Tuesday, June 9, 2020

तनिक चीखो ना ! ...

ऐ आम औरतों ! .. एक अलग वर्ग-विशेष की ..
फ़ुर्सत के पलों में बैठ कर, अक़्सर तुम औरतों के गोल में हो बतियाती
और .. ऐ संभ्रांत महिलाओं ! .. कुछ ख़ास वर्ग-विशेष की ..
समय निकाल कर कविताओं या कहानियों के भूगोल में हो छेड़ती,
मन मसोसती .. बातें बारहा आर्थिक ग़ुलामी की अपनी ..
या बातें बचपन से लगाई गई या .. ताउम्र लगाई जाने वाली
पुरुषों की तुलना में तुम पर कुछ ज्यादा ही पाबंदियों की भी।
पर .. करती क्यों नहीं बातें खुल के कभी शारीरिक ग़ुलामी की
और बातें अपनी मानसिक ग़ुलामी की भी ? ..
आ-खि-र क्यों न-हीं ? ...
इसलिए कि .. लोगबाग बोलेंगे शायद .. इसे बात गन्दी ?
या फिर उठेंगे अनगिनत सवालात गरिमा पर ही तुम्हारी ?

भारत है ये ..  और हैं भारत के एक स्वतन्त्र नागरिक हम सभी
भारत के संविधान ने दे रखी है हमें बोलने की आज़ादी।
तो बोलती क्यों नही तुम कि .. तुम जीती हो ताउम्र बनकर हिस्सा भर,
सेक्स-सर्वेक्षण के आंकड़े का किसी राष्ट्रीय पत्रिका की, कि ..
"चरम-सुख को 60 से 70% भारतीय महिलायें जानती ही नहीं ? "
जबकि पहली रात से ही .. हर रात .. दिन भर की थकी-हारी,
बिस्तर पर हो झेलती और होती जाती हो आदी-सी
किसी भी तम्बाकू की दुर्गन्ध की ..  मुँह से उनके जो है आती ..
चाहे वो सिगरेट की हो या फिर खैनी की,
या फिर अल्कोहल की दुर्गन्ध .. हो चाहे देशी की या हो विदेशी की।
कहीं-कहीं तो वर्गानुसार केंदू के पत्ते से बनी बीड़ियों की भी
या फिर मौसमानुसार बजबजाती किण्वित नीरा रस* की।

भले ही की गई हो नाकाम कोशिश उनकी कभी-कभी,
किसी रात झाग वाले या किसी नमक वाले 'टूथपेस्ट' से या फिर
कभी 'मिंट' की गोलियों या 'च्युइंगम' से उन दुर्गन्धों को दबाने की।
फिर भी वो गंधाती है .. बदतर किसी पायरिया वाले दाँतों से भी।
इतना ही नहीं .. फिर उस सुहाग के स्खलनोपरांत,
रह जाती हो जागती .. अलसायी आँखों से निहारती,
खर्राटे भरते उनके खुलते-बंद होते मुँह को .. रात सारी की सारी
चिपकायी हुई मन में एक आस .. कसमसाते चरम-सुख की।

जिन सुहाग के नाम पर .. या धर्म के नाम पर तुम ..
अक़्सर उपवास हो करती .. भूख और प्यास हो त्यागती,
प्रतीक मानसिक ग़ुलामी का .. हो रोज माँग में टहटह चमकाती।
फिर भी जब .. उन पर कोई फ़र्क पड़ता ही नहीं,
भले ही हो इन नशाओं के बोतलों और पैकटों पर
मोटे-मोटे अक्षरों में लाख चिपकायी या लिखी,
कोई भी .. कैसी भी .. संवैधानिक चेतावनी।
तो भला ऐसे में अंतर क्या पड़ना है तुम पर भी,
बोलने वाली आज़ादी की .. भारतीय संविधान वाली।

सुन रखा है तुमने भी शायद बचपन से ही पुरखों की कही हुई, कि ...
"विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिये,
 जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये।"
या ... जिन्दा हो मौन ये मान कर कि ..
"विधि -विधान किसी के मिटाए मिटता नहीं " ही है तुम्हारी नियति।
इन सब से इतर प्रताड़ित जीवन, आज भी कहीं-कहीं डायनों की ..
और ठिकाना गणिकाओं की, है बस्ती से दूर आज भी बसी  ..
कैसे मान लें हम फिर भी कि .. हमने चाँद तक की है यात्रा की,
और मंगल पर भी जाने में है कामयाबी हासिल कर ली।
कुछ बोलो ना! .. मुँह खोलो ना ! .. ओ री बावरी ! ...
खुद को देखो ना ! .. तनिक चीखो ना ! .. अब तो जाग री ! ...
तोड़ कर चुप्पी अपनी .. कु-छ भी क्यों न-हीं हो बो-ल-ती ?

( * - किण्वित नीरा रस - Fermented Toddy Palm Juice - Palm Wine - ताड़ी .)


12 comments:

  1. मध्ययुगीन संस्कारों का सही चित्रण। यह न तो उस युग का सत्य है, जिस काल का इस कविता के साथ संलग्न भित्ति चित्र (स्वयंसिद्ध) है: और, न ही, सूचना क्रांति के इस नवीन प्रहार का! मध्ययुगीन यथार्थ आधुनिकता की चौखट पर कल्पना के अवशेष-से भहराकर बिखरे हुए हैं जिन्हें कवि ने बड़ी तन्मयता से सहेजा है। आभार!

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    1. जी ! आभार आपका धैर्यपूर्वक रचना/विचार को अपना समय देने के लिए ... दरअसल कविता के साथ संलग्न भित्ति चित्र का बेमेल होना, मेरी वजह से है, बस यूँ ही ... महिला के लिए प्रतीकात्मक लगा दिया था, कारण मैं अपनी रचना के साथ अपनी ही क्लिक की हुई चित्र चिपकाता हूँ, चाहे उस क्लिक का स्रोत जो भी हो। मैंने फोन को हैंग होने से बचाने के लिए अभी हाल ही में अपनी गैलरी को एक पेन ड्राइव में उड़ेल दिया था, और समय लार वो पेन ड्राइव मिल नहीं पा रहा था तो हड़बड़ी में एक पुराना स्क्रीन शॉट चिपका दिया।
      वैसे युगों के अनुसार महिलाओं को लेकर आपकी विचारधारा का मैं आदर करता हूँ, पर अपना पक्ष भी रखना चाहूँगा कि ..
      1) राष्ट्रीय पत्रिका का सर्वेक्षण ज्यादा पुराना नहीं हैं। 2) अब शराब, सिगरेट, खैनी, बीड़ी, ताड़ी बिकनी या पीनी बंद नहीं हो गई है। 3) अब इन नशाओं ने दुर्गन्ध देना बंद नहीं कर दिया है या इस से मुँह महकना बंद नहीं हो गया है। 4) अब एकतरफा सुहाग के नाम पर माँग रंगना, उपवास रखना बन्द नहीं हुआ है।
      वैसे भी मैंने "वर्ग-विशेष" विशेषण का इस्तेमाल किया है ...

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  2. वाह!!बहुत खूब!सुबोध जी ..युग चाहे जो रहा है ..नारी का हाल यही है चाहे आधुनिकता का आवरण ओढे आज की नारी हो या प्राचीन या मध्यकाल ।
    इसका उपाय स्वयं नारी को ही करना होगा ,मुँह खोलना ही होगा और मुझे ऐसा लग रहा है कि वर्तमान युवा पीढी की नारी धीरे-धीरे इस प्रयास में जुटी हैं ..।

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    1. जी ! आभार आपका धैर्यपूर्वक रचना/विचार को अपना समय और अपनी सहमति देने के लिए ...

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 09 जून जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-06-2020) को  "वक़्त बदलेगा"  (चर्चा अंक-3728)    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. जी ! आभार आपका धैर्यपूर्वक रचना/विचार को अपना समय देने के लिए ... आपकी क्या किसी की भी बात से असहमति नहीं जताता मैं, बल्कि अपना पक्ष/विचार रखता भर हूँ, सबकी अपनी-अपनी नजरिया है, तभी दुनिया रंगीन है ...
      पर महोदया, मैंने "वर्ग-विशेष" चिपकाया है और वैसे भी मैं बात भारत के कुछ वर्ग-विशेष की कर रहा हूँ, न कि केलिफ़ोर्निया की ... जमीनी तौर पर आज भी ये विवशता मन मसोस कर कपसती हैं .. शायद ...

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  6. अब परिस्थितियाँ काफी बदल चुकी हैं, बहुत सुंदर प्रस्तुति आदरणीय

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    1. जी ! आभार आपका धैर्यपूर्वक रचना/विचार को अपना समय देने के लिए ... आपकी क्या किसी की भी बात से असहमति नहीं जताता मैं, बल्कि अपना पक्ष/विचार रखता भर हूँ, सबकी अपनी-अपनी नजरिया है, तभी दुनिया रंगीन है ...पर 1) राष्ट्रीय पत्रिका का सर्वेक्षण ज्यादा पुराना नहीं हैं। 2) अब शराब, सिगरेट, खैनी, बीड़ी, ताड़ी बिकनी या पीनी बंद नहीं हो गई है। 3) अब इन नशाओं ने दुर्गन्ध देना बंद नहीं कर दिया है या इस से मुँह महकना बंद नहीं हो गया है। 4) अब एकतरफा सुहाग के नाम पर माँग रंगना, उपवास रखना बन्द नहीं हुआ है।
      वैसे भी मैंने "वर्ग-विशेष" विशेषण का इस्तेमाल किया है ...

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