समाज के बुद्धिजीवियों का दकियानूसी वर्ग प्रायः समाज के हर सकारात्मक बदलाव को ऊटपटाँग मान कर या तो नकारने का भरसक प्रयास करता है या तो फिर कम से कम उसकी आलोचना करने भर से तो नहीं चूकता है। ऐसे में तथ्यपरक घटनाओं के लिए भी तथ्यहीन छिद्रान्वेषण करके स्वयं का और दकियानूसी वर्ग के लिए भी तुष्टिकरण का ही तथाकथित पुनीत कार्य करता है .. साथ ही वह बेशक़ .. ऊटपटाँग औचित्यहीन दकियानूसी अंधपरम्पराओं को सिर माथे पर चढ़ाए, उसके क़सीदे पढ़ने में मशग़ूल रहता है .. शायद ...
दूसरी ओर इसी समाज के कुछेक बुद्धिजीवियों का वर्ग अपनी क्रांतिकारी विचारधारा के तहत समाज को यथोचित सकारात्मक राह की ओर मोड़ने की ख़ातिर कुछ ना कुछ अच्छा करके या यूँ कहें कि .. कुछ बेहतर करके समाज के सामने एक आदमकद दर्पण रख देता है, ताकि जिनमें उसी समाज के दकियानूसी सोच वालों को अपने अट्टहास करते हुए घिनौने और क्रूर मुखड़े की झलक भर दिख जाए .. शायद ...
ऐसी ही एक सकारात्मक क्रांतिकारी पहल वाली सच्ची घटना को, जो उत्तराखंड जैसे अंधपरम्पराओं और रूढ़ीवादी रीति-रिवाजों वाले राज्य में भी काशीपुर के जितेन्द्र भट्ट नाम के एक संगीत शिक्षक ने अपनी बेटी रागिनी की पहली माहवारी शुरू होने पर इसी वर्ष अभी हाल ही में किसी जन्मदिन के समान ही उत्सव का आयोजन किया था और जिसे हमने अपनी बतकही से भरी अपनी "साप्ताहिक धारावाहिक पुंश्चली के चौथे भाग" में गूँथ कर परोसने का प्रयास भर किया था .. बस यूँ ही ...
आज ऐसी ही एक सकारात्मक क्रांतिकारी पहल वाली सच्ची घटना की चर्चा अपनी आज की बतकही में कर के हम उन क्रांतिकारी विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों के वर्ग की सराहना करने का प्रयास भर कर रहे हैं .. शायद ...
दरअसल अभी कल ही 'सोशल मीडिया' के माध्यम से सप्रमाण हमारे संज्ञान में आया कि भारत भर में सर्वाधिक आदिवासियों की जनसंख्या वाले राज्य- मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में, जहाँ वर्ष 1984 में इसी दिसम्बर माह के दो-तीन तारीख़ की दरमियानी रात को अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन की भारतीय सहायक कंपनी के कीटनाशक बनाने वाले 'प्लांट' से हुए ज़हरीले 'मिथाइल आइसोसाइनेट गैस' के रिसाव के कारण तात्कालिक साँस लेने वाले हजारों मानव शरीर निर्जीव हो गए थे और लाखों अपंग .. जिन "भोपाल गैस काण्ड" के मुआवज़े के हक़दार .. हजारों आमजन तत्कालीन सरकार की ओर टकटकी लगाए-लगाए निराश हो गए थे .. शायद ...
मध्यप्रदेश की उसी राजधानी भोपाल में "भोपाल गैस काण्ड" के लगभग उनचालीस वर्षों बाद .. इसी वर्ष वहाँ की एक बंगला भाषी बाहुल्य वाले मुहल्ले- अरेरा कॉलोनी में अवस्थित दुर्गा बाड़ी के अन्नपूर्णा देवी मंदिर में विगत कुछ महीनों से अन्नपूर्णा देवी को पेड़-पौधों की नाज़ुक डालियों से निर्ममता के साथ तोड़े गए फूलों-पत्तियों, मिठाईयों या रुपयों-पैसों का चढ़ावा नहीं चढ़ाया जाता है।
जिन चढ़ावों में से प्रायः चढ़ावे वाले फूलों-पत्तियों को बाद में कचरे में या नदी-नालों में प्रदूषणों का सबब बनाया जाता है। चढ़ावे वाली मिठाईयों की ज़िक्र करें, तो .. बाज़ारों में उपलब्ध अधिकांशतः मिलावटी मिठाईयों से हम अपना और पड़ोसियों के भी स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते हैं और रुपयों-पैसों की बात करें तो इन से देश भर में चलने वाले कुछेक बहुउपयोगी संस्थानों को छोड़ दें, तो अधिकांश मामलों में तो .. ये सारे धन तोंदिलों की तोंदों की गोलाई के घेरों को बढ़ाने के काम ही आ पाता है .. शायद ...
अतः इन सभी के बदले यहाँ 'सैनिटरी नैपकिन्स' यानी 'सैनिटरी पैड' या 'मेंस्ट्रुअल कप' चढ़ाए जा रहे हैं। हाँ, सही ही पढ़ा है आपने .. 'सैनिटरी नैपकिन्स' यानी 'सैनिटरी पैड' या 'मेंस्ट्रुअल कप'। 'सोशल मीडिया' के सूत्रों से यह ज्ञात हो रहा है, कि अब तक लगभग ग्यारह हजार 'सैनिटरी पैड' चढ़ाए जा चुके हैं, जिनका बाद में भोपाल की ही गन्दी बस्तियों और सरकारी बालिका विद्यालयों की रजस्वला बालिकाओं और महिलाओं के बीच मुफ़्त में वितरण कर दिया जाता है .. बस यूँ ही ...
प्रसंगवश हम क्षमाप्रार्थी हैं .. अभी-अभी "गन्दी बस्तियों" जैसे शब्दों को व्यवहार में लाने के लिए .. पर हमारी मज़बूरी है, कि 'स्लम एरिया' का हिंदी में शाब्दिक अर्थ तो "गन्दी बस्ती" ही होता है। लेकिन यही 'स्लम एरिया' या 'स्लम' बस्ती जैसे शब्द हम धड़ल्ले से कह जाते हैं और गन्दी बस्ती बोलने से तो वहाँ के निवासियों के लिए अमूमन गाली की तरह एहसास कराता है। ऐसे और भी अन्य उदाहरण हैं। मसलन - हम प्रायः धड़ल्ले से 'बाथरूम', 'वाशरूम', 'रेस्ट रूम', 'पॉटी' या 'पोट्टी' जाने की बात या फिर 'प्रेशर' लगी है जैसे ज़ुमले बोल देते हैं, परन्तु उतनी ही बेझिझक हम .. पखाना जा रहे हैं .. नहीं बोल पाते हैं। ऐसा बोलने पर हमें असभ्य समझा या कहा जाता है .. और सच्चाई तो यही है कि हमारे खाते वक्त कोई भी ये हिंदी शब्द - पखाना .. बोले तो उबकाई-सी होने लग जाती है .. नहीं क्या ? .. जैसे अभी आपको हमारी ये बतकही पढ़ते हुए ऊब हो रही होगी .. शायद ...
ख़ैर ! .. आज की बतकही के मुख्य विषय पर लौटते हुए .. हालांकि यहाँ पर हिंदू मान्यताओं के अनुसार तीन दानों- अन्न दान, विद्या दान और आरोग्य दान को तरजीह दी गयी है, पर समय और सोच के अनुसार बदले हुए रूप में .. शायद ...
दरअसल अन्न दान के तहत गेहूँ या दालें दान किए जाते हैं। ताकि एक ग़रीब परिवार में भी सभी मिल कर राजेंद्र कृष्ण जी की रचना को गुनगुना सकें कि "दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ ~~~" .. दूसरा विद्या दान के तहत किताबें, कलम, कॉपी और अन्य लेखन-पाठन सामग्रियाँ; ताकि आर्थिक रूप से अक्षम परिवार के बच्चों को भी शिक्षित किया जा सके और .. तीसरा .. आरोग्य दान के तहत ही 'सैनिटरी पैड्स' और 'मेंस्ट्रुअल कप्स' भी ग़रीब-असहाय परिवार की रजस्वला बच्चियों-महिलाओं को दान कर दिए जाते हैं।
इस मन्दिर का पूरा पता है- इ-७ / ३०४-ए, अरेरा कॉलोनी, रेणु विद्यापीठ विद्यालय के बगल में, भोपाल -४६२०१६, मध्यप्रदेश (E-7 / 304-A, Arera Colony, Beside - Renu Vidyapith School, Bhopal - 462016, Madhya Pradesh) है।
इस सकारात्मक सोच के पीछे वहाँ की बुद्धिजीवी आम जनता की क्रांतिकारी सोच के साथ-साथ वहाँ की एक गैर सरकारी संगठन (NGO) - "हेशेल प्रतिष्ठान" ( Heychel Foundation ) का भी बेशकीमती योगदान है और इस "हेशेल प्रतिष्ठान" के इस नेक कार्य में सहायता प्रदान करती है .. अपने देश की एक पंजीकृत दानी संस्था (Registered Charity)- "भारतीय परिवार नियोजन संघ" (Family Planning Association of India - FPA, India), जिसकी लगभग चालीस शाखाएँ देश भर में यौन स्वास्थ्य और परिवार नियोजन को बढ़ावा देती हैं।
भोपाल के इसी दानी संस्था जैसे गैर सरकारी संगठन- "हेशेल प्रतिष्ठान" का नारा है - "पूजा विथ पर्पस" (Puja with Purpose) यानी उद्देश्य के साथ पूजा .. आज की बतकही में बस इतना ही .. बस यूँ ही ...
आइए .. अंत में हम सभी मिलकर राजेंद्र कृष्ण जी की उस रचना को गुनगुनाते हैं, जिसे वर्ष 1973 में, जब हम महज़ सात वर्ष के रहे होंगे, फ़िल्म- "ज्वार भाटा" के लिए संगीतबद्ध किया था- लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी ने, अपनी सुरीली आवाज़ दी थी- लता मंगेश्कर जी और किशोर कुमार जी ने और फ़िल्मी पर्दे के लिए धर्मेन्द्र और सायरा बानो जी की जोड़ी को फ़िल्माया था- तेलगु फ़िल्म के निर्देशक अदुर्थी सुब्बा राव जी ने, जो फ़िल्म तेलगु फ़िल्म "दगुडु मुथालु" का हिंदी संस्करण था। तो .. हो जाए .. "दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ ~~~" .
सामाजिक कुरीतियों पर आपकी क़लम का निरंतर प्रहार सचमुच सराहनीय है...
ReplyDeleteकरत-करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान...
यही दोहा अनायास मन गुनगुना उठा...
हमारा समाज का एक बड़ा हिस्सा अभी भी इतनी आधुनिक सोच नहीं रखता पर छोटे बदलाव भी सुखद भविष्य का संकेत है।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १२ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी ! .. सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका .. हमारी बतकही को इस मंच पर अपनी प्रस्तुति में स्थान प्रदान करने हेतु ...
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जी ! .. नमन संग आभार आपका ...
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