Showing posts with label विधुर विलाप. Show all posts
Showing posts with label विधुर विलाप. Show all posts

Sunday, July 7, 2024

विधुर विलाप ...


रुदाली धर्म निभाते हुए,

विधवा विलाप करने वाले,

हत्या निर्दोषों की बताने वाले,

बतकही हमारे जैसे कहने वाले,

ढोंगी बाबाओं को दोषी ठहराने वाले ...


दोषी तो निर्दोष ही सारे,

बाबा ढोंगी को बनाने वाले,

महात्मा पतित को जताने वाले,

बिना कर्म चाह फल की रखने वाले ,

अंधविश्वास, अंधभक्ति अपनाने वाले ...


काका हाथरसी आज होते

जो हास्य कविता सुनाने वाले,

पढ़ कविता यमदूत* भगाने वाले,

बोर कर बाबा फक्कड़* को मारने वाले,

हाथरस में थे बाबा कब फिर बचने वाले ? ...


बाबाओं के हों जितने रेले

या विज्ञापनों के जितने भी मेले,

संग बाला-नारियों के ही होते खेलें,

मरती भी हैं वही, जब हो भगदड़ के झमेले,

आओ तब विधवा विलाप नहीं, विधुर विलाप रो लें ..

.. बस यूँ ही ...

* = उपरोक्त बतकही में काका हाथरसी जी (प्रभुलाल गर्ग) से सम्बन्धित दूत* और फक्कड़* वाली बात उनकी हास्य कविता "अद्भुत औषधि" से प्रेरित है। संदर्भवश उनकी कविता की अक्षरशः प्रतिलिपि निम्नलिखित है :- 

              अद्भुत औषधि

कवि लक्कड़ जी हो गए, अकस्मात बीमार ।

बिगड़ गई हालत मचा, घर में हाहाकार ।।

घर में हाहाकार , डॉक्टर ने बतलाया ।

दो घंटे में छूट जाएगी , इनकी काया ।।

पत्नी रोई – ऐसी कोई सुई लगा दो ।

मेरा बेटा आए तब तक इन्हे बचा दो ।।


मना कर गये  डॉक्टर , हालत हुई विचित्र ।

फक्कड़ बाबा आ गये , लक्कड़ जी के मित्र ।।

लक्कड़ जी के मित्र , करो मत कोई  चिंता ।

दो घंटे क्या , दस घंटे तक रख लें जिंदा ।।

सबको बाहर किया , हो गया कमरा खाली ।

बाबा जी ने अंदर से चटखनी लगा ली ।।


फक्कड़ जी कहने लगे – “अहो काव्य के ढेर ।

हमें छोड़ तुम जा रहे , यह कैसा अंधेर ?

यह कैसा अंधेर , तरस मित्रों पर खाओ ।

श्रीमुख से कविता दो चार सुनाते जाओ ।।”

यह सुनकर लक्कड़ जी पर छाई खुशहाली ।

तकिया के नीचे से काव्य किताब निकाली ।।


कविता पढ़ने लग गए , भाग गए यमदूत ।

सुबह पाँच की ट्रेन से , आये कवि के पूत ।।

आये कवि के पूत , न थी जीवन की आशा ।

पहुँचे कमरे में तो देखा अजब तमाशा ।।

कविता पाठ कर रहे थे , कविवर लक्कड़ जी ।

होकर बोर, मर गये थे बाबा फक्कड़ जी ।। 】