अम्मा की लोरियों वाले
बचपन के हमारे
चन्दा मामा दूर के ...
जो पकाते थे पुए गुड़ के
यूँ तो सदा ही रहे वे पुए
ख्याली पुलाव जैसे ही बने हुए
बिल्कुल ख्याली ताउम्र हमारे लिए
थी कभी .. इसी ख्याली पुए-सी
ख्याली हमारी अपनी प्यारी आज़ादी
पर .. हमने पा ही तो ली थी
फिर भी हमारी अपनी प्यारी आज़ादी
हाँ .. हाँ .. वही आज़ादी ..
हुआ नींव पर खड़ा जिसकी
दो साल .. पांच महीने और
ग्यारह दिनों के बाद
हमारा गणतंत्र .. हाँ .. हाँ ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ...
हाँ .. वही गणतंत्र .. जिसके उत्सव के
हर्षोल्लास को दोहरी करती
मनाते हैं हम राष्ट्रीय-पर्व की छुट्टी
खाते भी हैं जलेबी और इमरती
पर .. टप्-टप् टपकती चाशनी में
इन गर्मा-गर्म जलेबियों और इमरतियों की
होती नहीं प्रतिबिम्बित कभी क्या आपको
उन शहीदों के टपकते लहू
उनके अपनों के ढलकते आँसू
यूँ ही तो मिली नहीं हमको .. आज़ादी
ना जाने कितने ही अनाम .. गुमनाम..
और नामी शहीदों के वीर शरीरों को
मशीनों में ज़ुल्मों की .. गन्ने जैसे पेरे गए ..
शहीद किए गए .. तन के संग उनके अपनों के
रस भरे रसीले सपनों को भी
बनी उसी से स्वाधीनता-संग्राम की
मीठी-सोंधी गुड़ की डली और ..
उसी डली से बनी तभी तो मीठे पुए-सी मीठी आज़ादी
हाँ .. हाँ .. वही आज़ादी
हुआ नींव पर खड़ा जिसकी
2 साल, 5 महीने और 11 दिनों बाद
हमारा गणतंत्र .. हाँ .. हाँ ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ...
असंख्य गुमनाम चीखें .. आहें ..
सिसकियाँ .. चित्कार भी ना जाने कितने
और इन्क़लाबी नारे भी शहीदों के
संग जले थे सपने भी कई उनके --
सयानी होती बेटियों को ब्याहने के सपने
सयाने होते बेटों के भविष्य के सपने
बेटे, भावी बहू, भावी पोते-पोतियों के सपने
बीमार अम्मा-बाबू जी के बुढ़ापे की
लाचारी को दूर करने के सपने
नवविवाहिता युवा पत्नी के वीरान दिनों
और सूनी रातों को गुलज़ार करने के सपने
प्रेयसी को किए गए रूमानी वादों को
अपनी बाँहों में भर कर पूरे करने के सपने ...
सब के सब .. जल गए .. सब राख हुए ..
और राख की धूसर कालिमा से
तैयार हुई साहिब ! .. काली स्याही ..
हाँ .. हाँ ... काला पानी की काली स्याही
जिस काली स्याही से साहिब !!! ..
लिखा गया हमारा संविधान
हाँ .. तभी तो .. मिला हमें
हमारा शान वाला गणतंत्र ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ..
हाँ .. हाँ .. हमारा गणतंत्र ...
बचपन के हमारे
चन्दा मामा दूर के ...
जो पकाते थे पुए गुड़ के
यूँ तो सदा ही रहे वे पुए
ख्याली पुलाव जैसे ही बने हुए
बिल्कुल ख्याली ताउम्र हमारे लिए
थी कभी .. इसी ख्याली पुए-सी
ख्याली हमारी अपनी प्यारी आज़ादी
पर .. हमने पा ही तो ली थी
फिर भी हमारी अपनी प्यारी आज़ादी
हाँ .. हाँ .. वही आज़ादी ..
हुआ नींव पर खड़ा जिसकी
दो साल .. पांच महीने और
ग्यारह दिनों के बाद
हमारा गणतंत्र .. हाँ .. हाँ ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ...
हाँ .. वही गणतंत्र .. जिसके उत्सव के
हर्षोल्लास को दोहरी करती
मनाते हैं हम राष्ट्रीय-पर्व की छुट्टी
खाते भी हैं जलेबी और इमरती
पर .. टप्-टप् टपकती चाशनी में
इन गर्मा-गर्म जलेबियों और इमरतियों की
होती नहीं प्रतिबिम्बित कभी क्या आपको
उन शहीदों के टपकते लहू
उनके अपनों के ढलकते आँसू
यूँ ही तो मिली नहीं हमको .. आज़ादी
ना जाने कितने ही अनाम .. गुमनाम..
और नामी शहीदों के वीर शरीरों को
मशीनों में ज़ुल्मों की .. गन्ने जैसे पेरे गए ..
शहीद किए गए .. तन के संग उनके अपनों के
रस भरे रसीले सपनों को भी
बनी उसी से स्वाधीनता-संग्राम की
मीठी-सोंधी गुड़ की डली और ..
उसी डली से बनी तभी तो मीठे पुए-सी मीठी आज़ादी
हाँ .. हाँ .. वही आज़ादी
हुआ नींव पर खड़ा जिसकी
2 साल, 5 महीने और 11 दिनों बाद
हमारा गणतंत्र .. हाँ .. हाँ ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ...
असंख्य गुमनाम चीखें .. आहें ..
सिसकियाँ .. चित्कार भी ना जाने कितने
और इन्क़लाबी नारे भी शहीदों के
संग जले थे सपने भी कई उनके --
सयानी होती बेटियों को ब्याहने के सपने
सयाने होते बेटों के भविष्य के सपने
बेटे, भावी बहू, भावी पोते-पोतियों के सपने
बीमार अम्मा-बाबू जी के बुढ़ापे की
लाचारी को दूर करने के सपने
नवविवाहिता युवा पत्नी के वीरान दिनों
और सूनी रातों को गुलज़ार करने के सपने
प्रेयसी को किए गए रूमानी वादों को
अपनी बाँहों में भर कर पूरे करने के सपने ...
सब के सब .. जल गए .. सब राख हुए ..
और राख की धूसर कालिमा से
तैयार हुई साहिब ! .. काली स्याही ..
हाँ .. हाँ ... काला पानी की काली स्याही
जिस काली स्याही से साहिब !!! ..
लिखा गया हमारा संविधान
हाँ .. तभी तो .. मिला हमें
हमारा शान वाला गणतंत्र ..
हमारा प्यारा गणतंत्र ..
हाँ .. हाँ .. हमारा गणतंत्र ...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 25 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ...
Deleteयूँ ही तो मिली नहीं हमको .. आज़ादी
ReplyDeleteना जाने कितने ही अनाम .. गुमनाम..
और नामी शहीदों के वीर शरीरों को
मशीनों में ज़ुल्मों की .. गन्ने जैसे पेरे गए ..
शहीद किए गए .. तन के संग उनके अपनों के
रस भरे रसीले सपनों को भी
बनी उसी से स्वाधीनता-संग्राम की
मीठी-सोंधी गुड़ की डली और ..
उसी डली से बनी तभी तो मीठे पुए-सी मीठी आज़ादी
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति,सुबोध भाई।
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं।
जी! ज्योति बहन ! आभार आपका ...
Deleteआपके इस लिंक की चर्चा आज के शब्द सृजन में
ReplyDeleteचर्चा मंच पर भी है।
जी ! गुहार सुनने के लिए शुक्रिया आपका ...
Deleteबहुत ही सुंदर भाव संजोये बेहतरीन रचना । गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं आदरणीय
ReplyDeleteआभार आपका ...
Deleteबहुत सुंदर रचना। गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteआभार आपका ...
Deleteअसंख्य गुमनाम चीखें .. आहें ..
ReplyDeleteसिसकियाँ .. चित्कार भी ना जाने कितने
गणतंत्र दिवस की खुशियों के बीच ये सिसकियाँ भी सुनाई देती हैं और देनी भी चाहिए ताकि हमें याद रहे अपनी आजादी की कीमत
लाजबाब सृजन ,गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
आपका आभार ...
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 15 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ... एक पुरानी मौन पड़ी बतकही को वर्तमान की वाणी देने के लिए ... 🙏🙏🙏
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