Saturday, May 29, 2021

आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-२).

प्रायः किसी भी शहर की जीवन शैली (Life Style) के आधुनिकीकरण की रफ़्तार बहुत हद तक वहाँ की प्रवासी आबादी (Migrant Population) की मिलीजुली जीवन शैली से प्रभावित होती रहती हैं। चाहे उस प्रवास का कारण- किसी प्रकार का उपनिवेशवाद हो या उस शहर के कल-कारखानों या अन्य संसाधनों से मिलने वाले रोजगार के अवसर हों या फिर कोई और भी अन्य अवसर। मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, हैदराबाद इत्यादि जैसे कई महानगरीय क्षेत्रों (Metropolitan City) के अलावा झारखण्ड के बोकारो, जमशेदपुर (टाटानगर), पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर, छत्तीसगढ़ के भिलाई इत्यादि जैसे तमाम शहर भी इसके प्रमाण हैं .. शायद ...

पर वर्तमान में प्रवासी आबादी की मिलीजुली जीवन शैली के प्रभाव की कमी को टेलीविजन जैसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (Electronic Media) और सोशल मीडिया (Social Media) भी पूरी करती नज़र आती हैं। जिससे छोटे से छोटे मुहल्ले-गाँव-क़स्बे तक की जीवन शैली के आधुनिकीकरण ने आसानी से पाँव पसारने की कोशिश की है। इसमें सहयोग करने के लिए या यूँ कहें कि इन सब से अपना स्वार्थ साधने के लिए कई राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों ने भी अपने उत्पादों के एक रूपये से लेकर पाँच-दस रूपये तक के पाउच पैकिंगों (Pouch Packing) से बाज़ारों को सजाया है; ताकि इस भौतिक आधुनिकीकरण की होड़ में छोटे-मंझोले इलाकों के न्यूनतम से न्यूनतम आय वाले भी शामिल हो कर आधुनिकीकरण की आभासी तृप्ति पा सकें और किसी अन्योन्याश्रय सम्बन्ध की तरह दूसरी ओर कम्पनियाँ भी मालामाल हो सकें .. शायद ...

परन्तु किसी महानगरीय क्षेत्र में रह कर इन भौतिक आधुनिकीकरण के बावजूद भी बहुधा हम मानसिक रूप से उसी समाज की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते पाए जाते हैं, जिस पैतृक समाज से हम संबद्ध होते हैं। यही कारण है कि आज भी गाँव तो गाँव, कई महानगरीय क्षेत्रों में भी कई दवा दुकानों या जेनरल स्टोरों (General Stores) पर कई ग्राहकों (स्त्री, पुरुष दोनों ही) को दुकानदार के हाथों में अपने किसी मनचाहे सैनिटरी नैपकीन (Sanitary Napkins) के ब्रांड (Brand) के नाम लिखे हुए एक कागज़ के टुकड़े की पुड़िया थमा कर, उससे अख़बार में लिपटा हुआ सैनिटरी नैपकीन सकुचाते हुए लेते देखा जाता है .. शायद ...

बचपन में तब तो ये बातें समझ से परे होती थीं, जब घर की कोई महिला अभिभावक किसी अन्य हमउम्र या छोटे सदस्य को ये बोलते सुनी जाती थीं कि - "फलां ! .. जरा खाने के लिए मर्तबान से अचार निकाल दो।" या "फलां ! .. जरा-सा दो-चार दिनों तक सुबह-शाम तुम ही पूजा-घर में दिया जला देना। कुछ दिनों तक हम नहीं छू सकते।" .. और ... यह सिलसिला लगभग हर महीने चार-पाँच दिनों तक देखने-सुनने के लिए मिलता था। बाल-मन उलझन महसूस करता कि आख़िर इस नहीं छूने की वज़ह क्या हो सकती है? तब खुद के बीमार होने की बात जैसा कुछ गोलमोल जवाब दे कर चुप करा दिया जाता था। जैसे .. अक़्सर चुप करा दिया जाता था, जब घर में किसी नन्हें मेहमान के आगमन होने पर घर के हम छोटे बच्चे बड़ों से ये पूछते कि "ये छोटा शिशु कहाँ से आया है ?" .. तो बड़े हँसते हुए बतलाते कि .. "चाची या भाभी के पेट में जो बड़ा-सा घाव (गर्भ) होने से पेट बड़ा-सा हो गया था ना ... तो उसी का ऑपरेशन करवाने अस्पताल गई थी .. तो वहीं से ले कर आई हैं।" पर आज सभी समाज-गाँव-शहर में  शत्-प्रतिशत तो नहीं, पर .. अधिकांश जगहों पर परिदृश्य बदल चुका है। अब आज तो घर के छोटे-बड़े हम सभी एक साथ घरों में बैठ कर इत्मिनान से टेलीविजन पर विभिन्न चैनलों के माध्यम से अपने मनपसन्द कार्यक्रमों को देखते हुए, बीच-बीच में आने वाले कई-कई सैनिटरी नैपकिनों या कंडोमों के कई ब्रांडों के रोचक विज्ञापन सहज ही देखते रहते हैं। साथ ही हमारे साथ हमारी नई पीढ़ी की उपज कई सीरियलों में प्रेम-दृश्यों के भी अवलोकन बख़ूबी करती हैं और उसको समझती भी हैं .. शायद ...
फिर भी .. आज भी कई बार भूलवश या असावधानीवश किसी लड़की या स्त्री के पोशाक के पीछे की ओर उन दिनों वाले रक्त के दाग़ किसी राह चलते मनचले को दिख जाए तो .. उनकी फूहड़ फब्तियों का सबब बन जाता है और कुछ दोहरी मानसिकता वालों के लिए कुटिल मुस्कान का साधन। जब कि हमारी सोच टेलीविजन पर अक़्सर उस डिटर्जेंट पॉवडर (Detergent Power) विशेष के विज्ञापन के तर्ज़ पर ये होनी चाहिए कि - "कुछ दाग़-धब्बे अच्छे होते हैं।" .. शायद ...

अब भले ही जर्मनी के किसी 'वॉश यूनाइटेड' नामक एनजीओ ने सन् 2014 ईस्वी में अठाईस मई को पूरी दुनिया में हर वर्ष "मासिक धर्म स्वच्छता दिवस" या "विश्व मासिक धर्म दिवस" मनाने के सिलसिला की शुरुआत की हो, परन्तु हमारे भारत के कई राज्यों में सदियों से इस दिवस को त्योहार के रूप में अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। हालांकि उनके स्वरुप अपनी मूल भावना से भटक कर अंधपरम्परा, विकृत धार्मिकता, अंध-आस्था  और अंधविश्वास की दलदल में अपभ्रंश हो चुके हैं .. शायद ...

वैसे तो आज भी कई समाज में घर की किसी लड़की को पहली बार रजस्वला होने पर इस बात को छिपाया जाता है। इसके बारे में हम खुलकर बात नहीं कर पाते, बल्कि ... फुसफुसाते हैं। वहीं हमारे देश के कुछ हिस्सों में रजस्वला की शुरुआत का जश्न मनाया जाता है। अपने देश में कहीं-कहीं इस आर्ताचक्र, रजचक्र, मासिक चक्र, ऋ़तुचक्र या ऋतु स्राव के नाम पर त्योहार भी मनाया जाता है। पर समाज के अधिकांश हिस्सों में आज भी इन शाश्वत और जीवनाधार विषयों पर इस तरह से खुल के बात करनी वर्जित है। आज भी कई बुद्धिजीवियों के बीच, ऐसा करने वालों को बुरी मानसिकता का इंसान माना जाता है या यूँ कहें कि ऐसी बातों की चर्चा या चर्चा करने वाला व्यक्ति जुगुप्साजनक माना जाता है .. शायद ...
                                                       ख़ैर ! .. फ़िलहाल तो .. कुछ समझदार लोगों को जुगुप्सा करने देते हैं और ... फिर तनिक विश्राम के बाद पुनः उपस्थित होते हैं, इसके अगले और आख़िरी भाग- "आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-३)" के साथ .. बस यूँ ही ...



Friday, May 28, 2021

आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-१).

प्रकृति प्रदत्त पदार्थों-जीवों का कुछ-कुछ जाना हुआ और कुछ-कुछ अभी भी अंजाना-अनदेखा-सा समुच्चय भर ही तो है हमारा समस्त ब्रह्माण्ड .. शायद ... तभी तो शायद हमारे पाषाणकालीन पुरख़े भी प्रकृति की शक्ति को नमन करते होंगे। कालान्तर में पुरखों की बाद की कड़ियों ने इसी शाश्वत सत्य- प्रकृति का मानवीकरण करते हुए भगवान को गढ़ना शुरू कर दिया होगा। हमारे पुरख़े आग, पहिया, कृषि इत्यादि की प्राप्त जानकारी या ख़ोज के साथ अलग-अलग भौगोलिक परिवेशों में कई-कई क्षेत्रों में कई-कई प्रकार के अलग-अलग खोजों के साथ विकास करते हुए पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों में आज यहाँ तक पहुँचे हैं और भविष्य में खोज निरन्तर जारी भी रहनी है .. शायद ...

इसी प्रकृति की देन हम मानवों की शारीरिक संरचनाओं में कुछ पूरक अन्तरों के आधार पर ही मूलतः दो जातियों- (अभी फ़िलहाल तीसरी जाति- किन्नरों की बात नहीं करें तो)- स्त्री-पुरुष, औरत-मर्द, मादा-नर का जमघट ही तो है हमारी पृथ्वी पर। इसी प्रकृति ने स्त्री जाति को पुरुष जाति से इतर गर्भाधान की एक पीड़ादायक पर अनमोल-अतुल्य शक्ति प्रदान की है, जिस से वह हम मानव की दोनों जातियों की नस्लों की कड़ी रचती है। उम्र की जिस देहरी पर स्त्री जब अपनी बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश करते हुए इस प्रकृति प्रदत्त वरदान हेतु सक्षम होने के लिए अग्रसर होती है, तभी देह के दरवाज़े पर अनायास एक अन्जानी-सी दस्तक होती है और ... बचपन के अल्हड़पन में ख़लल डालने वाली उसी दस्तक को मासिक धर्म, रजोधर्म, माहवारी या महीना (Menstural Cycle, MC या Period) कहते हैं .. शायद ...

सर्वविदित है कि आज अठाईस मई को पूरी दुनिया में "मासिक धर्म स्वच्छता दिवस" या "विश्व मासिक धर्म दिवस" मनाया जाता है; जिसका आरम्भ जर्मनी के एक एनजीओ (NGO-Non-Governmental Organization)-  वॉश यूनाइटेड (Wash United) ने सन् 2014 ईस्वी में किया था। इसके अठाईस तारीख़ को ही मनाने का कारण शायद मासिक घर्म के चक्र का अठाईस दिनों का होना है। इसको मनाने का उद्देश्य लड़कियों या महिलाओं को महीने के उन पाँच दिनों में स्वच्छता और सुरक्षा के लिए विश्व स्तर पर जागरूक करना था या है भी .. शायद ...

यूँ तो यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। जिसके तहत दस से पन्द्रह साल की आयु के मध्य लड़कियों के अण्डाशय (Ovary) में एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रोन (Estrogen & Progesterone) नामक हार्मोन (Hormone) उत्पन्न होने के कारण अण्डाशय हर महीने एक विकसित डिम्ब (अण्डा/Egg) उत्पन्न करना शुरू कर देते हैं। वह अण्डा, अण्डाशय को गर्भाशय (Uterus) से जोड़ने वाली अण्डवाहिका नली (फैलोपियन ट्यूव/Fallopian tube) के द्वारा,  गर्भाशय में जाता है। जिसको अण्डोत्सर्ग (ओव्यूलेशन/Ovulation) कहते हैं। इसी दौरान गर्भाशय रक्त युक्त झिल्ली की एक ताज़ी परत बनाता है, जहाँ उसका अस्तर रक्त और जैविक तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है ताकि अण्डा उर्वरित हो सके और शिशु के रूप में विकसित हो सके। इसी डिम्ब का किसी पुरूष के शुक्राणु से सम्मिलन न होने पर यह, गर्भाशय की रक्त युक्त झिल्ली जिसका उपयोग नहीं होता है, के साथ एक स्राव बन कर योनि से निष्कासित हो जाता है। जिसको मासिक धर्म कहते हैं, जिस दौरान तीन से सात दिनों तक में लगभग बीस से साठ मिलीलीटर रक्तस्राव होता है। इसके एक बार आरम्भ होने के बाद हर महीने सामान्यतः अठाईस दिनों के बाद इसकी पुनरावृत्ति होती है, जो प्रायः गर्भवती के गर्भकाल में या रजोनिवृत्ति शुरू होने के बाद ही रूक पाती  है।

बहरहाल हम भी रुक कर विश्राम कर लेते हैं और आप भी और .. इसके अगले भाग "आषाढ़ के वो चार दिन ... (भाग-२)" के साथ मिलते हैं .. बस यूँ ही ...



Wednesday, May 19, 2021

प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-४ ). [ अन्तिम भाग ].

 प्रिया संग मानसिक संवाद ...

समय आया बुरा बिखराने के लिए शायद

संबंधों के सगे होने के सारे लगाए क़यास।

बिखरते हैं आँधियों में दुर्बल डालों के नीड़

मानो कर के बेकार पंछियों के सारे प्रयास।


कुछ संबंधों जैसे छूटे गंध औ स्वाद, तब भी

प्रिया संग जारी मानसिक संवाद, हो उदास।

बिस्तर भर सिमटा-फैला है जीवन-विस्तार,

डगमग-डगमग है सारा दिनचर्या विन्यास।


हर क्षण संविधान के अनुच्छेद चौदह वाले 

समानता के अधिकार का टूट रहा विश्वास।

डाल से लटका आख़िरी पत्ता भी गिरा रहा, 

वो झोंका बंजारा-आवारा हवा का बिंदास।


लाचार हैं हम, हुए असमर्थ संत्राण भी सारे  

दूर करने में इन दिनों बींधते हुए ये संत्रास।

बन रहा आए दिन .. कभी कोई पड़ोसी या 

कभी सगा भी महामारी कोरोना का ग्रास।



Monday, May 17, 2021

प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-३ ).

ऐसे नाज़ुक वक्त में सोशल मीडिया पर मित्रों की लम्बी फेहरिस्त बारिश के बाद उग आए इंद्रधनुष के तरह आभासी लगने लगते हैं और शायद सच में होते भी हैं। जो दूर से सतरंगी लगते तो हैं , पर .. बिलकुल आभासी। वैसे हम भी तो इन से इतर नहीं। ऐसे में कबीर जी फिर से अपनी पंक्तियों - " बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय । जो दिल खोजूं आपना , मुझसे बुरा न कोय ।। " के साथ प्रासंगिक जान पड़ते हैं। सच में .. ऐसे पलों में इन आभासी दुनिया की सच्चाई का सहज़ ही आभास हो जाता है। परन्तु .. इन में से भी .. अगर .. कोई एक-दो लोग भी/ही सही .. लगभग माह भर से सोशल मीडिया पर हमारे नदारद होने के कारण उत्सुकतावश मैसेंजर ( Messenger ) पर पाठ संदेश ( text message ) भेज कर या अचानक कॉल ( Call ) कर के हालचाल पूछते हैं , तो .. संक्षेप में कहूँ तो .. बस .. ये कहना शायद काफी होगा कि  " अच्छा लगता है " .. बस यूँ ही ...

चेन्नई के ऐसे ही एक शुभचिन्तक से "कबसुरा कुदिनेर" ( Kabasura Kudineer ) नामक काढ़ा का पता चला , जो हमारे बाज़ार में उपलब्ध काढ़ा से कई गुणा कारगर और बेहतर है। उनके अनुसार गत वर्ष कोरोनकाल के दरम्यान दक्षिण भारत में वहाँ की सरकार द्वारा इनके पैकेट्स आमजन को मुफ़्त में बाँटे गए थे। हमारे स्थानीय बाजार में उपलब्ध नहीं होने के कारण हम ने इसे ऑनलाइन मंगवाया है। पीने में काफ़ी कड़वा तो है , पर ...
स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के दरम्यान ऐसे में बिस्तर पर पड़े-पड़े प्रायः दूरभाष से या पड़ोसियों के द्वारा किसी पड़ोसी या किसी रिश्तेदार के कोरोना के कारण गंभीर बीमार होने की ख़बर मिल रही होती है। साथ ही कभी किसी पड़ोसी या अलग-अलग शहर- गाँव में रहने वाले रिश्तेदारों या जान-पहचान वालों के असमय गुजर जाने की ख़बर मिलती रहती है। सुन कर मन घबराता है। इस बार स्थानीय मंचों और सम्मेलनों में अक़्सर मिलने के कारण हुई पहचान वालों में से भी कई लोगों को कोरोना ने हम सभी से झपट लिया है। कभी-कभी किसी के बीमार होने के बाद हमारी तरह या हम से भी पहले और बेहतर स्वस्थ हो जाने की ख़बर आती रहती है। बिस्तर पर पड़े-पड़े लगभग हर दिन सड़क से गुजरते एम्बुलेंसों के सायरन की आवाज़ कानों तक आने पर कलेजे में एक अज़ीब सी हूक उठती है।
किसी-किसी दिन तो .. ऐसे माहौल में भी लाउडस्पीकर पर आस-पास से तथाकथित शिव-चर्चा ( ? ) के नाम पर कुछ विशेष आस्थावान महिलाओं की बेसुरी आवाज़ों में फ़िल्मी गानों की पैरोडी से सजे तथाकथित भजन के कानफाड़ू शोर मन को विचलित करते हैं। तो किसी रोज शाम से लेकर देर रात तक डी. जे. ( D J ) , ढोल-ताशे , बैंड-बाजे , ठेलों पर बजने वाले ऑर्केस्ट्रा और पटाख़ों की आने वाली कानफाड़ू आवाज़ें व्यथित कर जाती हैं ; क्योंकि अच्छे संयोग से या बुरे संयोगवश हमारे वर्तमान ठिकाने के समीप ही ठिकाने के दोनों बाज़ू एक-एक मन्दिर और किराए पर उपलब्ध होने वाला एक-एक विवाह-भवन भी हैं।
वैसे तो .. इस तरह के धर्मों और लोक परम्पराओं के अंधानुकरण के नाम पर होने वाले शोर-शराबों में आम दिनों में भी ना तो कोई क़ानून लागू होता हुआ दिखता है .. ना ही इसके रोकथाम के लिए प्रशासन की कोई ठोस पहल/कदम या लोगबाग का डर और ना ही तथाकथित सुसंस्कारी लोगों में नागरिक भावना ( Civic Sense ) वाले किसी संस्कार का दर्शन मात्र मिल पाता है। शुक्र है कि अभी बिहार में उच्च न्यायालय के अलावा अन्य कई संस्थानों के दबाव में/से ही सही .. लॉकडाउन ( Lockdown ) लगा हुआ है।
ऐसे में भी कबीर जी के किए गए समाज के तीन वर्गीकरण की तर्ज़ पर पुनः तीन वर्ग सामने दिख जाता है। आज भी तीन वर्गों में से एक वह वर्ग है जो इस कोरोनकाल में भी अपनी अंदरुनी शक्ति यानि रोग प्रतिरोधक क्षमता ( Immunity Power ) , इच्छाशक्ति  या फिर क़ुदरती संयोगवश आज तक कोरोनाग्रस्त हुआ ही नहीं है और .. क़ुदरत करे कि चाहे जैसे भी हो वो आगे भी सुरक्षित ही रहें .. इन्हीं में से कई लोग शादियों में नाच रहे हैं या बिना मास्क लगाए आज भी बिंदास बाहर घूम रहे हैं। दूसरा वर्ग वह है जो हमारे जैसा संक्रमित हो कर भी संक्रमण से उबरने की ओर अग्रसर होता दिखता है या पूर्णतः संक्रमण मुक्त हो चुका है और तीसरा वर्ग वह है जो संक्रमण से तो नहीं , बल्कि .. अपने जीवन से ही मुक्त हो जा रहा है और उसके पीछे रह जा रहा है जीवित पर .. अधमरा-सा रोता-बिलखता , सिसकता और मायूस उस पर आश्रित उसका मासूम परिवार। जिनको किसी अपने के असमय चले जाने की पीड़ा झेलने के साथ-साथ ही ये भी नहीं सूझ पा रहा है कि आगे घर कैसे चल पाएगा। इस विपदा भरी वैश्विक महामारी की घड़ी में बचपन में पढ़ी गई .. हाथी और सात अंधों वाली कहानी चरितार्थ हो रही है। गत वर्ष कोरोनाकाल में जो जैसा सामना किया था या इस बार कोरोनाकाल की इस दूसरी लहर में अभी कर रहा है , वह वैसी ही धारणा बना रहा है अपने मन-मस्तिष्क में कोरोना के बारे में .. शायद ...
हमारे कोरोना पॉजिटिव हो जाने का पता चल जाने पर अमूमन आसपास मौजूद लोग अज़ीब-सा व्यवहार करने लग जाते हैं। ऐसे घूरते हैं , मानो मन ही मन सोच रहे हों कि बच्चू ! .. जरूर तुम ने ( यानि हमने ) असावधानी बरती होगी। या तो मास्क ठीक से नहीं लगाया होगा या सोशल डिस्टेंसिंग ( Social Distancing ) को मेन्टेन ( Maintain ) नहीं किया होगा। या फिर हैण्ड-वॉश ( Hand Wash ) या सेनेटाइजर का ( Sanitizer ) सही से इस्तेमाल नहीं किया होगा या इस्तेमाल किया ही नहीं होगा। ऐसे में वो नब्बे के दशक का शुरुआती दौर सहसा दिमाग़ में कौंध जाता है .. जब कोरोना (Corona ) जनित कोविड-१९ ( Covid -19 ) की तरह एच आई वी ( HIV- Human Immunodeficiency Viruses ) जनित एड्स ( AIDS- Acquired Immune Deficiency Syndrome ) नामक बीमारी का नया-नया पता चला था। समाज-शहर या मुहल्ले-गाँव में अगर किसी भी शख़्स के एड्सग्रस्त होने का पता चलता था तो कई लोग उसके किसी ऐसे-वैसे के साथ अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध को लेकर आपस में कानाफूसी करते थे या आज भी करते हैं ; जबकि अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध के अलावा इस बीमारी के होने की और भी कई वज़हें थीं और हैं भी। एच आई वी की तरह ही कोरोना एक वायरस ( Virus ) है और एड्स की तरह ही कोविड-१९ सम्बंधित वायरस से उत्पन्न बीमारी का नाम है। परन्तु अभी तो बीमारी के लिए कोविड-१९ की जगह कोरोना नाम ही आम प्रचलन में है।
एक और बात की चर्चा तो भूल ही गया कि स्वयं के कोरोना के चपेट में आने के शुरुआत में गत माह के दूसरे रविवार को स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में जाँच ( Antigen Covid Test ) कराने के एक दिन पहले कार्यालय द्वारा कराए गए जाँच ( RT-PCR Test ) की रिपोर्ट की भी PDF मोबाइल पर उसी दिन शाम में आ गई थी , उसमें भी कोरोना पॉजिटिव ही बतलाया गया था। पर इस रिपोर्ट में Antigen Covid Test से इतर एक ख़ास बात थी - CT Report और इसमें मेरी CT Report - 21.47 थी। यही CT Report उस Antigen Covid Test में नहीं होती है और यही CT Report इस RT-PCR Test की विशेषता व शुद्धता होती है। अभी हाल ही में लगभग एक माह बाद भी घर से बाहर जाने पर पुनः संक्रमित होने के भय से घर पर ही जाँच करने वाले को बुला कर जाँच करवाने पर Antigen Covid Test में तो रिपोर्ट कोरोना निगेटिव आयी पर RT-PCR Test में कोरोना पॉजिटिव ही आयी थी।
प्रसंगवश ये भी बतलाते चलें कि जाँच करने वाला फ़ोन पर नाज़ायज तौर पर कुछ ज़्यादा ही भुगतान लेने की बात तय होने पर राज़ी हो कर आया था। Antigen Covid Test का प्रति जाँच रु.1000 और  RT-PCR Test का प्रति जाँच रु.2000 बोलकर मोलभाव करने पर रु 1500 लिया था। ज्ञात रहे कि प्राइवेट जाँच केंद्रों में केवल RT-PCR Test ही हो रहा है और Antigen Test केवल सरकारी संस्थानों में ही उपलब्ध है। इस के Kit बाज़ार में या प्राइवेट जाँच केंद्रों में उपलब्ध नहीं है। ऐसे में निश्चित रूप से वह जाँच कर्ता किसी ना किसी सरकारी अस्पताल या अन्य सरकारी संस्थान के किसी कर्मचारी से आपसी नाज़ायज तालमेल के आधार पर किट ले कर आया होगा। मतलब .. हम भी दूध के धुले ना रह पाए और .. प्रायः रेलयात्रा के लिए उचित और वांछित बर्थ का आरक्षण समय पर ना मिलने पर टी टी ई ( TTE ) से "सेटिंग" करने की तरह ही .. हम भी अपने बुरे वक्त में लोगबाग की तरह प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः भ्रष्टाचार में शामिल हो ही गए .. शायद ...
ख़ैर ! ... एक सकारात्मक पक्ष यह रहा कि इस बार की CT Report - 30 आयी थी। विशेषज्ञ बतलाते हैं कि ये CT Report का 21.47 से 30 हो जाना शुभ संकेत है। मतलब शरीर में प्राकृतिक एंटीबाडी ( Natural Antibody ) का निर्माण हो रहा है। जानकार बतलाते हैं कि यही CT Report जब 35 या इस से ऊपर हो जाएगी तो कोरोना निगेटिव की रिपोर्ट आएगी। जानकारों के मुताबिक कुछ तो हमारे मधुमेह के कारण स्वास्थ्य लाभ ( Recovery ) में समय लग रहा है या फिर प्रायः शरीर में वायरस के शेष बचे मृत कोशिकाओं ( Dead Cell ) के कारण भी कोरोना पॉजिटिव रिपोर्ट आती रहती है , जिसके आने की लगभग तीन महीने तक संभावना रहती है। फ़िलहाल तो पूर्णतः ना सही पर .. पहले से बेहतर और सकारात्मक सुधार की ओर अग्रसर हैं , परन्तु आज लगभग 40 दिनों बाद भी विशेष सावधानी बरतते हुए परहेज़ के साथ स्वतः संगरोध जीवन ( Self Quarantine Life ) जी रहे हैं , ताकि अन्य लोग सुरक्षित रहें और हम भी .. बस यूँ ही ...
बीमारी के दौरान डॉक्टर के दूरभाषी परामर्श और अपने बजट के अनुसार प्रतिदिन प्रोटीनयुक्त पौष्टिक आहार लेने के बावजूद भी लगभग तीस दिनों के बाद Weighing Machine पर अपना तौल लेने पर ज्ञात हुआ कि चार-सवा चार किलो अपने शरीर का वजन घट गया है तो आँखें फटी की फटी रह गई। इस सर्वव्यापी महामारी के उपरान्त ( Post-Pandemic ) इसी प्रकार की कई तरह की अनचाही उलझनें उत्पन्न हो रही हैं। जिनमें कमजोरी का महसूस होना तो अमूमन आम बात है। कमजोरी की वज़ह से तो बची-खुची मांसपेशियों में अभी भी ऐंठन महसूस होती है। शायद विटामिन डी या ज़िंक की भी कमी हो जाती है , जिसका साफ़-साफ़ असर नाखूनों और दाँतों पर दिखता है। नाख़ून काफ़ी लचीले हो जाते हैं। लगता है मानो घंटे भर नाखूनों को पानी में डूबा कर रखा गया हो। दाँतों के कुछ हिस्से भुरभुरे हो कर झड़ ( टूट ) रहे हैं। मधुमेह होने के नाते अब तो ब्लैक फंगस ( Black Fungus ) नामक एक नया डर भी सता रहा है। दूसरी तरफ देर-सवेर कई टीकाओं की उपलब्धता और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन ( DRDO - Defence Research and Development Organisation ) की ख़ोज 2-DG ( 2-Deoxy-D-Glucose ) भी आज से ही बाज़ार में उपलब्ध होने से एक सकारात्मक आशा की किरण भी मिल रही है।
वैसे एक और परेशानी का सामना बीते दिनों में करना पड़ा था .. पता नहीं वायरस के प्रकोप से या दवा-काढ़ा के पार्श्व प्रभाव ( side effect ) से .. दिन-रात नाक से नाभि तक शुष्कता का एहसास होता था। नाक की शुष्कता के लिए आयुर्वेदिक दवा
1) दिव्य धारा , जो कि रॉल ऑन ( roll on ) के रूप में बाज़ार में उपलब्ध है , को व्यवहार में लाने की मशविरा दी गई थी और नाभि यानि पेट की या गले की शुष्कता के लिए समय-समय पर गुनगुने पानी का घूँट लेने की। आगे Doxycycline 100 mg से भी श्लेष्मा और गले में खसखसाहट की परेशानी पूर्णतः ठीक नहीं होने पर डॉक्टर की दूरभाषी सलाह पर
1) Dexona - 1 गोली × दो बार × 5 दिनों तक खाना पड़ा था।
बाद में समाचारों में कुछ मरीजों के शरीर में रक्त के थक्का जमने से उनके हृदय गति रुकने ( Heart attack )  के कारण देहांत हो जाने की ख़बर आने पर , ऐसी संभावना से बचने के लिए -
1) Ecosprin 75 mg - 1 गोली × 1 बार × 14 दिनों की भी सलाह मिली , तो परामर्श के अनुसार इन्हें भी खाया। एक और बात .. अगर अजवाइन के साथ-साथ तुलसी पत्ती और पुदीना पत्ती भी सहज उपलब्ध होते तो Karvolplus की जगह इन सब को भी उबाल कर भाप लेने के लिए उपयोग में ला सकता था। परन्तु जो भी हो कोरोनाग्रस्त होने के बाद स्वस्थ हो जा रहे लोगों को भविष्य में आत्मनिर्भरता की पाठ पढ़ाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी .. शायद ...
अंत में .. जिनको गत वर्ष से अब तक कोरोना अपनी आग़ोश में नहीं ले पाया , उन तमाम लोगों के लिए मन से शुभकामनाएं है कि उनको और उनके परिवार को भविष्य में भी ये नासपिटा ना छू पाए। साथ ही जो लोग उसकी गिरफ़्त से निकल कर स्वस्थ हो गए , वो सभी सपरिवार भविष्य में स्वस्थ व सुरक्षित रहें। पर .. जिनके अपने असमय छिन गए , क़ुदरत उनके ज़ख़्मों को शीघ्रतिशीघ्र भर कर भविष्य की दिनचर्या के लिए सकारात्मक सोच और शक्ति प्रदान करे। चलते-चलते .. उनके लिए भी हार्दिक आभार संग शुभकामनाएं भी .. जिनकी प्रत्यक्ष या परोक्ष शुभकामनाओं के असर से और जिन लोगों की प्रत्यक्ष या परोक्ष सेवा से हमारे जैसे लोग पुनः स्वस्थ हो सके हैं या हो रहे हैं .. शायद ...
आज अब बस इतना ही .. स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के दौरान कुछ विश्राम ले कर .. इस " प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-३ ). " के तीनों भागों की बतकही के बाद इसके " प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-४ ) "  में केवल और केवल " प्रिया संग मानसिक संवाद ... " कविता के साथ मिलते हैं .. बस यूँ ही ...



Saturday, May 15, 2021

प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-२ ).

 ऐसी ही अवांछित परिस्थितियों में स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के दरम्यान अलग-थलग एक बिस्तर पर पड़े-पड़े आज की वर्तमान परिस्थितियों में भी लगभग 16वीं सदी के मध्य ( सन् 1532 ई ० ) से 17वीं सदी के आरम्भ ( सन् 1623 ई ० ) तक के कालखण्ड वाले तुलसीदास जी की पंक्तियों - "श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान ।  ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥" की तुलना में लगभग 14वीं सदी के अंत ( सन् 1398 ई ० ) से 15वीं सदी के अंत ( सन् 1494 ई ० ) तक के कालखण्ड वाले कबीर जी की निम्नलिखित पंक्तियाँ -"आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर । इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर।" कुछ ज़्यादा ही और उतनी ही प्रासंगिक लगती हैं, जितनी वे तत्कालीन परिस्थितियों में रहीं होंगीं। साथ ही आशा है कि आने वाले कालखण्डों में भी रहेंगीं .. शायद ...

लब्बोलुआब ये है कि हम कह सकते हैं कि आज इतने अरसे बाद आज की वर्तमान परिस्थितियों में भी प्रासंगिकता की कसौटी पर कबीर जी .. तुलसीदास जी, सूरदास जी, कालिदास जी या फिर वाल्मिकी जी से ज़्यादा खरे उतरते हैं .. यानि ज़्यादा प्रासंगिक हैं। कबीर जी की इन विशेषताओं से सहमति के लिए हमारा नास्तिक या आस्तिक होना कोई आवश्यक शर्त वाली बात तो नहीं ही होनी चाहिए .. बस यूँ ही ...

कबीर जी द्वारा किए गए तत्कालीन मानवीय समाज के तीन वर्गों - राजा , रंक और फ़कीर - के वर्गीकरण तो आज भी उतने ही सत्य और सार्थक लगते हैं। आज के अफ़रातफ़री वाले माहौल में जिन्हें स्वयं या उनके बीमार रिश्तेदारों को आवश्यकतानुसार चिकित्सा संबंधी मूलभूत सुविधाएँ , मसलन - अस्पतालों में बिस्तर , ऑक्सीजन सिलिंडर , आई सी यू ( ICU) की सुविधा या वेंटिलेटर समय रहते मिल जा रहे हैं ; उन सभी को राजा और जो सुविधा ना मिलने पर भटक रहे हैं , वे सभी रंक .. और जिन्हें इन सब की जानकारी तक भी नहीं कि भटकना कहाँ है , गुहार कहाँ लगाना है , वे सारे के सारे बेचारे हैं कबीर जी के फ़कीर। इस प्रकार ऐसी कारुणिक परिस्थितियों में भी कबीर जी के तीन प्रकार वाले सामाजिक वर्गीकरण आज प्रासंगिक जान पड़ते हैं और दूसरी तरफ हमारा (?) वर्तमान संविधान का अनुच्छेद चौदह वाला समानता का अधिकार मानो मुँह चिढ़ाता-सा जान पड़ता है .. शायद ...
इन्हीं जद्दोजहद के बीच कुछ लोग "आये है तो जायेंगे" के तर्ज़ पर जब चले जाते हैं तो टेलीविजन के पर्दे पर विभिन्न समाचार चैनलों के द्वारा किसी के नाम , पद और तस्वीर के साथ-साथ किसी-किसी की जीवनी और जीवन भर की उपलब्धियों की भी चर्चा की जाती है। वे सब लोग भी हुए कबीर जी के मतानुसार आज के राजा और जिनकी मौत के बाद लाशों की गिनती सैकड़ों या हजारों वाले आंकड़ों में सिमट कर रह जाती है , वे सब हुए कबीर जी के रंक और कुछ बेबस-लाचार जिनकी मौत को सरकारी आंकड़ों के मार्फ़त समाचार चैनलों में जगह भी नहीं मिल पाती , वे सब बेचारे सारे के सारे हैं कबीर जी के फ़कीर .. शायद ...
वहीं तुलसीदास जी अपनी पँक्तियों - "श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान। ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन।" के साथ तनिक भी वर्तमान की परिस्थितियों में प्रासंगिक नहीं लग रहे हैं। वैसे तो तत्कालीन सिंधु में तैरने वाले पत्थर का तो पता नहीं , पर आज के हालातों में दूर-दूर तक कोई तथाकथित श्रीयुक्त वीर किसी का तारणहार नहीं दिखता है। वैसे तो आज भी जो तैरते पत्थर दिखते हैं , वे सारे विशुद्ध पर सरल विज्ञान हैं , ना कि कोई चमत्कार। दूसरी तरफ़ ना ही कुम्भ मेला में तथाकथित मोक्षदायिनी स्नान की भीड़ की तरह समूह में भजन करने वाला या समूह में जुमा की नमाज़ पढ़ने वाला आज बुद्धिमान कहला रहा है और ना ही इन सब से इतर डॉक्टर, दवाई , परहेज़ या वैज्ञानिक चिकित्सिकिय उपकरण को भजने वाला यानि इस्तेमाल करने वाला मतिमंद कहला रहा है।
हुआ कुछ यूँ कि लगभग एक माह पहले मेरे कार्यालय में एक दिन एक सहकर्मी अपनी सर्दी-बुखार के लक्षण के कारण स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में स्वतः जाँच ( Antigen Covid Test ) करवाने पर कोरोना पॉजिटिव ( Corona Positive ) पाया गया। ( उन सभी बुद्धिजीवियों के हम अग्रिम क्षमाप्रार्थी हैं , जिन्हें इस तरह इस बतकही में पीछे भी और आगे भी धड़ल्ले से अंग्रेज़ी का प्रयोग किया जाना .. किसी तरह का घुसपैठ लगता हो या इस से उनकी संस्कृति हताहत होती हो या फिर मातृभाषा की तौहीन होती हो। कारण- अभी अपने दुर्बल-निर्बल शरीर में अवस्थित अवसादग्रस्त दिमाग़ पर जोर देकर हम ना तो इनका हिन्दी अनुवाद करने की स्थिति में हैं और ना ही गूगल पर खोजने के ) अगले ही दिन कार्यालय की तरफ से पटना के अच्छे जाँच केन्द्रों में से एक निजी जाँच केन्द्र से उपयुक्त कर्मचारियों को बुलवा कर कार्यालय-परिसर में ही हम सभी कार्यरत लोगों की जाँच ( RT-PCR Test = Real Time - Polymer Chain Reaction Test ) करवायी गयी , जिनकी रिपोर्ट नियमतः न्यूनतम चौबीस घन्टे बाद आनी थी। वैसे भी अपना मन आशंकित और भयभीत भी था , क्योंकि स्वयं को भी एक-दो दिनों से हल्का बुखार जैसा लग रहा था और सर्दी भी थी। इसके लिए Dolo 650 की गोली और Karvolplus का भाप ले रहे थे। इस जाँच ( RT-PCR Test ) के अगले दिन रविवार को या सोमवार तक रिपोर्ट आनी थी।
चूँकि इस जाँच के अगले दिन रविवार का दिन था , अतः सुबह की दिनचर्या निपटाते हुए नाश्ता कर के स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में टीका का पहला डोज़ लेने सुबह-सुबह सपत्नीक लगभग नौ-सवा नौ बजे पहुँच गए। वहाँ टीकाकरण के लिए आधार कार्ड की ज़ेरॉक्स कॉपी जमा कराने में कतार नदारद और धक्कामुक्की देख कर जमा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। एक घन्टे बाद कुछ भीड़ छंटने के बाद कुछ लोगों के साथ-साथ हम दोनों के आधार कार्ड की ज़ेरॉक्स कॉपी जमा की भी गईं तो ..  कुछ ही देर बाद ही बहुत ही गैरजिम्मेदाराना तरीक़े से बाद में जमा किए गए हमारे आधार कार्ड की ज़ेरॉक्स कॉपी , जिस पर हमारा मोबाइल नम्बर भी लिखा हुआ था , जैसी महत्वपूर्ण दस्तावेज़ को उठा कर केन्द्र के बाहर एक तरफ लावारिस की तरह उछाल दिया गया ; यह बोल कर कि अब वैक्सीन ( Vaccine ) का डोज़ ( Dose ) समाप्त हो गया है। बहुत ही कठिनाई से उस लावारिस ढेर से हमने अपने आधार कार्ड की ज़ेरॉक्स कॉपी चुन कर निकाल ली। डर लगता है कि किसी ग़लत इंसान के हाथों लगने पर वह इसका दुरुपयोग ना कर ले कहीं। ऐसे में दिखा कि उसी स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर जाँच करवाने वालों की संख्या कम थी और स्वयं में एक-दो दिनों से सर्दी-बुखार के लक्षण के अलावा एक दिन पहले कराए गए जाँच ( RT-PCR Test ) की रिपोर्ट आने में नियमानुसार विलम्ब भी था। तो .. फ़ौरन वहाँ के नियमानुसार दो-दो रुपए में हम दोनों ने एक खिड़की पर अपना-अपना रजिस्ट्रेशन करवा कर अपने-अपने मिले हुए क्रमानुसार दूसरी अन्य खिड़की पर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे , जहाँ हमारी जाँच ( Antigen Covid Test ) होनी थी।
इस जाँच की रिपोर्ट त्वरित मिल जाती है , ठीक गर्भावस्था-जाँच वाले उपकरण ( Pregnancy Test Kit ) की तरह। हालांकि इसके भी कुछ परिसीमन हैं और नकारात्मक पक्ष भी। ख़ैर ! .. अपनी बारी आने पर जाँच के उपरांत सामने से जाँचकर्ता का ये कहना कि " आप कोरोना पॉजिटिव हैं .. बगल में खड़ा हो जाइए , अभी आपको इसके लिए कुछ दवा दे कर छोड़ दिया जाएगा। " एक बारगी तो यह वाक्य कि - " आप कोरोना पॉजिटिव हैं। " ... पूरे शरीर को झकझोर जाता है। एक बार तो दोनों पैर काँप जाते हैं। आसपास वालों के व्यवहार फ़ौरन बदल जाते हैं। उनके अपनी हिफ़ाजत के लिए बदलना भी चाहिए .. स्वाभाविक है .. पत्नी के भी .. शायद ...
थोड़ी देर में उस केंद्र का एक कर्मचारी बाहर आकर मेरा नाम पुकारता है और उसके समीप जाने पर
1) Paracetamol 500 mg - 1 गोली × 2 बार × 5 दिन।
2) Azithromycin 250 mg - 1 गोली × 2 बार × 5 दिन।
3) Ascorbic Acid 500 mg - 1 गोली × 1 बार × 10 दिन।
के हिसाब से उपर्युक्त दवाईयों की दस-दस गोलियों का एक-एक पत्ता के साथ कोरोना पॉजिटिव लिखा हुआ एक पर्चा ( Prescription ) मेरी फ़ैली हथेलियों पर टपका कर नसीहत देते हुए कहता है कि " दवा लेते हुए चौदह दिन होम क्वारंटाइन हो कर रहिए। " इस समय दवाईयाँ ग्रहण करते हुए किसी गुरूद्वारे में लंगर छकते समय किसी कारसेवक के हाथों से अपनी फ़ैली हथेलियों पर टपकी चपातियों की याद सहसा आ जाती है। बस .. एक अंतर लगा दोनों के टपकाने में .. वह थी श्रद्धा .. शायद ...
सरकारी कुछ भी हो , चीनी सामान की तरह एक आम अनुभूति बनी हुई है कि - " पता नहीं कैसा होगा !? "  .. मतलब सही या टिकाऊ नहीं होगा। ऐसा ही कुछ सोच कर स्थानीय उपलब्ध डॉक्टर से फ़ोन पर बात कर के उनके परामर्श के अनुसार निम्नलिखित दवाईयाँ दो दिनों के बाद बाज़ार से मँगवाने के बाद उपलब्ध हो पाने पर ( तब तक स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से दी गई दवाईयाँ ही लेता रहा ) निर्धारित समय पर खाना शुरू कर दिया :-
1) Zincovit - 1गोली × 2 बार × 30-40 दिन।
2) Limcee (Vitamin C) - 1 गोली × 2 बार × 30-40 दिन ( चूसना है ).
3) Calciquick- D3 (60K) (Vitamin D) - 1 कैप्सूल × 1 बार × 3 दिन।
4) Vermact 12 mg (Ivermectin-12 mg) - 1 गोली × 1 बार × 3 दिन।
5) Azithral 500 mg - 1 गोली × 1बार × 5 दिन।
6) Montek LC - 1 गोली × 1 बार (रात में) ×10 दिन।
7) Dolo 650 mg - 1 गोली × 2 बार (बुख़ार रहने पर)।
8) Bro-Zedex SF (Cough Syrup) - 1 बड़ा चम्मच × 3 बार × 10 दिन ( या खाँसी ठीक होने तक)।
गाँव -घर में बुज़ुर्ग लोग अक़्सर किसी विशेष बीमारी में सलाह देते हुए सुने जा सकते हैं कि " दवा-दारू के साथ-साथ झाड़-फूँक , ओझा-गुनी या गंडा-ताबीज़ करवाने में हर्ज़ ही क्या है भला ! " .. यानि ये सब भी करवाना चाहिए। इस से बीमार के ठीक होने की कोई भी वज़ह अधूरी नहीं रहती। ख़ैर ! ... हम इन सब की तरफ़दारी नहीं कर रहे या हमने ऐसा कुछ किया भी नहीं या फिर इन सब के बारे में सोचते तक भी नहीं हैं , बल्कि यह बतलाना चाह रहे हैं कि उपर्युक्त अंग्रेज़ी दवाओं  ( Allopathic Medicine ) के साथ-साथ होम्योपैथिक दवा ( Homeopathic Medicine ) :-
1) Arsenic 200 = एक दिन बीच कर के सुबह में 3 बूँद लेने का भी परामर्श मिला। जिसे ली भी और आज तक ले भी रहे हैं।
साथ ही कुछ आयुर्वेदिक दवाएँ  भी ली -
1) कोरोनिल किट - (अ) दिव्य श्वासारि वटी - 2 गोली × 3 बार (नाश्ता-खाना से आधा घण्टा पहले)।
                        (ब) दिव्य कोरोनिल गोली - 2 गोली × 3 बार (नाश्ता-खाना से आधा घण्टा बाद)।
                         (स) दिव्य अणु तैल - 4-4 बूँद दोनों नासिकाओं में × एक बार (नाश्ता के एक घण्टा पहले)।
साथ ही अपनी मधुमेह से सम्बंधित दवाईयाँ पहले की तरह ही लेता रहा। चूँकि इस हाल में मधुमेह बढ़ जाता है , जिनको यह बीमारी नहीं है उनका भी ; तो अतिरिक्त में इन्सुलिन का डोज़ भी ले रहा हूँ , ताकि मधुमेह ( Diabetes ) नियंत्रण में रहे।                       
इन सब के बावज़ूद 20-25 दिनों में भी श्लेष्मा ( बलग़म ) की समस्या नहीं हल हो पायी तो डॉक्टर की दूरभाषी सलाह के आधार पर अंग्रेज़ी दवा -
1) Doxycycline 100 mg - 1 गोली × 2 बार × 5 दिन तक खाया। साथ ही आयुर्वेदिक दवाइयाँ -
1) कंठामृत - 2 गोली × 2 बार (चूसना है) × 15 दिन।
2) त्रिकुटा चूर्ण - 3 बार (मधु के साथ) × 10 दिन।
3) श्वासारि गोल्ड - 2 गोली × 2 बार × 10 दिन तक लिया। वैसे तो मधुमेह के कारण हम मधु की जगह शुगर फ्री कफ़ सिरप के साथ ही त्रिकुटा चूर्ण लेते रहे। हाँ .. एक बात और .. इन दवाओं के बाद मधुमेह अचानक ज़्यादा बढ़ गया तो कंठामृत की गोलियाँ बन्द करनी पड़ी , क्योंकि पता चला कि इसकी 545 मिलीग्राम की एक गोली में 380 मिलीग्राम तक गन्ने का रस यानि मिठास होता है।
अपने घर पर पहले से ही ब्लड प्रेशर मॉनिटर ( Blood Pressure Monitor ) ,  डिजिटल तोलनयंत्र  ( Digital Weighing Machine ) , डिजिटल थर्मामीटर ( Digital Thermometer ) और शुगर टेस्टिंग मशीन ( Sugar Testing Machine ) जैसे उपकरण उपलब्ध होने के बावज़ूद डॉक्टर की सलाह पर तीन नए उपकरण वेपोराइज़र ( Vaporizer ) , डिजिटल इन्फ्रारेड थर्मामीटर ( Digital Infrared Thermometer ) और पल्स ऑक्सीमीटर ( Pulse Oximeter) खरीदवा कर बाज़ार से मँगवाना पड़ा। सबसे ज़्यादा राहत वाली बात ये रही कि 4- 5 दिनों के बाद पल्स ऑक्सीमीटर उपलब्ध होने पर उस की रीडिंग शुरू दिन से ही 98-99 आती रही। मतलब शरीर में ऑक्सीजन का स्तर ठीक-ठाक रहा। हालांकि कोरोनाकाल से बहुत पहले से ही सामान्य सर्दी-जुक़ाम होने पर किसी पतीले में पानी गर्म कर के उसमें Karvolplus का कैप्सूल डाल चादर ओढ़ कर भाप लिया करता था। पर अभी बार-बार पतीले में पानी गर्म करने और मेरे पास में लाने और पास से ले जाने के क्रम में संक्रमण रसोई घर तक या अन्य में फैलने का भय था , इसीलिए बिजली से चलने वाला वेपोराइज़र अलग से मंगवाना पड़ा। गत माह अप्रैल के पहले सप्ताह तक इनकी कीमत उतनी मँहगी नहीं हुई थी , जितनी बाद के दिनों में हुई। फिर भी आम दिनों के बाज़ारों में रु. 500 -700 में उपलब्ध पल्स ऑक्सीमीटर , जो अब तक इलाज के दौरान डॉक्टरों के मेज़ों पर नज़र आती थी , उस दिन रु. 1200 में मिल पायी थी। बाद में तो रु. 4000 तक में भी बाज़ार में उपलब्ध नहीं हो पा रहा था या है।
यहाँ भी अर्थशास्त्र के माँग और पूर्ति पर आधारित मूल्य निर्धारण वाले सिद्धांत का असर दिख रहा है। इन दिनों से एक और सबक़ मिला कि अगर हम सक्षम हैं और सम्भव हो तो उपर्युक्त सारे उपकरणों का दो सेट घर में रखना चाहिए , ताकि अगर घर-परिवार का कोई एक सदस्य कोरोनाग्रस्त ( वैसे तो क़ुदरत ना करे कि किसी के साथ ऐसा हो ) होता है तो एक सेट वह बीमार इस्तेमाल करेगा और दूसरे को परिवार के अन्य सदस्य। इस से संक्रमण फ़ैलने का ख़तरा ना के बराबर रहेगा। वैसे तो जानकारों का कहना है कि घर में अगर एक सदस्य भी कोरोनाग्रस्त है और गृह-अलगाव ( Home Isolation ) में है , तो घर के अन्य सदस्यों को भी स्वयं को कोरोनाग्रस्त मान लेना चाहिए। सारा दिन बीमार की तरह मास्क लगा कर ही घर में भी रहना चाहिए। दो मीटर की दूरी भी बना कर रखनी चाहिए। सारे एहतियात के बावजूद भी हमारे बीमार होने के सप्ताह दिन में ही पत्नी और बेटे में भी खाँसी-बुखार के लक्षण दिखायी देने लगे। फिर डॉक्टर की सलाह पर स्वयं द्वारा आरम्भ में खायी गई उपर्युक्त सारी अंग्रेज़ी दवाईयाँ उन दोनों को भी खिलाया। दवा खाने के बाद में वैसे वो दोनों जाँच में कोरोना निगेटिव पाए गए।
इन दिनों प्रतिदिन की अपनी दिनचर्या बन जाती है .. सारे चिकित्सीय उपकरणों से नियत समय पर जाँच कर-कर के उनके मापों को एक पुरानी डायरी में नोट करना , नियत समय पर भाप लेना , काढ़ा पीना और सारी दवाईयाँ लेना। भाप लेने के लिए वेपोराइज़र में -
1) Karvolplus - वेपोराइज़र का पानी बदलने पर हर बार एक कैप्सूल डाल कर भाप लेने के लिए कहा गया था।
गरारे के लिए गर्म पानी में कभी हल्दी- नमक डालकर तो कभी
1) Betadine - कुछ बूँदें मिला कर प्रतिदिन कम से कम दो बार गरारे करने की राय दी गई थी।
इन सब के साथ ही सबसे महत्वपूर्ण सलाह यह थी कि जब भी पीना है , तो गुनगुना पानी ही पीना है। कोई ठण्डा पेय पदार्थ या खाद्य पदार्थ तो सोचना भी गुनाह है। और हाँ .. रात में हल्दी डाला हुआ सुसुम-सुसुम ( गुनगुना ) दूध फूँक-फूँक कर पीना भी दिनचर्या में शामिल हो गया है। साथ ही प्रतिदिन सुबह में ओंकारा , कपालभाति , अनुलोम-विलोम , भस्त्रिका , उज्जायी , भ्रामरी जैसे साँस और फेफड़े से सम्बंधित योगाभ्यास की राय पर जहाँ तक अमल करने की बात है , तो वह तो पहले से ही दिनचर्या में शामिल है।
आज इस " प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-२ ). " में दुखड़ा वाली बकैती कुछ ज्यादा ही हो गयी है। अब इससे आगे " ( भाग-३ ) " में कुछ और बतकही और .. उस के बाद " ( भाग-४ ) "  में लगभग एक महीने से ज्यादा समयान्तराल में अपने अवसादग्रस्त मन में पनपी अपनी एक मात्र रचना (?) ( शायद कविता )- " प्रिया संग मानसिक संवाद ... " के साथ मिलते हैं। इसके शीर्षक से जो भी अनुमान हो रहा हो परन्तु अब ऐसे माहौल और ऐसी मानसिक-शारीरिक परिस्थितियों में कोई रूमानी रचना तो दिमाग़ में खदबदाने से रही .. शायद ...  फ़िलहाल तो स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के तहत थोड़ा आराम कर के अपने कमजोर-थके शरीर को थोड़ी ऊर्जा प्रदान कर लूँ .. बस यूँ ही ...




Wednesday, May 12, 2021

प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-१ ).

बचपन में प्रायः या आज भी कभी-कभार चूहे-बिल्लियों या चूज़े-बाज़ों के बीच अलग-अलग तरह के झपट्टों पर संयोगवश हमारी निगाहें पड़ ही जाती हैं। ऐसे में कई बार तो शिकारी बिल्लियाँ या बाज़ें बाज़ी मार जाते हैं , पर .. कई बार तो चूहे या चूज़े विशुद्ध प्राकृतिक संयोगवश या फिर अपनी फुर्ती या स्फूर्ति के कारण शिकार होने से बच भी जाते हैं। उन के बच जाने को अक़्सर हम उस बच पाने वाले प्राणी की क़िस्मत कह देते हैं या फिर अपने-अपने धर्मों के अनुसार तयशुदा इष्ट देवी-देवता की कृपा का नाम देने में भी तनिक हिचक नहीं महसूस करते हैं .. शायद ...

इन्हीं तरह के झपट्टों से उन बच गए चूहों या चूज़ों जैसे ही कुछ-कुछ इन दिनों स्वयं में लगने लगता है , जब हम इस कोरोनकाल की दूसरी लहर वाले कालखंड में कोरोनाग्रस्त होने के बाद भी या तो स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) यानि अपने घर में ही घर-परिवार वालों के साथ रह कर भी दूर रहते हुए किसी यथोचित डॉक्टर की दूरभाषी परामर्श पर यथोचित दवा लेकर और आवश्यक निर्देशों का पालन करते हुए या फिर आवश्यकतानुसार किसी अस्पताल में उचित इलाज करवाने के बाद स्वस्थ हो जाते हैं।

स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) यानि अपने घर में ही, अपने परिवार के साथ भी और दूर भी, एकांतवास में लगभग 15 से लेकर 40 दिनों तक रहने पर कई-कई तरह के चरित्रों का वास अपने मन में घर करने लगता है। इन दिनों में हर बार अपने खाए-पीए नाश्ता-चाय ( वैसे चाय कम, काढ़े ज़्यादा ) या भोजन खाने के बाद वाले स्वयं के जूठे बर्त्तनों को मल-धो कर अलग नियत स्थान पर रखते हुए .. प्रतिदिन अपने अन्तर्वस्त्र जैसे कपड़े या तीन-चार दिनों पर अपने अलग वाले बिस्तर के चादर और तकिया खोल धोते हुए ( प्रायः जिसकी आदत शादी के , वो भी पच्चीस-छ्ब्बीस साल बाद , जो पूरी तरह छूट चुकी होती है ) .. चाय-नाश्ता या खाने के समय पर निर्धारित दूरी पर थाली-कटोरे रख कर वहाँ से दूर हटने के बाद एक खास दूरी से परोसे गए नहीं, बल्कि यूँ कहिए साहिब कि .. ऊपर से टपकाए गए भोजन को थाली-कटोरे में लेकर लक्ष्मण-रेखा के तर्ज़ पर बनी अपनी सीता-रेखा के भीतर जाकर दुर्बल व कमजोर कौर को मुँह डालते हुए कभी लगता है कि हम किसी छात्रावास के विद्यार्थी हैं तो .. कभी लगता है कि किसी कारागार के कैदी हैं। और तो और कभी-कभी तो वह दर्द भी महसूस होता है , जिसे समाज में हमारे पुरखों द्वारा पहले या कहीं-कहीं तो आज भी तथाकथित अस्पृश्य जातियों के साथ व्यवहार किया जाता है। कभी-कभी तो यदाकदा पढ़ी गई मोहनदास करमचंद गाँधी जी की ख़ुद से अपने शौचालय की सफ़ाई करने वाली दिनचर्या का प्रायोगिक ज्ञान मिलने का भी भान होता है। सच कहूँ तो कभी-कभी किसी कोढ़ग्रस्त आबादी वाले बसे किसी अम्बेदकर नगर के निवासी होने जैसा एहसास कराने से भी नहीं चूकते ये हालात .. बस यूँ ही ...
आरम्भ के लगभग सप्ताह भर तो इंसान स्वयं के वश में ही नहीं रह पाता। कमजोरी और नींद के आग़ोश में पता ही नहीं चलता कि एक-एक कर दिन कैसे निकलता जा रहा है। स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि नींद ऐसे में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आवश्यक भी है। इन्हीं दिनों में कई खोखले रिश्तों की तरह गंध और स्वाद के एहसास भी चुपके से साथ छोड़ जाते हैं। दुनिया ही बेरंग नज़र आने लगती है। ना गंध, ना स्वाद, ना रंग - ऐसे में अपनी कई भूल चुके दिनचर्या को स्वयं से निपटाना , मानो नीम-कड़ैले वाली बात को चरितार्थ करता जान पड़ता है। काढ़ा, भाप, गरारा, जाँच, दवा, मास्क, परहेज़ और बिस्तर में सिमटा-सा लगने लगता है सारा जीवन .. शायद ...
इसी दौरान अगर किसी अपने या जान-पहचान वालों को फ़ोन पर ( उनके फ़ोन आने पर या स्वयं की ओर से उनको करने पर ) इस कोरोनकाल में स्वयं के कोरोनाग्रस्त होने की बात बतलाने और उनका हालचाल पूछे जाने पर जब उधर से उत्तर मिलता है कि " हम लोग तो अल्लाह ताला ( अल्लाह त आला ) के रहम-ओ-करम से ठीक हैं। ", " हम सभी सपरिवार साईं की कृपा से सुरक्षित हैं। ", " हम सब पर माता रानी की कृपा है। " , " महाकाल की मेहरबानी।" .. इत्यादि-इत्यादि ; तो अपने-आप में ग्लानि महसूस होने लगती है कि हम कितने बड़े पापी हैं , जो हम या हमारा परिवार इन सब कृपा, रहम-ओ-करम, मेहरबानी से वंचित रह गया और हम नासपीटे लोग कोरोनाग्रस्त हो गए। मजे की बात तो ये है कि इन सारे दूरभाषी वार्तालापों में यह तय कर पाना कठिन हो जाता है कि इन भद्रजनों में से कौन-कौन से लोग औपचारिक वार्तालाप कर रहे हैं या फिर कौन लोग सहानुभूतिवश बात कर रहे हैं या फिर कोई एक भी समानुभूति से लबरेज़ है भी या नहीं .. बस यूँ ही ...
आज ऐसी परिस्थितियों में कोरोनाग्रस्त हो कर बिस्तर पर पड़े-पड़े अनायास जो मन में चलने लगता है कि अगर मेरे साथ भी कुछ अनिष्ट घट गया तो ... यह काम अधूरा रह जाएगा , वह काम अधूरा रह जाएगा, फलां-फलां कविता अधूरी रह गईं है , एक-दो कहानी के कथानक अपरिष्कृत ही रह गए है , एक फलां उपन्यास भी तो लिखना था। क्या पता .. अभी वाली रचना ही आख़िरी रचना हो .. शायद ...  मालूम नहीं ये भी पूर्ण होकर सोशल मीडिया पर पोस्ट हो भी पाएगी या नहीं .. रिश्ते या जान-पहचान वालों में से काश ! .. फलां की शादी देख भर लेते या फलां के एक संतान आ जाने पर देख भर लेने की लालसा .. पर ऐसी सारी ही परिस्थितियां आज से पाँच-दस-बीस साल बाद भी तो .. जब कभी भी मरने के समय मन में चलने वाली है .. शायद ... वास्तव में सोचा-समझा जाए तो आज ना कल, कभी ना कभी तो इस नश्वर शरीर से खोखले नातों की तरह पृथक् होना ही है हमको। मेरा तो यह मानना है कि हमारे ऊपर अगर कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आश्रित नहीं है तो .. हमें हमारे जीवन से बहुत ज्यादा मोह नहीं होना चाहिए। पर .. ऐसे समय में अगर एक मुम्बइया व्यवसायिक सिनेमा का एक लोकप्रिय संवाद - " थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है। " के तर्ज़ पर कुछ बोलने की हिमाक़त करूँ तो यह कह सकता हूँ कि - " मरने से डर नहीं लगता साहब, कोरोना से मरने पर हमारी आख़िरी इच्छानुसार हमारा अंगदान या देहदान नहीं हो पाएगा .. इस कारण से लगता है। " .. बस यूँ ही ...
बचपन से ही जो-जो काम आलस और उलझन भरा लगता हो , मसलन - सर्दी-खाँसी होने पर गरारा करना और रात में सोते वक्त बिस्तर पर आवश्यकतानुसार मच्छरदानी लगाना , वो सारा काम भी करना पड़ता है। वह भी तब .. जब कि शरीर में ऊर्जा लेशमात्र भी ना हो। चूँकि बीमार को फेफड़े से सम्बन्धित संक्रमण होता है तो ऐसे में मच्छर भगाने की कोई तरल या ठोस रासायनिक पदार्थों को जलाना या सुलगाना नुकसानदेह हो सकता है , तो मन मार कर रोज रात में अपने अलग वाले बिस्तर पर मच्छरदानी टाँगनी ही पड़ती है। आम दिनों में शौचालय-सह-स्नानागार की छत की तरफ ध्यान कम ही जाता है। कारण- जल्दबाज़ी रहती है .. जो भी काम है उसे निपटा कर जल्दी बाहर निकल आने की। कभी-कभार दिमाग में कोई रचना पक रही हो तो अलग बात होती है। भीतर समय का पता ही नहीं चलता कि कब समय तेजी से निकल गया। पर समय तो हमेशा अपनी गति से ही चलता है .. बाहर आ कर घड़ी देखने पर पता चलता है कि छः बजे अंदर गए थे और निकलते-निकलते सात बज गए। ख़ैर ! ये तो आम दिनों की दिनचर्या होती है। पर इन दिनों में दो से तीन बार प्रतिदिन गरारा करने के कारण अपने लिए तयशुदा पृथक शौचालय-सह-स्नानागार में जाकर गरारा करते वक्त जितनी देर मुँह ऊपर की ओर और आँखें छत पर जाती हैं , तो कमरे के छत की अमूमन समतल बनावट के बदले दो परतों वाली बनावट ( छत का कुछ अंश नीचे की ओर और कुछ अंश ऊपर की ओर ) देख कर एहसास होता है कि इसके ठीक ऊपर में , मेरे सिर के ऊपर , ऊपर वाले तल्ले वालों का शौचालय-सह-स्नानागार होगा और "होगा" वाला अनुमान भर ही नहीं होता , बल्कि सच में होता भी है सारी की सारी बहुमंजिली इमारतों में। ऐसे में लगता है कि हमारे सिर पर ही कोई ... .. धत् ! .. ऐसी विपदा की घड़ी में भी ना जाने क्या-क्या विचार मन-मस्तिष्क में आते-जाते रहते हैं बावलों की तरह ...
ऐसी ही अवांछित परिस्थितियों में स्वतः संगरोध ( Self Quarantine ) होते हुए गृह-अलगाव ( Home Isolation ) के दरम्यान अलग-थलग एक बिस्तर पर पड़े-पड़े आज की वर्तमान परिस्थितियों में भी लगभग 16वीं सदी के मध्य ( सन् 1532 ई ० ) से 17वीं सदी के आरम्भ ( सन् 1623 ई ० ) तक के कालखण्ड वाले तुलसीदास जी की पंक्तियों -
"श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
  ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥"

की तुलना में .....  अब आगे की बातें " प्रिया संग मानसिक संवाद ... ( भाग-२ ). " में करते हैं। आज बहुत हो गई बतकही। उँगलियों संग तन-मन दोनों थक चुके हैं। अब स्वतः संगरोध में तनिक बिस्तर पर विश्राम कर लें .. बस यूँ ही ....



Monday, April 12, 2021

मन भी दिगम्बर किया जाए ...

यूँ तो 10 फ़रवरी' 2021 को अपने इसी ब्लॉग पर "रिश्ते यहाँ अक़्सर ..." शीर्षक के अन्तर्गत अपनी बतकही/रचनाओं से पहले आज अभी अपने कर रहे इस बकबक की तरह ही ठीक उस दिन के भी बकबक के तहत .. पढ़ाई के कोर्स/पाठ्यक्रम (Course) को भोजन की भी तीन कोर्सों - स्टार्टर कोर्स मेनू ( Starter Course Menu ), मेन कोर्स (Main Course ) और डेज़र्ट (Dessert) से जोड़ने की कोशिश भर की थी .. बस यूँ ही ...

वो मेरी बकबक अभी भी कहीं याद हो आपको .. शायद ... ना भी हो तो कोई बात नहीं। फ़ुर्सत मिले कभी तो याद कीजियेगा या फिर एक बार झाँक ही आइएगा उस पोस्ट को। फ़िलहाल आज के मुद्दे पर आते हैं और आज की अपनी तीनों रचनाओं (?) में से पहली (१) "स्टार्टर" के तौर पर, दूसरी (२) "मेन कोर्स" और फिर तीसरी को (३) "डेज़र्ट" के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहा हूँ .. बस यूँ ही ... :)

(१)
सर्द-अँधेरी रात से तुम्हारा
हो जाए कभी जो सामना,
आना मेरी जलती चिता तक
तपिश भी मिलेगी और ..
रोशनी भी यहाँ .. बस यूँ ही ...


(२) मन भी दिगम्बर किया जाए ...

लाख हैं मुखौटे मुखड़ों पर, तन पर तंतु के ताने-बाने,
मिलो जो एक शाम तो, मन को दिगम्बर किया जाए।

हवा ही तान चुकी है खंज़र, बंजर हो गई हों जब सोचें,
बतलाओ तुम ही जरा, कैसे जीवन बसर किया जाए।

मर के स्वर्ग मिलने के तो दिखाए अक़्सर सपने सबने,
सब्र नहीं इतनी, धरती को ही आज अंबर किया जाए।

पद, पैसे, पत्थरों को तो यूँ आए हैं हम सदियों पूजते,
कभी तो मज़दूरों, किसानों को भी आदर दिया जाए।

यूँ कोख़ के क़ैदी, कभी धरती के उम्रक़ैदी हैं हम सारे,
अमन हो जमाने में, मसीहे को रिहा अगर किया जाए।

कहते हैं लोग, पर जाने कब-कैसी ज़हर पी होगी "उसने",
आता तो जानता, कैसे पी के मौजूदा ज़हर जिया जाए।

गाए हैं यूँ कई बार-"हम होंगें कामयाब, एक दिन" हमने,
उम्र बीती .. रीती नहीं, कामयाबी का सबर किया जाए।

पाए गए हैं आज हम जो "कोरोना पॉजिटिव" जाँच में,
कमरे में अपने, अपनों को भी कैसे अंदर लिया जाए।

तन दिगम्बर होते हैं अक़्सर खजुराहो सरीखे बस यूँ ही ...
रूमानी रातों में, कभी तो मन भी दिगम्बर किया जाए।

(३)
'हुआँ-हुआँ' की नगरी,
ऊहापोह की गठरी है।
सब की अपनी-अपनी,
संग साँसों की गगरी है .. शायद ...

और आज चलते-चलते अपने मन के काफी क़रीब, स्वयं के बारे में बयान करती हुई बहुत अरसे पहले लिखी गई चंद पंक्तियाँ, जिसे मैं अक़्सर दोहराता हूँ .. उन्हें आज एक बार फिर दोहराने का मन कर रहा है .. बस यूँ ही ...

तमाम उम्र मैं
हैरान, परेशान,
हलकान-सा,
तो कभी लहूलुहान बना रहा

हो जैसे मुसलमानों के
हाथों में गीता
तो कभी हिन्दूओं के
हाथों का क़ुरआन बना रहा ...