Thursday, August 31, 2023

पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३)पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ )पुंश्चली .. (६) और पुंश्चली .. (७) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-

गतांक से आगे बढ़ने के पहले स्वयं के साथ-साथ आप सभी से वही पिछले अंक वाला सवाल पुनः .. " क्या एक जिम्मेवार बुद्धिजीवी नागरिक होने के कारण हमने कोई सकारात्मक क़दम उठाए हैं ? " मसलन .. राह चलते या चौक-चौराहे जैसे सार्वजनिक स्थानों पर खड़े होकर धूम्रपान करने वालों में से कितनों को स्वदेश के "धूम्रपान निषेध अधिनियम" की याद दिला कर .. उनकी बीड़ी या सिगरेट बुझवाने की हिम्मत कर पाए हैं अब तक हम .. चाहे वह अपने सगे-संबंधी हों, जान पहचान वाले हों या अंजान कोई भी एक साधारण-सा दिहाड़ी वाला मज़दूर हो या कोई ख़ाकीधारी, काला कोटधारी या फिर कोई खादीधारी हों ? .. शायद ...

हो सकता है .. हमको इस तरह से पहल करने वाला क़दम जोख़िम भरा महसूस हो रहा हो, तो आसपास के या रास्ते में दिखने वाले कम से कम आठ-दस गाजर घास के पौधे ही जड़ से उखाड़ के कभी-कभार निरस्त कर दिया हो हमने .. शायद ... या फिर दहेज़ के लेन-देन वाली किसी शादी के मौके पर शादी में जाने से या भोज खाने से दहेज़ वाली वज़ह बतलाते हुए निमंत्रक को सामने से इंकार कर दिया हो हमने .. शायद ...

अगर एक के लिए भी हमारा "हाँ" है तो .. ठीक, वर्ना उत्तर "ना" होने पर इस वक्त आपका ये साप्ताहिक धारावाहिक - पुंश्चली का आठवाँ अंक पढ़ना और हमारा लिखना भी बेमानी है। बेमानी हैं हम सभी के वो सारे के सारे कृत्य जो हम प्रायः 'सोशल मीडिया' या मंचों पर चमकाते रहते हैं, स्वयं को चमकाने के लिए .. शायद ...

हमने आरम्भ में इस साप्ताहिक धारावाहिक - पुंश्चली के प्रथम अंक में ही कहा था कि "आभासी मनोरंजन का दावा तो नहीं, पर तथ्यों का वादा है हमारा".. बस यूँ ही ...

ख़ैर ! .. पुंश्चली - (७) के बाद पुंश्चली - (८) के लिए आगे बढ़ते हैं ... 

रसिक चाय दुकान के सामने लगे बेंच पर बैठे सिपाही जी की चाय के घूँट और उनके सिगरेट के धुएँ का अब तक संगम हो चुका है। 

सिपाही जी की चाय की हर चुस्की .. लगभग तेज आवाज़ के साथ सुड़कने वाले अंदाज़ में .. कुल्हड़ की कोर को उनके होठों की गिरफ़्त में ले आती है और सिगरेट का हर कश भी सिगरेट के 'फिल्टर' को होठों की गिरफ़्त तक ही लाता है, पर दोनों में सूक्ष्म अन्तर दिख रहा है। चुस्की और कश के दौरान होठों की हरक़तों और बनावटों में क्रमशः वही अन्तर दिख रहा है जो एक बच्ची के गाल चूमने और एक प्रेमिका के होंठों को चूसने में अक़्सर होता है .. शायद ...

रसिक की कड़क, मीठी और मलाईदार चाय से सिक्त कुल्हड़ हो या फिर उच्च ताप में सुलगते महँगे सिगरेट वाले तम्बाकू का संगी 'फ़िल्टर' हो .. दोनों को ही मालूम है कि दोनों के साथ क्रमशः जब तक चाय और तम्बाकू है .. तभी तक सिपाही जी के होंठों का संसर्ग मिल रहा है .. फिर उसके बाद तो .. कुल्हड़ और 'फ़िल्टर' .. दोनों की ही इहलीला का पटाक्षेप हो जाना है .. शायद ...

ऐसे में तुलसी दास जी की रचना- रामचरितमानस में राम की सत्यता का तो पता नहीं; परन्तु उनका यह सांसारिक ज्ञान तो चरितार्थ होता प्रतीत होता ही है, कि ...

"सुर, नर, मुनि, सब कै यह रीति, 

  स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।"

"रसिक भईया ! .. जरा गर्म-गर्म चाय जल्दी से हमको पिला दीजिए .. और दो पाव भी .." - ये है चंदर कबाड़ी जो अक़्सर मुहल्ले में आकर अपने ठेले में भर-भर कर मुहल्ले भर से अंगड़-खंगड़ सामान खरीद कर ले जाता है, जिसको झूलन सेठ कबाड़ी के यहाँ मुनाफ़े के साथ बेचकर अपना घर-परिवार चलाता है - "और .. तनिक मलाई अपनी तरफ से पाव पर रख के .. ऊपर से एक चुटकी चीनी भी बुरक दीजिएगा सुबह-सुबह 'मूड' (मनोदशा) बन जाएगी हमारी .."

"ठीक है चंदर भईया .. बस पाँच मिनट .." - ये कलुआ है - "आज बड़ा ख़ुश लग रहे हो भईया ! .. कोई मोटा माल हाथ लगा है क्या आज ?"

चंदर कबाड़ी - "हाँ रे ! .. उ सतरुधन (शत्रुघ्न) चच्चा (चाचा) हैं ना ! .. कल 'इंडिया' हार गया ना 'फाइनल मैच' .. तअ (तो) अपना 'टिविआ' (टी वी) उठा के जोर से पटक दिए थे कल रात में .. चकनाचूर हो गया था .. भुच्ची-भुच्ची हो गया है .. वही मिल गया अभी भोरे-भोरे किलो के भाव में .. चच्ची रो-रो के तौलवा रहीं थीं .. अब एकर (इसका) एक-एक काम के लायक वाला 'पार्ट' (भाग) का ज्यादा दाम देगा 'इलेक्ट्रॉनिक रिपेयरिंग' वाला दुकान में .. 'एही' (इसी) से खुश हैं .."

"ओ ~~~ ... वही कल रात में बड़ा जोर से आवाज़ किया था .. लगता है .." - चंदर कबाड़ी की बात सुनकर और उसके ठेले में प्रत्यक्ष 'टी वी' के अवशेष को निहारते हुए सिपाही जी बोल रहे हैं।

तभी उधर से शत्रुघ्न चाचा के पड़ोसी 'प्रोफेसर' साहब और सरकारी अस्पताल के 'स्टोरकीपर' साहब आपस में देश-विदेश की ख़बरों के साथ-साथ कल रात वाली 'इंडिया टीम' की हार .. वो भी 'पाकिस्तान टीम' से .. और पड़ोसी शत्रुघ्न के घर तोड़े गये 'टी वी' की परिचर्चा करते हुए सुबह की चाय पीने "रसिक चाय दुकान" के पास अभी-अभी रोज की तरह आ गये हैं। 

उनको तो पड़ोसी होने के नाते "'टी वी' भंजन प्रकरण" की सारी जानकारी है ही। सामने चंदर कबाड़ी के ठेले में प्रत्यक्ष प्रमाण भी आराम फ़रमा रहा ही है .. तो फिर क्या है ? .. 'न्यूज़ चैनल' वालों की तरह ही इंसानी फ़ितरत है कि घटना घटने भर की देर है .. फिर तो उसकी बख़िया उधेड़ कर उसका 'पोस्टमार्टम' करने में देर भी भला कहाँ लगती है .. शायद ...

'प्रोफेसर' साहब - " हमारी मूर्खता की पराकाष्ठा का उदाहरण इस से बेहतर और क्या मिल सकता है, कि अगर हमारी अपनी पसंदीदा क्रिकेट टीम मैच जीत जाती है, तो कुछ पल के लिए मान भी लिया जाए कि ये जायज़ हो भी सकता है .. हमारा खुश हो कर थिरकना .. ज़श्न मनाने के नाम पर अपनी हैसियत के मुताबिक घर पर ही या किसी महँगे 'रेस्टोरेंट' या 'बार' में जाकर ऊटपटाँग हरक़तें करना और .. इसे अपनी देश-प्रेम से जुड़ी भावनाओं की प्रतिक्रिया का नाम दे देना। 

'स्टोरकीपर' साहब - " हाँ .. सही कह रहे हैं आप .. "

'प्रोफेसर' साहब - " पर .. हद तो तब होती है, जब पसंदीदा क्रिकेट टीम के मैच हारने के बाद हम अपने लिए छदम् तनावग्रस्त परिस्थिति बनाकर गुस्से के वशीभूत होकर कई दफ़ा तो जिन 'टी वी' पर हम मैच देख रहे होते हैं, अपने उसी 'टी वी' को पटक कर फोड़ तक देते हैं। जबकि हारने वाली उस पसंदीदा क्रिकेट टीम को भी मैच हारने के बावज़ूद भी खेलने की स्टोरकीपर अच्छी-खासी क़ीमत मिलती है ... भले ही वह जीतने वाली टीम से तुलनात्मक कम रक़म होती हो .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " और तो और .. हमलोग इसे क्रिकेट-प्रेम और देश-प्रेम का नाम दे कर शेख़ी भी बघारते रहते हैं। "

'प्रोफेसर' साहब - " अब ये प्रेम है या पागलपन ? बोलो ! .. याद है वो .. 'फ़िल्म'- "पी के" का वो एक 'डॉयलॉग' .. जिसमें दूसरे ग्रह से आया प्राणी बना हुआ 'हीरो' जो कुछ भी बोलता है .. वह बहुत ही गहरा और अर्थपूर्ण कथन है। ठीक-ठीक तो याद नहीं पर .. जिसका आशय है, कि - यहाँ के लोग, मतलब धरती के लोग जब बोलते हैं कि 'आई लव फ़िश',तो इसका मतलब ये नहीं होता है कि वे लोग मछली से प्यार करते हैं। बल्कि इनके 'आई लव फ़िश' का मतलब होता है कि वो मछली को मार कर, पका के खाते हैं। उसी को कहते हैं .. 'आई लव फ़िश' .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " और यहाँ क्रिकेट-प्रेम का भी कुछ ऐसा ही .. मतलब है .. वो लोग इस प्रेम में क्रिकेट को तो नहीं .. पर ख़ुद को बर्बाद कर लेते हैं। "

'प्रोफेसर' साहब - " और इन सभी बेसिर-पैर की भावनाओं को देश-प्रेम का नाम देकर सामने वाले का मुँह चुप कराने का प्रयास करना भी इन्हें बख़ूबी आता है। और तो और .. ऐसी बातों पर तर्क देंगे कि इन सब से तो कई लोगों के परिवार वालों का पेट चलता है। ये सब ना हो तो कई लोग बेरोजगार हो जायेंगे बेचारे ... च्-च्-च् ... "

'स्टोरकीपर' साहब - " ये लोग इस खेल के पीछे चल रहे सट्टा बाज़ार वालों के लिए भी या क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी नशा के सामानों को बेचकर समाज की हर पीढ़ियों को कमज़ोर या बर्बाद करने वालों के लिए भी ऐसी ही तर्क देकर उनके प्रति अपनी हमदर्दी जताने का भरसक प्रयास करते हैं .. पर दूसरी ओर यही भीड़ 'सेक्स वर्कर्स' के धंधे के विरुद्ध में कई सारे 'एजेंडे' बनायेंगे .. तब इन्हें उनकी बेरोजगारी, उनकी पेट की भूख नज़र नहीं आती है .. "

'प्रोफेसर' साहब - " तब तो समाज और राष्ट्र की छदम् चिन्ता में .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " सुनते हैं कि कुछ साल पहले सभी के पास मोबाइल नहीं हुआ करता था। इक्के-दुक्के लोग ही इसका उपभोग कर पाते थे। तब तो शायद 'इन कमिंग कॉल' के भी 'चार्ज' लगते थे। तब लोग लम्बी-लम्बी 'लाइन' लगा कर 'पब्लिक टेलीफोन बूथ' में अपनी बारी की प्रतीक्षा किया करते थे। वहाँ रात में ज्यादा भीड़ होती थी, क्योंकि दिन की तुलना में रात की एक निर्धारित समय-सीमा में आधा या चौथाई शुल्क देना होता था। अगर एक ग्राहक द्वारा पहले या दूसरे प्रयास में उसका 'कॉल' नहीं लगता था, तो दुकानदार ख़ुद बोल कर या पीछे वाले ग्राहक ही हल्ला कर के उस ग्राहक को परे हटा देते थे और ख़ुद अपना 'नम्बर' मिलाने लगते थे। "

'प्रोफेसर' साहब - " अभी इन सब अतीत की बातों की चर्चा का भला क्या मतलब ? .."

'स्टोरकीपर' साहब - " मतलब ये है कि .. आज आसपास कहीं भी 'पब्लिक टेलीफोन बूथ' दिखता नहीं है, तो क्या सारे 'टेलीफोन बूथ' वाले भूखे मर रहे हैं या फिर .. दूसरे धंधे में लग गये हैं ? .. बोलिए ! .."

'प्रोफेसर' साहब - " ये सब के सब मुखौटेधारी दोहरी ज़िन्दगी जीने के आदी हैं। याद है .. बिहार राज्य में सरकार द्वारा जब शराबबंदी की घोषणा की गयी थी, तब तो सभी बेवड़े यही वाला तर्क दे रहे थे कि ऐसे में तो कितनों के पेट पर लात मारी जाएगी। सत्तारूढ़ सरकार कोई भी हो, वह काम कुछ भी करे .. कुछ लोगों की आदत होती है, सही तथ्यों से अंजान .. बस उसके विरुद्ध कुछ भी अंट-संट 'सोशल मीडिया' पर बेवड़ों की तरह चिपकाते रहने की। इन्हीं के जैसी मानसिकता वाले प्राणियों की भीड़ पीछे से इन पर 'लाइक' और 'कमेंट' की सतत बरसात भी करते रहते हैं .. "

'स्टोरकीपर' साहब - " बनावटी राष्ट्र प्रेम के सबूत जो देने हैं इन्हें 'सोशल मीडिया' पर .."

'प्रोफेसर' साहब - " देश-प्रेम की भावना वाली गंगा ही बहानी है तो क्रिकेट की जगह कुछ वास्तविक समाज सेवा की भी सोच लेनी चाहिए कभी-कभी इनको। बहुत सारे क्षेत्र हैं खुले पड़े .. सेवा के लिए प्रतिक्षारत .. बिखरे पड़े हैं हमारे आसपास .. पर नहीं .. किसी तथ्य को गंभीरता से जाने-समझे बिना बस ..  सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के विरुद्ध कुछ भी वक्तव्य 'सोशल मीडिया' पर चिपका कर अपने समाज-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम प्रदर्शित करने की कोशिश करनी ही इनकी देशभक्ति है भाई ..."

'स्टोरकीपर' साहब - " यही लोग पन्द्रह अगस्त और छ्ब्बीस जनवरी जैसे मौकों पर ताबड़तोड़ 'सोशल मीडिया' पर 'हैप्पी इंडिपेंडेंस डे' .. 'हैप्पी रिपब्लिक डे' जैसे 'मेसेज' को 'कॉपी-पेस्ट' करते नहीं थकते हैं। ऐसे-ऐसे कई अवसरों पर इसी तरह के 'कॉपी-पेस्ट' वाले आसान अवसरों से ये लोग कभी नहीं चूकते और ना ही अपनी ऐसी आधारहीन और प्रतिफल विहीन देशभक्ति के प्रमाण देने में कोई कोताही बरतते नज़र आते हैं ... "

'प्रोफेसर' साहब - " समाज की किसी भी भेड़-चाल में शामिल या शरीक़ नहीं होने वाला इंसान .. आडम्बरों से भरे तथाकथित समाज के बहुसंख्यकों को प्रायः सिरफिरा ही प्रतीत होता है। सामाजिक मान्यताओं के अनुसार किसी परम्परा या किसी आयोजन का चाहे कोई औचित्य नहीं भी हों, फिर भी बिना तर्क किए किसी सम्मोहित प्राणी की तरह पीछे-पीछे चले चलो तो ये तथाकथित समाज सराहती है और जब तार्किक होकर सुगम रास्ते अपनाओ या सुझाओ तो वही समाज सिरफिरा समझती है और कहती भी है .. है कि नहीं ? ..."

वहाँ अन्य बैठे रसिकवा के ग्राहक लोग चाय के साथ-साथ मुहल्ले के दोनों प्रतिष्ठित व्यक्तियों - 'प्रोफेसर' साहब और 'स्टोरकीपर' साहब की वार्तालाप का भी आनन्द मुफ़्त में ले रहे हैं। पर आधी उनकी खोपड़ी में समा रही है और .. आधी ऊपर से निकल जा रही है। वैसे भी दुनिया की सभी बातें .. सभी के खोपड़ी में समा भी कहाँ पाती है भला ? .. बस यूँ ही ...

【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



4 comments:

  1. प्रोफ़ेसर फिर उसके ऊपर साहब भी | :) गजब | किताब बनती हुई पुंश्चली| मंगलकामनाएं|

    ReplyDelete
    Replies
    1. 🙏.. जी ! .. नमन संग आभार आपका .. आपकी "शुभकामनाओं" के लिए .. वैसे "आप सही पकड़े हैं" .. किताब का तो पता नहीं .. पर "पिक्चर अभी बाक़ी है" .. रही बात "प्रोफेसर साहब" की तो .. ये बिहार-झारखण्ड में बोल-चाल के दौरान प्रचलन में है .. प्रोफेसर साहब, माहटर (मास्टर) साहब, ड्राइवर साहब, मैनेजर साहब .. सो वही लिखा/कहा गया है बतकही में .. बस यूँ ही ...🙂🙂🙂

      Delete
  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 04 सितंबर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

    ReplyDelete
  3. जी ! .. नमन संग आभार आपका अपनी प्रस्तुति में मेरी बतकही को स्थान प्रदान करने के लिए ...

    ReplyDelete