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Saturday, January 4, 2025

कहाँ बुझे तन की तपन ... (३)


गत बतकही "कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)" और ... "कहाँ बुझे तन की तपन ... (२)" के अंतर्गत "बाल कवि बैरागी" जी एवं "वर्मा मलिक" जी के बारे में कुछ-कुछ जानने के पश्चात आज .. इस "कहाँ बुझे तन की तपन ... (३)" में एक अन्य अद्भुत रचनाकार के बारे में अपनी बतकही के साथ पुनः उपस्थित ...

जिनका आज ही के दिन सौ साल पहले .. यानी सन् 1925 ईस्वी में 4 जनवरी को यमुना और चंबल नदियों के संगम पर बसे वर्तमान उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में जन्म हुआ था। ये वही इटावा है, जहाँ से 1925 में ही अंग्रेजों के विरोध में घटित तत्कालीन "काकोरी षड्यंत्र कांड" के संदर्भ में स्वतन्त्रता सेनानी "ज्योति शंकर दीक्षित" जी को गिरफ्तार करने के बाद, फिर रिहा भी कर दिया गया था।

वह महान रचनाकार अपनी लगभग छः वर्ष की आयु में ही पितृहीन होने के बावज़ूद भी 'हाई स्कूल' की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे। फिर जीवकोपार्जन के लिए कचहरी में टंकक यानी 'टायपिस्ट' के काम की शुरुआत करने के बाद एक सिनेमाघर की दुकान पर नौकरी किए। फिर दिल्ली के सफाई विभाग में 'टायपिस्ट' की नौकरी किए। उसके बाद कानपुर के डी०ए०वी कॉलेज में किरानी बने। फिर एक 'प्राइवेट कम्पनी' में लगभग पाँच साल तक पुनः 'टायपिस्ट' का काम किए। जीवकोपार्जन वाली इन सब विभिन्न नौकरियों के साथ-साथ वह 'प्राइवेट' परीक्षाएँ देकर इण्टरमीडिएट, बी०ए० और हिन्दी साहित्य के साथ प्रथम श्रेणी में एम०ए० भी किए। 

मेरठ के मेरठ कॉलेज में हिन्दी व्याख्याता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन किए। जहाँ कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएँ न लेने और रोमांस करने के लांछन लगाए गए। जिस कारणवश वह नौकरी से त्यागपत्र दे दिए। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त किए गए थे।

वह हिन्दी साहित्यकार, शिक्षक, कवि सम्मेलनों के लोकप्रिय मंचीय कवि एवं फ़िल्मी गीतकार भी थे। माना जाता है , कि शिक्षा व साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री और पद्म भूषण से भी सम्मानित किए जाने वाले वह पहले व्यक्ति थे। फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के कारण उनके गीतों को 1970 से 1972 तक लगातार तीन सालों तक हर बार "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" के लिए नामांकित किया तो गया था , परन्तु 1970 में उन्हें यह पुरस्कार मिला था। 

उन गीतों के मुखड़े कुछ यूँ हैं : -

(१) 1970 में फ़िल्म - "चंदा और बिजली" के लिए -

      काल का पहिया घूमे भैया, लाख तरह इंसान चले,

      ले के चले बारात कभी तो, कभी बिना सामान चले ... 

इस गीत के एक अंतरा की एक पंक्ति कितनी प्रायोगिक है, कि - "कर्म अगर अच्छा है तेरा, क़िस्मत तेरी दासी है" ...

 (२) 1971 में फ़िल्म - "पहचान" के लिए -

       बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ,

       आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ ... 

इसके तो सभी अंतरे आज भी उतने ही अर्थपूर्ण लगते हैं, जैसे कि -       "एक खिलौना बन गया दुनिया के मेले में

               कोई खेले भीड़ में कोई अकेले में

               मुस्कुरा कर भेंट हर स्वीकार करता हूँ

               आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ   ...

और दूसरा -

             मैं बसाना चाहता हूँ स्वर्ग धरती पर

             आदमी जिस में रहे, बस आदमी बनकर

             उस नगर की हर गली तैयार करता हूँ

             आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ   ...

और ये भी , कि -

           हूँ बहुत नादान, करता हूँ ये नादानी

           बेच कर खुशियाँ, खरीदूँ आँख का पानी

           हाथ खाली हैं, मगर व्यापार करता हूँ

           आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ   ...

  (३) 1972 में फ़िल्म - "मेरा नाम जोकर" के लिए -

        ऐ भाई ! ज़रा देख के चलो ,

        आगे ही नहीं, पीछे भी, दाएँ ही नहीं बाएं भी,

        ऊपर ही नहीं नीचे भी, ऐ भाई !

उपरोक्त गीत के दो निम्न अंतरों ने तो मानो .. जैसे .. दुनियादारी की गीता या यूँ कहें कि 'इन्साइक्लोपीडिया' यानी विश्वकोश ही रच डाली है -

       क्या है करिश्मा, कैसा खिलवाड़ है 

       जानवर आदमी से ज़्यादा वफ़ादार है 

       खाता है कोड़ा भी, रहता है भूखा भी 

       फिर भी वो मालिक पे करता नहीं वार है 

       और इंसान ये, माल जिसका खाता है 

       प्यार जिस से पाता है, गीत जिस के गाता है 

       उसी के ही सीने में भोकता कटार है

       कहिए श्रीमान आपका क्या विचार है ?

और दूसरा अंतरा ये है, कि -

      हाँ बाबू ये सर्कस है और ये सर्कस है शो तीन घंटे का   

      पहला घंटा बचपन है,दूसरा जवानी है, तीसरा बुढ़ापा है  

      और उसके बाद,माँ नहीं, बाप नहीं,बेटा नहीं बेटी नहीं 

      तू नहीं, मैं नहीं, ये नहीं, वो नहीं कुछ भी नहीं 

      कुछ भी नहीं रहता है, रहता है जो कुछ वो 

      ख़ाली-ख़ाली कुर्सियाँ हैं, ख़ाली-ख़ाली तम्बू है 

      ख़ाली-ख़ाली घेरा है, बिना चिड़िया का बसेरा है 

      न तेरा है, न मेरा है .."

जी हाँ बाबू ! .. ऐसी अर्थपूर्ण रचनाओं के रचनाकार थे / हैं ...  गोपालदास सक्सेना जी, जिन्हें हम सभी  "नीरज" या गोपालदास 'नीरज' के नाम से जानते हैं, सुनते हैं। इस नामचीन कवि की कई लोकप्रिय कविताओं को हम सभी ने पढ़ा- देखा- सुना है।

पर उन सबसे इतर .. चलते-चलते उनके एक रुमानियत की चाशनी में पगे पहाड़ी राग पर आधारित उस गीत को सुनते हैं ; जिसमें उनकी अलग ही शोख़ी भरी सोच और अलबेले बिम्ब वाले रूप देखने- सुनने के लिए मिलते हैं। जिसे 1970 में देवानन्द के निर्देशन में बन कर आयी फ़िल्म - "प्रेम पुजारी" के लिए "नीरज" जी ने लिखा था। संगीत था सचिन देव बर्मन जी का और आवाज़ थी किशोर कुमार की। गीत का मुखड़ा है - 

" लेना होगा जनम हमें, कई कई बार ~~"

यूँ तो गीत की शुरुआत निम्नलिखित पँक्तियों से होने कारण इसके ही मुखड़े होने का भान होता है -

" फूलो के रंग से, दिल की कलम से 

   तुझको लिखी रोज पाती ~~

   कैसे बताऊँ किस-किस तरह से 

   पल-पल मुझे तू सताती ~~ "

आगे तो सारे अंतराओं के सारे बिम्ब अनूठे और ग़ौरतलब हैं .. शायद ... ख़ासकर .. गीत सुनने वालों के लिए नहीं भी हो तो, कम से कम गीत में डूबने वालों के लिए तो है ही .. मसलन -

तेरे ही सपने, लेकर के सोया

तेरी ही यादों में जागा

तेरे ख़्यालों में उलझा रहा यूँ

जैसे के माला में धागा


हाँ, बादल बिजली चंदन पानी जैसा अपना प्यार

लेना होगा जनम हमें, कई कई बार

हाँ, इतना मदिर, इतना मधुर तेरा मेरा प्यार

लेना होगा जनम हमें, कई कई बार


साँसों की सरगम, धड़कन की वीणा, 

सपनों की गीताँजली तू

मन की गली में, महके जो हरदम,  

ऐसी जुही की कली तू

छोटा सफ़र हो, लम्बा सफ़र हो, 

सूनी डगर हो या मेला

याद तू आए, मन हो जाए, भीड़ के बीच अकेला

हाँ, बादल बिजली, चंदन पानी जैसा अपना प्यार

लेना होगा जनम हमें, कई कई बार


पूरब हो पच्छिम, उत्तर हो दक्खिन, 

तू हर जगह मुस्कुराए

जितना भी जाऊँ, मैं दूर तुझसे, 

उतनी ही तू पास आए

आँधी ने रोका, पानी ने टोका, 

दुनिया ने हँस कर पुकारा

तसवीर तेरी, लेकिन लिये मैं, कर आया सबसे किनारा

हाँ, बादल बिजली, चंदन पानी जैसा अपना प्यार

लेना होगा जनम हमें, कई कई बार


हाँ, इतना मदिर, इतना मधुर तेरा मेरा प्यार

लेना होगा जनम हमें, कई कई बार

कई, कई बार ~~ कई, कई बार ~~~



Thursday, December 12, 2024

कहाँ बुझे तन की तपन ... (२)


आज की बतकही से परे :- 

आज की बतकही शुरू करने से पहले .. अगर सम्भव हो, तो .. दो मिनट का औपचारिक ही सही .. श्रद्धांजलि स्वरुप स्वाभाविक नम आँखों के साथ खड़े होकर मौन धारण कर लें हम सभी .. "अतुल सुभाष" के लिए ; क्योंकि हम और हमारे तथाकथित समाज के तथाकथित बुद्धिजीवियों को समाज की ऐसी विसंगतियों के विरोध में अपने आक्रोश के साथ चीखने की फ़ुर्सत तो है ही नहीं ना .. शायद ...

आज की बतकही :-

गत बतकही "कहाँ बुझे तन की तपन ... (१)" के अंतर्गत बाल कवि बैरागी जी के रूमानी शब्दों को कमायचा जैसे राजस्थानी लोक वाद्य यंत्र की आवाज़ के साथ फ़िल्मी गीत के रूप में सुन कर रोमांच- रोमांस से झंकृत- तरंगित होने के पश्चात आज .. इस "कहाँ बुझे तन की तपन ... (२)" में एक अन्य विलक्षण प्रतिभा वाले अद्भुत रचनाकार के बारे में अपनी बतकही के साथ पुनः उपस्थित ...

प्रसंगवश .. एक तरफ़ .. हम प्रायः देखते हैं , कि हर वर्ष साप्ताहिक या पाक्षिक मनाए जाने वाले हिंदी दिवस के पक्षधर और पुरोधा बने फिरने वाले बहुसंख्यक हिंदी भाषी बुद्धिजीवी गण भी .. अपनी दिनचर्या वाली बोलचाल की भाषा- बोली में अन्य भाषाओं के शब्दों का धड़ल्ले से किए गए घालमेल के बिना तो वार्तालाप कर ही नहीं पाते हैं और .. सर्वविदित भी है, कि अन्य भाषाओं के घालमेल किए गए वो सारे के सारे शब्द प्रायः यहाँ बलपूर्वक आए आक्रांताओं या उनमें से कई छल-बलपूर्वक बन बैठे आक्रांता शासकों की भाषाओं से ही प्रभावित होते रहे हैं .. शायद ...

दूसरी तरफ़ .. कुछेक भजनों एवं दोहे-चौपाइयों को छोड़ कर हिंदी फ़िल्मी दुनिया के अधिकांश गीतों के सृजन की कल्पना बिना उर्दू शब्दों के करना .. किसी शहरी 'मॉल' के प्रांगण में जुगनुओं की चमक दिख जाने की कल्पना करने जैसी ही है .. शायद ...

परन्तु .. उपरोक्त विषम परिस्थितियों में भी अगर कोई विलक्षण प्रतिभा विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन से एक कालजयी फ़िल्मी गीत रच जाए और वो भी .. पंजाबी व उर्दू भाषी होने के साथ- साथ पंजाबी फ़िल्मों का एक सफल गीतकार होने के बावजूद। जिनको तब हिंदी लिखने तक नहीं आती थी, तो उन्होंने हिंदी भाषा को बहुत ही तन्मयता के साथ सीख कर आत्मसात किया था। उनकी उस तन्मयता के बारे में उनके उस विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन वाले फ़िल्मी गीत को सुनने से पता चलता है। तब तो .. ऐसे में उन्हें मन से नमन करने में कोताही बरतनी उस रचनाधर्मिता का अनादर ही होगा .. शायद ...

विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन से सजे उस कालजयी फ़िल्मी गीत को हम इस बतकही के अंत में सुनेंगे भी। उससे पहले उनकी और भी अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धियों का अवलोकन कर लेते हैं। वैसे भी तो प्रायः .. साहित्यिक क्षेत्र के कई पुरोधा गण फ़िल्मी गीतकार को एक साहित्यकार मानते ही नहीं हैं , जबकि किसी भी गीत या भजन का सृजन भी किसी रचनाकार के मानसिक- हार्दिक गर्भ से जन्मी एक कविता से ही होता है .. शायद ...

अंग्रेज़ों के शासनकाल में जन्में .. बहुत कम उम्र में ही स्कूल की पढ़ाई के दौरान तत्कालीन स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी गीत लिखकर .. वह कांग्रेस के जलसों और सभाओं में उन्हें सुनाते- सुनाते कांग्रेस पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए थे। नतीजतन अंग्रेज़ी सिपाहियों द्वारा गिरफ़्तार कर के उन्हें कारावास में रखा तो गया था , परन्तु उनकी कम उम्र होने के कारण उन्हें जल्द ही रिहाई भी मिल गयी थी।

उन दिनों स्वतंत्रता दिवस वाले विभत्स विभाजन ने उन्हें अत्यंत मर्माहत किया था। परन्तु कुछ ही दिनों बाद अपने जीविकोपार्जन के लिए मुम्बई (तत्कालीन बम्बई) आने के बाद उनके क्रांतिकारी विचारों वाले तेवर ने सामाजिक सरोकार वाली विचारधाराओं से सिक्त होकर एक ऐसे गीत का सृजन किया, कि उनके उस गीत को इंदिरा गाँधी वाली कांग्रेस सरकार की ओर से .. तत्कालीन तथाकथित स्वतन्त्र भारत में भी कुछ दिनों की पाबंदी झेलनी पड़ी थी। 

जबकि कांग्रेस सरकार ने ही पहले "गरीबी हटाओ" और "रोटी, कपड़ा और मकान" का नारा दिया था। परन्तु .. कुछ ही माह बाद देश में कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल लागू करने और फ़िल्म "किस्सा कुर्सी का" की 'रील' जलाने जैसे दुःसाहस भरे कृत्यों वाले कलंक का टीका उस सरकार के माथे पर सुशोभित हुआ था। फ़िल्म "रोटी, कपड़ा और मकान" का सामाजिक सरोकार वाला वह गीत आपको भी याद होगा ही .. शायद ... 

जिसका एक अंतरा कुछ यूँ था, कि ...

" एक हमें आँख की लड़ाई मार गई 

  दूसरी तो यार की जुदाई मार गई 

  तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई 

  चौथी ये ख़ुदा की ख़ुदाई मार गई 

  बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई .. " 

इस गीत के मुखड़े के साथ-साथ इसके हर अंतरे में तत्कालीन महंगाई की पीड़ा सिसकती नज़र आती है .. शायद ...

भले ही कभी .. या आज भी समाज शास्त्र के पाठ्यक्रम के अनुसार मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ रोटी, कपड़ा और मकान है, परन्तु .. इसके बावजूद परोक्ष रूप से आज की मूलभूत आवश्यकताएँ 'मोबाइल' , 'नेट' और 'सोशल मीडिया' हो गयीं हैं .. शायद ...

किसी भी अमीर या ग़रीब के बेटे- बेटियों की पारम्परिक शादी- विवाह के दरम्यान उनकी बारात व विदाई के अवसर पर इनकी लिखी रचनाओं पर आधारित गीतों का बजना .. आज भी वहाँ उपस्थित लोगों को क्रमशः झुमा और रुला देता है .. बस यूँ ही ...

पारम्परिक बारात के समय झुमाने वाला गीत -

" आज मेरे यार कि शादी है .. आज मेरे यार कि शादी है

   अमीर से होती है , गरीब से होती है

   दूर से होती है , क़रीब से होती है

   मगर जहाँ भी होती है, ऐ मेरे दोस्त !

   शादियाँ तो नसीब से होती है ...

  आज मेरे यार कि शादी है .. आज मेरे यार कि शादी है "

और विदाई के वक्त शिद्दत से रुलाने वाले उस गीत का एक अंतरा -

" सूनी पड़ी भैया की हवेली

  व्याकुल बहना रह गई अकेली

  जिन संग नाची, जिन संग खेली

  छूट गई वो सखी सहेली

  अब न देरी लगाओ कहार

  पिया मिलन की रुत आई

  चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई ..."

प्रत्येक वर्ष "फ़िल्मफ़ेयर" अंग्रेज़ी पत्रिका की ओर से भारतीय सिनेमा को सम्मानित करने वाले प्रायोजित "फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार समारोह" के तहत गत सत्तर वर्षों से दिए जाने वाले कई श्रेणियों के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में से एक - "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" उन्हें दो- दो बार अलग- अलग वर्षों में मिला था।

एक "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" तो 1971 में "पहचान" फ़िल्म के एक गीत के लिए , जिसका एक अंतरा निम्न है -

" धर्म- कर्म, सभ्यता- मर्यादा, नज़र ना आई मुझे कहीं

  गीता ज्ञान की बातें देखो, आज किसी को याद नहीं

  माफ़ मुझे कर देना भाइयों, झूठ नहीं मैं बोलूंगा

  वही कहूँगा आपसे, जो गीता से मिला है ज्ञान मुझे

  कौन- कौन कितने पानी में, सबकी है पहचान मुझे

  सबसे बड़ा नादान वही है, जो समझे नादान मुझे ..."

और दूसरा "सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार" 1973 में "बेईमान" फ़िल्म के एक गीत के लिए मिला था , जिसका एक अंतरा है -

" बेईमान के बिना मात्रा होते अक्षर चार

  ब से बदकारी, ई से ईर्ष्या, म से बने मक्कार

  न से नमक हराम समझो हो गए पूरे चार

  चार गुनाह मिल जाएँ होता बेईमान तैयार

  अरे उससे आँख मिलाए, क्या हिम्मत है शैतान की

  जय बोलो बेईमान की , जय बोलो , ओ बोलो !

  जय बोलो बेईमान की, जय बोलो ..."

हालांकि काका हाथरसी जी की एक कालजयी रचना के शीर्षक - "जय बोलो बेईमान की" से इस गीत के मुखड़ा का प्रेरित होने का भान तो होता है , परन्तु इन दोनों रचनाओं के अंतराओं में बहुत ही अंतर है। 

अंग्रेज़ शासित भारतवर्ष में तत्कालीन पंजाब जिले के फ़िरोज़पुर में 13 अप्रैल 1925 को उन महान रचनाकार - "बरकत राय मलिक" का जन्म हुआ था , जो बाद में हिंदी फ़िल्मी दुनिया में अग्रसर होने के पश्चात अपने स्वजनों की राय पर अपना नाम "वर्मा मलिक" रख लिए थे। वह एक क्रांतिकारी विचारों वाले रचनाकार थे। वैसे भी फ़िरोज़पुर को "शहीदों की धरती" भी कहते हैं , जो तथाकथित स्वतंत्रता दिवस के दिन हुए विभत्स विभाजन के दौरान पाकिस्तान में शामिल होने के बजाय, बच कर .. नेहरू जी के प्रयास से भारत में ही रह गया था। 

उनके लिखे तमाम फ़िल्मी गीतों की लम्बी फ़ेहरिस्त में से कुछ मनमोहक गीतें निम्नलिखित हैं -

(१)

" बस्ती बस्ती नगरी नगरी, कह दो गाँव-गाँव में,

  कल तक थे जो सिर पर चढ़े, वो आज पड़े हैं पाँव में …"

(२)

" अरे हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी,

  मुझे पल-पल है तड़पाए, तेरी दो टकियाँ दी नौकरी, 

  वे ~ मेरा लाखों का सावन जाए …"

(३)

" तेरे संग प्यार मैं नहीं तोड़ना,

  चाहे तेरे पीछे जग पड़े छोड़ना …"

(४)

" पंडितजी मेरे मरने के बाद, बस इतना कष्ट उठा लेना,

  मेरे मुँह में गंगाजल की जगह, थोड़ी मदिरा टपका देना…"

(५)

" एक तारा बोले तुन तुन, क्या कहे ये तुमसे सुन सुन,

  बात है लम्बी मतलब गोल, खोल न दे ये सबकी पोल,

  तो फिर उसके बाद, एक तारा बोले, तुन तुन … "

(६)

" ओ, मेरे प्यार की उमर हो इतनी सनम,

  तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम पे ख़त्म… "

(७)

" मैंने होठों से लगाई तो, हंगामा हो गया,

  मुझे यार ने पिलायी तो हंगामा हो गया ..."

(८)

" आय .. हाय ...

  कान में झुमका, चाल में ठुमका, कमर पे चोटी लटके,

  हो गया दिल का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा, लगे पचासी झटके,

  हो~~ तेरा रंग है नशीला, अंग-अंग है नशीला ... "

सबसे क़माल की बात तो ये है, कि सम्भवतः ये पहले ही गीतकार / रचनाकार रहे होंगे, जिन्होंने "कान में झुमका, चाल में ठुमका... " वाले अपने रूमानी मनचले-से फ़िल्मी गीत में "दिल के टुकड़े- टुकड़े" कहने के लिए .. "दिल का पुर्ज़ा- पुर्ज़ा " शब्द को पहली दफ़ा व्यवहार में लाया होगा .. शायद ...

पर .. एक सबसे दुःखद बात तो ये है , कि उनकी इतनी सारी विलक्षण प्रतिभाओं के बाद भी .. जब चौरासी वर्ष की आयु में 2009 में उनका निधन हुआ था , तो उन्हें कहीं भी 'मीडिया' में स्थान नहीं मिला था। मगर वहीं किसी 'वायरल' "...(?)... चौधरी" जैसी फुहड़ नृत्यांगना की मृत्यु हो जाए, तो वही 'मीडिया' अपनी तथाकथित 'टीआरपी' के लिए सारा दिन उसे दिखलाती रहेगी। यही है हमारे तथाकथित समाज और तथाकथित 'मीडिया' का मानसिक स्तर .. शायद ... 

ख़ैर ! .. जो अपने वश में नहीं, उनका कैसा शोक मनाना भला .. आइए उन महान हस्ती के मानसिक- हार्दिक गर्भ से जन्मी विशुद्ध हिंदी शब्दों के संयोजन वाली उस कविता को एक कालजयी फ़िल्मी गीत के तौर पर .. लगभग तिरपन साल पुराने इस गीत के मुखड़े एवं इसके एक- एक अंतरा को मिलकर ध्यानपूर्वक सुनते हैं और उनमें अन्य भाषाओं के कोई भी एक शब्द तलाशने का प्रयास करते हैं .. जो शायद है ही नहीं इसमें .. तो .. तन्मयता के साथ सुनिए .. वर्मा मलिक जी के शब्दों को .. बस यूँ ही ...

इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "कहाँ बुझे तन की तपन ... (३) में साझा करने का प्रयास करेंगे और .. ऐसी ही एक अन्य विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा को जानेंगे- सुनेंगे .. बस यूँ ही ...