सिमटी-सी,
सिकुड़ी-सी,
मैं थी ..
पके धान-सी।
मद्धिम .. मद्धिम
आँच जो पायी,
प्रियतम
तेरे प्यार की;
खिलती गयी,
निखरती गयी,
मंद-मंद ..
मदमाती-सी,
खिली-खिली-सी
खील-सी खिल कर .. बस यूँ ही ...
था मन मेरा
चाशनी ..
एक तार की,
जो बन गयी
ना जाने कब ..
ताप में तेरे प्रेम के,
एक से दो ..
दो से तीन ..
हाँ .. हाँ .. तीन ..
तीन तार की चाशनी
और ..
जम-सी गयी,
थम-सी गयी ..
मैं बताशे-सी
बाँहों में तेरे प्रियवर .. बस यूँ ही ...
अमावस की रात-सी
थी ज़िन्दगी मेरी,
हुई रौशन
दीपावली-सी,
दीपों की आवली से
तुम्हारे प्रेम की।
यूँ तो त्योहार और पूजन
हैं चोली-दामन जैसे।
फिर .. पूजन हो और ..
ना हों इष्ट देवता या देवी,
ऐसा भला होगा भी कैसे ?
अब .. तुम्हीं तो हो
इष्ट मेरे और .. तेरे लिए नैवेद्य ..
खील-बताशे जैसा मेरा तन-मन,
समर्पित तुझको जीवन भर .. बस यूँ ही ...
अति मनमोहक, अद्भुत बिंबों से सजी बेहद सुंदर रचना। "पके धान सी,खील सी,तीन तार की चाशनी, बताशे" अनूठे बिंब ..वाह्ह।
ReplyDeleteअंतिम पद के समर्पण ने प्रेम को अध्यात्मिक भावों से पावन कर दिया।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १९ मार्च २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी ! .. सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका हमारी इस बतकही की सराहना के साथ-साथ अपनी प्रस्तुति में स्थान प्रदान करने के लिए ...
Deleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका ...
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका ,...
Deleteमीठी सी कविता
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका ...
Deleteवाह! मन को लुभाती, हंसती मुस्कुराती सुंदर रचना।
ReplyDeleteबस यूं ही...कितना कुछ कह दिया।
जी ! .. नमन संग आभार आपका ...
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका ...
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