Wednesday, July 8, 2020

जानती हो सुधा ...

● सुबह का वक्त .. डायनिंग टेबल पर आमने-सामने श्रीवास्तव जी (♂) और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती श्रीवास्तव (♀)  ..  दोनों ही आज के ताज़े अख़बार के पन्नों और कॉफ़ी के कपों के साथ ..

♂ "कितनी बार कहा है कि मेरी कॉफ़ी में शुगर फ्री मत डाला करो।"

♀ "तो क्या, चीनी डाल दूँ? ताकि शुगर हाई हो जाए। ऐसे ही बिना मीठा खाए तो दो-ढ़ाई सौ से ऊपर रहता है शुगर आपका।"

♂ "अरे यार, तुम से सुबह-सुबह बहस कौन करे। कितनी बार कहा है कि मेरी कॉफ़ी में दोनों ही मत डाला करो। ना चीनी, ना शुगर फ्री और दूध भी नहीं .. मुझे ब्लैक कॉफ़ी पसंद है।"

♀ "छोड़ दीजिए उसको। लाइए कप .. दूसरा बना कर लाते हैं आपके लिए .. ब्लैक कॉफ़ी।"

♂ "रहने दो। छोड़ दो। अभी इसे ही पीने दो। आगे फिर कभी बनाना तो ध्यान रखना। अब ये बन गया तो, बर्बाद थोड़े ही न होगा। जाओ, अपना काम करो। "

♀ "आपकी पत्नी हूँ। इस तरह मुझे झिड़कना आपको शोभा देता है क्या ? बोलिए ! .. सुबह-सुबह इतने चिड़चिड़े क्यों हो रहे हैं आप ? रात में नींद पूरी नहीं हुई क्या ? या बी.पी. बढ़ी हुई है। जाकर लैब में चेक करवा लीजिए एक बार। या फिर रात में कोई बुरा सपना देख लिया है आपने, जो अभी तक मूड खराब है आपका।"

♂ "हाँ , ऐसा ही समझ लो।"

♀ "बिना सपना जाने, कैसे समझ लो भला, बोलिए ! .. बोलिए न .. ऐसा क्या सपना देख लिया है आपने। सुबह से आज मेरी दायीं आँख भी निगोड़ी लगातार फड़क रही है। राम जाने .. कोई अपशकुन न हो जाए .. "

♂ "अब सुबह-सुबह तुम भी क्या फिर कोई दकियानूसी बातें ले कर बैठ गई हो।"

♀ "फिर भी .. दकियानूसी ही सही .. पर बतलाइए तो सही कि कल रात क्या सपना देखे आप, जिस से अभी तक आपका मूड इतना खराब है ?"

♂ "कल सपने में देखा कि मैं मर गया हूँ और .. "

♀ "अरे-रे-रे .. मरे आपका दुश्मन .. और ? .."

♂ "और तुम कुछ माह बाद ही किसी और से शादी कर लेती हो। आपस में तुम दोनों इसी डायनिंग टेबल के पास बैठ कर चाय पीते हुए हँस-हँस कर बातें कर रही हो। वो आदमी तुम्हारी हथेली अपनी दोनों हथेली में दबा कर कह रहा था कि चलो, अच्छा हुआ ग्रहण टल गया।"

♀ "हे राम ! क्या अंट शंट देखते रहते हैं आप ? ... आयँ ?"

♂ "तुम भी तो मेरे दुनिया से चले जाने से बहुत खुश दिख रही थी।" -  (व्यंग्यात्मक और चुटीले लहज़े में).

♀ "और .. यही सब देख कर आपका मूड खराब है, है न ? सच-सच बतलाइएगा कि आप अपने मरने के सपने से दुःखी हैं या मेरी ख़ुशी से ?" (माहौल को कुछ हल्का करने के ख़्याल से चुटकी लेते हुए श्रीमती श्रीवास्तव ने श्रीवास्तव जी को छेड़ा।) "अभी कुछ ही दिन पहले तो आपने सोशल मिडिया पर अपनी एक कहानी की नायिका को ऐसे ही तो अपने पति के मरने के बाद अपने किसी पहचान वाले नायक से हाथों में हाथ डाल कर मिलते हुए और उस के मुँह से ग्रहण टलने वाली बात भी कहते हुए लिख कर दिखलाया था। लोगों ने आपकी कहानी के ऐसे सुखान्त को सराहा भी था, प्रतिक्रिया में वाह-वाह लिख कर। है न ?"

♂ "तो ... ?"

♀"तो क्या .. तो फिर आपको तो खुश होना चाहिए न, चिड़चिड़े होने की जगह .. कि .."

♂ "मतलब जो भी मन में आता है .. कुछ भी ऊटपटाँग बक देती हो .. एक बार सोचती भी नहीं कि .. "

♀ "अब इस में सोचना क्या है भला .. बोलिए न जरा .. मुझे लगा कि आपकी जिस कहानी की नायिका के अपने पति के मरने के बाद वाले कृत से सजे जिस सुखान्त (?) की जिसमें .. नायक द्वारा उस नायिका के पति के मरने को 'ग्रहण टलना' (?) बुलवाया गया .. और फिर जिसकी आपके प्रसंशक पाठकगण द्वारा इतनी भूरि भूरि प्रशंसा हो रही हो .. वह तो निश्चित रूप से कोई अच्छी ही बात होगी न ? ..  है कि नहीं ?"

♂ "जानती हो सुधा .. दरअसल हम सभी दोहरी ज़िन्दगी जीते हैं हमेशा।  समाज में किसी की बेटी-बहू के साथ बलात्कार हो तो हम फ़ौरन सहानुभूति में एक रचना पोस्ट कर देते हैं। अगर हमारी बेटी-बहू के साथ ऐसा होगा तो एक पंक्ति भी लिखने का होश होगा क्या ? नहीं न ? अगर सीमा पर कोई फौजी मरता है, फ़ौरन एक रचना हम चिपका आते हैं जा कर सोशल मिडिया पर, उसकी श्रद्धांजलि या उसके परिवार की सहानुभूति में। वही अगर हमारे घर के कोई नाते-रिश्तेदार वाले किसी फौजी की लाश का ताबूत घर आने वाला हो तो हमारे द्वारा सोशल मिडिया पर एक पंक्ति का लिखा जाना तो दूर .. सोशल मिडिया झाँकने तक का होश नहीं रहेगा। है न ?" (बोलते-बोलते श्रीवास्तव जी लगभग हाँफने लगे थे। वैसे भी वे बी. पी. के रोगी ठहरे।) "हम कई-कई काल्पनिक आदर्श नायकों-नायिकाओं से आदर्श बघरवाते रहते हैं .. पर जब अपनी बारी आती है तो .. कहते हैं न कि .. "

♀ "हाथी के खाने के दाँत और .. और दिखाने के और .."

♂ "हाँ .. और हम ये बोल कर अपनी पीठ भी थपथपाना नहीं भूलते कि .. जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि .."

♀ "हम चले किचेन में .. देर हो रही है। ये रवि .. कवि आप ही समझते रहिए। हमको इन सब से क्या लेना-देना भला।"

♂ "तुम्हारी रसोई किसी रचनाकार के रचना से कमतर है क्या .. बोलो ! .. सोचो न जरा कि .. अगर जो पेट न भरा हो तो कविता से पहले पतीला और प्लेट ही सूझेगा इंसान को .. चाहे वो कितना भी बुद्धिजीवी हो .. है न सुधा ?" ●



Tuesday, July 7, 2020

आप बड़े 'वो' हैं ...

जैसा कि हम ने कुछ दिनों पहले ही 'लॉकडाउन' के तहत 'वर्क फ्रॉम होम' के दौरान ये सोचा था कि इन ब्लॉग के वेव-पन्नों को ही अपनी डायरी (दैनन्दिनी) बना कर इन्हीं पर अपनी रचना/विचार के साथ-साथ अपनी कुछ-कुछ खट्टी-मीठी .. और कुछ कड़वी-कसैली भी .. आपबीती को भी साझा कर के सहेजते जाते हैं .. परत दर परत .. संदर्भ के अनुसार, जितना सम्भव हो सके .. अंतिम विदाई के पहले ...।
इसी क्रम में आज फिर वर्षों से एक कोने में उपेक्षित पड़ी फ़ाइल में पड़े कुछ पुराने पीले पड़ चुके कागज़ी पन्नों में से अपने वयःसंधि के समय, वर्ष ठीक-ठीक याद नहीं, लिखी गई दो मज़ाहिया तुकबन्दी आज साझा कर रहा हूँ। इनमें उस दौरान व्यवहार किए गए कुछ शब्दों के जरिया या प्रेरणा का ज़िक्र आप से कर लेते हैं, अगर आपके पास समय और धैर्य हो तो .. फिर आगे बढ़ते हुए रचना तक पहुँचते हैं ...

# पप्पू के पापा ! बनाम पप्पू पास हो गया ...
सर्वविदित है कि प्रायः बच्चों के नामकरण पर कालखंड विशेष, सम्प्रदाय या जाति विशेष के साथ-साथ भाषा और प्रदेश विशेष का भी पूरा प्रभाव पड़ता है। वैसे जातिसूचक उपनाम पर प्रभाव पड़ने वाले कारक तो जगज़ाहिर ही है .. है न ? समाज में दो -दो नाम रखने का भी प्रचलन है वैसे .. एक- स्कूल-कॉलेज के लिए निब न्धित और दूसरा- घर के लिए, जिसे प्यार का नाम या पुकारू नाम कहते हैं। वैसे तो एक आदमी के जीवन में अलग-अलग मोड़ पर अलग-अलग कई नाम या सम्बोधन मिलते रहते हैं। और नहीं कुछ तो .. कम से कम "ऐ जी" (अबे गधे) वाला सम्बोधन तो गले पड़ता ही है, जो प्रायः कहीं-कहीं कई समाज में शादीशुदा जोड़ी एक दूसरे को बुलाते हुए देखे या सुने जाते हैं।
खैर .. इतने बकबक का सारांश ये है कि किसी न किसी प्रभाव से प्रेरित हो कर ही तो मेरे अभिभावक ने मेरा नाम सुबोध (कुमार सिन्हा भी चिपका हुआ है) नाम रखा होगा। साथ ही दो नामों के चलन के तहत सुबोध के साथ-साथ पप्पू नाम से भी बुलाया गया होगा। घर के सभी छोटे भाई-बहन पूरी तरह पप्पू भईया भी नहीं बोलते हैं, बल्कि हड़बड़ी में पुकारते हुए एक अलग उच्चारण हो जाता है- "पप्पिया" और इस तरह सुबोध और पप्पू के अलावा एक तीसरा सम्बोधन भी अन्जाने में होता आया है- पप्पिया।
पर ये अलग बात है कि जब से कैडबरी के चॉकलेट का विज्ञापन इस सदी के महानायक (ऐसा लोग कहते हैं) की आवाज़ में दूरदर्शन पर आया- "पप्पू (फिसड्डी) पास हो गया" और साथ ही किसी व्यक्ति विशेष के लिए पर्यायवाची संज्ञा के रूप में यह "पप्पू" नाम एक मुहावरे की तरह व्यवहार किया जाने लगा, तब से लोगबाग़ अब अपने बच्चों का यह नाम नहीं रखते और जिनका पुराना नाम है भी तो, वे बतलाने में झेंपते हैं।
वैसे तो लोग अपनी असली उम्र भी नहीं बतलाते जल्दी ... लोगबाग अपनी संतान की उम्र छिपाने या यूँ कहें कि कम उम्र की बतलाने के लिए उसके बचपन में स्कूल में नामांकन कराते वक्त उम्र कम बतला कर लिखवाते हैं और उनका वही बच्चा जब सयाना होता है तो अपने उम्र के अन्तर की सच्चाई जान कर उसे लगता है कि उम्र छुपानी कोई अच्छी बात है। फिर वो बड़ा या बुढ़ा हो जाने पर भी अपनी उम्र झुठलाता फिरता है। अपने से कम उम्र की स्त्री और पुरुष को क्रमशः "दीदी" और "भईया" बुला कर सम्बोधित करता रहता है, ताकि वह सामने वाले/वाली से अपने को कम उम्र की साबित कर सके और एक मेरे जैसा स्टुपिड है कि सीना चौड़ा कर के कहता है कि साहिब! मेरे जन्म के बाद से अब तक घर की दीवार से 54 कैलेंडर बदले जा चुके हैं। ऐसे आप लाख छुपा लें किसी से भी अपनी उम्र .. क़ुदरत को सब पता होता है .. है कि नहीं ?...

# जो प्यार छुपा 'तुम' में. बनाम "गुड्डू" ...
नाम से एक और बात याद आयी कि प्रायः लोग आपके निबंधित नाम और प्यार के या पुकारू नाम के अलावा प्यार-मोहब्बत में एक अलग नाम से भी संबोधित करना चाहते हैं आपको .. हमसफ़र .. हमनफ़स बनाने पर या स्वयं बन जाने पर। कभी वो सम्बोधन व्यक्तिवाचक संज्ञा भी होता है, मसलन- सोनी, सोना, मोना या फिर मूल नाम में आकार, उकार आदि लगा कर, मसलन-रितेशवा, सुनीतिया इत्यादि। जैसे मैं लाड़ से कभी-कभी अपनी धर्मपत्नी को मधु की जगह "मधा" और वो मुझे सुबोध की जगह "सुब्बू" के सम्बोधन से आवाज़ देती है। और कभी जातिवाचक संज्ञा, मसलन-बाबू, दिल, जान इत्यादि या फिर कभी कोई विशेषण भी, मसलन-स्टुपिड, छलिया, फ़रेबी इत्यादि जैसे सम्बोधन या नाम सुनने के लिए भी मिल जाते हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि किसी को "आप" बोलने से इंसान अदबी बना रहता है। पर कुछ लोग इस बात कि भी तरफ़दारी करते मिलते हैं कि "तुम" या "तू" के सम्बोधन से रिश्ते में अपनापन और नज़दीकी का एहसास होता है। मेरे पापा (अब इस दुनिया में हैं नहीं) भी ऐसा ही मानते थे, पर बहुत बार वे स्वयं जब बहुत लाड़ जताते थे हम सभी भाई-बहनों से तो हम सब के लिए "आप" का सम्बोधन ही व्यवहार करते थे। यहाँ तक कि अपने पोते यानि मेरे बेटे के लिए भी। एक अनोखी बात (मेरी नज़र में) मैंने देखी है बचपन से कि अम्मा और पापा दोनों ही एक दूसरे को आपस में प्यार से एक ही समान सम्बोधन से बुलाते थे- "गुड्डू"। जिस नाम का हमारे किसी के नाम से कोई लेना-देना नहीं था और ना है। कभी कारण पूछा भी नहीं हमलोगों ने। बस हम सभी मन ही मन मुस्कुराते थे और हँसी-ख़ुशी वाले माहौल होने पर मज़ाक से पापा की अनुपस्थिति में अम्मा को गुड्डू बोल कर चिढ़ाते थे।

# हम दो, हमारे दो. बनाम "तू तरुवर मैं शाख रे" ...
70 के दशक वालों को जरूर याद होगा .. जगह-जगह दीवारों पर लाल तिकोन के साथ लिखा, चिपका या टंगा हुआ एक नारा- "हम दो, हमारे दो"। तब बचपन में ये नहीं मालूम था कि जनसंख्या पर रोक के लिए परिवार नियोजन के इस नारे को "रेशमा और शेरा" फ़िल्म के "तू चंदा मैं चांदनी, तू तरुवर मैं शाख रे" जैसे रूमानी फ़िल्मी गीत लिखने वाले मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक जिला- मंदसौर  के रचनाकार सुप्रसिद्ध कवि बालकवि बैरागी जी ने रचा था।
साथ ही ये भी उन्हें याद होगा कि तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के कहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान की धारा-352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी थी, जो 25 जून' 1975 से 21 मार्च' 1977 तक यानि लगभग 21 महीने तक लागू रही थी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था।
आपातकाल के नाम पर जनता के अधिकार छीने जाने के साथ ही परिवार नियोजन के नाम पर नसंबदी ने घर-घर में दहशत फैलाने का काम किया था। उस दौरान गली-मुहल्लों में आपातकाल के सिर्फ एक ही सबसे दमनकारी अभियान वाले फैसले- "नसबंदी" की चर्चा सबसे ज्यादा थी।
इस से जुड़ी कई हास्यास्पद और दुःखद घटनाएँ ज़ेहन में हैं, जो फिर कभी विस्तार से साझा करूँगा .. मौका मिला तो ...।
फिलहाल आते हैं अपनी दोनों तुकबन्दी वाली रचनाओं पर ... पर उस से पहले बस एक और पहलू की चर्चा लाज़िमी है।

# गज्जी सिल्क बनाम गज्जी सिल्क साड़ी ...
गज्जी सिल्क एक शाकाहार आधारित कपड़ा है। यह रेयान ताना और कपास के बाने के साथ साटन बुनता है, जो एक उच्च चमकदार सतह बनाता है। गज्जी रेशम साटन है जो रेशम के कपड़े पर किया जाता है। गुजरात में टाई-डाई साड़ियों का निर्माण करते समय इसका खूब उपयोग किया जाता है क्योंकि इन कपड़ों पर शानदार रूप में प्रिंट होते हैं। 70 के दशक में इसका कुछ ज्यादा ही प्रचलन था।
अब आते हैं दो पुरानी मज़ाहिया रचनाओं (?) बनाम दो तुकबन्दियों पर ...

(१) आप बड़े वो हैं ...
एक बार पति ने कहा अपनी पत्नी से खीझ कर,
अपनी प्यारी पर खीझ कर , थोड़ा पसीज कर।
ओ श्रीमती जी ! अब ना कहना मीठी बातें प्लीज़
सुन-सुन कर तेरी बातें , हो ना जाए डायबिटीज।

वैसे अगर डॉक्टर कहेगा, कड़ैला खाने को मुझसे,
"सुना दो दो-चार कड़वी बातें"-तब कहूँगा मैं तुझसे।
चल जाएगा जब इसी से कड़वे कड़ैले का काम,
खरीद कर तब कड़ैला भला क्यों होऊँगा परेशान।

बढ़ गया है वैसे भी आजकल चीनी का बहुत दाम,
चीनी के बदले तेरी मीठी बोली से ही चलेगा काम।
तब पत्नी ने कहा-"ए.जी. (अबे गधे) आप बड़े 'वो' हैं,
देखते नहीं घर में अभी मौजूद "हम दो, हमारे दो" हैं।

फिर पति ने कहा-"देखो! मुझे फिर तूने आप है कहा,
जो प्यार छुपा 'तुम' में, 'डार्लिंग'! वो 'आप' में कहाँ?
अच्छा, छोडो ये 'आप' और 'तुम' का रगड़ा-झगड़ा,
होगा बेहतर, "ऐ पप्पू के पापा!" अब से मुझे कहना।"
                             ◆●◆

(२) गज्जी सिल्क साड़ी
किसी प्रेमिका ने कहा एक बार अपने प्यारे प्रेमी से-
-"चश्मा तुम्हारा आ जाता है बीच में बन के सौतन,
चाह कर भी, हो नहीं पाता चार आँखों का मिलन।"

चुप्पी तोड़, कहा झट हाजिरजवाब उसके प्रेमी ने-
-"लिपस्टिक भी है तेरा, मेरा जन्म-जन्म का दुश्मन,
ले भी नहीं पाता हूँ तुम्हारे नर्म-नर्म होठों का चुम्बन।"

प्रेमिका- "लेते भी हो तो गड़ती है तेरी 'फ्रेंचकट' दाढ़ी"।
प्रेमी- "बाहों में लूँ तो फिसलती है गज्जी सिल्क साड़ी"।
                              ◆●◆

अब आप जाते-जाते .. मेरी बेतुकी बातों और तुकबंदियों से अपने ख़राब हुए मूड को बैरागी जी के कलमबद्ध किए गए गीत- "तू चंदा मैं चांदनी, तू तरुवर मैं शाख रे" जो 1971 में "रेशमा और शेरा" फ़िल्म के लिए लता मंगेश्कर जी ने जयदेव जी के संगीत के साथ गाया था, को सुन कर अपने मन को रूमानियत के साथ बहलाते हुए जाइए न .. प्लीज...  और पहचानिए न जरा .. कि ये रूमानी गाना  भला फ़िल्माया गया है किन दो प्रसिद्ध फ़िल्मी कलाकारों के साथ ...🤔🤔🤔 .. बस यूँ ही ...







Wednesday, June 24, 2020

चंद बूँदें लहू की ...

माना अकड़ाते हैं अक़्सर गर्दन अपनी आप सभी,
दावा किए अपनी-अपनी,
कभी देवता-विशेष से मिले अपने डीएनए* की
या किसी ऋषि-मुनि की
या फिर किसी अवतार, देवदूत या पैग़म्बर की।

पर हे मानव-विशेष! तनिक बतला दीजिए मुझे भी,
भला आप ने ये रिपोर्ट पायी
किस फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की ?
या कह दी उन्हीं देवता-पैग़म्बर ने ही,
आप से कि सच में मिली है आपको डीएनए उन्हीं की?

ना-ना .. शक़ तो मुझे नहीं आप पर तनिक भी,
ना ही संदेह कोई भी किसी देवता की,
या आप में देवता-पैग़म्बर वाले डीएनए होने की भी।
बस बतला देते जो आप मुझे भी,
पता उस प्रयोगशाला का या उन देवता-पैग़म्बर की।

ताकि या तो जाँच करवा लेता डीएनए की अपनी भी,
या पूछता फिर देवता-पैगम्बर से ही,
जिन से हो जाती अपने डीएनए की भी तसल्ली।
साथ ही माँग लेता उनसे उनकी ही
चंद बूँदें लहू की, अपने डीएनए-मिलान के लिए भी।

( * = डीएनए = डीऑक्सीरिबोन्यूक्लिक एसिड = Deoxyribonucleic acid. )














Tuesday, June 23, 2020

बाथरूम की दीवार पर ...

आपको याद हो शायद .. 22 मई' 2020 को अपनी एक पुरानी रचना - "मिले फ़ुर्सत कभी तो ..." और उसकी प्रस्तुति का वीडियो भी मैं ने अपने इसी ब्लॉग - "बंजारा बस्ती के बाशिंदे" पर साझा किया था, जिसमें विस्तार से "ओपन मिक या ओपन माइक ( Open Mic/Mike )" के अपने अनुभवों को विस्तार देने की कोशिश भर की थी।
उन्हीं ओपन मिक के मंचों में से एक ओपन मिक के मंच का एक एप्प भी है- योरकोट एप्प (YourQuote App) - जो स्व-अभिव्यक्ति का एक ऐसा मंच है जिस पर हम अपनी परफ़ॉरमेंस (प्रदर्शन/प्रस्तुति) की ऑनलाइन ऑडियो और विडियो बनाकर साझा कर सकते हैं .. लगभग यूट्यूब की तरह।
यह मंच या सुविधा हर्ष स्नेहांशु और आशीष सिंह नामक दो IIT,Delhi के पूर्व युवा छात्रों द्वारा 01मई' 2017 को  Yourquote Solutions Private Limited नामक आरम्भ की गई एक भारतीय स्टार्टअप (Startups) और गैर सरकारी संस्थान (Non-Govt. Company) के अंतर्गत काम करती है। हमारे लिए गर्व की बात है कि यह एक भारतीय एप्प है, जिसका मुख्यालय दक्षिणी दिल्ली में है।
ऑनलाइन के अलावा ये संस्थान रचनाकारों को समय-समय पर लगभग हर शहरों में ऑफलाइन मंच भी उपलब्ध कराती है, जहाँ रचनाकार अपनी रचना की प्रस्तुति देते हैं, और उस प्रस्तुति का वीडियो तैयार कर अपने एप्प पर डाल (upload) कर उसे प्रसारित भी करती है।
इसी मंच के तहत पटना में भी यदाकदा ओपन मिक होता रहता है। इसी के तहत 16.12.18 को पटना में होने वाले "YourQuote Open Mic" में मैंने अपनी एक रचना और कुछ चंद पंक्तियाँ भी पढ़ी थी, जिसे उनके द्वारा 05.02.19 को उनके एप्प पर डाला गया था। वैसे उस दिन की पढ़ी गई रचना युवाओं को लक्ष्य कर के लिखा गया था और जो कई चरणों में लिखे को जोड़ कर पूर्ण किया गया है, जिसका लिखित रूप और वीडियो, दोनों रूप में मैं अभी साझा कर रहा हूँ।
साथ ही कुछ चंद पंक्तियाँ भी जो प्रायः मंच-संचालन के लिए या बस यूँ ही ... भी लिखता रहता हूँ। इनमें से कुछ चंद पंक्तियाँ तो आज साझा किये गए वीडियो वाली प्रस्तुति में भी पढ़ा हूँ। तो आइये पहले शुरू करते हैं कुछ नयी-पुरानी चंद पंक्तियों से ... फिर आज की रचना/विचार- "तुम्हारे होठों पर" शब्दों में और फिर उसका वीडियो 
भी ...

चंद पंक्तियाँ ...
#
तमाम उम्र मैं हैरान, परेशान, कभी हलकान-सा, तो कभी, कहीं लहूलुहान बना रहा
मानो मुसलमानों के हाथों की गीता, तो कभी हिन्दूओं के हाथों का क़ुरआन बना रहा

#
अफ़वाह फैलायी है, गोरेपन के क्रीम वालों ने
वर्ना काला नमक, .. नमकीन होता नहीं क्या ?

#
मुखौटों का जंगल, डर लगता है आजकल
मिलते हैं हर बार, बस ... चेहरे बदल-बदल

#
बन्जारे हैं हम, वीराने में भी बस्ती तलाश लेते हैं
नजरों से आप दूर रहें, ख़्यालों में तो पास होते हैं

#
आज कुछ अभिमान-सा होने लगा है शायद
चलो .. अभी जरा श्मशान तक टहल आते हैं

#
रिहाई क्या ख़ाक हुई सनम, है ये भी तो एक सजा
कतर कर पर, कहती हो परिंदे को ... जा! उड़ जा।

#
कई खेमों में बँट गए, धर्मग्रंथों को पढ़ते-पढ़ते, हमारे शहर के लोग
पत्थर दिल हो गए हैं, पत्थर को पूजते-पूजते, हमारे शहर के लोग

                                   ●●●★●●●


अब आज की रचना/विचार शब्दों में .. इस रचना को पढ़ने के पहले अगर हमें रेशम के कीड़े का जीवन-चक्र का पता हो तो कुछ बातें ज्यादा छू पाएंगी। वैसे बच्चों या युवाओं को तो उनको उनके पाठ्यक्रम से मालूम है ही और आपको भी याद होना ही चाहिए और अगर ..नहीं तो अपने बाल या युवा संतान से एक बार जान लीजिए .. लार्वा, प्यूपा, कोकून, शहतूत, रेशम का कीड़ा वग़ैरह .. फिर आगे बढ़िए और ... अंत में वीडियो भी देखना मत भूलिए .. बस यूँ ही ...

तुम्हारे होठों पर ..
तुम्हारे होठों पर ..
जिह्वा पर ..
पिघले थे ..
फैले थे .. कभी मेरे होंठ
पिघलते आइसक्रीम के तरह।
फैली थी मेरी बाँहें
शहतूत की शाखाओं की मानिंद
और फिरीं थीं ..
सरकी थीं ..
तुम्हारी उंगलियाँ और ..
होंठ भी जिन पर
आहिस्ता-आहिस्ता
रेशम के लार्वा की तरह ...

ज़िन्दगी की अपनी
तमाम उलझनें
अनसुलझे सवाल ..
सुलझाया ..
समझाया ..
करती थीं तुम
करके इस्तेमाल मुझे
बीजगणितीय सूत्रों* की तरह।

वैसे .. आई तो थी तुम ..
ज़िन्दगी में मेरी
सुबह का ताज़ा
अख़बार बन कर
फिर अचानक .. यकायक ..
छोड़ा क्यों मुझे ..
बीते कल के
बासी अख़बार के तरह।
जिसे सजाया था
कभी तुमने माथे पर
अपनी लगायी बिंदी की तरह ...
फिर क्यों अचानक .. यकायक ..
चिपका दिया
बाथरूम की दीवार पर
लावारिस बेकार की तरह।

बोलो ना ! ...
बोलती क्यों नहीं ? ..
कहीं तुम ..
लार्वा से कोकून तो नहीं बन गई ? ...

( * - बीजगणितीय सूत्रों = Algebraic Formulas. )

अब जब अपना इतना क़ीमती समय दिया ही है आपने मुझे तो .. थोड़ा वक्त इस वीडियो को भी दे दीजिए ना .. प्लीज .. बस यूँ ही ...




Saturday, June 20, 2020

ताबूत आने की ...


◆(1)◆ 
          लहानिया भीखू
ज्यों करती है प्रतीक्षा उगते सूरज की
छठ के भोर में अर्ध्य देने को भिनसारे,
हाथ जोड़े कभी,तो कभी अचरा पसारे,
छठव्रती कोई मुँह-अँधेरे, सुबह-सकारे।
प्रतीक्षा बस कुछ पलों की आस्था भरी,
फिर तो उग ही आते हैं सूरज मुस्कुराते।

करती है प्रतीक्षा ये एक सवाल नायाब,
आख़िर होंगे कब हम सभी क़ामयाब ?
यूँ तो गाते आए हैं "हम होंगे कामयाब",
बचपन से ही मिलजुल कर हम सारे।
शेष हो कब प्रतीक्षा उस छठव्रती-सी,
जो गाएँ "हम हो गए कामयाब" सारे।

लहानिया भीखू* है आज भी अंदर और
बाहर नागी लहानिया* के बलात्कारी-हत्यारे।
टंगी है देखो "सत्यमेव जयते" की तख़्ती
बेजान-सी हर न्यायालय की दीवारों के सहारे,
कर रही प्रतीक्षा वर्षों से बस टुकुर-टुकुर,
शत्-प्रतिशत न्याय की राह मौन निहारे।

देख मार-काट आज भी बेधड़क,
जाति-धर्म और मज़हब के नाम पर,
पूछती आत्मा - कब थकेंगे हत्यारे?
जमीन-इंसानों के कब थमेंगे बँटवारे?
प्रतीक्षा तो सीखी निर्भया की माँ से,
पर भला कब तक ? कोई तो हो, जो बतलाए !!! ...

[ * = "लहानिया भीखू" (ओमपुरी) एक आदिवासी मजदूर  "आक्रोश" (1980) फ़िल्म, जो सच्ची घटना पर आधारित है,  का नायक है ; जिसे अन्याय बर्दाश्त नहीं होता और अन्याय पर उसका खून उबलता है।
परन्तु लहानिया को सबक सिखाने के लिए उस इलाके के फारेस्ट-कॉन्ट्रैक्टर, डॉक्टर, सभापति और उनका एक पुलिस दोस्त मिलकर उसकी पत्नी "नागी लहानिया" (स्मिता पाटिल) का बलात्कार कर उसकी हत्या कर देते हैं और इल्ज़ाम उसी के पति लहानिया भीखू पर डाल देते हैं।]
                                          ★◆★

◆(2)◆ 
ताबूत आने की
न्याय मिलने की
प्रतीक्षा की घड़ी,
निर्भया की माँ की
आँखों में है .. अक़्सर हमने देखी।

पर कितनी लम्बी
प्रतीक्षा भला होती होगी
सीमा से ताबूत आने की,
शहीद हुए .. अपने फ़ौजी पति की ?
                ★◆★




Friday, June 19, 2020

बाइफोकल* सोच ...

                    ■ खंडन/अस्वीकरण (Disclaimer) ■ :-
●इस कहानी के किसी भी पात्र या घटना का किसी भी सच्ची घटना या किसी भी व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह काल्पनिक है। अगर सच में ऐसा होता भी है, तो यह एक संयोगमात्र होगा। इसके लिए इसे लिखने वाला जिम्मेवार नहीं होगा या है।
और हाँ ... यहाँ किसी भी पुरुष या नारी पात्र/पात्रा की चर्चा की जा रही है, वह ना तो किसी व्यष्टि विशेष को इंगित कर रहा है और ना ही किसी समष्टि को, बल्कि कुछ ख़ास तरह के इंसान की कल्पना कर उसकी विवेचना कर रही है।●
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                                ◆ बाइफोकल* सोच ◆
आज की इस कहानी की एक पात्रा हैं- डॉ रेवा घोष, जो अपने ब्लॉग और फ़ेसबुक पर अक़्सर प्रकृति के अपने सूक्ष्म अवलोकन वाले शब्दचित्र से सुसज्जित अपनी रचनाओं को प्रकाशित करती रहती हैं। बल्कि यह कहना यथोचित होगा कि उनको या उनकी रचना को चाहने वाले उनकी अनमोल रचना की बेसब्री से प्रतीक्षा करते रहते हैं। इसके अलावा स्वयं की नज़रों में स्वघोषित या फिर सचमुच की विरहिणी, चाहे कारण जो भी रहा हो, और अपने घर-समाज में अपने मन ही मन में या सच में उपेक्षित महसूस करने वाली महिलाओं के मन की कसक भरी शिकायतों को तुष्ट करती उनकी कई रचनाएँ- गज़लें, अतुकान्त कविताएँ, कहानियाँ,  उनकी पहचान बन चुकी हैं। साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर घटने वाली कई सकारात्मक या नकारात्मक घटनाओं पर भी आशु-कवयित्री का दायित्व निभाना उन्हें बखूबी आता है या यूँ कह सकते हैं कि ऐसी अप्रत्याशित घटनाओं की मानो उनको सुबह-शाम प्रतीक्षा रहती हो। इधर किसी भी शाम घटना घटी, अगले दिन सुबह उन्होंने रचना रच दी या इधर किसी सुबह घटना घटी और उसी दिन शाम में रचना बन कर तैयार। अब अपनी-अपनी प्रतिभा है। कहते हैं ना कि -
"कशीदाकारी वालों को तो बस होड़ है, कशीदाकारी करने की।
अब कफ़न हो या कि कुर्ता कोई,बस जरूरत है एक कपड़े की।"
कई प्रतियोगिताओं की प्रतिभागी बनना भी उनकी प्रतिभा का एक अंग है।

अनेक बार तो अपनी रचना के पोस्ट करने के साथ-साथ, कई बार तो दो या चार पँक्तियों के साथ भी, एक बड़ी-सी अदा भरी मुस्कान में सराबोर अपनी तस्वीर या सेल्फ़ी भी चिपका देती हैं। ऐसे में उस पोस्ट पर आई प्रतिक्रियायों या उछले स्माइलीयों के लिए ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि वो सारी प्रतिक्रियाएँ और स्माइलियाँ उनकी उन चंद पँक्तियों के लिए आई हैं या उनकी मनमोहक तस्वीर के लिए। वैसे इनके अनगिनत प्रशंसक हर आयु वर्ग के लोग हैं, पुरुष भी और नारी भी। उनकी पोस्ट की गई रचना के विषय के अनुसार ही प्रतिक्रिया देने वाले प्रशंसक भी आते हैं- सामाजिक या राजनीतिक प्रसंगों वाली रचना पर इने-गिने, पर रूमानी पर तो मानो खुले में रखे गुड़ के ढेले के इर्द-गिर्द भिनभिनाती अनगिनत मक्खियाँ।

अमूमन यूँ तो इंसान लिखता तो वही होगा, जो या तो वो स्वयं जीता है या आस-पास किसी पात्र या घटना को देख-सुन कर महसूस करता है या फिर इतिहास, पाठ्यक्रम या अन्य किताबों में या समाज से पढ़ा, सुना, या देखा होता है। पर प्रायः पाठकगण, विशेष कर पुरुष पाठक, महिला रचनाकार की रचनाओं के आधार पर तदनुसार समाजसेविका, क्रांतिकारिणी, विरहिणी या रूमानी जैसी उस रचनाकार की छवि बना लेते हैं अपने मन-मस्तिष्क में। मसलन- विरहिणी वाली रचनाओं से उन्हें ये अनुमान लगाने में तनिक भी देरी नहीं लगती कि - लगता है कि रचनाकार का वैवाहिक जीवन असंतुलित है। उसकी महादेवी वर्मा या मीराबाई से तुलना करना शुरू कर दिया जाता है और रूमानी रचना लिखती हो तो अमृता प्रीतम से। ये सारी बातें पुरुष रचनाकार के साथ भी लागू होती हैं, परन्तु चूँकि आज इस कहानी की पात्रा महिला रचनाकार हैं ; इसीलिए महिला रचनाकार की ही चर्चा कर रहा हूँ।

कई दफ़ा विरहिणी, वेबा (युवा) या बदचलन औरत को एक खास पुरुष-वर्ग कटी पतंग की तरह आँकते हैं, जिसकी बस किसी भावनात्मक डोर का एक छोर भर अपनी किसी एक ऊँगली के पकड़ में आ जाने की प्रतीक्षा में रहते हैं और ..  फिर तो पूरी पतंग और उस की पूरी बागडोर उनके हाथ में होती है।

वैसे भी किशोरावस्था में समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के अंतर्गत यह पढ़ाया गया था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और मनुष्य की इच्छाएं अनन्त होती हैं। ये भी सुना था कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। अब दोनों को ही चरितार्थ करती हुई बातें .. कई बार मन को भटका जाती हैं। नतीज़न .. जो पास में होता है और पूरे परिवार को संभाल रहा होता है ; मसलन- किसान, सैनिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, पदाधिकारी, टीचर, ठीकेदार, व्यापारी, इत्यादि ब्रांड वाले इंसानों में से कोई एक .. वो संवेदनशील रचनाकार को ख़ुद का शोषक और ख़ुद के प्रति रूखा व्यवहार करने वाला लगने लग जाता है और उन से परे सोशल मिडिया का कोई गज़लकार, कवि, कहानीकार, लेखक, विचारक या गायक मार्का इंसान मन को खींचने, लुभाने और भाने लग जाता है। एक आदर्श-पुरुष नज़र आने लग जाता है। अपना शुभचिंतक, सहयोगी के साथ-साथ वह संवेदी और मित्रवत् नज़र आने लगता है।

वैसे तो मीराबाई या आधुनिक मीरा कही जाने वाली महादेवी वर्मा या अमृता प्रीतम के लगभग सर्वविदित निजी जीवन के अनुसार विरह या रूमानियत से सराबोर उनकी रचनाएँ उतनी हैरान नहीं करतीं, जितनी वर्तमान आधुनिक मीराओं और अमृता प्रीतमाओं की। अपनी एक विशुद्ध खुशहाल वैवाहिक और पारिवारिक जीवन के बावज़ूद भी अगर कोई रूमानी रचना लिखता/लिखती हों तो, वो तो सम्भव और स्वाभाविक हो ही सकता है ; परन्तु किसी प्रेरणा से प्रेरित होकर विरह-गीत लिखता/लिखती हो तो उनकी कल्पना-शक्ति को दाद देना तो बनता ही है। क्योंकि किसी खुशहाल वैवाहिक और पारिवारिक जीवन से भी विरह उपजना एक प्रतिभा या कलाकौशल ही हो सकता है।

                          खैर ! ... चूँकि आज की इस कहानी की पात्रा- डॉ रेवा घोष जी मुख्य हैं ही नहीं, बल्कि मुख्य हैं एक पात्र- प्रो. धनेश वर्णवाल ; इसीलिए अब रेवा जी की ज्यादा चर्चा करना उचित नहीं है।
तो अब बातें करते हैं इस कहानी के मुख्य पात्र की .. प्रो. धनेश वर्णवाल जी एक प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी से हिन्दी के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। एक अच्छे रचनाकार, समीक्षक, विचारक और समाज सुधारक भी हैं। ऐसा सब उनके अपने ब्लॉग में खुद से उल्लेख की गईं बातों से पता चलता है।

एक शाम वे अपनी साहित्यकार मित्र-मंडली के साथ शहर के एक नामी क्लब में बीता कर अपने आदतानुसार मुँह में पान चबाते हुए और कुछ अस्पष्ट गुनगुनाते हुए घर लौटते हैं। उन्हें घर में धर्मपत्नी और इकलौती बेटी, जो मेडिकल की सेकंड इयर की छात्रा है और इन दिनों कोरोना के कारण घोषित लॉकडाउन होने की वजह से कॉलेज व हॉस्टल बन्द होने के कारण घर पर ही है, दोनों रोज की तरह उनके साथ ही यानि तीनों के एक साथ डिनर करने के लिए उनकी प्रतीक्षा करती मिलती हैं।
थोड़ी ही देर में वे रोज की तरह फ़्रेश होकर डाइनिंग टेबल के पास आ गए हैं। रसोईघर से धर्मपत्नी और बेटी भी गर्मागर्म खाने से भरे कैस्सरॉल और खाने के लिए अन्य बर्त्तनों को लेकर हाज़िर हो गईं हैं। आज प्रोफेसर साहब का मनपसंद व्यंजन- अँकुरित गोटा मूँग का मसालेदार पराठा और बैंगन का रायता डाइनिंग टेबल पर सबके लिए परोसा गया है।
प्रायः किसी भी शाम का खाना या नाश्ता उन से पूछ कर और उनकी पसंद का ही बनाया जाता है। शायद यह भी पुरूष-प्रधान समाज की ही देन हो। आज शाम भी क्लब जाते वक्त वे अभी रात वाले मेनू के बारे में अपनी धर्मपत्नी के पूछने पर बतला कर गए थे।

सभी यानि तीनों हँसी-ख़ुशी चटखारे ले-ले कर खा रहे हैं। बीच-बीच में वे आज शाम की अपनी मित्र-मण्डली के बीच हुई कुछ चुटीली बातें, बेटी अपने हॉस्टल की कुछ खुशनुमा पुरानी बीती बातें व यादें और धर्मपत्नी दोपहर में अपने मायके से भाभी और बहनों से मोबाइल फोन पर हुई आपसी बातचीत का ब्यौरा आपस में एक-दूसरे को साझा कर हँस-मुस्कुरा रहे हैं। तभी उनकी बेटी उनसे चहकते हुए कहती है - "पापा! आज तो मिरेकल** हो गया।"
मुस्कुराते हुए प्रोफेसर साहब बेटी और धर्मपत्नी की ओर अचरज से ताकते हुए बोले - "ऐसा क्या हो गया बेटा!"। वे जब भी खुश होते हैं या ज्यादा लाड़ जताना होता है तो वे अपनी बेटी को बचपन से ही बेटा ही बुलाते आए हैं।
"जानते हैं? .. आज मम्मी ने पहली बार एक कविता लिखी है।"
"अच्छा! .. क्या लिखा है, जरा हम भी तो सुनें।"
"एक मिनट .. सुनाती हूँ।" फौरन अपना खाना रोक कर पास ही सेंटर टेबल पर पड़ी एक रफ कॉपी लाकर कविता सुनाने लगती है। -
"ताउम्र भटकती रही
तेरी तलाश में कि
कभी तो आ जाओ तुम प्रिय 
बन कर अवलंबन मेरा।
प्रतीक्षा करती रही
एक प्यास लिए कि
तुम आओगे ही 
बन कर आलम्बन मेरा।"
प्रोफेसर साहब का मुखमुद्रा अचानक गम्भीर हो जाता है। आवाज़ में अचानक से तल्ख़ी समा जाती है। -"रखो अभी। खाना खाओ शांति से।" सभी ख़ामोशी से खाने लगते हैं।
भोजनोपरांत सोने के लिए अपने बेडरूम में जाने के पहले भी बेटी पापा-मम्मी के बेडरूम में ही जाकर पूछती है - "पापा! अब पूरी कविता सुनाऊँ ?"
"नहीं सुननी ऐसी फ़ालतू और घटिया कविता।"
"क्यों? ऐसा क्या लिख दिया मम्मी ने भला?"
"क्या लिख दिया मतलब? कुछ भी लिख देगी? मैं मर गया हूँ क्या ? या खाना-खर्चा ठीक से नहीं चलाता? आयँ ? बोलो। जो इस बुढ़ापा में अब वो कोई अवलंबन-आलम्बन ढूँढ़ती फिरे और मैं ..."
"पापा, ये तो बस यूँ ही .. वो .. इधर-उधर पढ़ कर बस लिखने की कोशिश भर कर रही थी कि .. शायद आप उनकी सराहना करेंगे। पर आप हैं कि ..."
"इसका क्या मतलब है, कुछ भी लिखते फिरेगी। लोग क्या सोचेंगे। बोलो ...?"
"पापा! वो रेवा आँटी .. डॉ रेवा घोष .. आपकी और मेरी फेसबुक के कॉमन फ्रेंड लिस्ट में हैं। आपके और भी कई मित्र लोग हैं जो मेरे उस कॉमन फ्रेंड लिस्ट में हैं। उन सब की रचनाओं पर आपकी टिप्पणियाँ मेरी नज़रों से गुजरती रहती हैं। उस दिन तो आप उन शादीशुदा रेवा आँटी की विरहिणी-रूप वाली रचना पर तो प्यार लुटा रहे थे। आशीष और सांत्वना दे रहे थे। उनकी उस रचना के बारे में कोई कह रहा था- "विकल नारी मन के भावों का सुंदर शब्दांकन", तो कोई-  "मन के भाव ... दिल को छूते" ... प्रतिक्रिया दे रहा था, वग़ैरह-वग़ैरह। आप भी ऐसा ही कुछ लिख आए थे। जब रेवा आँटी शादीशुदा होकर ऐसा लिखने पर वाहवाही पा सकती है, विरहिणी बन सकती है, रूमानी लिख सकती है और आपकी नज़र में एक उम्दा रचनाकार हो सकती है तो मम्मी क्यों नहीं? बोलिए ना पापा .. मम्मी क्यों नहीं?"
प्रोफेसर साहब अपने वातानुकूलित शयन कक्ष में भी अपने माथे पर अनायास पसीने की बूँदें महसूस करने लगे हैं।
"और हाँ .. उस दिन मम्मी रसोईघर में वो पुराने फ़िल्म का एक गाना गुनगुना रही थी कि - "लो आ गई उनकी याद, वो नहीं आए" , तो आपका मूड ऑफ हो गया था कि इस बुढ़ापे में मम्मी को किसकी याद आ रही है भला। है ना ? .. बोले तो थे आप मज़ाक के लहज़े में मुस्कुराते हुए पर आपके चेहरे की तल्ख़ी छुप नहीं पाई थी। दरअसल आपका चेहरा भी मेरी तरह पारदर्शी है। .. और एक दिन रात में रेवा आँटी ने फेसबुक पर "आ जाओ तड़पते हैं अरमां, अब रात गुजरने वाली है" .. वाले गाने का वीडियो साझा किया तो आप फ़ौरन उसी वक्त देर रात में ही प्रतिक्रिया दे आए - "वाह! रेवा जी!, बेहद दर्द भरा नग़मा, पुरानी यादें ताज़ा हो गई " .. वाह! .. पापा वाह! ... "
" खैर! ... मैं चली सोने अपने कमरे में, रात काफी हो गई है .. गुड नाईट !"  ... उसी वक्त मम्मी की ओर भी मुख़ातिब होकर- "गुड नाईट मम्मी!" कहती हुई उनकी लाडली बेटी अपने कमरे में सोने चली जाती है।
प्रोफेसर साहब और उनकी धर्मपत्नी एक ही किंग साइज़ दीवान के दोनों छोर पर एक दूसरे के विपरीत दिशा में करवट लेकर गहरी नींद की प्रतीक्षा में सोने का उपक्रम करने लगते हैं।

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◆【 * = (1) बाइफोकल (Bifocal) = जरादूरदृष्टि (Presbyopia), यानि जिस दृष्टि दोष में निकट दृष्टि दोष और दूर दृष्टि दोष दोनों दोष होता है ; जिसमें मनुष्य क्रमशः दूर की वस्तु तथा नजदीक की वस्तु को स्पष्ट नहीं देख पाता है, को दूर करने के लिए बाइफोकल (Bifocal) लेंस का व्यवहार किया जाता है। जिसमें दो तरह के लेंस- अवतल और उत्तल, एक ही चश्मे में ऊपर-नीचे लगे रहते है।
एक ही चश्मे में बाइफोकल लेंस के दो तरह के लेंस होने के कारण, एक ही आदमी के अलग-अलग सामने वाले के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाने के संदर्भ में "बाइफोकल सोच" शब्द एक बिम्ब के रूप में प्रयोग करने का प्रयास भर किया गया है।
(2) ** = मिरेकल (Miracle) = चमत्कार। 】◆




Monday, June 15, 2020

तुम्हारी आखिरी सौतन ...

प्रकृति की दो अनुपम कृति- नर और नारी। जन्म से ही आपसी शारीरिक बनावट में कुछ क़ुदरती अंतर के बावजूद अपने बालपन में .. दोनों में कोई भी भेदभाव नहीं होता .. साथ-साथ खेलना-कूदना बिंदास, मिलना-जुलना बिंदास होता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, जीव विज्ञान के अनुसार हार्मोन्स में बदलाव के साथ-साथ ही शारीरिक बनावट के अंतरों की गिनती भी बढ़ती जाती हैं .. साथ ही, आपसी मिलने-जुलने में संकोच भी, पर मन में समानुपातिक आकर्षण बढ़ता जाता है।
उम्र की उस किशोरावस्था के शुरूआती दौर में हम अपने प्रिय- प्रेमी या प्रेमिका, को ये विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि तुम ही मेरा पहला प्यार हो। हमारी चाह भी होती है कि हम दोनों ही एक दूसरे के लिए पहला ही चाहत या प्यार हों, ताकि गर्व के साथ गा कर सुना सकें कि .. "कोरा कागज़ था ये मन मेरा, लिख दिया नाम उस पे तेरा" ... ( पुरानी फ़िल्म "आराधना" के एक गीत का मुखड़ा )।
                                        पर ठीक इसके विपरीत, यही जब उम्र के आखिरी पड़ाव में आते-आते, हम अपने प्रौढ़ावस्था में जीवन-साथी को ये विश्वास दिलाते नहीं थकते कि तुम ही मेरा आखिरी प्यार हो। चाहते भी हैं कि मेरा जो हमसफ़र है, उसी के दामन में दम निकले ताकि हम रुमानियत के साथ गा सकें कि .. "आखरी हिचकी तेरे ज़ानों पर आये, मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ" ...  ( क़तील शिफ़ाई जी की लिखी और जगजीत सिंह जी की गायी गज़ल "अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ" का एक अंश)।
इस तरह हर इंसान के मन में पहला और आखिरी का ये ऊहापोह चलता रहता है ताउम्र .. शायद ... । बड़े ख़ुशनसीब होते हैं वो इंसान, जो किसी का पहला और आखिरी यानि दोनों ही प्यार बन पाते है या फिर जिसे पहला और आखिरी प्यार के रूप में एक ही शख़्स मिलता है।
अब आज का बकबक बस इतना ही ... और इन से भी इतर एक सोच/विचार के साथ आज की रचना/विचार पर आपकी एक नज़र की तमन्ना लिए .. बस यूँ ही ...

तुम्हारी आखिरी सौतन ...
ऊहापोह .. उधेड़बुन .. तुम्हारे .. सारे के सारे
कि "तुम मेरा पहला प्यार, मेरी पहली प्रीत हो की नहीं?"
आओ .. दूर कर दूँ आज मैं, तुम से दूर .. बहुत दूर जाने के पहले,
आओ ना पास .. आओ ना पास .. आओ ना पास ...
माना .. है लाख शराबबंदी बिहार में, तो भला क्यों होना निराश ?
आओ ना .. मिलकर 'कॉकटेल' बनाते हैं आज की शाम एक ख़ास,
जिनमें होंगी मिली, बस मेरी साँस और .. तुम्हारी साँस ...
आओ ना पास .. आओ ना पास .. आओ ना पास ...

मेरा पहला प्यार, पहली प्रेमिका तो तुम हो ही नहीं,
ये बतलायी थी तुम्हें मैं ने पहली ही रात .. है ना याद ?
पर पहली प्रेमिका मेरी .. जिसका ज़िक्र किया था तुम्हें उस रात
वो भी तो दरअसल है ही नहीं पहली .. समझी ना पगली ! ...
ना .. अरे ना, ना .. पड़ोस वाली वो शबनम भी नहीं
और ना ही कॉलेज वाली वो मारिया।
तो फिर जानती हो ? .. थी कौन वो ? .. मेरी पहली प्रेमिका ? ..
सोचा .. सुलझा ही दूँ आज तुम्हारे मन की पहेलियाँ ..
वो थी .. मेरी माँ .. मेरी अम्मा ...
कोख़ में जिनकी सींझी थी, नौ माह तक ये मेरी काया।

अब सोचो ना जरा .. प्यार करते हैं जब भी हम दोनों
या गले मिलते हैं हम दोनों जब भी,
पल के लिए भी तो .. हैं पलकें हमारी मूँद जाती।
वैसे भी, कभी भी, किसी भी गहराई में उतरो तो ..
बारहा आँखें हैं मूँद जाती, पलकें हैं मूँद जाती ..
चाहे हो वो गहराई किसी नदी की, आध्यात्म की
या फिर रूहानी या जिस्मानी प्यार की।
है ना ?.. मानती हो ना ? .. तुम्हारी भी तो हैं अक़्सर मूँद ही जाती।
अब .. जब कोख़ में जिनके, मैं नौ माह तक आँखें मूँदें अपनी,
खोया रहा, सोया रहा बिंदास .. करते हुए उनके स्पन्दन का एहसास।
स्पर्श किया पहली बार जिनके तन को, मन को, स्तन को,
वही तो थी माँ मेरी, अम्मा मेरी, पहली प्रेमिका मेरी।

सोचा था .. बनोगी तुम मेरे जीवन की आखिरी प्रेमिका,
पर शायद .. लगता है .. ऐसा भी नहीं हो सकेगा।
देखो ना ! .. देखो जरा .. वो दूर खड़ी मुस्कुरा रही है,
पास बुला रही है .. मुझे भी तो अब भा रही है।
उसकी मदहोश अदाओं में, निगाहों में, मैं भी मदहोश हुआ जा रहा हूँ।
हद हो गई .. वो लगाने को गले, है बेताब हुई .. है क़रीब आई जा रही,
देखो ! वो आ ही गई .. है अब तो अपनी बाँहों में भरने ही वाली,
अरे-रे .. संभलना मुश्किल हो रहा अब तो ...
मदहोशी में है आँखें मेरी मूँदी जा रही।

जानकर अपनी आखिरी सौतन का नाम, अब जल तो ना जाओगी ?
सौतनडाह से मत जलो अब, अब तो है जलने की मेरी बारी।
है मौत ही मेरी .. तुम्हारी आखिरी सौतन .. मेरी आखिरी प्रेयसी,
देखो, देखो .. वो पास आ गई .. मुझको है तुमसे छीनकर ले जा रही,
बस देखती रह जाओगी तुम खड़ी .. बेबस .. लाचार,
बन सकी ना जो कभी मेरा पहला प्यार .. ना ही आखिरी प्यार ..
पर बहरहाल .. एक बार .. बस एक बार,
दूर .. मेरे बहुत दूर चले जाने के पहले .. तुम आओ ना पास ...
आओ ना पास .. आओ ना पास .. आओ ना पास ...