Thursday, February 1, 2024

पुंश्चली .. (३०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२९)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - " ऐसा ही होना चाहिए .. ऐसा ही होगा .. आप मन छोटा मत कीजिए मन्टू भैया .. हमको अंदर से होकर आने दीजिए .. जहाँ तक सम्भव होता है .. उनके बारे में अंदर से मालूम करके आते हैं .. तब तक सब्र से बैठिए आप .. "

गतांक के आगे :-

यह कह कर मन्टू को ढाढ़स बँधाती हुई रेशमा अभी अपनी टोली के साथ 'नर्सिंग होम' के अंदर जा रही है। मन्टू कुछ चिन्तित .. कुछ-कुछ उदास अपनी टोटो गाड़ी की 'ड्राइविंग सीट' पर बैठे-बैठे इन लोगों को अंदर जाते हुए देख रहा है। 'नर्सिंग होम' के अंदर से अभी-अभी निकली अंजलि के बारे में रेशमा और उसकी टोली कुछ ना कुछ मालूम कर के ही बाहर आएगी .. कुछ ऐसा ही भरोसा मन्टू के चेहरे से झलक रहा है। 

अब उनलोगों के अंदर जाते ही मन्टू अपनी टोटो गाड़ी को एक किनारे खड़ी करते हुए .. 'लॉक' करके तेजी के साथ लपक कर अंजलि के वापस जाने वाली दिशा में जा रहा है। पर .. पिछले 'गेट' के बाहर कुछ दूर तक जाने पर भी दूर-दूर तक अंजलि और अम्मू की झलक तक भी नहीं मिली है। कुछ देर इधर-उधर गौर से निहारने के बाद मन्टू नाउम्मीद होकर वापस अपनी टोटो गाड़ी में आ कर बैठ गया है।

अक़्सर अपने ग्राहक के लिए प्रतीक्षा करते वक्त टोटो गाड़ी में ही 'ऍफ़ एम्' चालू कर के या अपने 'मोबाइल' में 'यूट्यूब' चला कर अपने मनपसन्द गाने सुनने-देखने वाला मन्टू का अभी तो .. सब शान्त पड़ा है .. सिवाय उसके अशान्त व विचलित मन और तेज धड़कन के। अंजलि की उधेड़बुन में खोया हुआ मन्टू .. कुछ ही देर बाद .. अब रेशमा और उसकी टोली को बाहर निकलती हुई देख कर .. एक उम्मीद की किरण महसूस कर रहा है। हालांकि अभी भी रोज की तरह ही दूसरे 'नर्सिंग होम' जाने के लिए वो लोग इसकी टोटो की ओर ही आ रही हैं, पर .. अंजलि के यहाँ आने की वजह को जानने की उत्सुकता के कारण मन्टू अपनी 'ड्राइविंग सीट' से उठकर दस क़दम की दूरी को भी नापते हुए उनकी ओर बढ़ चला है।

मन्टू - " कुछ मालूम चला ? "...

मायूसी के साथ रेशमा ..

रेशमा - " नहीं भईया .. वो लोग केवल कल इस 'नर्सिंग होम' में जन्म लिए हुए बच्चों की ही जानकारी दिए .. जो अमूमन देते हैं .. बच्चे के अभिभावक का नाम और पता .. बस्स .. बाक़ी कुछ भी और बतलाने से एकदम से मना कर दिया .. 'स्टाफ' लोगों का कहना है कि चारों तरफ कैमरा लगा हुआ है .. अगर "ऊपर" के किसी को भी उनकी इन हरकतों पर शक़ .. "

मन्टू - " ख़ैर ! .. कोई बात नहीं .. अभी तो चलो .. मेरी गाड़ी में आप लोग अपनी अगली मंज़िल की ओर .."

रेशमा - " हाँ .. वो तो चलना ही है .. पर आपकी ये .. अंजलि भाभी वाली गुत्थी को सुलझाना भी तो हम सभी का ही काम है ना मन्टू भईया ? .."

मन्टू - " अच्छा-अच्छा ! .. वो सब तो होता ही रहेगा, पर .. अभी तो तुमलोगों का और हमारा भी तो काम-धंधे का वक्त है .. है ना ? .. इस विषय पर हमलोग आज रात में या कल सुबह बात करते हैं .. "

रेशमा - " हाँ .. ये सही कह रहे आप .."

मन्टू - " और .. ये सब बातें आज .. शनिचरी चाची को भी बतलाना पड़ेगा .. नहीं तो .. कहेंगी कि .. अरे मन्टुआ ! .. हमको इ (ये) सब पहिले काहे (क्यों) नहीं बतलाया था ? "

रेशमा - " हाँ .. ये भी सही .."

मन्टू - " अच्छा .. ये बोलो कि .. इस 'नर्सिंग होम' में कल कितने बच्चों का जन्म हुआ था ? .. मने .. आज के लिए कितने ग्राहकों का पता चला और उनका पता मिला ? .. जहाँ-जहाँ से आज नेग मिल पाएगा  " ..

रेशमा - " यहाँ से तो छः बच्चों के घर का पता मिला है .. बाकी और .. चार का भी अगर पता मिल गया "ममता नर्सिंग होम" से तो .. आज के लिए दस ही बहुत है .. क्यों मोना ? "

मोना से पूछने पर टोली की लगभग सभी का समवेत स्वर में - " हाँ-हाँ ! " की आवाज़ आयी है।

अंजलि प्रकरण के कारण कुछ पल पहले वाला बोझिल माहौल .. मन्टू द्वारा ही बात का विषय बदलने से .. अब पुनः सामान्य-सा हो चला है। 

वैसे भी तो .. किसी अन्य की क्या .. अपनी स्वयं की भी तो दुःख-परेशानी टिक ही कब पाती है भला ? .. ख़ुशी के साथ भी तो समान नियम ही लागू होता है। दुःख-परेशानी या ख़ुशी ही क्यों .. हम .. मतलब .. हमारा शरीर और हमारे शरीर की असंख्य कोशिकाएँ भी तो .. हर पल क्षयग्रस्त होकर अपना रूप बदलती रहती हैं।

दुःख-परेशानी (या ख़ुशी भी) भले ही अस्थायी या नश्वर हों .. कुछ लोग उसे अपने-आप में ही समाहित करके झेल लेते हैं .. या परिस्थितियों को सम्भालते हुए, स्वयं भी सम्भले रहते हैं .. चूँ तक नहीं करते हैं .. ठीक .. धैर्यशील इस मन्टू की तरह ..

पर .. कुछ लोग अपनी परेशानियों का महिमामंडन अपने आसपास के लोगों के समक्ष करके, उन लोगों से सहानुभूति बटोरने में आत्मसुख का अनुभव करते हैं .. आसपास के लोग बोलने (लिखने) का मतलब .. चाहे परिवार के लोग हों, मुहल्ले-पड़ोस के लोग हों, जान-पहचान वाले लोग हों या फिर 'सोशल मीडिया' पर जुड़े (?) आभासी लोग हों .. ऐसे सहानुभूति बटोरने वाले लोग अक़्सर .. विभिन्न 'सोशल मीडिया' पर अपने 'प्लास्टर' चढ़े अंगों की या अन्य घायल अंगों की तस्वीर का प्रदर्शन करके घड़ी-घड़ी 'कॉमेन्ट बॉक्स' निहारते हुए पाए जाते हैं। 

कुछ तो अपने साथ-साथ .. अपनी पत्नी या पति के साथ घटी दुर्घटना की तस्वीर डाल कर भी सहानुभूति को बटोरने में तनिक भी नहीं हिचकते .. कुछेक तो किसी मुशायरे में अपनी रचनाओं के लिए श्रोताओं से ताली की भीख माँगने वालों की तरह .. दुआ देने की दुहाई तक देते हुए दिख जाते हैं। कई तो अपने सगे-सम्बन्धी की अर्थी या चिता तक की भी तस्वीर 'सोशल मीडिया' पर चिपकाने से तनिक भी गुरेज़ नहीं कर पाते हैं।

इन्हें और इनकी हरक़तों को देख कर किसी सार्वजनिक स्थल .. मसलन - अपनी किसी भी यात्रा के दौरान किसी रेलगाड़ी के डब्बे में  या रेलगाड़ी के आने की प्रतीक्षा के दौरान किसी सशुल्क या निःशुल्क प्रतीक्षालय में या फिर 'प्लेटफॉर्म' पर .. अन्य सहयात्रियों द्वारा बगल में या आसपास बैठकर बिना 'इयरफोन' या 'हेडफोन' के तेज आवाज़ में भजन, फ़िल्मी गाने, फूहड़ 'कॉमेडी' वाले 'वीडियो' या फिर हदीस या गुरुवाणी देखने-सुनने वाले असभ्य बुद्धिजीवियों की बरबस यादें ताज़ी हो आती हैं .. शायद ...

रेशमा और उसकी टोली की सभी किन्नरों के मन्टू की टोटो गाड़ी में बैठते ही, मन्टू दूसरे 'नर्सिंग होम' की ओर तेजी से बढ़ चला है ...

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

बुलबुले ...


चंद बुलबुले

दिखते हैं अक़्सर,

पारदर्शी काँच के बने

'पेपरवेट' के भीतर।

सम्भालते पल-पल, हर पल,

जीवन के तलपट से भरे 

रोज़नामचा के पन्ने

वर्षों से पड़े मेज पर।

शाश्वत नहीं, नेह-से मेरे,

ना रोज़नामचा के पन्ने, 

ना ही बुलबुले 'पेपरवेट' के .. शायद ...


पर उतने भी नहीं नश्वर

जितने वो सारे बुलबुले,

जो अनगिनत थे तैरते 

कुछ पल के लिए हवा में

हमारे बचपन में

खेल-खेल में,

रीठे के पानी में

डूबो-डूबो कर

पपीते के सूखे पत्ते की 

डंडी से बनी

फोंफी को फूँकने से .. बस यूँ ही ...


वो असंख्य बुलबुले, 

ना शाश्वत, ना ही नश्वर, 

बस और बस होते थे 

और आज भी हैं होते,

वैसे ही के वैसे, पर

'पपरवेट' के 

बुलबुले से इतर,

क्षणभंगुर ..

वो सारे के सारे ..

हे प्रिये ! ...

तेरे नेह के जैसे .. शायद ...





Thursday, January 25, 2024

पुंश्चली .. (२९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२८)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

मन्टू - " लो भई .. आ गयी आप सब की आज की पहली मंज़िल .. "

रेशमा - " चलो .. आ जाओ जल्दी-जल्दी .. " 

तभी अचानक 'नर्सिंग होम' से बाहर आती हुई अंजलि और अम्मू पर रेशमा और मन्टू की भी नज़र पड़ गयी है ...

गतांक के आगे :-

मन्टू की टोटो गाड़ी पर दूर से नज़र पड़ते ही अंजलि हठात् अपने दुपट्टे के पल्लू से अपना चेहरा ढकते हुए और बेटे- अम्मू की हथेली को और भी मजबूती से पकड़ कर तेजी से विपरीत दिशा वाले रास्ते की ओर बढ़ चली है, जो रास्ता उसे और उसके तीन वर्षीय बेटे को 'नर्सिंग होम' के पिछले फ़ाटक की ओर ले जाएगा।

अंजलि को देखकर रेशमा की प्रतिक्रिया तो सामान्य थी अभी, पर .. मन्टू को तो मानो बिजली की नंगी तार छू गयी हो जैसी मनोदशा हो गयी है। अभी अंजलि व अम्मू पर नज़र पड़ते ही .. रेशमा तो आगे बढ़ कर अंजलि को सामान्य दिनों की तरह औपचारिकतावश अपने दोनों हाथों को जोड़कर नमस्ते कहने के साथ-साथ अम्मू को अपनी 'टॉफ़ी' देने ही जा रही थी कि .. मन्टू ने उसे ऐसा करने से इशारे कर के रोक लिया है।

यूँ तो अंजलि के अपने पल्लू से लाख अपने चेहरे ढकने की कोशिश भी मन्टू की नज़रों से उसे नहीं छुपा पाया है। वो भी उस मन्टू की नज़रों से तो असम्भव ही है, जो .. अपनी तोता-चश्मी रज्ज़ो की बेमुरव्वती से मानसिक रूप से चोटिल होने के कारण और रंजन के गुजर जाने के बाद मन ही मन उसे चाहने की वजह से .. अपनी सोचों की एक ताक पर अंजलि को जगह दे रखा है। फलतः भले ही अंजलि उससे दूरी बना कर रहती हो, पर मन्टू दिन-रात प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उससे एक अनदेखा जुड़ाव महसूस करते हुए .. उसकी और उसके बेटे की सुरक्षा के ख़्याल से हर पल उन पर अपनी नज़रों को रखने का भरसक प्रयास करता रहता है।

आज सुबह ही तो रोज की तरह घर से स्कूल के लिए निकलते वक्त जब अंजलि "रसिक चाय दुकान" के पास नगर निगम के कूड़ेदान में अपने घर से लायी कचरे की पोटली फेंक गयी थी तो .. रोज की तरह ही कचरे फेंक कर उसके आगे निकल जाने के बाद .. मन्टू रोज की तरह आज बसन्तिया की मदद ना मिलने पर .. स्वयं ही उस पोटली के 'पोस्टमार्टम' से एक अप्रत्याशित चीज दिख जाने से वैसे ही ऊहापोह के दरिया में डूब-उतरा रहा था और .. ऊपर से अभी-अभी यहाँ 'नर्सिंग होम' से निकलते हुए उसे देखकर तो मन्टू को और भी जोरदार झटका महसूस हुआ है। 

अब तो उसकी शंका और भी गहरी होकर मानो विश्वास में बदलने लगी है। जैसे किसी भी मेज या कुर्सी के यथोचित संतुलन के लिए कम से कम चारों टाँगों का होना आवश्यक होता है, वैसे ही अभी भी मन्टू की शंका को दो टाँगें ही मिल पायी है - एक तो आज सुबह-सुबह उसके घर के कचरे की पोटली से हर माह की तरह मिलने वाले इस्तेमाल किए गए 'सैनिटरी नैपकिन' की जगह गहरे गुलाबी रंग की दोनों 'लाइनों' वाली एक 'प्रेगनेंसी टेस्ट स्ट्रिप' मिली थी और अभी-अभी वह यहाँ इस 'नर्सिंग होम' से निकलती भी दिख गयी है। पर अभी भी मन्टू का ऊहापोह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा है। उसकी शंका को संतुलन मिलने के लिए अभी भी कुछ अन्य प्रमाणों की आवश्यकता है .. मेज-कुर्सी की चार टाँगों की तरह ...

अचानक मन्टू द्वारा रेशमा को नमस्ते करने से रोके जाने परके और अचानक अंजलि के विपरीत दिशा में पलट जाने से भी वह भी सोच में पड़ गयी है। अंजलि से तो मिल नहीं पायी तो .. अपनी उधेड़बुन को ख़त्म करने के लिए मन्टू से ही सवाल कर रही है।

रेशमा - " मन्टू भईया .. आप को क्या हो गया अचानक से ? .. आप अंजलि भाभी से मिलने से भी रोक दिए और वह भी हम लोगों को देख कर उल्टे पाँव भाग गयीं .. कुछ हुआ है क्या ? .. आप लोगों में झगड़ा तो नहीं हो सकता .. फिर ..? .."

मन्टू - " अभी तुम्हारे काम-धंधे का समय है और ये पहला 'नर्सिंग होम' भी है .. हम लोग आज पहले से ही देर कर चुके हैं। तुम लोगों को आगे भी लेकर जाना है, फिर .. हमको और भी कमाने के लिए जाना है .. ये सब बात .. फिर कभी करेंगे ... "

रेशमा - " ये भी कोई बात हुई क्या ? .. आप जब हम सभी के दुःख-सुख में साथ होते हैं, तब तो आप समय-पहर नहीं देखते हैं .. फिर अभी ऐसा भेद-भाव क्यों ? बतलाइए ना मन्टू भईया !! .. "

नदी के तेज जल-आवेग के वक्त जैसे नदी के किनारे भी नदी का साथ छोड़ देते हैं, उसी तरह अंजलि वाली आज की दोनों अप्रत्याशित घटनाओं से वह अपना धैर्य खोकर सामने रेशमा को ही पाकर .. उसे ये सब ना बतलाना चाहते हुए भी .. सब कुछ बक कर मानो .. खुद के मन के बोझ को हल्का करना पड़ रहा है ..

मन्टू - " क्या बोलूँ तुमको .. " - बोलता-बोलता मन्टू लगभग रुआँसा हो गया है - " ऐसी उम्मीद तो तनिक भी नहीं थी अंजलि से .. " 

रेशमा - " क्यों ? .. क्या हो गया ऐसा ? .. खुल कर बोलिए ना ! .. "

गहरी साँस लेते हुए अपनी टोटो गाड़ी से बाहर निकल कर रेशमा को उसकी बाकी टोली से थोड़ी दूर एक ओर ले जा रहा है।

मन्टू - " आज .. आज सुबह अंजलि के कचरे से गहरे गुलाबी रंग की दोनों 'लाइनों' वाली एक 'प्रेगनेंसी टेस्ट स्ट्रिप' मिली थी ... "

रेशमा - " आपको कैसे मिल गयी ? .."

मन्टू लगभग झेंपते हुए .. रेशमा से अपनी नज़रें चुराते हुए ..

मन्टू - " वो सब .. बाद में बतलाऊंगा .. विस्तार से .. पर अभी जो सबसे बड़ी बात है कि .. रंजन के गुजर जाने के बाद ये कैसे सम्भव हो सकता है ? .. अभी तो यहाँ 'नर्सिंग होम' से आकर उसका जाना भी .. "

रेशमा - " हो सकता है इन सब बातों की कुछ और भी वजह हो .. "

मन्टू - " विधाता की कृपा हो कि ये सारी घटनाएँ किसी अन्य कारणों से घटी हों और हमारा भ्रम निराधार होकर गलत हो जाए .. "

रेशमा - " ऐसा ही होना चाहिए .. ऐसा ही होगा .. आप मन छोटा मत कीजिए मन्टू भैया .. हमको अंदर से होकर आने दीजिए .. जहाँ तक सम्भव होता है .. उनके बारे में अंदर से मालूम करके आते हैं .. तब तक सब्र से बैठिए आप .. "

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Sunday, January 21, 2024

राम के बहाने .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित अनूप जलोटा जी के एक लोकप्रिय भजन का प्रसंगवश सुमिरन करते हुए हम आज की अपनी बतकही की शुरुआत कर रहे हैं .. बस यूँ ही ...

"तेरे मन में राम, तन में राम,
तेरे मन में राम, तन में राम, रोम रोम में राम रे
राम सुमीर ले, ध्यान लगा ले, छोड़ जगत के काम रे
बोलो राम राम राम, बोलो राम राम राम
बोलो राम राम राम, बोलो राम राम राम .. "

इन दिनों राम और राम मन्दिर के समर्थन व विरोध में या यूँ कहें कि पक्ष एवं विपक्ष (राजनीतिक दल वाले नहीं) के संदर्भ में चहुँओर चिल्लपों मची हुई है। जिसके फलस्वरूप उपरोक्त भजन को बारम्बार गौर से सुनने के बाद .. विशेषकर इसके मुखड़े को सुनकर, इससे जुड़ी जो पैरोडीनुमा बतकही हमारे दिमाग़ में एकबारगी कौंधी .. उसे यहाँ ज्यों का त्यों परोस रहे हैं -

तेरे मन में राम .. तन में राम .. रोम रोम में राम रे,

फिर शोर क्यों इत्ता, आएगा कौन अयोध्या धाम रे ?

बन तो जाए हर नर राम, जो हो जाए निष्काम रे,

फिर शोर क्यों इत्ता, आएगा कौन अयोध्या धाम रे ?

ख़ैर ! .. यूँ तो आज की मूल बतकही के लिए हमें इन राम और राम मन्दिर के समर्थन-विरोध वाले पचड़े में तनिक भी नहीं उलझना है .. बस यूँ ही ...
दरअसल जिन प्रतिमाओं के समक्ष आस्तिकों के सिर श्रद्धाभाव से झुकते हैं तथा उन्हें उनमें तदनुसार उनके भगवान के दर्शन होते हैं ; उन्हीं प्रतिमाओं को देखकर नास्तिकों (?) के मन में उन प्रतिमाओं को गढ़ने वाले रचनाकार के प्रति आदरभाव उपजते हैं .. शायद ...
ठीक उसी तरह जब कभी भी उपरोक्त भजन या अन्य भजन भी हम सभी आमजन भक्तिभाव से सुनते हैं, तो प्रायः ज्यादा से ज्यादा उसके गायक-गायिका के नाम को ही जानते हैं या उनकी भूरी भूरी प्रशंसा कर पाते हैं ; परन्तु उस भजन के रचनाकार को जानने का प्रयास तक नहीं करते हैं .. शायद ...
जिस तरह हम अक़्सर चमड़ी के रंग, नाक-नयन-नक़्श, पहनावा, पद, दौलत, चेहरे पर पुते सौन्दर्य प्रसाधनों की परतों, 'डिओ' की महक, केश-सज्जा की ऊपरी कसौटी पर ही किसी भी इंसान का मूल्यांकन करते हैं ; नाकि उसकी सोच, उसके विचार के आधार पर उसके मन में झाँक कर उसे आँकते हैं ; ठीक उसी प्रकार हम प्रायः किसी भी फ़िल्म का अवलोकन करते हैं या फ़िल्म के गीतों को देखते-सुनते हैं, तो केवल पर्दे के सामने वाले कलाकार को ही देख-जान पाते हैं।
परन्तु .. पर्दे के पीछे के सैकड़ों लोगों के श्रम से पूर्णतः या अंशतः अनभिज्ञ रह जाते हैं। मसलन - किसी भी फ़िल्म में नायक-नायिका के अलावा उनके सैकड़ों सह-कलाकार, लेखक, पटकथा लेखक, संवाद लेखक, गीतकार, संगीतकार और उनके ढेर सारे साज़िंदे, गायक-गायिका, नृत्य परिकल्पक (Dance Choreographer), कलाकारों के चुनाव करने वाले निर्देशक (कास्ट डायरेक्टर / Cast Director) और उनकी 'टीम' में काम करने वाले दसों लोग, रूपकार (Make up Man), केश सज्जाकार (Hair Dresser), पोशाक रूपांकक (Dress Designer), छायाकार (Cameraman), प्रकाश संयोजक (Light man) व उनका दल और उनके भी दसों सहयोगी, निर्देशक, सह-निर्देशक, निर्माता, 'शूटिंग' के वक्त सहयोग करने वाले सैकड़ों 'स्पॉट बॉय', फ़िल्म संपादक (Film Editor), पार्श्व स्वर अंतरण करने वाले कलाकार (वॉयस ओवर आर्टिस्ट / Voice over artist) इत्यादि जैसे हजारों लोगों के मानसिक एवं शारीरिक श्रमसाध्य परिश्रम के परिणामस्वरुप ही तो हम पर्दे के सामने वाले नायक-नायिका की भूरी भूरी प्रशंसा कर पाते हैं .. शायद ...
लब्बोलुआब ये है कि जिस उपरोक्त राममय भजन के लिए हम केवल अनूप जलोटा जी को ही जानते हैं, वास्तव में उपरोक्त राममय भजन के रचनाकार हैं .. दिवंगत राजेश जौहरी जी (1952-2017), जो अपने समय के एक जानेमाने कवि, गीतकार, पटकथा लेखक, संगीतकार के साथ-साथ एक सफ़ल विज्ञापन फ़िल्म निर्माता, उद्घोषक (एंकर / Anchor) और पार्श्व स्वर अंतरण करने वाले कलाकार (वॉयस ओवर आर्टिस्ट / Voice over artist) भी थे। दरअसल अनुप्राणन (एनिमेशन / Animation) फिल्मों और हास्य-व्यंग्य (कार्टून / Cartoon) फिल्मों में या फिर एक भाषा से अन्य भाषा में पूरी फ़िल्म को 'डब' करने के लिए 'वॉयस ओवर आर्टिस्ट' ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मन से जो कलाकार होते हैं वे अमूमन जाति-धर्म और क्षेत्रवादिता के बाड़ों से मुक्त होते हैं, तभी तो ..

सुख के सब साथी, दुःख में न कोई,
सुख के सब साथी, दुःख में न कोई,
मेरे राम, मेरे राम,
तेरा नाम इक सांचा, दूजा न कोई

जैसे फ़िल्मी भजन को मोहम्मद रफ़ी साहब बेहिचक गा जाते हैं और दिलीप कुमार उर्फ़ युनूस खान "गोपी" फ़िल्म के लिए कैमरे के सामने बिना भेदभाव के लिप्यांतरण कर जाते हैं। जबकि जाति-धर्म और क्षेत्रवादिता के बाड़े में क़ैद कई लोग तो भारत माता की जय या वंदे मातरम् बोलने तक में गुरेज़ करते हैं .. शायद ...
राजेश जौहरी के पुरख़े भी यूँ तो उत्तरप्रदेश के रहने वाले थे, पर उनका जन्म राजस्थान के पिलानी में हुआ था । उनके पिता जी- डॉ ए एन जौहरी जी अंग्रेजी साहित्य के 'प्रोफेसर' और एक लेखक भी थे। उनकी माँ- चंद्रा जौहरी जी भी शिक्षित महिला थीं। कहते हैं कि उन्होंने दस साल की उम्र में ही अपनी पहली कविता लिखी थी। संगीत और साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। उनके पिता जी की दादी जी- हीरा कुँवर जी भगवान कृष्ण की स्तुति में भजन लिखती थीं और उन्हीं से उन्हें भजन लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी।
बतलाते हैं, कि चूँकि उनके माता-पिता उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने उन्हें भौतिकी में स्नातकोत्तर करवाया था। पर एक दिन उनके लेखन की रचनात्मकता उन्हें उत्तरप्रदेश के सहारनपुर से बम्बई खींच कर (मुम्बई) ले गयी ; जहाँ तत्कालीन संगीत उद्योग से उनका दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होने के कारण आरंभिक दौर में उन्हें संघर्ष करना पड़ा था।
पर उन बाधाओं को अपने बूते पर पार कर बहुमुखी प्रतिभा के धनी राजेश जौहरी जी ने एक तरफ तो मोहम्मद रफ़ी साहब से लेकर अनूप जलोटा जी तक के लिए अनगिनत भजन लिखे थे ; तो दुसरी तरफ हरिहरन जी के गाए हुए ग़ज़लों के लोकप्रिय "हलका नशा" नामक 'एल्बम' के लिए ग़ज़लें भी लिखी थीं। इसके अलावा एक अन्य बहुत ही लोकप्रिय 'एल्बम'- अलीशा चिनॉय के "बेबी डॉल" ने भारतीय पॉप की दुनिया में उनकी एक अलग ही पहचान बनायी है। अमीन सयानी जी, जिन्हें वे उद्घोषक के रूप में अपना गुरु मानते थे, के साथ भी काम करने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त हुआ था।
अपने समय के कई विज्ञापन-गीतों (Advertising Jingles) को भी अपनी आवाज़ देकर उन्होंने लोकप्रिय बनाया था। मसलन- अजंता घड़ियाँ, नेस्कैफे कॉफ़ी, वर्धमान निटिंग यार्न को 'वॉयस ओवर आर्टिस्ट' व 'एंकर' होने के नाते अपनी आवाज़ दी थी। एशियन स्काई शॉप, सीमा सुरक्षा बल और दिल्ली पुलिस के लिए कथानक गीत (Theme Song) उनके उल्लेखनीय कार्यों में शामिल हैं।
2023 में आयी फ़िल्म- "थैंक यू फॉर कमिंग" के एक गीत "परी हूं मैं" के गीतकार के रूप में भी उनकी एक अन्य उप्लब्धि है ; क्योंकि ये गीत उन्हीं के लिखे और 1991 में सुनीता राव के 'एल्बम'- "धुआं" के गाने "परी हूं मैं" का 'रीमेक' है।
उनकी धर्मपत्नी- अर्चना जौहरी भी बहुमुखी प्रतिभाशाली पटकथा लेखिका, उद्घोषिका और कवयित्री भी हैं। उनकी दो बेटियों में .. बड़ी बेटी रतिका जौहरी भी कई 'एल्बम', धारावाहिकों और फिल्मों के लिए एक गायिका के रूप में अपनी आवाज दे रही हैं तथा छोटी बेटी- राशी जौहरी भी एक उद्घोषिका, 'कोरियोग्राफर' और निर्देशक के साथ-साथ एक 'इवेंट कंपनी'- 'ज़ोडियाक इवेंट्स' की संस्थापिका भी हैं।
लब्बोलुआब ये है कि हमें और हमारी बाल व युवा पीढ़ी को भी, जो "ठंडा मतलब कोकाकोला" जैसे विज्ञापन-गीत (Advertising Jingle) को गा-गाकर लोकप्रिय बना तो देती है, पर उसके रचनाकार "प्रसून जोशी" को कम जानती है, परन्तु हमें इन महान विभूतियों के बारे में भी जानना चाहिए। हो सकता है, कि इनकी प्रेरणा से हम में से कोई राजेश जौहरी-सा बहुमुखी प्रतिभाशाली बन जाए और .. कुछ और राममय भजन रच दे .. शायद ...

फ़िलहाल तो .. आइए ! .. हम भी तथाकथित राम के रंग में रंग जाते हैं .. निम्न दोनों भजनों के साथ .. बस यूँ ही ...

बोलो राम राम राम, बोलो राम राम राम
बोलो राम राम राम, बोलो राम राम राम





Thursday, January 18, 2024

पुंश्चली .. (२८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२७)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा भी प्रत्युत्तर में किसी उद्घोषिका के अंदाज़ में चाँद की ओर अपना रुख़ करके ...

रेशमा - " हाँ - हाँ .. ठीक है .. अब कल मिलते हैं .. एक छोटे से 'ब्रेक' के बाद .. " और फिर मन्टू की ओर मुख़ातिब होकर - " मन्टू भईया चलिए .. अब तो हमलोग भी चलें .. काफ़ी देर हो गयी है आज तो .. आपकी आज की बोहनी करवानी है .. "

गतांक के आगे :-

गतांक के आगे अपनी बतकही की अगली श्रृंखला परोसने के पहले यह स्पष्ट कर दें कि .. हालाँकि पहले भी हमारी स्वीकारोक्ति रही है कि हम एक अकुशल पाठक हैं या हम यूँ कहें कि हम पाठक हैं ही नहीं और .. ना ही अच्छा रचनाकार .. बस यूँ ही .. स्थिति-परिस्थितिवश मन में जो भी भावनाएँ .. अच्छी या बुरी भी .. पनपती हैं उसे यथास्थिति परोस भर देते हैं .. बस यूँ ही ...

परन्तु हमारे उपरोक्त अवगुणों से इतर .. यदि आप सुधीजन पाठकों / पाठिकाओं द्वारा हमारी इस बतकही वाले साप्ताहिक धारावाहिक की श्रृंखलाओं को निरन्तर तन्मयता के साथ पढ़ी गयी होगी, तो आप सभी को ज्ञात होगा ही कि .. हमारी बतकही के पात्रों में से एक- रेशमा है .. जोकि एक किन्नर है .. सात किन्नरों की गुरु, चाँद- भाड़े पर अपनी 'कार' चलाने वाला 'टैक्सी ड्राइवर', भूरा - घर-घर से कचरे एकत्रित करके शहर से दूर यथोचित तयशुदा स्थान पर निष्पादन के लिए ले जाने वाली नगर निगम की बड़ी वाली गाड़ी के पिछले हिस्से में खड़ा-खड़ा हर घर के दरवाजे पर गाड़ी रुकने पर उस घर से कचरे की पोटली या बाल्टी लेकर गीले व सूखे कचरों को अलग-अलग करने का काम साथ-साथ करता जाता है और .. साथ ही घरों से कचरे के रूप में मिले खाली और अनुपयोगी टिन के डब्बों, बोतलों, कार्टूनों को अलग एकत्रित करता जाता है .. जिसे बाद में चंदर कबाड़ी को बेच कर .. कुछ उचित ऊपरी कमाई कर लेता है। "ऊपरी कमाई" के पहले "उचित" विशेषण इसलिए चिपकाना पड़ा है, क्योंकि .. बहुधा सरकारी नौकरियों में "ऊपरी कमाई" से तात्पर्य "अनुचित कमाई" को ही समझा जाता है .. शायद ... 

वैसे तो लब्बोलुआब यही है कि भूरा एक सफाई कर्मचारी है।

इन सभी के अलावा .. मयंक और शशांक अपनी स्नातक तक की पढ़ाई अपने क्षेत्र से ही पूरी करके .. सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने हेतु यहाँ आने के बाद मोनिका भाभी के पी जी में रह कर 'कोचिंग' कर रहे हैं। हमने एक अन्य पात्र- ललन चच्चा की चर्चा तो अभी हाल ही में की थी। बाकी तो .. रसिक चाय दुकान (?) का मालिक- रसिकवा, उसी के दुकान में "बाल मजदूरी (निषेध एवं नियमन) अधिनियम, 1986" को अँगूठा दिखलाता हुआ .. काम करने वाला तेरह वर्षीय- कलुआ, मुहल्ले भर की दुलारी गली की काली कुतिया- बसन्तिया, शनिचरी चाची, सुधीर, रामचरितर, रामभुलावन, बुद्धनवा, रमरतिया, परबतिया,चंदर कबाड़ी, मेहता जी, सक्सेना जी, 'नर्सिंग कोर्स' करने वाली निशा, वक़ील साहब, उनकी धर्मपत्नी, पेशकार, माखन पासवान, मंगड़ा, सुगिया, असग़र अंसारी, उसकी सौतेली अम्मी और उसका बड़ा भाई, सिपाही जी, सतरुधन (शत्रुघ्न) चच्चा व चच्ची, 'प्रोफेसर' साहब, 'स्टोरकीपर' साहब, लावारिस रेशमा का पालन-पोषण करने वाली मंजू माँ .. जो अब इस दुनिया में नहीं रहीं .. मन्टू- टोटो गाड़ी चला कर जीवकोपार्जन करने वाला ड्राइवर, उसकी रज्ज़ो .. जो सबकी रजनी है, एक 'प्राइमरी स्कूल' के संस्थापक- मेहता जी व उनकी धर्मपत्नी और पुष्पा .. परन्तु इन सभी पात्रों के बारे में विस्तारित रूप से फ़िलहाल तो हम कुछ भी बतलाने नहीं जा रहे हैं .. क्योंकि उपरोक्त सभी पात्रों के बारे में पहले के ही धारावाहिकों में विस्तारपूर्वक बतला चुके हैं हम तो .. और इन सब के अलावा .. रंजन .. जो कोरोनाकाल के दूसरे दौर में काल-कवलित हो चुका है और उसकी प्रेमविवाह वाली विधवा- अंजलि व उन दोनों का तीन वर्षीय बेटा- अमन .. जिसे सभी अम्मू कह कर बुलाते हैं .. इनके तीनों के बारे में भी तो फ़िलवक्त विशेष करके दुबारा चर्चा नहीं करनी हमको .. वैसे यदि इन सब के बारे में जानने की आपकी तनिक भी रूचि हो, तो .. इसके लिए हमारी बतकही वाले अब तक के सारे धारावाहिकों को क्रमवार पढ़ने जैसा एक उलझन भरा काम आपको शायद करना पड़ेगा .. बस यूँ ही ...

तो अब .. गतांक के आगे के परिदृश्य को निहारने के पहले .. आज प्रसंगवश ये भी बतलाना हमें आवश्यक लग रहा है, कि .. अब तक "पुंश्चली .. (१)" से लेकर "पुंश्चली .. (२७)" तक में .. आपने गौर किया होगा, कि .. अब तक के सारे के सारे धारावाहिकों के घटित घटनाक्रम .. किसी एक ही दिन की सुबह-सुबह के हैं और एक ही स्थान के भी हैं .. वो स्थान है भी तो- रसिक की चाय दुकान के ही इर्द-गिर्द के .. शायद ...

अब मन्टू अपनी हवा हवाई गाड़ी, जिसे टोटो गाड़ी या ई रिक्शा भी कहा जाता है, की ओर जा रहा है और साथ में रेशमा एवं उसकी सात किन्नरों की टोली भी। दरअसल रेशमा .. एक किन्नर होने के नाते .. अपनी टोली के साथ अभी सुबह-सुबह लगभग प्रतिदिन की भाँति मन्टू की टोटो गाड़ी में पीछे के 'पैसेंजर सीटों' के साथ-साथ 'ड्राइवर सीट' पर भी आगे-पीछे ठूँस-ठूँस के बैठ कर दो-तीन 'नर्सिंग होम' जा रही है। वो दोनों चलते-चलते बातों को आगे बढ़ाते हुए ..

मन्टू - " तुम्हारे मुँह से ये दकियानूसी सोच वाली बातें अच्छी नहीं लगती .. "

रेशमा - " मन्टू भाई .. अक्खा हिन्दुस्तान बोहनी को मानता है, तो .. अपुन लोगों को भी इद्रिच मानना माँगता है, वर्ना .. अपुन लोग बिरादरी से निकाल दिए जायेंगे .. " - बम्बईया (मुम्बईया) अंदाज़ में बोलते हुए ठहाके लगा कर रेशमा हँस रही है और प्रतिक्रियास्वरुप मन्टू भी मुस्कुरा रहा है।

मन्टू - " रेशमा .. पर आँखें मूँद कर अंधपरम्पराओं को सहर्ष या फिर किसी जाने-अन्जाने भयवश स्वीकार कर लेना भी तो हमारे बुद्धिजीवी होने पर एक प्रश्नचिन्ह चिपकाता महसूस होता है .. वो भी चेहरे की सुन्दरता बढ़ाने वाले तिल की तरह नहीं, बल्कि चेचक के दाग़ जैसे .. "

रेशमा - " आप मानो या ना मानो .. समाज के लोग तो मानते हैं .. बोहनी और जतरा जैसी मान्यताओं को .. है कि नहीं ? .."

मन्टू - " माना कि लोग मानते हैं और अगर हमने भी अपनी आँखें मूँदें वही सब मान लिया तो .. समाज में परिवर्तन क्योंकर आएगा भला ? .. जबकि सभी ये भी तो मानते हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है .. है कि नहीं ? बोलो ! .. "

बातें करते-करते सभी टोटो गाड़ी में लद गए हैं। 

रेशमा - " मन्टू भाई आज पहले चलते हैं आशीर्वाद नर्सिंग होम .. ठीक है ना ? " - अपनी टोली के समर्थन के लिए रेशमा उन सभी की ओर भी देख रही है। प्रतिक्रियास्वरूप कोई तो अपनी मुंडी उर्ध्वाधरतः ऊपर-नीचे हिला कर और कोई "हूँ" या "हाँ" बोलकर अपना समर्थन दे रहे हैं। 

मन्टू की टोटो गाड़ी अब निकल पड़ी है .. आशीर्वाद नर्सिंग होम के लिए .. दरअसल किन्नर होने के नाते लगभग रोज सुबह रेशमा अपनी टोली के साथ मिलकर मन्टू के टोटो गाड़ी से शहर के अलग-अलग हिस्से के विभिन्न 'नर्सिंग होम' में जा-जाकर वहाँ उपलब्ध 'रजिस्टर' से नवजात शिशुओं के निवास स्थान का पता मालूम करती है। उसके बाद ये लोग चार-चार की दो टोलियों में बँटकर अलग-अलग मुहल्लों में नवजात शिशुओं के घर-घर जाकर मान्यता और परम्परा के अनुसार शिशु को गोद में लेकर उसे अपने आशीर्वचनों से सजाते हैं। साथ ही ढोलक की थापों पर सभी नाचते-गाते हैं और नवजात शिशु के घर वालों से नेग लेकर जाते हैं। यही नेग उनके जीवकोपार्जन का साधन होता है, क्योंकि अन्य कमाने के अवसरों से उन्हें हमारे समाज ने वंचित रखा हुआ है .. शायद ...

अपनी टोटो गाड़ी को चला कर आशीर्वाद नर्सिंग होम की ओर बढ़ते हुए ...

मन्टू - " रेशमा ! .. तुमने बड़े-बड़े 'ब्रांडों' के 'शोरूम' में या उससे अटे पड़े 'मॉल' में भी बोहनी जैसे चोचले देखे या सुने हैं कभी ? .. "

रेशमा - " ना .. नहीं तो ! .. "

मन्टू - " वुडलैंड, तनिष्क, रेमण्ड इत्यादि के 'शोरूम' जैसे जगहों पर तो बोहनी वाली बात नज़र नहीं आती .. तो क्या इनके धंधे कमजोर होते हैं ? नहीं ना ? .. आम दुकानों से ज्यादा ही ये लोग दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की करते जाते हैं .. ये सब पोंगापंथी हम 'मिडिल क्लास' लोगों में ही ज्यादा है रेशमा "

रेशमा - " हाँ .. सो तो है .. पर .. समाज-बिरादरी भी तो कुछ .. "

मन्टू - " ये समाज-बिरादरी वाले चोचले भी हम जैसे 'मिडिल क्लास' लोगों में ही ज्यादा है, वर्ना .. 'सेलिब्रिटी' लोगों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उनकी दूसरी-तीसरी शादी कर लेने पर भी या फिर अन्तर्जातीय विवाह कर लेने पर भी लोग उन्हें बिरादरी से बाहर निकाल देंगे या कि .. कुछ और भी .. उल्टे .. इसी समाज के लोग उन्हें हाथों-हाथ लेते भी हैं और .. इतना ही नहीं .. उनके उन कृत्यों का चटखारे ले-लेकर बखान भी करते हुए मिल जाते हैं .. "

रेशमा - " हाँ .. ये भी सही है .. ऐसे तो सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं अपने इस देश-समाज में ही .. कुत्ते-कमीनों के ख़ून पीने वाले 'हीरो' और धन्नो नामक घोड़ी से अपनी इज़्ज़त बचाने की गुहार लगाने वाली 'हीरोइन' की जोड़ी भी तो कुछ ऐसी ही है .. है ना ? "

मन्टू 'नर्सिंग होम' के सामने 'ब्रेक' लगाते हुए ..

मन्टू - " लो भई .. आ गयी आप सब की आज की पहली मंज़िल .. "

रेशमा - " चलो .. आ जाओ जल्दी-जल्दी .. " 

तभी अचानक 'नर्सिंग होम' से बाहर आती हुई अंजलि और अम्मू पर रेशमा और मन्टू की भी नज़र पड़ गयी है ...

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, January 11, 2024

पुंश्चली .. (२७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२६)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - " सही बात बोल रहे हैं आप दोनों .. पर सभी लोग इतना सोचें तभी ना .. ख़ैर ! .. अब हमलोगों को यहाँ से निकलना चाहिए और अपने-अपने काम में लग जाने के साथ-साथ ललन चच्चा के लिए किराए का मकान भी खोजना है .." मयंक-शशांक को ये कहते हुए रेशमा अपने बटुए में पड़ी कुछ टॉफियाँ निकालते हुए कलुआ को बुला कर दे रही है। राह चलते जाने-अन्जाने बच्चों को प्यार से टॉफियाँ बाँटना रेशमा की आदतों में शुमार है।

गतांक के आगे :-

वैसे तो .. अब हर बार ये जरूरी नहीं होता कि रेशमा द्वारा बच्चों को दी गयी टॉफियाँ हर बच्चे खा ही लें। कुछ बच्चे तो देते ही अपने मुँह में हस्तांतरण कर लेते हैं और कुछ .. अपने जेब में डाल कर आगे बढ़ जाते हैं। गोद वाले कुछ बच्चे को उनकी माँ अपने हाथों से टॉफ़ी को 'रैपर' से निकाल कर फौरन खिला देती हैं और कुछ अपनी मुट्ठी में दबाए हुए आगे बढ़ जाती हैं। 

जो बच्चे या उनकी माँ रेशमा की दी गयी टॉफी जेब में डाल कर या मुट्ठी में दबा कर आगे बढ़ जाती हैं, तो रेशमा समझ जाती है, कि ये लोग तथाकथित नज़र लगने जैसी सोच से ग्रसित हैं और आगे जाने के बाद नज़रों से ओझल होते ही उनके द्वारा उस टॉफी को किसी नाले में या कचरे पर फेंकी जानी है। 

कोई-कोई बच्चे या उनकी माँ जब कभी भी 'रैपर' सड़क किनारे पड़े नगर-निगम के कूड़ेदान में ना फेंक कर वहीं गली-सड़क पर फेंक देती हैं, तो रेशमा स्वयं उसे उठाकर यथोचित जगह पर डालते हुए उन्हें आगे से कूड़ेदान में डालने की नसीहत भी दे डालती है। साथ ही वह उस बच्चे को टॉफी खाने के फ़ौरन बाद तुरन्त साफ़ पानी लेकर अच्छे तरीके से कुल्ला करने के लिए भी समझाती है, वर्ना उनके दाँत सड़ जायेंगे .. ऐसा बतलाती भी है।

कई बच्चे तो चुपचाप मुस्कुराते हुए उसकी दी हुई टॉफ़ी गड़प कर जाते हैं और कई जाते-जाते उसे 'थैंक यू दीदी' या 'थैंक यू  मौसी' बोल जाते हैं। कई बच्चों की माँएँ भी 'थैंक यू रेशमा' बोल जाती हैं या अपने बच्चे से ऐसा बोलने के लिए कहती हैं। तब रेशमा बड़े ही स्नेह के साथ मुस्कुराते हुए उस बच्चे को समझाती है कि जब आपको 'मम्मी' दूध पिलाती है या खाना खिलाती है तो क्या .. आप उन्हें 'थैंक यू' बोलते हो ? या .. अगर आपके 'पापा' आपके पढ़ने-लिखने के लिए किताब-कॉपी बाज़ार से खरीद कर लाते हैं तो क्या आप उन्हें 'थैंक यू' बोलते हो ? .. नहीं ना ? .. क्यों ? .. क्योंकि वे लोग आपके सगे हैं .. है ना ? और .. हमें ये 'थैंक यू' बोल कर हमारे पराया होने का एहसास करवाना चाहते हो ना आप ? .. है ना ? .. नहीं बेटा .. अब से हमारी टॉफ़ी के बदले 'थैंक यू' मत कहना हमको .. ठीक है ? .. हम भी तो आपके अपने ही हैं ना बेटा ... है ना ?

अब तक मयंक और शशांक अपने जगह से उठ कर रसिक के पास पहुँच चुके हैं ..

मयंक - " रसिक भाई ! .. सुबह से अभी तक जितनी भी चाय मन्टू जी और रेशमा की 'टीम' के साथ-साथ हम दोनों ने पी है .. वो सारी चाय का हिसाब हमारे खाते में लिख लीजिएगा .. "

तभी रेशमा भी अपने बटुए से रुपए निकालते हुए रसिक के पास पहुँचती है ..

रेशमा - " ये गलत बात है मयंक भईया .. हर बार आप ही पैसा दीजिएगा ? .. कभी हमलोगों को भी तो मौका दीजिए .. अब आगे से आपके साथ चाय नहीं पीनी है हमलोगों को .. "

शशांक - " इसमें इतना गुस्साने वाली कौन-सी बात हो गयी .. अगली बार आप दे देना .. "

रेशमा - " अगली बार .. अगली बार बोल के आप दोनों लोग हर बार हमें टरका जाते हैं .. वो अगली बार फिर कभी आता ही नहीं .." 

चाँद - " सही फ़रमा रही है रेशमा .. कभी हमें भी तो ख़िदमत का मौका दिया कीजिए .. अब ये क्या कि .. हर बार .. "

मन्टू - " अभी तो आपलोगों की नौकरी भी नहीं लगी .. अभी आप दोनों पढ़-लिख ही रहे हैं .. आप दोनों के अभिभावकों के भेजे पैसों पर तो .. आपलोग खुद ही आश्रित हो .. है ना ? .. "

रेशमा - " हम सब तो कमाने वाले हैं .. भले ही सरकारी नौकरी नहीं है तो क्या हुआ .. कमा-खा तो रहे हैं ना ? "

मन्टू - " देश भर की जनसंख्या के कितने ही प्रतिशत लोग सरकारी नौकरी करते हैं ? .. बतलाओ ना जरा ! ... तीन से चार प्रतिशत ही तो .. बाक़ी के सत्तानवे-छियानवे प्रतिशत लोग भी तो इंसान ही हैं और इंसान की तरह अपना परिवार चला रहे हैं .. नहीं क्या ? .."

चाँद - " ये सब बातें करने का वक्त नहीं है अभी मन्टू भाई .. अभी तो बस इतना कहना है कि थोड़ा बहुत ये लोग 'ट्यूशन' पढ़ा कर कमाते हैं .. वो सब भी हम जैसे लोगों पर ख़र्च कर देते हैं .. पर आगे से ऐसा नहीं करने देंगे हम लोग इनको .. "

ललन चाचा अपनी जगह से बैठे-बैठे ही .. जो अभी तक घर खाली करने वाली 'नोटिस' की अपनी ही उधेड़बुन में तल्लीन थे .. अचानक इन सभी की बातों पर गौर करके ..

ललन चाचा -" यहाँ पर तुमलोगों के बीच सबसे बड़े तो हम हैं .. फिर ऐसे में तो चाय की क़ीमत तुम दोनों के देने से मेरे लिए भी शर्मिंदगी वाली बात हो गयी .. है कि नहीं रेशमा ? .. बोलो ! .. "

रेशमा - " सही कह रहे हैं ललन चच्चा आप .. "

मयंक दोनों हाथ जोड़ कर ललन चाचा से माफ़ी माँगते हुए ..

मयंक - " ना - ना चच्चा .. ऐसी बात नहीं है .. आप तो सभी के चाचा हैं .. ऐसे में भतीजे-भतीजियों का फ़र्ज़ नहीं होता क्या कि ..  वो लोग आपको चाय पिलाएँ .. बोलिए ? .." 

अपनी जगह से बैठे-बैठे ही आशीर्वाद वाली मुद्रा में अपनी दायीं हथेली हवा में लहराते हुए मुस्कुरा कर .. 

ललन चाचा - " तुम दोनों से बातों में जीत पाना बहुत ही मुश्किल है बेटा .. "

सभी ललन चाचा के मुस्कुराते चेहरे को और भी ख़ुशी प्रदान करने के ख़्याल से जोर-जोर से हँसते हुए समवेत स्वर में कह रहे हैं .. " सही बोले चच्चा " ...

तभी मुस्कुराते हुए सभी की ओर देख कर चाँद के कँधे पर अपनी दायीं हथेली थपथपा कर मयंक कह रहा है ..

मयंक - " अच्छा .. आगे की बात को आगे देखेंगे .. अभी फ़िलहाल तो हमलोग चलें यहाँ से .. अच्छा तो हम चलते हैं .."

ये कहते हुए या .. यूँ कहें कि एक पुराने फ़िल्मी गाने के तर्ज़ पर "अच्छा तो हम चलते हैं" गाते हुए मयंक और शशांक .. दोनों ही अपने 'पी जी' की ओर चले जा रहे हैं .. तभी ललन चाचा भी .. जो अब तक इन लोगों की सकारात्मक सांत्वना से पहले की ही तरह प्रफुल्लित होकर .. सभी को बतलाते हुए अपने घर की ओर जा रहे हैं .. तभी ...

चाँद - " हम भी चले .. मेरी भी एक 'बुकिंग' है .. एक ग्राहक को उसके घर से ले जाकर उसे ट्रेन पकड़वानी है .." 

मन्टू - " ठीक है .. कल सुबह मिलते हैं .." 

रेशमा भी प्रत्युत्तर में किसी उद्घोषिका के अंदाज़ में चाँद की ओर अपना रुख़ करके ...

रेशमा - " हाँ - हाँ .. ठीक है .. अब कल मिलते हैं .. एक छोटे से 'ब्रेक' के बाद .. " और फिर मन्टू की ओर मुख़ातिब होकर - " मन्टू भईया चलिए .. अब तो हमलोग भी चलें .. काफ़ी देर हो गयी है आज तो .. आपकी आज की बोहनी करवानी है .. "

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, January 4, 2024

पुंश्चली .. (२६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

 


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२५)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

मुकेश - " अगर आप हमको बार-बार नहीं टोकते, प्यार से नहीं समझाते या हमको ज़बरन नशामुक्ति केन्द्र तक नहीं ले जाते .. समय-समय पर मेरे इलाज के लिए आर्थिक मदद नहीं करते, तो हम भी आज .. " 

गतांक के आगे :-

रेशमा - " मुकेश भईया ! .. आर्थिक मदद केवल आपको ही नहीं .. ललन चच्चा तो इस तरह की मदद .. ना जाने कितने जरूरतमंद लोगों की करते आ रहे हैं .. है ना चच्चा ? "

मन्टू - " सच में .. कितनों का उद्धार किया है चच्चा ने .. ये सब बतलाने और कहने-सुनने वाली बात नहीं है और .. चच्चा जी को इन सब बातों के ढोल पीटना पसन्द भी नहीं है। "

चाँद - " इनका शुरू से उसूल रहा है कि नेकी कर दरिया में डाल .. "

भूरा - " और मेरा उसूल है कि गीला कचरा और सूखे कचरे को अलग-अलग उनके तयशुदा डब्बे में ही डाल.. ना कि इधर-उधर कहीं भी उछाल .. " - दूर से मुहल्ले की ओर गाना- "~~ गाड़ी वाला आया, घर से कचरा निकाल ~~~ " बजाते हुए नगर-निगम की आती हुई गाड़ी को देख कर सभी को हँसाने के लिए ऐसा बोल भूरा स्वयं भी हँस रहा है और सभी को सम्बोधित करते हुए - " हमारी गाड़ी आ गयी .. अब हम चले अपनी आज की 'ड्यूटी' के लिए .."

मयंक - " किसी की 'ड्यूटी' करने नहीं .. बल्कि .. मानो, सोचो और बोलो कि आप जा रहे हो अपने लिए रोटी-दाल कमाने "

यहाँ रसिक चाय दुकान पर ललन चच्चा के आने के पहले से ही शशांक और मयंक, दोनों ही, अपने तीनों नए मित्रों- समर, अमर और अजीत के यहाँ से वापस जाने के बाद अपने दो अन्य शैक्षणिक मित्रों के अचानक 'कॉल' आ जाने पर 'कॉन्फ़्रेंस कॉल' पर पढ़ाई से सम्बन्धित कुछ जरूरी बातों पर व्यस्त रहने के कारण थोड़ा हट कर .. यहीं पर पास के पिलखन के पेड़ के नीचे वाले चबूतरे पर बैठे हुए थे। वहीं से उठकर अभी-अभी अपने 'पी जी' जाने के लिए सभी से औपचारिक अनुमति लेने आए हैं। तभी आते-आते में भूरा की 'ड्यूटी' जाने वाली बात सुनकर मयंक ने अभी अपनी प्रतिक्रिया दी है।

भूरा - " हाँ.. हाँ .. वही मयंक भईया .. वही .. मतलब दाल-रोटी कमाने जा रहे हैं .."

मयंक की बोली बात को भूरा के नाटकीय ढंग से दोहराने के कारण .. दोहराते ही सब जोर से हँसने लगे हैं। भूरा नगर-निगम की गाड़ी के पिछले हिस्से में लद कर और सभी को हाथ हिला-हिला कर विदा लेते हुए मुहल्ले की ओर जा रहा है।

चूँकि शशांक और मयंक दुबारा यहाँ अभी-अभी आने के कारण, ललन चच्चा के यहाँ आने के बाद हुई सारी बातों से अनभिज्ञ हैं, इसीलिए दोनों मुस्कुराते हुए ललन चच्चा को अपने दोनों हाथों को जोड़ कर प्रणाम कर रहे हैं। तभी लगे हाथ ललन चच्चा दोनों को पास बुलाकर, दोनों के सिर पर अपने हाथ रखकर अपने आशीर्वचनों से सुसज्जित कर रहे हैं। तभी ...

रेशमा - " मयंक भईया ! .. ललन चच्चा के लिए एक चिन्ता करने वाली मुसीबत आ गयी है .. उनको एक महीने के भीतर घर खाली करने की 'नोटिस' मिली है .. हम सभी को अपना-अपना काम करते हुए भी .. समय निकाल कर इसी मुहल्ले में या आसपास के इलाके में इनके लायक .. इनके लिए किराए का मकान तलाशना होगा .."

मयंक - " जरूर .. "

शशांक - " ये भी कोई बोलने की बात थोड़े ही ना है .."

मयंक - " निःसन्देह .. हम सभी मिलकर खोजेंगे .. आप अपनी चिन्ता भूल जाइए चाचा जी .. "

शशांक - " आपकी चिन्ता, अब .. हम सभी की चिन्ता है .."

मन्टू - " इस काम में हमलोगों की मदद तो .. रसिक भी करेगा .."

चाँद - " हाँ .. सही बोले .. दिन भर इसकी दुकान पर इसकी कड़क चाय पीने तो .. इस मुहल्ले के अलावा आसपास के लोग भी आते-जाते रहते हैं .. "

मयंक - " हम और शशांक मिल कर एक 'चार्ट पेपर' पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिख कर रसिक की चाय दुकान पर एक 'नोटिस' टाँग देते हैं .. लिख देंगे कि .. "किराए पर एक घर की आवश्यकता है - विशाखा" .. ठीक रहेगा ना ? " 

अब रसिक दूर ही से अपना नाम सुन कर ख़ुशी से बीच में टपक पड़ा है।

रसिक - " पर .. 'पोस्टर' के नीचे में ललन चच्चा का नाम क्यों नहीं ? .. विशाखा बिटिया का क्यों ? "

ललन चच्चा अपने समर्थन में होने वाली सहायता के लिए बनायी जा रही सभी की योजनाओं को देख-सुन कर मन ही मन आश्वस्त लग रहे हैं, जिसकी झलक उनके चेहरे पर भी दिख रही है। 

वैसे भी अनुभवी लोगों का मानना या कहना है कि पारदर्शी सोच व चरित्र वालों का चेहरा प्रायः पारदर्शी ही होता है .. उन लोगों के जो मन में, वही चेहरे पर झलकता है और कलुषित सोच वालों का चेहरा तो कुछ और दर्शाता है, पर मन ही मन में कुछ और ही चल रहा होता है।

रसिक के अभी वाले ऊहापोह भरे सवाल पर रेशमा की टोली से अचानक अनुष्का बोल पड़ी है ...

अनुष्का - " दरअसल .. रसिक भईया .. ललन चच्चा के बदले, विशाखा का नाम रहेगा तो .. लड़की का नाम देख कर लोग फ़ौरन अपनी प्रतिक्रिया देंगे। "

रसिक - " अच्छा ! .. ऐसा है क्या ? "

अनुष्का - " और नहीं तो क्या ! .. देखते नहीं हैं .. अगर राह चलते दुर्घटनावश कोई लड़का या पुरुष गिर जाता है, तो लोग जल्दी पास भी नहीं फटकते और उल्टा उसका मज़ाक बनाते हैं। वहीं अगर .. कोई लड़की या कोई महिला राह चलते गिर जाती है तो .. लोग अपना सारा काम छोड़ कर उसको उठाने के बहाने .. उसको छूने की होड़ में लग जाते हैं .. नहीं क्या ? "

रसिक - " अरे हाँ .. एकदम सही .. ऐसा तो कई दफ़ा इसी चौक पर देखने के लिए मिल जाता है। "

शशांक - " केवल .. इतना ही नहीं .. इस पुरुष प्रधान समाज के बहुमुखी आकर्षण के केन्द्र में प्रायः महिलाएँ ही होती हैं .. "

मयंक - " तभी तो .. देखते नहीं क्या ? .. कि 'लिपस्टिक-नेल पॉलिश' या फिर 'सैनिटरी नैपकिन' के विज्ञापनों में तो लड़कियों-औरतों को बड़ी-बड़ी 'कम्पनी' वाले दिखलाते ही हैं और .. मर्दों के इस्तेमाल करने वाले 'रेजर-ब्लेड' से लेकर चड्डी-बनियान जैसे उत्पाद हों या फिर 'कॉन्डोम' .. इन सभी के विज्ञापनों में भी मर्दों से ज्यादा औरतों को ही 'फोकस' किया जाता है .."

शशांक - " ताकि पुरुषों के इस्तेमाल किए जाने वाले उन उत्पादों वाले विज्ञापनों की ओर लड़कियों-औरतों के प्रदर्शन के बहाने .. या यूँ कहें कि अंग प्रदर्शन वाले आकर्षण के कारण पुरुष उपभोक्ताओं का ध्यान जाए और उनके उत्पादों के वे लोग तादाद में क्रेता बन सकें और .. उन कम्पनियों द्वारा ऐसे ऊलजलूल विज्ञापनों को बनाने और उसे प्रसारित करने में हुए ख़र्चों से और उत्पादन की लागत से भी कई गुणा ज्यादा मुनाफ़ा उन कम्पनियों को हो सके .. "

मयंक - " ये तो हुई आकर्षण के केन्द्र बिन्दु को भुनाने  वाले विज्ञापनों की बात .. विज्ञापनों का एक स्वरूप और भी है .. वो है .. भयभीत करने वाले अंड बंड विज्ञापनों को दिखला कर .. पहले तो मन में डर पैदा करते हैं .. फिर उस डर से छुटकारा पाने के लिए अपने उत्पादों को इस्तेमाल करने की नसीहत देकर आम जनता से रूपए ऎंठने का काम करते हैं .. मसलन- मच्छरों, चूहों के अलावा रोगाणुओं को नष्ट करने वाले हमारे बाज़ारों में उपलब्ध ढेर सारे उत्पाद .. "

शशांक - " जैसे सदियों से ब्राह्मण लोग स्वर्ग-नर्क, मोक्ष, पाप-पुण्य जैसी बातों का डर दिखला कर पादरियों और मौलानाओं की तरह धर्म-मज़हब की आड़ में आमजन की आस्था का नाजायज फ़ायदा उठाने के लिए उन्हें सदियों से सब्ज़बाग दिखलाते आ रहे हैं .. नहीं क्या ? .."

मयंक - " कई गलतियाँ हमारी भी हैं .. कहीं ना कहीं दोषी हम भी हैं .. हमलोग अपनी जरूरत की चीजें कम खरीदते हैं, बल्कि विज्ञापनों को देख कर अपनी जरूरतें पैदा करते हैं और फिर .. उन आभासी जरूरतों की चीजों को खरीद कर हम बेवकूफ़ बनते रहते हैं .. "

शशांक - " हमें अपने बुद्धिजीवी दिमाग़ पर जोर देकर कभी सोचना चाहिए .. चिंतन-मनन करना चाहिए कि अगर .. गोरा करने वाली क्रीम वास्तव में होती तो अफ़्रीकी मूल के सारे लोग अब तक कश्मीरियों या अँग्रेज़ों की तरह गोरे हो गए होते या फिर बराक ओबामा और उनकी पत्नी मिशेल ओबामा या ओपेरा विनफ्रे और व्हूपी गोल्डबर्ग जैसी प्रसिद्ध और अमीर लोग भी अब तक काली नहीं, बल्कि गोरी नज़र आतीं .. "

मयंक - " सही में .. वैसे ही अगर सचमुच में .. लम्बाई बढ़ाने वाली कोई दवा होती तो चीन-नेपाल के लोग अभी तक नाटे कद के नहीं रहते और अगर बाल उगाने वाले कोई तेल सच में होते बाज़ार में तो .. अब तक कोई टकला नहीं बचता .. "

रेशमा - " सही बात बोल रहे हैं आप दोनों .. पर सभी लोग इतना सोचें तभी ना .. ख़ैर ! .. अब हमलोगों को यहाँ से निकलना चाहिए और अपने-अपने काम में लग जाने के साथ-साथ ललन चच्चा के लिए किराए का मकान भी खोजना है .." मयंक-शशांक को ये कहते हुए रेशमा अपने बटुए में पड़ी कुछ टॉफियाँ निकालते हुए कलुआ को बुला कर दे रही है। वैसे भी राह चलते जाने-अन्जाने बच्चों को प्यार से टॉफियाँ बाँटना रेशमा की आदतों में शुमार है।

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】