर सबसे ऊपर वाली तीन Horizontal Lines को Click करने पर उपलब्ध Options में से तीसरे Option - *Live Radio* को Select कर लीजिए।
4) इस प्रक्रिया से खुले Web Page को नीचे की तरफ Scroll करते हुए Alphabetically क्रमवार A से U सामने आने पर *U* से *Uttarakhand* आते ही उसके अंतर्गत तीन Options में से एक *Dehradun* को Click कर लीजिए।
5) अब आप फुरसत के पलों में तन्हा-तन्हा या मित्रों के साथ या फिर सगे-सम्बन्धियों के साथ *आकाशवाणी, देहरादून* से प्रसारित होने वाले अन्य मनपसंद कार्यक्रमों का भी लुत्फ़ ले सकते हैं।


( III ) :-

परन्तु अब ऐसा नहीं हो, कि आप प्रसार भारती के अन्य मनोरंजक कार्यक्रम सुनने के चक्कर में, इस आने वाले शुक्रवार यानि 21.04.2023 को हमारी मंझली दीदी यानि हमारी कहानी से मिलना आप भूल जाएँ .. आपको तो पूरी तन्मयता के साथ सुन कर जानना ही चाहिए .. ये जानने के लिए कि ...

१) वह कौन सी भाषा है, जो बहुत ही कंजूस है ?
२) किसी लड़की का मायका और ससुराल एक ही शहर में हो, तो क्या-क्या होता है ?
३) दीपू अपने जन्मदिन के केक कटने के पहले ही सो क्यों गया था ?
४) पाँच वर्षीय सोमू के किस सवाल से उसके पापा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे ?
५) जातिवाचक संज्ञा भला कैसे और कब व्यक्तिवाचक संज्ञा बन जाता है ?
६) सोमू के पापा उसकी मम्मी यानि अपनी धर्मपत्नी को "तथाकथित" अर्धांगिनी क्यों कहते हैं भला ?
७) सोमू और उसके पापा के मन में पिछले बीस सालों से हो रहे उथल-पथल को शान्त करने में आप सभी मिलकर कैसे  सहयोग कर सकते हैं भला ?

अक़्सर जाने-अंजाने बुद्धिजीवी लोग भी किसी घटित "घटना" को भी "कहानी" कह देते हैं। मसलन- लोग कहते हुए सुने जाते हैं कि - "तुम मेरी दुःख भरी कहानी सुनोगे तो रो पड़ोगे शायद।" जबकि वह अपने जीवन की दुःखद घटनाओं को बतलाना चाहता या चाहती है। पर मेरी कहानी के सन्दर्भ में दरअसल ... "कहानी" में "घटनाओं" का समागम है .. सच्ची कहें तो .. सच्ची घटनाओं का समागम है। आत्मसंस्मरण ही समझ लीजिए .. बस यूँ ही ...

Thursday, April 6, 2023

फूलदेई

 

        ( चित्र साभार - उत्तराखंड के "धाद" नामक संस्था से)

फूलदेई

थका-हारा हुआ-सा 

धरे हुए हर आदमी,

अपने-अपने काँधे पर 

अपनी-अपनी धारणाओं की लाठी,

बँधी हुई है जिनमें भारी-सी 

उनके पूर्वजों की 

पैबंद लगी एक गठरी,

है जिनमें सहेजे हुए अनेकों

परम्पराओं, प्रथाओं

और रीति रिवाजों की पोटली।


हर परम्परा, 

रीति रिवाज, प्रथा,

जो बने किसी की व्यथा

या हो फिर वो

किसी की भी हंता,

बिसरानी ही चाहिए 

शायद उन्हें, जैसे छोड़ी या 

छुड़ाई गयी थी सती प्रथा कभी,

और छोड़नी चाहिए आज ही 

परम्परा हमें बलि या क़ुर्बानी की भी।


है भला ये यहाँ विडंबना कैसी 

उत्तराखंड के पहाड़ों में भी ?

करते तो हैं यूँ बच्चे कृत 

पुष्पों के हनन का,

पर कहते हैं सभी कि ..

है फूलदेई* बाल पर्व सृजन का।

हनन को सृजन कहने की,

है भला ये परम्परा भी कैसी ?

बल्कि समझाना चाहिए बच्चों को, 

कि लगते हैं सारे पुष्प भले डाली पर ही।


माना .. ब्याही जाती हैं बेटियाँ 

भरी आँखों से ख़ुशी-ख़ुशी, 

पर है क्यों भला ये 

परम्परा कन्यादान की ?

गोया वो बेटियाँ ना हुईं, 

हो गईं निर्जीव वस्तु कोई 

या फिर कोई निरीह पशु-पंछी।

बेहतर हो अगर रक्तदान को भी

मिल कर कहें रक्तदान नहीं, 

बल्कि कहें .. रक्तसाझा हम सभी।


मिथक है या मिथ्या कोई, कि

है जुड़ा दान से तथाकथित पुण्य सारा।

कहें ना क्यों हम, हर दान को साझा

और हर साझा हो कर्तव्य हमारा।

सुलगा कर सारी परम्पराएँ पैबंद लगी 

ये दफ़न या दाह संस्कार जैसी,

करने चाहिए मृत शरीर या अंग साझा

ताकि मिले किसी को जीवन या

मिले किसी दृष्टिहीन को आँखों की रोशनी।

साहिब !!! कहिए ना देहसाझा, देहदान को भी .. बस यूँ ही ...

[ फूलदेई* - ब्रह्माण्ड में होने वाली तमाम ज्ञात-अज्ञात भौगोलिक घटनाओं में से एक है - संक्रांति; जिसके तहत कृषि, प्रकृति और ऋतु परिवर्तन का मुख्य कारक - सूरज हर महीने अपना स्थान बदल कर खगोलीय या ज्योतिषीय मानक के अनुसार तय बारह राशियों में से, एक राशि से दूसरे राशि में प्रवेश कर जाता है। यूँ तो सर्वविदित है, कि सौर पथ वाले खगोलीय गोले को बारह समान भागों यानि बारह राशियों में बाँटा गया है और सालों भर इन्हीं राशियों, जिनमें सूर्य प्रवेश करता है, उन्हीं के नाम के आधार पर ही बारह संक्रांतियों का नामकरण किया गया है।

हिन्दू धर्म के लोगों द्वारा संक्रांति को वैदिक उत्सव के रूप में भारत के कई इलाकों में बहुत ही धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। यूँ तो पौराणिक मान्यताओं के आधार पर संक्रांति के अलावा भी कई अन्य भौगोलिक घटनाओं .. मसलन - ग्रहण, पूर्णिमा, अमावस्या या एकादशी जैसी तिथियों को भी स्नान-ध्यान, पूजा-अर्चना, दान-पुण्य, मोक्ष-धर्म इत्यादि से जोड़ा गया है।

इन बारह संक्रांतियों में से जनवरी माह में 14 या 15 तारीख़ को पूरे भारत में त्योहार की तरह "मकर संक्रांति" मनाया जाता है, जिसे बिहार-झारखण्ड में "दही-चूड़ा" के नाम से भी जाना जाता है। इसके एक दिन पहले पँजाब-हरियाणा में या अन्य स्थानों पर भी बसे सिखों द्वारा लोहड़ी नाम से त्योहार मनाया जाता है। साथ ही 14 या 15 तारीख़ को ही अप्रैल महीने में "मेष संक्रांति" को भी त्योहार के रूप में मनाया जाता है। जिसे पंजाब में बैसाखी, उड़ीसा में पाना या महाबिशुबा संक्रांति, बंगाल में पोहेला बोइशाख, बिहार-झारखण्ड में सतुआनी जैसे प्रचलित नामों से जाना जाता है।

इन दो प्रमुख संक्रांतियों के अलावा 14 या 15 तारीख़ को ही जून महीने में "मिथुन संक्रांति" को भारत के पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में धार्मिक मान्यताओं के आधार पर पृथ्वी को एक माँ के रूप में मानते हुए, उनके वार्षिक मासिक धर्म चरण के रूप में मनाया जाता है, जिसे राजा पारबा या अंबुबाची मेला के नाम से भी जानते हैं और प्रायः 16 जुलाई को "कर्क संक्रांति" भी कहीं-कहीं मनाया जाता है। 

साथ ही प्रायः 16 दिसम्बर को पड़ोसी हिन्दू देश दक्षिणी भूटान और नेपाल में "धनु संक्रांति" को बड़े ही धूम-धाम से मनाते हैं।

परन्तु इन सब से अलग "मीन संक्रांति" को त्योहार के रूप में मनाए जाने की प्रथा के बारे में उत्तराखंड के देहरादून में रहने के दौरान इसी वर्ष अपने जीवन में पहली बार जानने का मौका मिला है। इस दिन फूलदेई, फूल सग्यान, फूल संग्रात या फूल संक्रांति नाम से स्थानीय त्योहार मनाया जाता है। चैत्र माह के आने से सम्पूर्ण उत्तराखंड में अनेक पहाड़ी पुष्प खिल जाते हैं, मसलन - प्योंली, लाई, ग्वीर्याल, किनगोड़, हिसर, बुराँस। 

यूँ तो देहरादून के शहरी माहौल में यह त्योहार लुप्तप्राय हो चुका है, परन्तु सुदूर पहाड़ों में इसे आज भी मनाया जाता है। इसे मुख्य रूप से बच्चे मनाते हैं, उन बच्चों को फुलारी कहते हैं। सुबह-सुबह अपने-अपने घरों से टोली में निकले बच्चे खिले फूलों को तोड़ कर एकत्रित करते हैं और घर-घर जाकर दरवाजे पर वर्ष भर की मंगल कामना करते हुए वो तोड़े पुष्पों को रखते जाते हैं। इसमें बड़ों का भी योगदान रहता है। बड़े लोग बच्चों को आशीर्वाद के साथ-साथ त्योहारी के रूप में कुछ उपहार भी देते हैं। इन सारी पारम्परिक प्रक्रियाओं के दौरान फुलारी बच्चे फूल डालते हुए कुमाउँनी में गाते हैं–

फूलदेई छम्मा देई ,

   दैणी द्वार भर भकार.

   यो देली सो बारम्बार ..

   फूलदेई छम्मा देई

   जातुके देला ,उतुके सई .."

  और गढ़वाली में गाते हैं –

" ओ फुलारी घौर.

   झै माता का भौंर .

   क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर .

   डंडी बिराली छौ निकोर.

   चला छौरो फुल्लू को.

   खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को.

   हम छौरो की द्वार पटेली.

   तुम घौरों की जिब कटेली... "

सनातनी परम्पराओं, प्रथाओं और रीति रिवाज़ों की तरह ही इस भौगोलिक घटना - मीन संक्रांति को भी तथाकथित पौराणिक शिव-पार्वती, नंदी और शिव गणों जैसे पात्रों से जोड़ दिया गया है। एक अन्य मान्यता के मुताबिक इस त्योहार को एक स्थानीय लोककथा के आधार पर प्योंली नामक एक वनकन्या से भी जोड़ कर देखा जाता है। यहाँ विस्तार से इन पौराणिक या लोककथा को लिखना समय की बर्बादी ही होगी .. शायद ... क्योंकि इन सारी मान्यताओं के महिमामंडन का विस्तारपूर्वक उल्लेख गूगल पर उपलब्ध है। ]


  

Thursday, March 16, 2023

ताने तिरपाल

पोखरों में सूने-से दोनों कोटरों के,

विरहिणी-सी दो नैनों की मछली।

मिले शुष्क पोखरों में तो चैन उसे,

तैरे खारे पानी में तब तड़पे पगली।


ताने तिरपाल अपने अकड़े तन के,

यादों में पी की बातें बीती पिछली।

कैनवास पर खुरदुरे-रूखे गालों के, 

खींचे अक़्सर अँसुवन की अवली।


बाँधे गठरी हर पल पल्लू में अपने,

भर-भर कर बूँदें आँसू की बावली।

डालें गलबहियाँ पल्लू उँगलियों में,

मची हो मन में जब-तब खलबली।


काश ! बुझ पाती चिता संग पी के,

सुलगन मीठी बेवा के तन-मन की। 

ना संदेशे, लगे अंदेशे, कई पीड़ाएँ,

झेलती विरहिणी बेवा-सी बेकली।




 

Monday, March 13, 2023

पर नासपीटी ...

टहनियों को
स्मृतियों की तुम्हारी
फेंकता हूँ 
कतर-कतर कर 
हर बार,
पर नासपीटी
और भी कई गुणा 
अतिरिक्त
उछाह के साथ
कर ही जाती हैं
मुझे संलिप्त,
हों मानो वो
टहनियाँ कोई
सुगंध घोलते
ग़ुलाबों की .. शायद ...

काश ! .. हो पाता
सहज भी 
और सम्भव भी,
फेंक पाना एक बार
उखाड़ कर
समूल उन्हें,
पर यूँ तो 
हैं अब
असम्भव ही,
क्योंकि ..
जमा चुके हैं जड़
उनके मूल रोमों ने 
समस्त शिराओं 
और धमनियों में
हृदय की हमारी .. बस यूँ ही ...


Thursday, March 9, 2023

बीते पलों-सी .. शायद ...

सुनता था,

अक़्सर ..

लोगों से, कि ..

होता है

पाँचवा मौसम

प्यार का .. शायद ...

इसी ..

पाँचवे मौसम की तरह

तुम थीं आयीं

जीवन में मेरे कभी .. बस यूँ ही ...


सुना था ..

ये भी कि ..

कुछ लोग

जाते हैं बदल अक़्सर 

मौसमों की तरह .. शायद ...

तुम भी उन्हीं

मौसमों की तरह अचानक .. 

यकायक .. 

ना जाने क्यों 

बदल गयीं .. बस यूँ ही ...


अब ..

उन लोगों का भी

भला ..

क्या है बावली ..

बोलो ना !

लोग तो बस

कहते हैं कुछ भी,

करते हैं बदनामी

बेवज़ह मौसम की,

आदत जो उनकी ठहरी .. बस यूँ ही ...


क्योंकि .. 

अब देखो ना ...

मौसम तो कई बार ..

बार-बार .. बारम्बार ..

जाते हैं .. आते हैं ...

आते हैं .. जाते हैं .. बस यूँ ही ...

लेकिन .. जा कर एक बार,

फिर एक बार भी

लौटी ना तू कभी ..

बीते पलों-सी .. शायद ...