पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) के बाद अपने कथनानुसार एक सप्ताह बाद पुनः आज वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है "पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ... :-
अभी इधर मन्टू उस बातूनी भूरा को उसकी बातों में बेतुकापन होने की आशंका के आधार पर उसे चुप कराने के मक़सद से जैसे ही घुड़कता है, तभी उधर चाय की दुकान के सामने ही तथाकथित बड़े-बड़े ग्राहकों के लिए रखी गयी लकड़ी की बेंच पर बैठे मुहल्ले के ही दो पड़ोसी सज्जन पुरुष- सक्सेना जी और मेहता जी एक दूसरे पर लगभग चिल्लाने लगे हैं।
चाय की दुकान में ग्राहकों के लिए ही रोज की तरह आये आज के अख़बार के अलग-अलग पन्ने दोनों भद्र (?) पुरुष अपने-अपने दोनों हाथों में पकड़ कर पढ़ते हुए और बीच-बीच में आपसी बहस के दौरान अपने-अपने आवेश के आवेग में अपने-अपने अख़बार वाले पन्ने को झटकते और हवा में लगभग लहरा कर फड़फड़ाते हुए एक दूसरे पर बारी-बारी से तार सप्तक में प्रतिक्रिया दे रहे हैं। मानो राष्ट्रीय स्तर के किसी भी टी वी न्यूज़ चैनल पर एक समाचार उद्घोषक के द्वारा सार्वजनिक सर्वेक्षण ('पब्लिक पोल') के आधार पर तय किए गये किसी वर्तमान ज्वलंत समस्या जैसे विषय पर दो-चार प्रतिभागियों के बीच बहस छिड़ी हुई हो या फिर लोक सभा या विधान सभा में सत्र के दौरान यदाकदा होने वाले जूतम-पैजार हो रहे हों।
मेहता जी - "आप चाहे लाख बोलिए .. हल्ला कीजिए .. चिल्लाइये .. पर आपकी सरकार जो है ना ! .. एकदम से निकम्मी है। अब बतलाइए ना जरा .. भला ये भी कोई बात हुई कि कल तक तीस-चालीस रुपए प्रति किलो बिकने वाला टमाटर इन दिनों अचानक से सौ को भी पार कर गया है। आम पब्लिक क्या करे बेचारी ? भूखों मर जाए ? आयँ ?"
"रसिक चाय दुकान" की दोनों ओर सजी बेंच के लगभग पास ही में फ़ुटपाथ पर अपनी घिसी हुई हवाई चप्पल की जोड़ी पर अपने चूतड़ों की जोड़ी टिकाये रामचरितर रिक्शा वाला लगभग चुक्कु-मुक्कु बैठा दोनों साहिब लोगों की नोकझोंक सुन रहा है। साथ ही आजकल आम प्रचलन में उपलब्ध प्लास्टिक के परत वाले कागजी कप, जिसे पढ़े-लिखे लोग 'डिस्पोजेबल कप' कहते हुए सुने जाते हैं, में चाय भी सुरकता जा रहा है। उसकी चप्पलों के फ़ीते के लगभग हर छोर पर पास में ही उसी फ़ुटपाथ के एक छोर पर बैठने वाले रामखेलावन मोची से समय-समय पर चिप्पी लगी सिलाई सिलवा-सिलवा कर काम चलाने के लायक बनवाया गया जान पड़ रहा है, ताकि रिक्शे का पैडल रामचरितर के तलवे में ना गड़े। उसके पास ही लगभग पीढ़ा पर बैठने वाले अंदाज़ में दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाला रामभुलावन भी वहीं पड़ी एक पुरानी ईंट पर बैठा चाय सुड़कने में रामचरितर का साथ दे रहा है।
ये दो-चार ईंटें, जिनमें से एक पर अभी रामभुलावन बैठा हुआ है, दरअसल आज वृहष्पतिवार होने कारण बुद्धनवा नाई की फुटपाथी दुकान बंद है .. क्योंकि वृहष्पतिवार, मंगलवार और शनिवार को मुहल्ले के सब लोग एक अंधपरम्परा के तहत बाल-दाढ़ी नहीं बनवाते हैं। एक-दो युवा ग्राहक जो अंधपरम्पराओं में विश्वास नहीं रखते हैं, वही लोग इन तीन दिनों में आते हैं, तो ग्राहक कम होने के बावज़ूद कम से कम उस दिन की बुद्धनवा की खैनी और बीड़ी की व्यवस्था हो जाती है। साथ ही कभी-कभी रात के लिए चखना में एक दोना चना की झालदार घुँघनी और एक देसी 'पउआ' की भी जुगाड़ कर लेता है। घर-परिवार में कोई जरुरी काम रहने पर वह इन्हीं तीन दिनों में से एक दिन आवश्यकता के मुताबिक अपनी दुकान बंद कर लेता है। आज भी या तो उसकी घरवाली- रमरतिया को बुखार लगा होगा या उसकी तीन बेटियों और उन के बाद बहुत ही तथाकथित झाड़-फूंक के बाद पैदा हुआ उसका एकलौता दुलरुआ बेटा में से कोई एक बीमार हुआ होगा, जिनको ले कर वह सरकारी अस्पताल में पुर्जा कटवा कर 'आउटडोर' के आगे कतार में खड़ा होने की तैयारी कर रहा होगा इस समय .. शायद ...
नतीजन अपनी बिना दीवार-छत वाली फुटपाथी दुकान (?) में जिन ईंटों पर अपने ग्राहक को बैठा कर बुद्धनवा रोज बाल-दाढ़ी बनाता है, वो सारी ईंटें पिलखन के इस वृद्ध वृक्ष के जड़ के पास आज लावारिस पड़ी हुईं हैं। इसी पिलखन की छाँव तले रसिकवा की यह "रसिक चाय दुकान" भी वर्षों से बदस्तूर चल रही है।
रामचरितर - "एकदम सही कह रहे हैं मालिक .. हम गरीब-गुरबा के तो जीना मुहाल हो गया है। इतना महँगा टमाटर तो हम सब आज तक नहीं खरीदे हैं।"
रामभुलावन - "हाँ मालिक .. हम सब के तो चौका-चूल्हा में अब टमाटर के आना ही बन्द हो गया है। जरूरत पड़े पर जीतनराम पंसारी के यहाँ से 'सौस' की एक-डेढ़ रुपया वाली एक-दो पुड़िया ('पाउच') ले के काम चला रहे हैं। जैसे-तैसे दिन काट रहे हैं हम सब।"
तभी सक्सेना जी और मेहता जी की मिलीजुली हलचल में मेहता जी का चाय वाला कुल्हड़ अपना संतुलन खो कर बेंच से लुढ़कते हुए शेष बची चाय सहित अभी-अभी ज़मींदोज़ हो गया है।
दरअसल सामाजिक वर्गीकरण के तर्ज़ पर ही चाय की दुकान पर चाय पीने के बर्त्तनों के भी इन दिनों वर्गीकरण दिख ही जाते हैं। वही चाय कागजी कप में प्रायः दस रुपए के एक कप की दर से मिलती है, जिसे सामान्य वर्ग के लोग सुड़कते हैं और वही मिट्टी के कुल्हड़ में अपने-अपने स्थानानुसार पन्द्रह या बीस रुपए में मिल पाती है, जिसे तथाकथित बड़े लोग पीते हैं। यूँ तो कहीं-कहीं अभी भी काँच के गिलास में ही चाय बिकती है।
दोनों पड़ोसी के चाय वाले कुल्हड़ उनके अख़बार पढ़ते और उनकी आपसी बहस करते वक्त उसी बेंच पर आसपास ही रखे हुए थे। शायद मेहता जी वाले कुल्हड़ की पेंदी को समतल करने में कुम्हार ने कुछ कोताही कर दी होगी, तभी तो ... मेहता जी अभी-अभी अपनी शहीद हुई चाय से ऊपजी खीज को लगभग छुपाते हुए एकदम से बिदक पड़ते हैं।
मेहता जी - "भगवान करे आपकी सरकार भी मेरे चाय वाले कुल्हड़ की तरह ही गिर जाए।" अख़बार बेंच पर रख कर दोनों हाथ ऊपर आसमान की तरफ करके - "हे भोले नाथ, हे कालों के काल, महाकाल .. गिरा दिजिए इस सरकार को। टमाटर को इतना महँगा कर दी है ये सरकार कि .. क्या कहें आप से भगवान जी ! .. अब पाप का घड़ा भर के दिल्ली के बाढ़ जैसा लबालब हो गया है। अब इन सब का लबर-लबर बहुत हो गया। हमारे कुल्हड़ की तरह ही इन सब का भी घड़ा फोड़ दिजिए राम जी।"
सक्सेना जी - "आप पढ़े-लिखे मानते हैं ना अपने आप को ? हाई स्कूल में सरकारी टीचर हैं। भले ही आरक्षण कोटा में आपको नौकरी मिली है, पर कुछ तो पढ़े होंगे ? .. तभी ना बच्चों को पढ़ाते हैं। आपके दिमाग़ में भी इन सब (पास बैठे रिक्शावाला रामचरितर और ईंट-गिट्टी-बालू ढोने वाले मजदूर रामभुलावन की ओर निशाना साधते हुए) के जैसा भूसा भरा हुआ है क्या जी ?" - अपने कुल्हड़ में शेष बची चाय के आख़िरी घूँट को लगभग मेहता जी को चिढ़ाते हुए जोर से सुड़कने की आवाज़ निकाल कर - "अहा ! मन तृप्त हो गया रसिकवा की चाय पी के सुबह-सुबह .. अजी मेहता जी .. अब इस बरसात के मौसम में .. वो भी आपदा की हद तक वाली बरसात के कारण फ़सलों की जो बर्बादी हुई है, तो क़ीमत तो बढ़ेगी ही ना ? क्यों ? इकोनॉमिक्स में नहीं पढ़े थे क्या जी कि माँग की तुलना में आपूर्ति अचानक घट जाने पर क़ीमत बढ़ जाती है तथा किसी भी सामग्री की माँग से ज्यादा आपूर्ति होने पर बाज़ार में क़ीमत घट भी जाती है।"
मेहता जी - "ज्यादा समझाइए मत हमको। जब ना तब .. अपना कुतर्क लेके आ जाते हैं।"
सक्सेना जी - "हमको तो लगता है कि आप चोरी कर के पास किए हैं जी या .. मास्टर को घूस दे के।"
मेहता जी - "कुछ ज्यादा नहीं बक रहे हैं आप भोरे-भोरे ? .. आयँ !.. "
सक्सेना जी - "और नहीं तो क्या .. अब टमाटर को भी सरकार आलू की तरह 'कोल्डस्टोरेज' में जमा कर के रखवा दे क्या ? या उसकी कुछ फैक्टरियाँ लगवा दे या फिर टमाटर के लिए भी 'सब्सिडी' की घोषणा कर दे सरकार ? बतलाइए !?"
मेहता जी और सक्सेना जी की बहस का विषय टमाटर और महँगे हुए टमाटर के बदले रामभुलावन की 'सौस' की पुड़िया इस्तेमाल करने वाली 'आईडिया' जैसी बातें सुन-सुन कर भूरा और चाँद को भी अपनी 'केचप' की फ़ैक्ट्री वाली अधूरी बात छेड़ने की तलब लग गयी। मन्टू के घुड़कने के बावज़ूद चाँद अपनी बुद्धिमता का प्रदर्शन करने के लिए बात छेड़ते हुए टपक पड़ा।
चाँद - "ओ ~~~ बी ब्लॉक वाले 213 नम्बर में 'केचप' की फैक्ट्री चालू होने से तेरा मतलब है ... "
अभी चाँद अपना वाक्य पूरा कर पाता, उससे पहले ही मुहल्ले के इस चौक वाले क्षेत्र में नगर निगम की ओर से रोजाना सुबह-सुबह सफ़ाई करने वाली परबतिया बीच में टपक पड़ती है। जो थोड़ी दूरी पर ही किसी घर से मिली बासी रोटी को बाज़ारों में बिकने वाले विभिन्न प्रकार के 'रॉल' की तरह लपेटे हुए चाय में बोर-बोर कर खा रही है। इनको कहीं सफाईकर्मी तो कहीं पर्यावरण मित्र भी कहते हैं, परन्तु आम लोग झाड़ू देने वाली या कचरे वाली कहते हुए ही सुने जाते हैं। पर परबतिया के अच्छे व्यवहार और मधुर स्वभाव के कारण मुहल्ले भर में लोग उसे नाम से जानते और बुलाते हैं। कुछ लोग तो पबतिया दीदी, पबतिया बुआ या मौसी भी बुलाते हैं। बहरहाल वह चाँद के मुँह से निकले फ़ैक्ट्री चालू होने वाले वाक्य को सुनकर ही उनके बीच में कुछ बोलने और उनसे कुछ पूछने के लिए मज़बूर हो गयी है।
परबतिया - "भईया ! फ़ैक्ट्री में अभी भी भर्ती हो रही है क्या ?"
मन्टू - "क्यों ? आपकी तो नगर निगम की नौकरी है ही ना ?"
परबतिया - "सो तो है भईया .. पर अभी तक हमको 'गौमेन्ट' (सरकार-Government) की तरफ से 'पर्मामेंट' (स्थायी-Permanent) नहीं किया गया है ना .. तअ (तो) रोज पर हाज़िरी बनता है। कम पइसा (पैसा) में बड़ी मुश्किल से घर-परिवार ... हम सोचे कि फैक्ट्री में नौकरी लग जाने से कुछ अलग से कमाई हो जाती तो ..."
बीच में ही मन्टू परबतिया की बात को काटते हुए उसे सच्चाई बतलाने के लिए समझाता है।
मन्टू - "परबतिया दीदी .. आप भी कहाँ इन दोनों बातूनियों की बात को पकड़े बैठीं हैं ? अरे ये भूरा और चाँद .. दोनों मिलकर ऐसे ही सुबह-सुबह मसखरी करते रहते हैं। यहाँ मुहल्ला में तो फ़ैक्ट्री खुल ही नहीं सकती ना ..."
परबतिया -"धत् तेरी की .. सुबह-सुबह हम बेवकूफ़ बन गये भईया ..."
【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को .. "पुंश्चली .. (३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】