मेरी अतुकान्त कविताओं की
बेतरतीब पंक्तियों में
हर बार तुम
आ ही जाती हो
अपने बिखरे बेतरतीब
महमहाते बालों की तरह
और तुम्हारी
अतुकान्त कविताओं में
अक़्सर मैं
बेतुका बिम्ब गढ़ता-सा
अपनी बेतुकी
सोचों की तरह
मानो ... कहीं पास से ही
किसी दरवेश के
दरगाह से अक़्सर
सुलगती अगरबत्तियों के
सुगन्धित धुएँ के साथ
मन्नतों के पूरी होने के बाद
चढ़ाई गई बेली-चमेली की बुनी
चादरों की लिपटी ख़ुश्बूएँ ...
बस आ ही जाती हों
बंद कमरों में भी
खुले रोशनदानों से
हवा के झोंको के साथ
मज़हबी बेमतलब की
बातों में बिना भेद किये
ऐसे में ... बोलो ना भला..
जरुरी तो नहीं कि ...
इन सुगन्धों के लिए
क़रीब जाकर उस
दरगाह की सीढ़ियों पर
बैठा ही जाए ...
बेतरतीब पंक्तियों में
हर बार तुम
आ ही जाती हो
अपने बिखरे बेतरतीब
महमहाते बालों की तरह
और तुम्हारी
अतुकान्त कविताओं में
अक़्सर मैं
बेतुका बिम्ब गढ़ता-सा
अपनी बेतुकी
सोचों की तरह
मानो ... कहीं पास से ही
किसी दरवेश के
दरगाह से अक़्सर
सुलगती अगरबत्तियों के
सुगन्धित धुएँ के साथ
मन्नतों के पूरी होने के बाद
चढ़ाई गई बेली-चमेली की बुनी
चादरों की लिपटी ख़ुश्बूएँ ...
बस आ ही जाती हों
बंद कमरों में भी
खुले रोशनदानों से
हवा के झोंको के साथ
मज़हबी बेमतलब की
बातों में बिना भेद किये
ऐसे में ... बोलो ना भला..
जरुरी तो नहीं कि ...
इन सुगन्धों के लिए
क़रीब जाकर उस
दरगाह की सीढ़ियों पर
बैठा ही जाए ...