आज की हमारी बतकही हर बार की तरह आप में से कईयों के लिए "उबाऊ" तो हो सकती है, पर "अनुपयोगी" नहीं .. भले ही ये "रोचक" हो ना हो, पर "रेचक" अवश्य हो सकती है .. शायद ...
हम अक़्सर पर्यावरण दिवस के मौके पर वृक्षारोपण की यानि पौधे रोपने की बात करते हैं और "सेल्फियाना" अंदाज़ में हर बार, हर वर्ष रोपते भी हैं। परन्तु हम आज .. अभी-अभी बात कर रहे हैं .. पौधों को उखाड़ फेंकने की यानि .. हमारी अपनी-अपनी मिली चंद वर्षों की उम्र भर के लिए ही सही .. हम सभी को किराए पर उपलब्ध इस प्रकृत्ति-प्रदत धरती की हरीतिमा को कम करने की बात .. परन्तु .. "दुष्टा (?) हरीतिमा" को ख़त्म करने की बात कर रहे हैं अभी .. शायद ...
हाँ .. एक जाति विशेष के उन तमाम पौधों पर फूलों के खिलने या उनके बीजों को पक कर तैयार होने से पहले ही निरस्त करने की आप सभी से गुहार लगा रहे हैं अभी हम .. ताकि उनकी नस्लें नेस्तनाबूत हो जाएँ .. हमारे आसपास से ही नहीं .. बल्कि इस धरती से .. ठीक-ठीक .. समस्त धरती से विलुप्त हो चुके उन आततायी डायनासोर की तरह .. बस यूँ ही ...
हालांकि हमने अपनी साप्ताहिक धारावाहिक- "पुंश्चली" के आठवें अंक - "पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में सभी सुधीजनों से चर्चा की थी, उनके स्वयं एक जिम्मेवार नागरिक होने के नाते अपने-अपने आसपास उगे या अपनी राह चलते दृष्टिगोचर हुए इनके आठ-दस पौधों को रोज़ उखाड़ फेंकने की, ताकि भावी पीढ़ियों व स्वयं के लिए भी एक स्वच्छ एवं स्वस्थ बेहतर भविष्य का निर्माण हो सके .. मालूम नहीं आपका ध्यान कितनी आकृष्ट कर पायी होगी मेरी बतकही ? .. ख़ैर ! .. अभी की बतकही में हम उसी उखाड़ फेंकने वाली एक आततायी खरपतवार को जानने-समझने की कोशिश करते हैं .. बस यूँ ही ... जिनका नाम है .. "गाजर घास" ...
इस नासपीटी को हमारे देश भारत में "गाजर घास" के अलावा अलग-अलग स्थानों के अनुसार चटक चाँदनी, चिड़िया बाड़ी, काँग्रेस घास, धनुरा, सफेद टोपी, गंधी बूटी, सांता-मारिया 'फीवरफ्यू' (Santa Maria Feverfew), 'व्हाइटटॉप वीड' (Whitetop Weed) और अकाल 'वीड' (Famine Weed) के नामों से भी जाना-पुकारा जाता है। परन्तु इसका वास्तविक वैश्विक वैज्ञानिक नाम 'पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस्' - (Parthenium Hysterophorus) है। जो कि विश्व भर में उपलब्ध इन विनाशकारी खरपतवार की लगभग बीसों प्रजातियों में से एक आम आक्रामक प्रजाति है।
यह भौगोलिक उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उपजने वाला 'एस्टेरसिया' - (Asteraceae) कुल के पुष्पीय पौधे की एक प्रजाति है, जिनके पौधे रोएँदार और अत्यधिक शाखा युक्त एक से डेढ़ मीटर तक लम्बे होते हैं। इनकी पत्तियाँ लगभग गाजर की पत्ती की तरह होती हैं, इसीलिए इनको "गाजर घास" कहते हैं। इनके फूलों और फलों के रंग सफेद होते हैं, इसी से इनको कहीं-कहीं "चटक चाँदनी" या "सफ़ेद टोपी" भी कहते हैं। इनको "काँग्रेस घास" भला क्यों कहते हैं, इसकी चर्चा आगे करते हैं। इनका प्रत्येक पौधा हज़ारों की संख्या में अत्यंत सूक्ष्म बीज पैदा करता है, जो शीघ्र ही ऊसर-बंजर जमीन में भी हल्की नमी पाकर पनप जाता है और अपने तीन-चार माह तक के ही जीवनकाल में भी आजीवन आततायी बना रहता है। इस प्रकार नमी प्राप्त होते रहने पर सालों भर इनके पनपने और मरने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है .. स्वचालित प्राकृतिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ...
"खाली दिमाग़ शैतान का" वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए यह मुख्यत: सड़कों तथा रेल की पटरियों के किनारे-किनारे जैसे खाली स्थानों में और अनुपयोगी भूमियों पर फ़ैलने के अलावा औद्योगिक क्षेत्रों, बगीचों, पार्कों, स्कूलों, रहवासी क्षेत्रों के इर्द-गिर्द पड़ी खाली जमीन आदि पर बहुतायत में पनपते हैं। इनके बीज अत्यधिक सूक्ष्म और भार में हल्के होते हैं, जो अपनी विशेष 'स्पंजी' बनावट की वजह से हवा या पानी द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पनपने पहुँच जाते हैं।
फसलों में पाए जाने वाले विविध प्रकार के खरपतवारों से इतर यह "गाजर घास" फसलों और जमीन के साथ-साथ मानव और मवेशियों के लिए भी अत्यंत घातक है। इनके सम्पर्क से या हवा में तैरते परागकण के दुष्प्रभाव से मनुष्यों में त्वचाशोथ ('डर्मेटाइटिस'/Dermatitis), 'एक्जिमा' (Eczema) जैसे चर्मरोग के अलावा 'एलर्जी' (Allergy), बुखार और खाँसी, दमा आदि जैसी श्वसन सम्बन्धित बीमारियों की सम्भावना बढ़ जाती हैं। इनके अत्यधिक प्रभाव होने पर मनुष्य की मृत्यु तक हो सकती है। मवेशियों .. ख़ास कर दुधारू मवेशियों द्वारा इनके सेवन कर लेने से इनकी अत्यधिक विषाक्तता आँतों में 'अल्सर', बाल झड़ना, दूध में कड़वाहट आदि जैसी कई तरह की समस्याएँ पैदा कर देती हैं। इस कड़वे दूध के सेवन से कई प्रकार की पेट संबंधित बीमारियों के चपेट में आने की अक़्सर सम्भावना रहती है। अत्यधिक सेवन करने से पशुओं की भी तो कई दफ़ा मृत्यु तक हो जाती है। इन में पाए जाने वाले विषाक्त पदार्थों के कारण फसलों के अँकुरण एवं वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा पत्तियों में 'क्लोरोफिल' की कमी एवं पुष्प र्शीषों में असामान्यता होने से फ़सलों, सब्जियों एवं उद्यानों की पैदावार प्रायः लगभग चालीस प्रतिशत तक कम हो जाती है।
"खरपतवार वैज्ञानिक" बतलाते हैं, कि गैरकृषि क्षेत्रों में इनके नियंत्रण के लिए 'एट्राजिन' (Atrazine), 'ग्लायफोसेट' (Gyphosate), 'मैट्रीब्यूजिन' (Metribuzin) नामक शाकनाशी रसायनों (Chemical Herbicides) को प्रायः प्रयोग में लाया जाता है। इसके अलावा 'जाईकोग्रामा बाईकोराटा' (Zygogramma bicolorata) नामक मैक्सिकन कीट (Mexican Beetle) को इन पर छोड़ दिया जाता है, जिनकी प्रजनन द्वारा उत्पन्न अत्यधिक तादाद इनकी पत्तियों का भक्षण कर इन्हें नष्ट कर देती हैं।
खरपतवार वैज्ञानिकों के अनुसार इन्हें नष्ट करने हेतु इनके पुष्पित होने के पूर्व या फलों में बीज पकने के पहले ही इनका उपयोग अनेक प्रकार के कीटनाशक, जीवाणुनाशक, खरपतवारनाशक दवाइयों और कृमि खाद ('वर्मी कम्पोस्ट'/Vermi Compost) के निर्माण में किया जा सकता है।
खरपतवार वैज्ञानिकों का मानना है, कि इससे तैयार लुगदी से विभिन्न प्रकार के कागज के निर्माण किए जा सकते हैं। 'बायोगैस' उत्पादन में भी इनको गोबर के साथ मिलाया जा सकता है। इन सब के अलावा गैरकृषि क्षेत्रों में गेंदे, चकोड़ा (चकवड़/पवाँर) इत्यादि जैसे प्रतिस्पर्धात्मक पौधे और कृषि क्षेत्र में ढैंचा, ज्वार, बाजरा, मक्का जैसी शीघ्र बढ़ने वाली फसलें लगाकर इस भीषण खरपतवार की बढ़त को रोका जा सकता है।
अपनी जन्मभूमि मेक्सिको से भाया अमेरिका यह हानिकारक और आक्रामक खरपतवार "शांति के लिए भोजन" ('फूड फॉर पीस' / Food for Peace) के नाम से अमेरिका से आने वाले गेहूँ के साथ-साथ एक संदूषक के रूप में साठ के दशक में हमारे देश भारत में पहली बार आयी थी। अब तो समस्त एशिया, ऑस्ट्रेलिया, अफ़्रीका, पश्चिमी द्वीपसमूह के विभिन्न भागों में फैल चुकी है।
यूँ तो यह खरपतवार जम्मू-कश्मीर से तमिलनाडु तक और गुजरात से उत्तर-पूर्वी राज्यों तक अपने देश भारत के लगभग सभी राज्यों में अपना पैर पसार ही नहीं, पूरी तरह जमा चुकी है। इसकी वज़ह है .. किसी भी भौगोलिक परिस्तिथि और जलवायु में इनका आसानी से पनप जाना और फूलना-फलना .. शायद ...
यह साधारण-सी दिखने वाली खरपतवार आज हमारे लिए और हमारी भावी पीढ़ियों के लिए भी कई दशकों से एक जानलेवा समस्या बनी हुई है। परन्तु हमारी हर समस्या के लिए सरकार पर निर्भर रहना या उस पर दोषारोपण करना हमारी निष्क्रियता को उजागर करता है। हमारी अपनी समस्याओं के हल के निष्पादन के लिए हम सभी को जागरुक रहना है और दूसरों को भी समय-समय पर करते रहना चाहिए। जैसे भूकंप आने पर हम किसी की मदद के लिए आने की प्रतीक्षा किए बग़ैर फ़ौरन घर से निकल कर अपनी बचाव के लिए खुले स्थान की ओर तेजी से भागते हैं। .. नहीं क्या ? .. तभी तो हम, हम से हमारा समाज, हमारे समाज से हमारा देश .. एक उज्ज्वल भविष्य की कामना कर सकता है .. बस यूँ ही .. शायद ...
{हमने अभी-अभी कहा था, आपसे कि इनको "काँग्रेस घास" भला क्यों कहते हैं, इसकी चर्चा आगे करते हैं। पर फ़िलहाल आज की बतकही अपनी लम्बाई के कारण 'बोरींग' हो गयी है, अतः इसकी चर्चा "आगे" नहीं .. बल्कि "अगली 'पोस्ट'"- "कभी "पौधा उखाड़ो दिवस" भी तो हो ! ... (२)" में करने की कोशिश करते हैं।}