Thursday, July 27, 2023

पुष्पा नहीं, सुसवा ...

आपको भी शायद याद होंगे ही तेलुगु भाषी भारतीय अभिनेता- अल्लू अर्जुन की फ़िल्म "पुष्पा: द राइज" के सबसे ज्यादा बहुचर्चित और लोकप्रिय दोनों संवाद जिसे 'बॉलीवुड' के श्रेयस तलपड़े ने हिंदी में 'डबिंग' किया है। पहला संवाद जिसमें वह कहते हैं- "मैं पुष्पा... पुष्पराज... मैं झुकेगा नहीं स्स्साला .." और दूसरे संवाद में बोलते हैं- “पुष्पा नाम सुन के फ्लावर समझे क्या... फ्लावर नहीं, फायर है। ” .. याद है ना .. ये दोनों संवाद ? ...


उसी फ़िल्मी संवाद के तर्ज़ पर अभी-अभी किसी की सोंधी-सी फ़ुसफ़ुसाहट ने हमारे कर्णपटल पर दस्तक दी है- "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। " .. आप सब भी ऐसा सुन पा रहे हैं क्या ? .. नहीं ? ..  नहीं क्या ? ...


ख़ैर ! .. कोई बात नहीं .. हो सकता है आपके आसपास की ध्वनि के प्रदूषण में आपको नहीं सुनायी दे रही हो ये सोंधी-सी फुसफुसाहट .. कई दफ़ा तो एक ही छत के नीचे गहरी नीरवता में अपनों के क़रीब रह कर भी हम एक-दूसरे के मन की मीठी बातों को भी सुन-समझ नहीं ही पाते हैं .. है ना ? ... 


फ़िलहाल अभी हम चर्चा कर रहे हैं "सुसवा साग" का, जो उत्तराखंड की एक विशेष पहचान है। जैसे मैदानी क्षेत्रों में लोकप्रिय है "नोनी" या "नोनिया" का साग। सुसवा साग एक मौसमी उपज है, जो समस्त उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर बहते पानी के प्राकृतिक स्रोतों में और उसके आसपास स्वतः उग आता है, ठीक "कर्मी साग" के पैदावार की तरह। प्रायः सुसवा का साग अक्टूबर के आसपास उपजता है और अमूमन मार्च-अप्रैल तक उपलब्ध रहता है।  


उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के आसपास के इलाकों में भी अब से पहले यह प्राकृतिक रूप से एक नदी विशेष की उपज हुआ करता था। स्थानीय जानकार वृद्ध-वयस्क जन बतलाते हैं कि इस नदी में उपजने वाले सुसवा साग के कारण ही इस नदी विशेष को "सुसवा नदी" के नाम से बुलाया जाता था या है भी। तब कुछ गरीब तबक़े के लोग इस निःशुल्क प्रकृति-प्रदत्त साग को शहरी क्षेत्रों में बसे हुए हम जैसे साग प्रेमियों से बेच कर अपने परिवार का जीवनयापन करते थे। 


हालांकि उत्तर प्रदेश से विभाजित होकर बनने वाले नए राज्य- उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून बनने के बाद, पहले से ही मनमोहक स्वच्छ आबोहवा और मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्य के आकर्षण की वज़ह से अन्य राज्यों से यहाँ आकर स्थायी-अस्थायी बसने वालों की लगी हुई होड़ के कारण यहाँ की जनसंख्या ताबड़तोड़ बढ़ती गयी है। जिसके फलस्वरूप उसी अनुपात में प्रदूषण भी बढ़ता गया है। नतीजन अब प्रदूषित सुसवा नदी में सुसवा साग का नामोनिशान तक नहीं मिलता है। परन्तु .. चूँकि ये साग और नदी, दोनों ही हमनाम हैं और अतीत में ही सही, दोनों के गहरे सम्बन्ध रहे हैं तो साग के साथ-साथ प्रसंगवश नदी की भी कुछ तो चर्चा करनी जायज़ ठहरती है .. शायद ...


दरअसल सुसवा नदी गंगा की सहायक नदियों में से एक है, जो उत्तराखंड के दक्षिणी शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलती है और देहरादून की घाटियों से गुजरती हुई सौंग नदी की सहायक नदी बन कर मैदानी क्षेत्र के रास्ते गंगा नदी में जा मिलती है। जैसे हमारे अभिभावक होते हैं और हमारे अभिभावक के भी अभिभावक होते हैं, उसी प्रकार गंगा की सहायक नदी सुसवा की भी सहायक नदियाँ हैं। वो सब भी अब निष्प्राण-सी ही दिखती हैं। उन सहायक नदियों के भी नामभर के लिए ही नाम शेष बचे हैं-  बिंदाल नदी और रिस्पना नदी। स्थानीय जानकार जन बतलाते हैं कि रिस्पना नाम दरअसल ऋषिपर्णा नाम का अपभ्रंश स्वरुप है और यही अपभ्रंश नाम ही वर्तमान में प्रचलित भी है।


कहते हैं कि सुसवा नदी कभी अपने पौष्टिक व स्वादिष्ट सुसवा साग और मछलियों के साथ-साथ देहरादून में उपजने वाले अपने विशेष सुगंध के कारण विश्व भर में लोकप्रिय बासमती चावल के खेतों में अपने पानी की सिंचाई से उस चावल विशेष में सुगंध भरने के लिए जानी जाती थी। वही सुसवा नदी की स्वच्छ धार आज हम बुद्धिजीवियों के तथाकथित विकास की बलिवेदी पर चढ़ कर, अल्पज्ञानियों की बढ़ती जनसंख्या की तीक्ष्ण धार वाली भुजाली से क्षत-विक्षत हो कर सिसकी लेने लायक भी शेष नहीं बची है .. शायद ...


फलतः बासमती चावल में सुगंध भरने वाली नदी आज स्वयं ही दुर्गन्धयुक्त हो गयी है। लगभग निष्प्राण हो चुकी इस नदी में बरसात की शुरुआत में पानी भरने के क्रम के साथ-साथ शहर भर की गंदगियों सहित मिलने वाले बड़े-बड़े नालों ('सीवर') के हानिकारक 'प्लास्टिक', 'थर्माकोल' समेत 'मैग्नीशियम', 'कैल्शियम' और अन्य कई विषैले रसायन .. मसलन- 'क्रोमियम', 'जिंक', 'आयरन', शीशा, 'मैंगनीज़', 'ग्रीस', तेल इत्यादि बहुतायत मात्रा में आकर मिलते हैं। नतीजन इसके पानी के उपयोग से या सम्पर्क में आने से भी कैंसर, विशेष कर बड़ी आँत का कैंसर, चर्म रोग, 'कोमा', 'गॉल ब्लैडर', गुर्दे की पथरी, 'हाइपर टेंशन', हृदयघात या मोटापा जैसी खतरनाक बीमारी होने की प्रबल सम्भावना रहती है। इसके साथ ही इसमें कचरे के रूप में मिले हानिकारक तत्व वाले पानी से सिंचाई करने पर अनाज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती हैं, जो परोक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित होते हैं .. शायद ... 


इसीलिए इन दिनों देहरादून के आसपास के इलाकों में सुसवा साग प्रेमी लोगों के लिए कहीं-कहीं अपने जीवकोपार्जन के लिए कुछ लोगों द्वारा सुनियोजित ढंग से इसकी खेती की जाती है। अक्तूबर के आसपास इसे रोपा जाता है, जो लगभग डेढ़ माह में काटने लायक हो जाता है। अक्तूबर से मार्च-अप्रैल तक इसे खेती करने वाले लोगों द्वारा छः-सात बार काटा जाता है। हर बार काटने के बाद यह बरसीम चारा की तरह तेजी से पनप भी जाता है। चूँकि इसकी पैदावार केवल पानी पर निर्भर करती है, वो भी बहते हुए पानी पर, तो खेतों में ठीक उसी तरह की बहते पानी जैसी व्यवस्था करनी होती है, जैसी नदियों में होती है। खेतों में पानी रुकने से सुसवा की उपज को खराब होने की आशंका रहती है। हालांकि उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी इलाकों में जहाँ अभी तक शहरी प्रदूषण की पैठ नहीं हुई है, वहाँ अभी भी प्राकृतिक रूप से बिना खेती किये हुए ही बहते पानी के स्रोतों में और उसके आसपास यह मौसमानुसार स्वतः उपजता है और स्थानीय सुसवा प्रेमियों को अपना सोंधापन निछावर करता रहता है।


उत्तराखंडी लोगों को मालूम है, कि सुसवा साग बहुत ही स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होता है। इसमें 'विटामिन सी', 'प्रोटीन' और 'आयरन' जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें कैलोरी बहुत ही कम होती है, पर भरपूर मात्रा में 'एंटीऑक्सीडेंट' होते हैं, जो हृदय रोग और कई प्रकार के कैंसर से बचने में सहायता करते हैं। यह अन्य कई खनिजों का भी एक अच्छा स्रोत है, जो हमारी हड्डियों की रक्षा करता है। अन्य स्रोतों के साभार से यह पता चलता है कि विदेशों में भी कई जगहों पर इसको Water Cress (जलकुम्भी) के नाम से बुलाते हैं। वहाँ पर यह ज्यादातर सलाद की तरह उपभोग किया जाता है।


आइए ! .. मिलकर एक बार सुसवा वाले संवाद को अपनी ज़ुबान से बोल कर आज की बतकही की इतिश्री करते हैं .. बस यूँ ही ... - "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। "

















सुसवा के लिए यथोचित मौसम में देहरादून की स्थानीय सब्जी मंडी-बाज़ारों में बेचने के लिए वर्तमान में भी प्रायः गरीब लोग ही टोकरी में लेकर बैठते या बैठती हैं या फिर कुछ पुरुष लोग अपनी साइकिल पर लादे कॉलोनीयों-मुहल्लों में घूम घूम कर फेरी लगाते नज़र आ जाते हैं। इस वर्ष पुनः प्रतीक्षारत हैं हम सुसवा के मौसम के आगमन के .. बस यूँ ही ...

पुंश्चली .. (३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) और पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है पुंश्चली .. (३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ... :-

परबतिया लगभग झेंपती हुई अपने स्थान से उठकर गली-चौक की सफ़ाई के लिए नगर-निगम द्वारा दिए गये लम्बे डंडे लगे नारियल के झाड़ू को लेकर गली-मुहल्ले की शेष बची सफ़ाई करने चल पड़ी है। 

उधर मेहता जी और सक्सेना जी भी आपसी तर्क-वितर्क को बेतुकी बहस और बेतुकी बहस को वाक्-युद्ध तक का रूप देकर, यहाँ से अपने-अपने घर की ओर रुख़ कर चुके हैं। सभी को अपने-अपने काम-धंधे पर घर से निकलने के पहले घर की कुछ दैनिक नितान्त आवश्यक आवश्यकताओं को पूरी करनी होती है और अपना नहाना-धोना और साफ़-सफ़ाई भी। 

परबतिया के जाते ही भूरा और चाँद 'केचप' की फैक्ट्री वाली अपनी बातों को फिर से छेड़ना चाह रहे हैं, जिसे मन्टू बेतुकी बातें कह के उन्हें चुप करा देने की कोशिश भर कर रहा है।

अभी चाँद कुछ कहता, उससे पहले ही मेहता जी और सक्सेना जी की जगह पर मुहल्ले के ही एक 'पी जी' में रहने वाले दो विद्यार्थी युवा मित्र- मयंक और शशांक आ कर बैठ गये हैं। वे दोनों ही सुबह-सवेरे रोज की तरह रसिक चाय दुकान पर आकर रसिकवा को अलग से थोड़ी ज्यादा कड़क चाय बनाने की ताकीद करते हुए मेहता जी और सक्सेना जी की थोड़ी देर पहले हो रही तथाकथित राजनीति वाली  बेतुकी बहस को पास ही खड़े सुन रहे थे और मुस्कुरा भी रहे थे।

हालांकि उनके 'पी जी' में भी सुबह के नाश्ते के साथ चाय मिलती है, पर रसिक चाय दुकान के जैसी नहीं मिलती है। पाउडर वाले दूध में बनी, कम चाय पत्ती डाली हुई खौले पानी-सी पतली चाय मिलती है। हाँ .. चीनी की कमी नहीं रहती है। पर रसिकवा की चाय पीकर प्रायः उन दोनों की रात भर जाग कर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने से उपजी थकान छूमंतर हो जाती है। दोनों ही अलग-अलग राज्यों से हैं और अलग-अलग भाषाभाषी भी हैं, पर दोनों में गहरी मित्रता है।

इन दोनों को वहाँ उस बेंच पर बैठते देखकर चाँद 'केचप' की फैक्ट्री वाली बात छेड़ते-छेड़ते रुक जाता है। वह और भूरा दोनों एक-दूसरे की ओर ताकने लगते हैं। ऐसे में मन्टू इन दोनों को मयंक और शशांक के कारण सकपकाता हुआ देख कर मुस्कुराने लगा है। 

मुहल्ले में सभी लोग 'पी जी' के सभी किराएदारों को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। उनमें भी इन दोनों मित्रों को कुछ ज्यादा ही इज़्ज़त करते हैं। भला करें भी क्यों ना ! .. स्कूल में पढ़ने वाले मुहल्ले भर के बच्चों के लिए दोनों ही किसी के लिए भईया, किसी के लिए अंकल तो किसी के लिए 'सर' हैं। विशेषकर गरीब परिवार के बच्चों और उनके अभिभावकों की नज़र में तो दोनों ही किसी मसीहा से कम नहीं हैं। 

उसकी भी वजह है .. हर रविवार को सारे जरूरतमंद बच्चों को कभी पास के ही पार्क में या कभी अपने 'पी जी' के छत पर ही बैठा कर उन सभी के द्वारा पूछे गए पाठ्यक्रम के कठिन प्रश्नों को उन सभी की सरल बाल मानसिकता के अनुरूप समझा कर उनके चेहरों पर मुस्कान तैराने का काम करते हैं दोनों, वो भी निःशुल्क। पर हाँ .. बच्चों की परीक्षा के दिनों में साप्ताहिक रविवार को होने वाली 'क्लास' की पाबन्दी नहीं रह पाती, जिसको जिस समय, जो भी विषय समझ में ना आए, आ सकता है।  सभी बच्चों को इनके द्वारा मनोरंजक ढंग से पढ़ाने पर उन बच्चों के लिए नीरस विषय भी दिलचस्प बन जाता है। 

इसके अलावा ये दोनों एक-दो घन्टे किसी अमीर घर के 'इंग्लिश मीडियम' से किसी तथाकथित 'प्राइवेट स्कूल' में पढ़ने वाले बच्चों को 'ट्यूशन' पढ़ा कर अपने अतिरिक्त जेबख़र्च के लिए अर्जित पैसों से जरूरत पड़ने पर कभी-कभी किसी तंगहाल अभिभावक के बच्चों के लिए कॉपी, तो कभी पेंसिल, तो कभी-कभी किताबें, 'स्कूल बैग' या 'स्कूल ड्रेस' तक भी खरीद देते हैं। पाठ्यक्रम की पढ़ाई के साथ-साथ जिस बच्चे में जो भी छिपी हुई कलात्मक या खेल-कूद सम्बन्धित पाठ्येतर गतिविधियों वाली प्रतिभा होती है, उसे बाहर लाने के लिए भी उन्हें ये दोनों प्रेरित करते रहते हैं। 

बदले में इन्हें मुहल्ले भर का प्यार और सम्मान मुफ़्त में मिलता रहता है। जिस किसी भी धर्म-सम्प्रदाय वाले बच्चे के घर में त्योहारों के नाम पर विशेष सीझने वाले व्यंजनों में इन दोनों मित्रों का भी हिस्सा पकता है। कभी कोई बच्चा एक कटोरी में अपनी पुरानी 'रफ' कॉपी के पन्ने से ढक कर 'रूम' में ही पहुँचा जाता है या फिर कभी कोई अपने घर ही बुला कर ले जाता है - " मंक छल (मयंक सर)  .. छछांक छल (शशांक सर)  .. आपको मम्मी बुला लही (रही) है। मम्मी बोलीं है कि तुलत (तुरंत) वापच् (वापस) आ जाइएगा .. आपकी पलाई (पढ़ाई) दिसतलब ('डिस्टर्ब') नहीं होगी .. " 

अगर अवकाश रहा तो दोनों सहर्ष उस बच्चे के साथ ही उसके घर चले जाते हैं या व्यस्त रहने पर कुछ देर में आने की बात कह कर उस बच्चे को उसके घर भेज देते हैं। जिस शाम भी किसी बच्चे के घर से बुलाहट आने पर, वहाँ से लौटने के बाद दोनों को ही उस शाम 'पी जी' के औपचारिक भोजन से छुटकारा मिल जाती है।

ख़ैर ! .. अभी फ़िलहाल दोनों के लिए रसिकवा के हाथों से बनी कड़क चाय अब तक दोनों के हाथों में 'डिस्पोजेबल कप' पर सवार हो कर आ चुकी है। चाय की चुस्की के साथ ही रोज की तरह पढ़ाई से इतर किसी भी ज्वलंत मुद्दा पर दोनों की परिचर्चा शुरू हो गयी है। इसी बहाने आसपास और देश-विदेश की जानकारी भी हो जाती है, जो अध्ययन के अतिरिक्त आवश्यक भी है और साथ ही 'कॉम्पेटेटिव् एग्जाम' के लिए 'करेन्ट अफेयर्स' की भी जानकारी बढ़ जाती है। मतलब .. "आम के आम और गुठलियों के दाम" वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है .. शायद ...

दोनों की आज की बातचीत की शुरूआत होती है कुछ ही देर पहले मेहता जी और सक्सेना की हो रही बेतुकी बकझक से ...

मयंक - " विपक्ष के सांसद और विधायक भी किसी सत्तापक्ष के सांसद और विधायक के तरह ही वेतन और मोटी रक़म वाले भत्ते पाते हैं। यहाँ तक कि किसी अनुचित हरक़तों के लिए कुछ दिनों के लिए राज्य सभा या लोक सभा से इन्हें निलम्बित भी कर दिया जाए तो इनके वेतन से कोई कटौती नहीं होती है। जैसे हमारे देश की किसी हारी हुई क्रिकेट टीम की भी कमाई होती ही है। " - कड़क चाय की एक घूँट से अपनी ग्रीवा को तर करते हुए पुनः मयंक - " और हम हैं कि पक्ष और विपक्ष के नाम पर आपस में ख़ामख़ाह लड़ते रहते हैं। "

शशांक - " हमारा काम केवल पक्ष-विपक्ष के नाम पर 'सोशल मीडिया' को रंगना भर है। हम अपने घर-परिवार से किसी को विधायक-सांसद बनाने की बात नहीं करेंगे .. हमें तो बस .. सरकारी नौकर चाहिए या फिर डॉक्टर, इंजीनियर, वक़ील, प्रोफेसर, टीचर चाहिए .. हमने कभी अपने देश में विधायक-सांसद बनने के लिए किसी 'सिलेबस' की या 'कोचिंग सेंटर' खोलने की तो बातें नहीं सोची कभी .. पर दो गुटों में बँट कर आपस में तू तू मैं मैं कर के अपनी-अपनी गर्दन अकड़ाने से बाज नहीं आते हैं। हद है इनकी सोच की ..."

मयंक - " कभी टमाटर, कभी मणिपुर .. बिना विषय को गम्भीरता से जानेसमझे बस किसी फिसड्डी नेता की तरह लोगों में छाए रहने के लिए कुछ भी बकते रहना इनका काम है। शर्मनाक और मार्मिक घटनाओं पर भी कविताओं, दोहों, लेखों और स्लोगनों की स्रोत फूट पड़ती हैं इनकी तरफ से, किसी 'न्यूज़ चैनल' वाले की 'टी आर पी' की तरह अपनी 'कमेंट्स' और 'लाइक' की चाह में। .. नहीं क्या ?इनकी माँ-बहनों के साथ ये सब घटित हो तो भी ये लोग ऐसे-ऐसे क़सीदे पढ़ेंगे क्या ? "

शशांक - " किसी बलात्कृत बाला या महिला से रिश्ते जोड़ने की बात उठेगी तो इनकी नानी-दादी सब बेहोश हो जाएंगी। किसी ऐसी घटना की अगर गवाही देने की नौबत आ पड़ी तो अपने माँद में दुबक कर अपने डाइनिंग टेबल पर मुर्गे के शोरबे में पराठे बोर-बोर कर मुर्गे और टी वी पर आ रहे समाचार, दोनों के चटखारे लेंगे, फिर अगले दिन या उसी रात एक शगूफ़ा 'सोशल मीडिया' पर चिपका भर देंगे और तो और पीछे से 'लाइक' और 'कमेंट्स' की गिनती में मशग़ूल हो जायेंगे सारे .. बात करते हैं सा..."

मयंक - " कूल डाउन यार .." 

शशांक - " इनकी बेतुकी बातों से रक्त वाहिनियों में क़माल पाशा दौड़ने लगते हैं यार .. "

मयंक - " तुम सही कह रहे हो .. अभी देखो ना .. लोग सीमा और अँजू की बातें करते अघा नहीं रहे हैं। कोई सीमा की तो कोई अँजू की, तो कोई दोनों की तारीफ़ करते थक नहीं रहे हैं। पर हम उनसे एक ही बात पूछते हैं दोस्त कि .. अगर यही क़दम उन क़सीदे पढ़ने वाले लोगों की धर्मपत्नी या बेटी, बहन उठाये तो भी क्या वो लोग ऐसी ही प्रतिक्रिया देंगे, जैसी अभी दे रहे हैं दोनों की तारीफ़ में ? .. बोलो तो भला !!! ..."

शशांक - " मीडिया भी .. जिधर देखो उधर .. इन दोनों को 'सेलिब्रिटी' बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ रही, लोग भी दिन रात चटखारे ले-ले कर देख-सुन और पढ़ रहे हैं .. सोते-जागते हर वक्त .. हम लोग युवा पीढ़ी के लिए कैसी प्रेरणास्रोत वाली प्रतिमान स्थापित करना चाह रहे हैं .. हम स्वयं ही तय नहीं कर पाते .. दूसरे की पत्नी, कोई अपने बच्चों के साथ, तो कोई अपने बच्चों को छोड़ कर अपने-अपने तथाकथित प्रेमी के पास भाग आयी या गयी तो सब उसे नायिका बनाने पर तुले हुए हैं .. कोई तो इसे इतिहास रचना बता रहे हैं .. हद हो गयी यार ... "

मयंक - " हमलोग बेकार की बातों में ही ज्यादा उलझे रहते हैं .. जिनसे समाज में होने वाले छोटे-छोटे, पर महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव हम दरकिनार करते जाते हैं । जिसे 'मीडिया' भी 'कवर' नहीं करती। वो तो बस वही सब परोसने में दिलचस्पी रखती है, जिनसे उनकी 'टी आर पी' बढ़ती रहे। उन्हें समाज कल्याण या उत्थान से क्या लेना-देना भला ... !? " - जैसे-जैसे चाय की चुस्कियों की क्रमवार गिनती बढ़ती जा रही है , वैसे-वैसे 'डिस्पोजेबल कप' में चाय की मात्रा घटती जा रही है। - " हमारे समाज के चंद सकारात्मक बदलाव भले ही किसी हिन्दू पूजनोपरांत बँटने वाले प्रसाद में तुलसी दल की तरह मात्रा में नगण्य हों, पर होते महत्वपूर्ण हैं। उन्हें नयी पीढ़ी के समक्ष एक यथोचित प्रतिमान बनाने के लिए हम सभी को आगे आना होगा। केवल 'मीडिया' के भरोसे हम नहीं बैठ सकते। हम अक़्सर भूल जाते हैं कि 'मीडिया' जिन विज्ञापनों के सहारे चलती है, वे सारे विज्ञापन हमारी बदौलत चल पाते हैं। "

शशांक - " किसी छोटे-छोटे पर .. महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव से तुम्हारा क्या मतलब है ? .. "

【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



Thursday, July 20, 2023

पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) के बाद अपने कथनानुसार एक सप्ताह बाद पुनः आज वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है "पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ... :-

अभी इधर मन्टू उस बातूनी भूरा को उसकी बातों में बेतुकापन होने की आशंका के आधार पर उसे चुप कराने के मक़सद से जैसे ही घुड़कता है, तभी उधर चाय की दुकान के सामने ही तथाकथित बड़े-बड़े ग्राहकों के लिए रखी गयी लकड़ी की बेंच पर बैठे मुहल्ले के ही दो पड़ोसी सज्जन पुरुष- सक्सेना जी और मेहता जी एक दूसरे पर लगभग चिल्लाने लगे हैं। 

चाय की दुकान में ग्राहकों के लिए ही रोज की तरह आये आज के अख़बार के अलग-अलग पन्ने दोनों भद्र (?) पुरुष अपने-अपने दोनों हाथों में पकड़ कर पढ़ते हुए और बीच-बीच में आपसी बहस के दौरान अपने-अपने आवेश के आवेग में अपने-अपने अख़बार वाले पन्ने को झटकते और हवा में लगभग लहरा कर फड़फड़ाते हुए एक दूसरे पर बारी-बारी से तार सप्तक में प्रतिक्रिया दे रहे हैं। मानो राष्ट्रीय स्तर के किसी भी टी वी न्यूज़ चैनल पर एक समाचार उद्घोषक के द्वारा सार्वजनिक सर्वेक्षण ('पब्लिक पोल') के आधार पर तय किए गये किसी वर्तमान ज्वलंत समस्या जैसे विषय पर दो-चार प्रतिभागियों के बीच बहस छिड़ी हुई हो या फिर लोक सभा या विधान सभा में सत्र के दौरान यदाकदा होने वाले जूतम-पैजार हो रहे हों। 

मेहता जी - "आप चाहे लाख बोलिए .. हल्ला कीजिए .. चिल्लाइये .. पर आपकी सरकार जो है ना ! .. एकदम से निकम्मी है। अब बतलाइए ना जरा .. भला ये भी कोई बात हुई कि कल तक तीस-चालीस रुपए प्रति किलो बिकने वाला टमाटर इन दिनों अचानक से सौ को भी पार कर गया है। आम पब्लिक क्या करे बेचारी ? भूखों मर जाए ? आयँ ?" 

"रसिक चाय दुकान" की दोनों ओर सजी बेंच के लगभग पास ही में फ़ुटपाथ पर अपनी घिसी हुई हवाई चप्पल की  जोड़ी पर अपने चूतड़ों की जोड़ी टिकाये रामचरितर रिक्शा वाला लगभग चुक्कु-मुक्कु बैठा दोनों साहिब लोगों की नोकझोंक सुन रहा है। साथ ही आजकल आम प्रचलन में उपलब्ध प्लास्टिक के परत वाले कागजी कप, जिसे पढ़े-लिखे लोग 'डिस्पोजेबल कप' कहते हुए सुने जाते हैं, में चाय भी सुरकता जा रहा है। उसकी चप्पलों के फ़ीते के लगभग हर छोर पर पास में ही उसी फ़ुटपाथ के एक छोर पर बैठने वाले रामखेलावन मोची से समय-समय पर चिप्पी लगी सिलाई सिलवा-सिलवा कर काम चलाने के लायक बनवाया गया जान पड़ रहा है, ताकि रिक्शे का पैडल रामचरितर के तलवे में ना गड़े। उसके पास ही लगभग पीढ़ा पर बैठने वाले अंदाज़ में दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाला रामभुलावन भी वहीं पड़ी एक पुरानी ईंट पर बैठा चाय सुड़कने में रामचरितर का साथ दे रहा है। 

ये दो-चार ईंटें, जिनमें से एक पर अभी रामभुलावन बैठा हुआ है, दरअसल आज वृहष्पतिवार होने कारण बुद्धनवा नाई की फुटपाथी दुकान बंद है .. क्योंकि वृहष्पतिवार, मंगलवार और शनिवार को मुहल्ले के सब लोग एक अंधपरम्परा के तहत बाल-दाढ़ी नहीं बनवाते हैं। एक-दो युवा ग्राहक जो अंधपरम्पराओं में विश्वास नहीं रखते हैं, वही लोग इन तीन दिनों में आते हैं, तो ग्राहक कम होने के बावज़ूद कम से कम उस दिन की बुद्धनवा की खैनी और बीड़ी की व्यवस्था हो जाती है। साथ ही कभी-कभी रात के लिए चखना में एक दोना चना की झालदार घुँघनी और एक देसी 'पउआ' की भी जुगाड़ कर लेता है। घर-परिवार में कोई जरुरी काम रहने पर वह इन्हीं तीन दिनों में से एक दिन आवश्यकता के मुताबिक अपनी दुकान बंद कर लेता है। आज भी या तो उसकी घरवाली- रमरतिया को बुखार लगा होगा या उसकी तीन बेटियों और उन के बाद बहुत ही तथाकथित झाड़-फूंक के बाद पैदा हुआ उसका एकलौता दुलरुआ बेटा में से कोई एक बीमार हुआ होगा, जिनको ले कर वह सरकारी अस्पताल में पुर्जा कटवा कर 'आउटडोर' के आगे कतार में खड़ा होने की तैयारी कर रहा होगा इस समय .. शायद ...

नतीजन अपनी बिना दीवार-छत वाली फुटपाथी दुकान (?) में जिन ईंटों पर अपने ग्राहक को बैठा कर बुद्धनवा रोज बाल-दाढ़ी बनाता है, वो सारी ईंटें पिलखन के इस वृद्ध वृक्ष के जड़ के पास आज लावारिस पड़ी हुईं हैं। इसी पिलखन की छाँव तले रसिकवा की यह "रसिक चाय दुकान" भी वर्षों से बदस्तूर चल रही है। 

रामचरितर - "एकदम सही कह रहे हैं मालिक .. हम गरीब-गुरबा के तो जीना मुहाल हो गया है। इतना महँगा टमाटर तो हम सब आज तक नहीं खरीदे हैं।"

रामभुलावन - "हाँ मालिक .. हम सब के तो चौका-चूल्हा में अब टमाटर के आना ही बन्द हो गया है। जरूरत पड़े पर जीतनराम पंसारी के यहाँ से 'सौस' की एक-डेढ़ रुपया वाली एक-दो पुड़िया ('पाउच') ले के काम चला रहे हैं। जैसे-तैसे दिन काट रहे हैं हम सब।"

तभी सक्सेना जी और मेहता जी की मिलीजुली हलचल में मेहता जी का चाय वाला कुल्हड़ अपना संतुलन खो कर बेंच से लुढ़कते हुए शेष बची चाय सहित अभी-अभी ज़मींदोज़ हो गया है। 

दरअसल सामाजिक वर्गीकरण के तर्ज़ पर ही चाय की दुकान पर चाय पीने के बर्त्तनों के भी इन दिनों वर्गीकरण दिख ही जाते हैं। वही चाय कागजी कप में प्रायः दस रुपए के एक कप की दर से मिलती है, जिसे सामान्य वर्ग के लोग सुड़कते हैं और वही मिट्टी के कुल्हड़ में अपने-अपने स्थानानुसार पन्द्रह या बीस रुपए में मिल पाती है, जिसे तथाकथित बड़े लोग पीते हैं। यूँ तो कहीं-कहीं अभी भी काँच के गिलास में ही चाय बिकती है। 

दोनों पड़ोसी के चाय वाले कुल्हड़ उनके अख़बार पढ़ते और उनकी आपसी बहस करते वक्त उसी बेंच पर आसपास ही रखे हुए थे। शायद मेहता जी वाले कुल्हड़ की पेंदी को समतल करने में कुम्हार ने कुछ कोताही कर दी होगी, तभी तो ... मेहता जी अभी-अभी अपनी शहीद हुई चाय से ऊपजी खीज को लगभग छुपाते हुए एकदम से बिदक पड़ते हैं।

मेहता जी - "भगवान करे आपकी सरकार भी मेरे चाय वाले कुल्हड़ की तरह ही गिर जाए।" अख़बार बेंच पर रख कर दोनों हाथ ऊपर आसमान की तरफ करके - "हे भोले नाथ, हे कालों के काल, महाकाल .. गिरा दिजिए इस सरकार को। टमाटर को इतना महँगा कर दी है ये सरकार कि .. क्या कहें आप से भगवान जी ! .. अब पाप का घड़ा भर के दिल्ली के बाढ़ जैसा लबालब हो गया है। अब इन सब का लबर-लबर बहुत हो गया। हमारे कुल्हड़ की तरह ही इन सब का भी घड़ा फोड़ दिजिए राम जी।"

सक्सेना जी - "आप पढ़े-लिखे मानते हैं ना अपने आप को ? हाई स्कूल में सरकारी टीचर हैं। भले ही आरक्षण कोटा में आपको नौकरी मिली है, पर कुछ तो पढ़े होंगे ? .. तभी ना बच्चों को पढ़ाते हैं। आपके दिमाग़ में भी इन सब (पास बैठे रिक्शावाला रामचरितर और ईंट-गिट्टी-बालू ढोने वाले मजदूर रामभुलावन की ओर निशाना साधते हुए) के जैसा भूसा भरा हुआ है क्या जी ?" - अपने कुल्हड़ में शेष बची चाय के आख़िरी घूँट को लगभग मेहता जी को चिढ़ाते हुए जोर से सुड़कने की आवाज़ निकाल कर - "अहा ! मन तृप्त हो गया रसिकवा की चाय पी के सुबह-सुबह .. अजी मेहता जी .. अब इस बरसात के मौसम में .. वो भी आपदा की हद तक वाली बरसात के कारण फ़सलों की जो बर्बादी हुई है, तो क़ीमत तो बढ़ेगी ही ना ? क्यों ? इकोनॉमिक्स में नहीं पढ़े थे क्या जी कि माँग की तुलना में आपूर्ति अचानक घट जाने पर क़ीमत बढ़ जाती है तथा किसी भी सामग्री की माँग से ज्यादा आपूर्ति होने पर बाज़ार में क़ीमत घट भी जाती है।"

मेहता जी - "ज्यादा समझाइए मत हमको। जब ना तब .. अपना कुतर्क लेके आ जाते हैं।"

सक्सेना जी - "हमको तो लगता है कि आप चोरी कर के पास किए हैं जी या .. मास्टर को घूस दे के।"

मेहता जी - "कुछ ज्यादा नहीं बक रहे हैं आप भोरे-भोरे ? .. आयँ !.. "

सक्सेना जी - "और नहीं तो क्या .. अब टमाटर को भी सरकार आलू की तरह 'कोल्डस्टोरेज' में जमा कर के रखवा दे क्या ? या उसकी कुछ फैक्टरियाँ लगवा दे या फिर टमाटर के लिए भी 'सब्सिडी' की घोषणा कर दे सरकार ? बतलाइए !?"

मेहता जी और सक्सेना जी की बहस का विषय टमाटर और महँगे हुए टमाटर के बदले रामभुलावन की 'सौस' की पुड़िया इस्तेमाल करने वाली 'आईडिया' जैसी बातें सुन-सुन कर भूरा और चाँद को भी अपनी 'केचप' की फ़ैक्ट्री वाली अधूरी बात छेड़ने की तलब लग गयी। मन्टू के घुड़कने के बावज़ूद चाँद अपनी बुद्धिमता का प्रदर्शन करने के लिए बात छेड़ते हुए टपक पड़ा।

चाँद - "ओ ~~~ बी ब्लॉक वाले 213 नम्बर में 'केचप' की फैक्ट्री चालू होने से तेरा मतलब है ... "

अभी चाँद अपना वाक्य पूरा कर पाता, उससे पहले ही मुहल्ले के इस चौक वाले क्षेत्र में नगर निगम की ओर से रोजाना सुबह-सुबह सफ़ाई करने वाली परबतिया बीच में टपक पड़ती है। जो थोड़ी दूरी पर ही किसी घर से मिली बासी रोटी को बाज़ारों में बिकने वाले विभिन्न प्रकार के 'रॉल' की तरह लपेटे हुए चाय में बोर-बोर कर खा रही है। इनको कहीं सफाईकर्मी तो कहीं पर्यावरण मित्र भी कहते हैं, परन्तु आम लोग झाड़ू देने वाली या कचरे वाली कहते हुए ही सुने जाते हैं। पर परबतिया के अच्छे व्यवहार और मधुर स्वभाव के कारण मुहल्ले भर में लोग उसे नाम से जानते और बुलाते हैं। कुछ लोग तो पबतिया दीदी, पबतिया बुआ या मौसी भी बुलाते हैं। बहरहाल वह चाँद के मुँह से निकले फ़ैक्ट्री चालू होने वाले वाक्य को सुनकर ही उनके बीच में कुछ बोलने और उनसे कुछ पूछने के लिए मज़बूर हो गयी है।

परबतिया - "भईया ! फ़ैक्ट्री में अभी भी भर्ती हो रही है क्या ?"

मन्टू - "क्यों ? आपकी तो नगर निगम की नौकरी है ही ना ?"

परबतिया - "सो तो है भईया .. पर अभी तक हमको 'गौमेन्ट' (सरकार-Government) की तरफ से 'पर्मामेंट' (स्थायी-Permanent) नहीं किया गया है ना .. तअ (तो) रोज पर हाज़िरी बनता है। कम पइसा (पैसा) में बड़ी मुश्किल से घर-परिवार ...  हम सोचे कि फैक्ट्री में नौकरी लग जाने से कुछ अलग से कमाई हो जाती तो ..."

बीच में ही मन्टू परबतिया की बात को काटते हुए उसे सच्चाई बतलाने के लिए समझाता है।

मन्टू - "परबतिया दीदी .. आप भी कहाँ इन दोनों बातूनियों की बात को पकड़े बैठीं हैं ? अरे ये भूरा और चाँद .. दोनों मिलकर ऐसे ही सुबह-सुबह मसखरी करते रहते हैं। यहाँ मुहल्ला में तो फ़ैक्ट्री खुल ही नहीं सकती ना ..."

परबतिया -"धत् तेरी की .. सुबह-सुबह हम बेवकूफ़ बन गये भईया ..."

【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. () .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】




Monday, July 17, 2023

हरेला ...

सावन माह वाले अमावस्या के दिन "हरेला" नामक सांस्कृतिक विरासत वाला एक पारम्परिक लोकपर्व उत्तराखंड में मनाया जाता है। यही पर्व हिमाचल प्रदेश में भी "हरियाली" के नाम से और छत्तीसगढ़ में "हरेली" के नाम से मनाया जाता है। इस वर्ष 2023 में यह पर्व आज यानि 17 जुलाई को है। उत्तराखंड में इस लोकपर्व के अवसर पर राज्य सरकार द्वारा 2021 से राजकीय अवकाश घोषित किया जा चुका है।

दरअसल पारम्परिक मान्यता के अनुसार इस पर्व को मनाने के लिए लोगों द्वारा किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी में मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि पाँच-सात प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। फिर लोग नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह पानी का छिड़काव करते रहते हैं। दसवें दिन इन बीजों से निकले पौधों को काटा जाता है। चार-छः इंच लम्बे इन पौधों को ही "हरेला" कहा जाता है, जिन्हें आस्थाजनित बहुत आदर के साथ घर-परिवार के सभी सदस्य अपने सिर पर रखते हैं। "हरेला" घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में बोया व काटा जाता है। एक लोक मान्यता है कि हरेला जितना बड़ा होगा, उतनी ही बढ़िया भावी फसल होगी। साथ ही लोग तथाकथित भगवान से अच्छी फसल होने की कामना भी करते हैं।

यूँ तो साल में तीन बार "हरेला" मनाने की परम्परा है। एक तो चैत माह में, जिसमें माह के प्रथम दिन बीज बोया जाता है और नवमी के दिन काटा जाता है। दूसरा सावन यानि श्रावण माह में, जिसके तहत सावन माह शुरू होने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद सावन के प्रथम दिन काटा जाता है। तीसरा आश्विन माह में, जिनमें नवरात्र के पहले दिन बीज बोया जाता है और दशहरा यानि दशमी के दिन काट लिया जाता है। 

आस्तिक कर्मकांडी घटनाओं से जुड़ी बचपन की कुछ यादों के अनुसार बिहार-झाड़खण्ड में भी आश्विन माह वाले नवरात्र के पहले दिन तथाकथित कलश स्थापना के तहत उस कलश यानि मिट्टी के घड़े के चारों ओर कच्ची मिट्टी में जौ बोया जाता था और दशहरा के दिन उन दस दिनों में पनपे कोमल पौधों को  काटा जाता था, जिसको पूजा कराने वाले 'पंडी जी' यानि ब्राह्मण द्वारा घर के सभी सदस्यों को कान पर रखने के लिए दिया जाता था और आज भी पारंपरिक तरीके से ऐसा किया जाता है। 

पर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश में सावन माह वाला "हरेला" विशेष रूप से मनाया जाता है। यह लोकपर्व भी संक्रान्ति के तरह ही कृषि से सम्बन्धित पर्व है, जो साल भर में कई बार और कई राज्यों में अलग-अलग नाम से और अपनी-अपनी लोक आस्था के अनुसार पारम्परिक ढंग से मनाया जाता है।

परन्तु आधुनिक दौर में इसका स्वरुप परिवर्तित होकर इस दिन सांस्कृतिक आयोजन के साथ-साथ लोगबाग अपने परिवेश में किसी भी फल देने वाले या छाया प्रदान करने वाले या फिर औषधीय गुणों वाले बहुउपयोगी भावी वृक्षों के छोटे स्वरूप में पौधों का रोपण करते हैं। इनमें से कई लोग तो केवल 'सोशल मीडिया' या 'मीडिया' में स्वयं की औचित्यहीन क्षणिक लोकप्रियता हेतु 'सेल्फ़ी' लेने के लिए ऐसा करते हैं और बाद में उन पौधों की सुध लेने वाला कोई भी नहीं होता है। पर सभी ऐसे नहीं होते हैं .. शायद ... 

इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है उन पौधों का संरक्षण। हर वर्ष मनाए जाने वाले "हरेला" जैसे लोकपर्व के अवसर और विश्वस्तरीय "विश्व पर्यावरण दिवस" पर लगाए जाने वाले पौधों को अगर सही-सही संरक्षण मिलता रहता तो अब तक सही मायने में हमारी धरा लगभग हरी-भरी हो जाती .. शायद ...

संयोगवश नौकरी के सिलसिले में गत वर्ष से उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून में रहने के फलस्वरूप यहाँ के "धाद" नामक एक सामाजिक संस्थान द्वारा "हरेला" की पूर्व संध्या पर शहर के गाँधी पार्क के मुख्य द्वार के पास आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम और यहाँ से घन्टाघर होते हुए कनॉट प्लेस तक की जनयात्रा में शामिल होने का मौका कल रविवार को शाम में मिला। उस सांस्कृतिक कार्यक्रम और जनयात्रा के बारे में विस्तार से कुछ ना कह कर, हम उस दौरान आदतन ली गयी कुछ तस्वीरों और वीडियो को यहाँ जस का तस साझा कर रहे हैं .. बस यूँ ही ...

जाते-जाते "हरेला" की औपचारिक शुभकामनाओं के साथ-साथ पुनः हम अपनी बात दोहराना चाहते हैं कि हम "दिवस" के हदों में "दिनचर्या" को क़ैद करने की भूल करते ही जा रहे हैं। नयी युवा पीढ़ी के समक्ष हम बारम्बार "दिनचर्या" की जगह "दिवस" को ही महत्वपूर्ण साबित करने की भूल करते जा रहे हैं। साथ ही हम सभी मिलकर पर्यावरण का मतलब पेड़-पौधों तक ही सीमित कर के पर्यावरण के विस्तृत अर्थ को कुंद करते जा रहे हैं। जबकि पर्यावरण के तहत हमारे आसपास मौजूद समस्त प्राणियों और समस्त प्राकृतिक सम्पदाओं का संरक्षण और संवर्धन ही सही मायने में "हरेला" है .. शायद ...

आइये .. हम सब मिलकर पेड़-पौधों की गुहार को  एक नारा के रूप में दुहराते हैं .. बस यूँ ही ...

हम पेड़-पौधों को सदा संरक्षित और संवर्धित कीजिए।

पर्यावरण के लिए अपनी जनसंख्या नियंत्रित कीजिए।























Thursday, July 13, 2023

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

कई दिनों से आसपास के कुछ जाने, कुछ अंजाने से, कुछ वास्तविक, तो कुछ काल्पनिक .. कई पात्रों की एक टोली मिलजुल कर हमारे मन की देगची में खिचड़ी पकाने का प्रयत्न कर रही थी। अभी तक तो आज उस खिचड़ी की देगची से पहला निवाला ही परोसने का प्रयास भर है। प्रत्येक वृहष्पतिवार को अगला निवाला परोसने का भरसक प्रयास रहेगा हमारा .. शायद ...

अभी तय नहीं कर पाये हैं या कर पा रहें हैं कि यह साप्ताहिक धारावाहिक निकट भविष्य में कहानी की शक्ल में ढल पाएगा या उपन्यास के रूप में। ख़ैर ! .. जो भी हो .. आभासी मनोरंजन का दावा तो नहीं, पर तथ्यों का वादा है हमारा .. बस यूँ ही ...

"पुंश्चली (साप्ताहिक धारावाहिक)" के पहले निवाले परोसने के पूर्व साहित्य और संगीत के लिए अपनी विचारधारा वाली बतकही का एक पत्तल भर बिछा रहे हैं, जिसको भी कई दिनों से कहीं बुन कर रखा हुआ था। हो सकता है आज के लिए ही .. शायद ...


तो पहले विचारधारा वाली बतकही ..


यवनिका

हटे जब कभी भी 

रंगमंच की यवनिका,

मंच पर हों अवतरित 

कोई नायक या नायिका

या हों फिर तान-आलाप, 

मुर्कियाँ गाते गायक-गायिका,

या फिर उठाए हाथ कोई 

रंगों की थाली और एक तूलिका

और सामने बैठी हो चाहे 

मनोरंजन पिपासु भीड़, 

भरी हो वीथिका।

रंगमंच हों या सुरीले गीत कोई 

या फिर चित्र पटल कोई,

भले ही हों, ना हों इन सब में 

वर्णित कोई सारिका, अभिसारिका,

पर दिखनी चाहिए इनमें झलक

अपने इस समाज की विभीषिका .. बस यूँ ही ...


अब ... 

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) ...

"अपने बी ब्लॉक वाले 213 नम्बर में कल से केचप फ़ैक्ट्री शुरू हो गयी है रे .. एकदम मस्त .." - भूरा अपनी मित्रमंडली में अपना ज्ञान बघार रहा है। भूरा .. जो अपनी ड्यूटी के वक्त घर-घर से कचरा उठाने वाली नगर निगम की बड़ी गाड़ी में तय किए हुए अनेक मुहल्लों भर से कचरे इकठ्ठे करने के क्रम में गाड़ी के पिछले हिस्से में खड़ा-खड़ा हर घर वालों से कचरे की थैली या डब्बा लेकर लगे हाथ गाड़ी में ही कचरे को फैला कर सरकार द्वारा तय मापदण्ड के आधार पर गीले और सूखे कूड़ों को तीव्र गति से अलग-अलग करता जाता है।

यूँ तो जाति-धर्म और आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बँटे हुए अपने वर्गीकृत समाज की तरह ही सरकार ने कचरे के यथोचित निष्पादन के लिए कूड़ेदान को भी दो वर्गों में बाँट रखा है। परन्तु मानव समाज अपने शारीरिक ढाँचा में उपस्थित निष्क्रिय 'एपेण्डिक्स' की तरह ही हमारे समाज में बने अधिकांश क़ायदे-क़ानून को निष्क्रिय रखने में ही प्रायः दक्ष दिखता है, जिन वजहों से हम सभी की अंतरात्मा भी हमारे 'एपेण्डिक्स' की तरह ही निष्क्रिय बन चुकी है .. शायद ...

"तू पागल हो गया है क्या बे ? किसी रेजिडेंशियल एरिया में कोई फैक्ट्री भी लगा सकता है क्या ? तेरा दिमाग़ फिर गया है क्या ? या फिर जरूर तेरे बात का हर बार की तरह कोई ना कोई ऊटपटाँग मतलब होगा .." - मन्टू ने भूरा की बात पर आपत्ति जतायी। मन्टू .. जो रेलवे स्टेशन से सरकारी बस अड्डे वाली रुट में बिजली से चलने वाली ई रिक्शा यानि हवा हवाई या टोटो गाड़ी चला कर अपना जीवकोपार्जन करता है। कभी कभार लोकल में ही रिजर्व सवारी ले कर भी चला जाता है। मुहल्ले के कई सारे लोग और बाहर के भी कई लोगों ने उसके फ़ोन नम्बर सेव कर रखे हैं। जो लोग उसकी हवा हवाई में एक बार सवारी कर लेते हैं, वो लोग उसकी बातों, कई विषयों के लिए उसके सटीक तर्कों और उसके द्वारा वसूले गए उचित भाड़े के भी क़ायल हो जाते हैं। साथ ही यात्रा के दौरान उसकी हवा हवाई में मधुर आवाज़ों में बजने वाली एफ एम् या फिर रूमानी फ़िल्मी गानों के भी मुरीद हो जाते हैं। परिणामस्वरूप भविष्य की किसी भी तयशुदा या आकस्मिक लोकल यात्रा के लिए उस से मोबाइल नम्बर लेकर प्रायः अपने मोबाइल के कॉन्टेक्ट लिस्ट में सेव कर लेते हैं। और ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब टैक्सी या टेम्पू की तुलना में कम दूरी तक जाने-आने के लिए इसका किराया किफ़ायती भी लगता हो, किसी भी मध्यम या निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को।

"बता बे तू क्या बक रहा है सुबह-सुबह ? तू बहुत कोड वर्ड में बात करता है। बिना वजह सब को परेशान करता रहता है .." - चाँद ने मन्टू की तरफ़दारी लेते हुए भूरा को मुस्कुराते हुए झिड़का। चाँद .. जो भाड़े पर टैक्सी चलाता है। उसकी कार में ज्यादातर "ओला" द्वारा बुकिंग के तहत तथाकथित बड़े-बड़े साहब और मैम साहब जैसे लोगों की सवारी चलती हैं।

शहर में किसी मिली जुली आबादी वाले एक मुहल्ले में चौक के एक तरफ फुटपाथ पर अवस्थित "रसिक चाय दुकान" के इर्द-गिर्द रोज की तरह हर उम्र और हर वर्ग के लोगों का जमावड़ा लगा हुआ है। इन्हीं जमावड़े में से तीन लोगों- भूरा, मन्टू और चाँद की भी रोज की तरह अपने-अपने काम पर जाने से पहले यहाँ की चाय और कभी-कभार एक-दो नमकीन बिस्कुट के साथ दिन की शुरुआत होती है। तीनों आपस में अपने-अपने धंधे-पेशे से मिलने वाले बीते दिन वाले दिन भर के अनुभवों को एक दूसरे से साझा करते हैं।

यूँ तो यह चाय की दुकान प्रतिदिन सुबह छः बजे से शाम सात बजे तक दिन भर ही खुली रहती है। पर यहाँ सुबह और शाम के वक्त दो-तीन घन्टे कुछ ज्यादा ही चिल्ल-पों मची रहती है। अभी भी सुबह के लगभग साढ़े छः बज रहे हैं। रोज की तरह सुबह-सुबह वाली चिल्ल-पों मची हुई है।

इस चाय की दुकान के लगभग पास में ही नगर निगम वालों का एक बड़ा-सा कूड़ेदान रखा हुआ है। या यूँ कहें कि इसी कूड़ेदान की ओट में ये चाय की दुकान टिकी हुई है। बस .. एवज़ में रसिक चाय वाले को हर सप्ताह किसी ख़ाकीधारी के जेब तक कुछ नीले-पीले रंगों में रंगे सदैव मुस्कुराते रहने वाले एक खादीधारी विशेष को सुलाना होता है। 

आसपास के मुहल्ले वाले जो नगर निगम की आने वाली गाड़ी के समय अपने-अपने घर पर उपलब्ध नहीं रहते हैं, बल्कि काम-धंधे की वजह से घर से सुबह ही निकल जाते हैं और अपने-अपने निजी कारणों से परिस्थितिवश घर में अकेले ही रहते हैं, तो वो लोग काम-धंधे पर जाते हुए इसी कूड़ेदान में अपने-अपने घर के कचरों को डाल जाते हैं और सुबह-दोपहर में नगर निगम वाली गाड़ी प्रसून जोशी द्वारा लिखी रचना, जिसे विशाल खुराना के संगीत निर्देशन में कैलाश खेर की पुरुषत्व भरी आवाज़ से गीत का शक़्ल दिया गया है, को बजाते हुए .. "स्वच्छ भारत का इरादा, इरादा कर लिया हमने, देश से अपने ये वादा, ये वादा कर लिया हमने" - आकर उन कचरों को समेट कर ले जाती है, ताकि अपना स्वदेशी "स्वच्छ भारत अभियान" सफल बना रहे .. बस यूँ ही ...

परन्तु कई लोग हड़बड़ी में या बस यूँ ही अपने घर के कचरे को कूड़ेदान के बजाय उसी के इर्दगिर्द ही, कूड़ेदान के बाहर भी फेंक कर "स्वच्छ भारत अभियान" को निष्क्रिय करने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं।

भूरा अपने अंदाज़ में हर बार की तरह ठठाकर कर हँसता हुआ - "अबे 213 नम्बर वाली भाभी का ना ... "

"चुप हो जा स्साले .. सुबह-सुबह फिर तेरी कोई गन्दी बातें होंगी .. " - मन्टू जोर से भूरा को घुड़क रहा है .. बस यूँ ही ...


शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ...




Tuesday, July 11, 2023

बूँदों की रेलगाड़ी ...

आरोही या अवरोही बंधे,

तल्लों वाले कदानुसार

ऊँचे-नीचे मकानों से,

'इंटरनेट' या 'डिश केबल' के 

मोटे-पतले आबनूसी तारें 

बरास्ते बिजली के खम्भों के ;

हों मानो शिव मन्दिर के कँगूरे से 

पार्वती मन्दिर के कँगूरे तक,

अवरोह लाल रज्जु तने हुए

"गठजोड़वा अनुष्ठान" वाले,

प्राँगण में "वैद्यनाथ मन्दिर" के .. शायद ...


वशीभूत हो गुरुत्वाकर्षणिय ऊर्जा के ...

उन्हीं तारों पर 'इंटरनेट' 

या 'डिश केबल' के,

कभी तड़के मुँह अँधेरे,

कभी भरी दुपहरी में,

तो कभी शाम के धुँधलके में भी,

पटरियों पर गुजरती किसी रेल-सी,

अक़्सर गुजरती हुई सावन में

बारिश की बूँदों की रेलगाड़ी 

निहारता हूँ अपलक जब-तब

अवकाश के आलिंगन में .. बस यूँ ही ...



                             बूँदों की रेलगाड़ी


बूँदों की रेलगाड़ी





Thursday, July 6, 2023

बा बा नहीं, चुन चुन .. बस यूँ ही ...

आज की बतकही की शुरूआत करने से पहले प्रसंगवश अपने जन्म से भी पहले की और स्वदेश को अंग्रेजों से स्वतन्त्र होने के लगभग दस वर्षों बाद की, 1957 के दौर में बनने वाली श्वेत-श्याम फ़िल्मों में से एक फ़िल्म- "अब दिल्ली दूर नहीं " के एक बालगीत- "चुन चुन करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया" 👇 को पूरी तन्मयता से सुनने का कष्ट कर लेते हैं .. बस यूँ ही ... 

 
                            बालगीत का मूल रूप

कहते हैं कि इस बालगीत के निर्माण में हसरत जयपुरी जी की रचना, गोवा के रहने वाले तत्कालीन संगीतकार- दत्ताराम वाडकर जी के संगीत और मुहम्मद रफ़ी जी की आवाज़ का सम्मिश्रण है। सम्भवतः हम सभी ने ये गीत अभी से पहले भी कभी ना कभी या कई-कई बार भी सुना-देखा होगा ही .. शायद ...

आजकल सम्भवतः भले ही वर्तमान पीढ़ी उस मूल बालगीत को भूलकर उस की विभिन्न अनुप्राणन ('एनीमेशन') रूप में बनी नक़लों ('पैरोडी') को देखने-सुनने तक ही सीमित हो गयी हो, जिन्हें 'राइम्स' नाम का चोला पहना कर धड़ल्ले से 'सोशल मीडिया' में प्रस्तुत किया जा रहा है और देखा-सुना जा रहा है। जिनके 'यूट्यूब' और 'सीडी' पर दुर्भाग्यवश कहीं भी हसरत जयपुरी जी की मूल रचना होने का उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु हमें एक सामान्य पर जिम्मेदार नागरिक होने के नाते या फिर एक रचनाकार होने के नाते भी उन ख्यातिप्राप्त तत्कालीन रचनाकार के सम्मान में कम से कम मूल बालगीत की सत्यता से स्वयं भी और नयी पीढ़ी को भी अवगत करवानी ही चाहिए .. शायद ...

वर्ना तथाकथित भक्तों के मानसपटल पर या उनके घर की दीवारों पर टँगने वाली तथाकथित राम जी की जो छवि कभी दादा साहब फाल्के जी द्वारा 1917 में बनी मूक श्वेत-श्याम फ़िल्म- "लंका दहन" के अभिनेता "अन्ना सालुंके" जी से प्रेरित होती थी, वो वर्षों बाद परिवर्तित होकर रामानंद सागर जी की 'टी वी सीरियल'- "रामायण" के "अरुण गोविल" से प्रेरित हो गयी और सम्भवतः भविष्य में ना जाने कब ओम राउत की फ़िल्म- "आदिपुरुष" के "प्रभास" से प्रेरित हो जाए .. शायद ...                       अगर ऐसा क्रमवार घटित होता है तो यह अज्ञान लोगों की अज्ञानता से कहीं ज्यादा बुद्धिजीवियों की निष्क्रियता का परिणाम ही मानना चाहिए .. ख़ासकर वैसे बुद्धिजीवी जिनका प्रायः ख़राब मौसम के कारण फ़सल को हुए नुक़सान के फलस्वरूप टमाटर-प्याज़ की मूल्य-वृद्वि के लिए सत्तारूढ़ दल पर दोष मढ़ने में ध्यान ज्यादा रहता है .. शायद ...

  

  तथाकथित 'राइम' एक अनुप्राणन ('एनीमेशन') रूप में 

प्रसंगवश पुरखों द्वारा अभिभावकों को हस्तांतरित जानकारी से बचपन में मिली एक विशेष जानकारी की चर्चा किए बिना अभी रहा नहीं जा रहा कि उस मूक फ़िल्म- "लंका दहन" में राम और सीता दोनों पात्रों का अभिनय एक ही अभिनेता- "अन्ना सालुंके" जी ने ही निभाया था। उन दिनों महिला पात्रों का अभिनय भी प्रायः पुरुष ही करते थे। कमोबेश उसी दौर में बिहार के शेक्सपीयर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर जी भी इसके ज्वलंत प्रमाण रहे हैं। इससे यह पल्ले पड़ता है कि उस दौर में केवल बिहार जैसे राज्यों में ही नहीं, बल्कि तत्कालीन बम्बई जैसी शहरी संस्कृति में भी महिला कलाकारों की कमी थी। 

यूँ तो .. तब की ही क्यों कहें .. आज भी तो अपने इर्द-गिर्द कई पढ़े-लिखे समाज में भी नाटकों या फिल्मों में काम करना और नृत्य या गायन का अभ्यास करना, महिलाएँ तो महिलाएँ, पुरुषों के लिए भी इन्हें वर्जनाओं की सूची में समाहित किया हुआ है .. शायद ...

ख़ैर ! ... प्रसंगवश बतकही करते-करते हम विषय से हट गए .. हम हसरत जयपुरी जी के लिखे बालगीत- "चुन चुन करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया" की चर्चा कर रहे थे .. यह बालगीत किसी भी बालमन में पर्यावरण को गढ़ने वाले अपने परिवेश में उपस्थित कई प्रकार के जीव-जन्तुओं के प्रति कोमल और सम्वेदनशील भावनाएँ रोपने के लिए एक सर्वोत्तम साधन तब भी रहा होगा और आज भी है .. शायद ...              कम से कम उस अंग्रेजी वाली तथाकथित 'राइम'- "बा बा ब्लैक शीप, हैव यू एनी वूल" से तो कई गुणा बेहतर और संदेशपरक है, जिस 'राइम' को हम अपनी गर्दन में किसी अदृश्य 'स्टार्च' वाली अकड़ के साथ अपने अतिथियों और सम्बन्धियों के समक्ष अपने घर के नौनिहालों से उनकी तुतली बोली में  बोलवाने में प्रायः स्वयं को सफल और गौरवान्वित महसूस करते हैं .. शायद ...

यूँ तो दिवसों के दौर में प्रायः तथाकथित "विश्व पर्यावरण दिवस" के दिन अधिकांशतः हम 'सेल्फ़ी सिंड्रोम' वाले लोग अपने हाथों में पेड़ या पौधे पकड़ के उसे जमीन में रोपने का उपकर्म करते हुए अपना चेहरा कैमरे की तरफ उचकाए हुए वाली अपनी तस्वीरें 'सोशल मीडिया' पर चिपका कर अपने जागरूक नागरिक होने का प्रमाण देने की इतिश्री मान लेते हैं .. उसके बाद हम सारे अपनी 'पोस्टों' को सींचने वाली 'कमेंट्स' और 'लाइक्स' की गिनती में व्यस्त हो जाते हैं और उस दिन के बाद उन सारे औपचारिक पौधे रोपण वाले पौधों को भविष्य के लिए सहेजने वाले कुछेक लोग ही सजग दिखते हैं .. शायद ...

यूँ भी पर्यावरण का सर्वविदित शाब्दिक अर्थ तो है- हमारे "चारों ओर से घेरे हुए आवरण" ... तो हमारे आसपास के पेड़-पौधों के साथ-साथ समस्त पशु-पक्षी, नदी-तालाब, हवा-पानी भी मिलकर हमारे पर्यावरण को गढ़ते हैं। फिर हम बुद्धिजीवी लोग क्यों भला अपनी भावी पीढ़ी को पर्यावरण संरक्षित करने के नाम पर केवल औपचारिक वृक्षरोपण वाली 'सेल्फ़ी' से गुमराह करने की भूल करते हैं। उन्हें तो आसपास के पेड़-पौधों के संरक्षण के साथ-साथ उन्मुक्त पशु-पक्षियों से भी प्रेम करना, उनके भरण-पोषण में चाव रखना, उनकी दिनचर्या से लगाव रखना सिखाना चाहिए .. शायद ... 
अगर हम समस्त पर्यावरण को ही परिवार मान लें तो अपनी धरती ही तथाकथित स्वर्ग में परिवर्तित हो जा सकती है .. बस यूँ ही ...
पर्यावरण को तो प्रतिदिन ही संरक्षित और संवर्द्धित करना ही हमारी पूजा होनी चाहिए, फिर दिवस का क्या औचित्य रह पाएगा भला ...
कल्पना किजिए कि आँख खुलते ही सुबह-सवेरे आपके आसपास, आपकी छत-बालकॉनी या फिर स्वयं के या पड़ोस के पेड़ों पर तोते, गौरैये, कबूतर, पंडुक या अन्य पक्षी अपनी मधुर आवाज़ की सरगम आपकी कर्ण पटल पर छेड़ें और बीच-बीच में गिलहरियाँ भी अपनी तान के रस घोलते हुए अपने अगले दोनों पँजों से मूँगफली के दाने कुतरती हुई मुलुर-मुलुर आपको निहारें तो आपकी सुबह कितनी न्यारी हो जाएगी .. नहीं क्या ? 🙂

अगर हमारा अपना घर है और हम कुछ सौ-हजार हर माह ख़र्च करने में सक्षम हैं तो हमें अपने आसपास के उन्मुक्त पशु-पक्षियों का ख़्याल रखना चाहिए। उनके लिए कुछ उपलब्ध बर्तनों में अनाज-पानी अपनी खुली छत, बालकॉनी या मुख्यद्वार के बाहर नित्य प्रतिदिन रखनी चाहिए। मसलन- कबूतरों या पंडूकों (उत्तराखंड में इसे घुघूती या घुघुती कहा जाता है) के लिए बाज़रे या गेहूँ, गौरैयों के लिए टूटे चावल (खुद्दी), तोतों के लिए पानी में फूले हुए चने या साबूत मूँग, गिलहरियों के लिए मूँगफली के दाने, गली के कुत्तों के लिए दूध-रोटी और इन सभी के लिए सालों भर पीने के पानी अपने पास उपलब्ध बर्तनों में परोसा जा सकता है। साथ ही घर में कटी सब्जियों या फलों के अनुपयोगी अवशेषों को कचरे के डिब्बे में ना डाल कर आसपास में किसी द्वारा पाले गए गाय-भैंसों या बकरियों को या फिर किसी उपलब्ध गौशाले में दे देना चाहिए। परन्तु इस तरह के कृत्यों को करते हुए हमको किसी भी तथाकथित पाप-पुण्य या मोक्ष की कामना तनिक भी मन में नहीं रखनी चाहिए .. बस यूँ ही ...

इन सब को करने की शर्तों में हमें "हमारा अपना घर" इसलिए कहना पड़ा है, क्योंकि अपने घर में कोई भी व्यक्ति कभी भी, कहीं भी अपनी सुविधा के अनुसार उपरोक्त कामों को अंज़ाम दे सकता है। किराए के मकान में मकानमालिक की सौ उचित-अनुचित पाबन्दियाँ रहती हैं। 

मेरी भी देहरादून की मकानमालकिन को पेड़-पौधे या चिड़ियाँ-गिलहरियाँ गन्दगी फ़ैलाने की वजह लगती हैं। हालांकि वह स्वयं एक पहाड़ी नस्ल की काली कुतिया पाल रखीं है। 
उनकी इन सोचों के कारण हमने घर के सामने के बिजली के खम्भे पर एक पात्र लटका कर पक्षियों के लिए दाने की व्यवस्था कर दी है और उसी 'पोल' के नीचे एक बर्त्तन में पानी। एक पड़ोसी सज्जन पुरुष से अनुमति लेकर उनकी चारदीवारी पर गिलहरियों के लिए मूँगफली के दाने नियमित रूप से परोसते हैं। प्रतिदिन उपभोग की गयी सब्जियों और फलों की अनुपयोगी कतरनों को आसपास में पाले गये गायों के लिए डाल आते हैं। आने वाले उन्मुक्त तोतों के लिए कभी-कभी मौसमी फल और गली के कुत्ते के लिए दरवाजे के बाहर सुबह-शाम सुसुम-सुसुम दूध और कभी-कभी 'रस्क' भी .. बस यूँ ही ... 

सर्वविदित है कि हमारा मानव तन ही नहीं बल्कि हर प्राणी का ही शरीर हर क्षण परिवर्तनशील है। मन भी हर पल चलायमान है। परन्तु शरीर की आयु बढ़ते रहने और मन के दौड़ते रहने के बाद भी किसी मर्तबान में सुरक्षित अचार या मुरब्बे की तरह मन के किसी कोने में बचपना ताउम्र सुरक्षित और संरक्षित रहती है। तो उसी बचपना को जीने के लिए ही सही .. इन पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदी-सागर, पहाड़-जंगल के संग-संग एक मासूम बच्चा बन जाने में हर्ज ही क्या है भला !? 
आज की यह बतकही अपनी आत्मश्लाघा के लिए कतई नहीं है, बल्कि जो लोग पहले से ऐसा कर रहे हैं उन्हें आदरपूर्वक नमन कहने एवं उनके लिए आभार प्रकट करने के लिए है और जो सक्षम लोगबाग अभी तक ऐसा नहीं सोच रहे हैं या ऐसा नहीं कर रहे हैं, उनके प्रेरणास्रोत के लिए है .. शायद ... उनमें से एक जन या एक परिवार भी इन कृत्यों के लिए उन्मुख हो जाएँ तो मेरी इस (श्रमसाध्य ?) बतकही की बर्बादी कतई नहीं होगी .. बस यूँ ही ...



बिजली के खम्भे से बंधे पात्र पे तोते, गौरैये, कबूतर 
पड़ोसी की चारदीवारी पे गिलहरियों की मूँगफलियाँ
यह पहाड़ी नस्ल का झब्बेदार गलमुच्छों वाला तथाकथित 'स्ट्रीट डॉग' है, जिसे देहरादून में मेरे वर्तमान पता के मुहल्ले वाले "जैकी" के नाम से बुलाते हैं। बहुत ही शान्त स्वभाव का है, मानो कोई वास्तविक सन्त-महात्मा .. जो हर शाम अपना प्यार जताने आ जाता है ...