हे माँ भवानी ! ...
दूर करो जरा मन की मेरी हैरानी
कि .. मिट्टी भला मेरे दर की
आते हैं हर साल क्यों लेने
कुम्हार .. तेरी मूर्त्ति गढ़ने वाले ...
सदियों से हम भक्त ही तो सारे
उपवास या फलाहार हैं करते
अबकी तो तेरी भी हुई है फ़ाक़ाकशी
पड़े हैं तेरे सारे दरों पर ताले ...
तू तो मूरत है .. लोग तेरे हैं दीवाने
पर हम रोज़ कमाने-खाने वाली
कामुकों के बिस्तर गरमाने वाली
पड़े हैं मेरे कोठे पर खाने के लाले ...
मज़दूर-भिखारी सब सारे के सारे
पा भी जायेंगें शायद सरकारी भत्ते
आज पा रहे कई संस्थाओं से खाने
भला कोई मेरी ओर भी तो निगाह डाले ...
थमा है आज प्रगति का प्रतीक - पहिया
सामाजिक प्राणी का है बन्द मिलना-जुलना
जाति-धर्म-वर्ग में कोई भेद रहा ना
कट रही संग तेरे अपनी भी बस यूँ ही बैठे ठाले ...