हमारी बतकही का मक़सद स्वज्ञान या शेख़ी बघारते हुए लोगों को कुछ बतलाना या जतलाना नहीं होता, वरन् स्वयं ही को जब पहली बार किसी नयी जानकारी का संज्ञान होता है और वह हमें विस्मित व पुलकित कर जाता है, तो उसे इस पन्ने पर उकेर कर सहेजते हुए संकलन करने का एक तुच्छ प्रयास भर करते हैं हम .. बस यूँ ही ...
साथ ही .. आशा भी है, कि जो भी इसे पढ़ पाते हैं, उन्हें भी अल्प ही सही पर .. रोमांच की अनुभूति होती होगी ; अगरचे वो पहले से ही सर्वज्ञानी ना हों तो.. शायद ...
उपरोक्त श्रेणी की ही है .. आज की भी बतकही, कि .. इस समाज में तथाकथित जाति-सम्प्रदाय की तमाम श्रेणियों की तरह ही अक्सर लोगबाग ने रचनाकारों को भी वीर रस के कवि-कवयित्री, श्रृंगार रस के कवि-कवयित्री इत्यादि जैसी कई श्रेणियों में बाँट रखा है। जबकि ऐसे कई सारे उदाहरण मिल जाते हैं, जिनसे किसी भी साहित्यकार या रचनाकार की रचनाधर्मिता को किसी श्रेणी विशेष से बाँध पाना उचित नहीं लगता है।
इस बतकही के तहत हमें सबसे पहले मध्य प्रदेश के तत्कालीन मंदसौर जिले से विभक्त होकर बने वर्त्तमान नीमच जिले में अवस्थित मनासा नामक शहर जाना होगा, भले ही कल्पनाओं के पंखों के सहारे अभी जाना पड़े, जिसने बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न नन्द रामदास जैसे रचनाकार को अपनी मिट्टी से रचा था। जिन्हें हम आज बाल कवि बैरागी के नाम से ज़्यादा जानते हैं।
वह कवि और राजनीतिज्ञ के साथ-साथ फिल्मी दुनिया के गीतकार भी थे। राजनीतिज्ञ के रूप में तो उनका राज्य सभा के सांसद से लोकसभा के सांसद तक का पड़ाव तय करते हुए कैबिनेट मंत्री तक का सफ़र रहा था।
इस तरह की चर्चा करते हुए, अभी अटल जी अनायास परिलक्षित हो रहे हैं। हालांकि वह जनसामान्य के बीच कवि के रूप में थोड़ा कम और राजनीतिज्ञ के रूप में थोड़ा ज़्यादा विख्यात हैं। दूसरी तरफ़ .. बैरागी जी कवि के रूप में थोड़ा ज़्यादा प्रख्यात हैं, तो राजनीतिज्ञ के रूप में थोड़ा कम .. शायद ...
एक तरफ़ तो वह लिखते हैं, कि -
" मुझको मेरा अंत पता है, पंखुरी-पंखुरी झर जाऊँगा
लेकिन पहिले पवन-परी संग, एक-एक के घर जाऊँगा
भूल-चूक की माफ़ी लेगी सबसे मेरी गंध कुमारी
उस दिन ये मंडी समझेगी किसको कहते हैं खुद्दारी
बिकने से बेहतर मर जाऊं अपनी माटी में झर जाऊँ
मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएँ। "
वहीं दूसरी तरफ़ बच्चों के लिए बच्चा बन कर भी लिखते हैं , कि -
" पेड़ हमें देते हैं फल,
पौधे देते हमको फूल ।
मम्मी हमको बस्ता देकर
कहती है जाओ स्कूल। "
वही बाल कवि बैरागी जी देशभक्ति और बाल गीत वाली तमाम प्रतिनिधि रचनाओं से परे एक विशेष फ़िल्मी रूमानी गीत रच जाते हैं, जिसे आज भी सुनने पर वह मन को रोमांच- रोमांस से झंकृत- तरंगित कर जाता है .. शायद ...
वैसे तो इसकी विस्तारपूर्वक सारी जानकारी 'यूट्यूब' या 'गूगल' पर भी उपलब्ध है ही। पर प्रसंगवश केवल ये बतलाते चलें, कि राजस्थानी पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म होने के कारण वहाँ के प्रचलित "राग मांड" पर इस गीत का संगीत आधारित है और इसमें अन्य कई भारतीय वाद्ययंत्रों के साथ-साथ वहाँ के मांगणियार समुदाय के लोगों द्वारा बजाए जाने वाले एक तार से सजे "कमायचा" नामक लोक वाद्ययंत्र का भी इस्तेमाल किया गया है ; ताकि इस गीत को जीने (केवल सुनने वाले को नहीं) वाले श्रोताओं को अपने आसपास रूमानी राजस्थानी परिदृश्य परिलक्षित हो पाए।
अब .. प्रसंगवश यह भी चर्चा हम करते ही चलें, कि उपलब्ध इतिहास के अनुसार उस "नीमच" (NEEMUCH = NIMACH)) जिला के नाम की उत्पत्ति अंग्रेजों के शासनकाल में वहाँ स्थित तत्कालीन "उत्तर भारत घुड़सवार तोपखाना और घुड़सवार सेना मुख्यालय" (North India Mounted Artillery and Cavalry Headquarters - NIMACH) के संक्षेपण (Abbreviation) से हुई है। जहाँ आज स्वतन्त्र भारत में "केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल" (CRPF) के आठ रंगरूट प्रशिक्षण केन्द्रों में से एक रंगरूट प्रशिक्षण केन्द्र है। ये "रंगरूट" शब्द भी अंग्रेजी के रिक्रूट (Recruit) शब्द का ही अपभ्रंश है।
अब तो .. इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "कहाँ बुझे तन की तपन ... (२) में साझा करने का प्रयास करेंगे और .. ऐसी ही एक अन्य विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा को जानेंगे- सुनेंगे। तब तक .. फ़िलहाल तो .. हम सभी मिलकर बाल कवि बैरागी जी के शब्दों और मधुर संगीत में पगे उस गीत के बोलों को और "कमायचा" की आवाज़ को सुनकर कुछ देर के लिए ही सही .. पर भाव- विभोर हो ही जाते हैं ... बस यूँ ही ...