यहाँ भकुआ नाम का पात्र कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं है बल्कि यह एक जातिवाचक संज्ञा है, जो हो सकता है आपके आसपास, आपके गाँव, शहर, मुहल्ले, कॉलोनी, सोसाइटी, अपार्टमेंट या आपके घर में ही हो। ज़रा ध्यान दीजिए। गौर से देखिए। नहीं दिखा ? ख़ैर, जाने भी दीजिए। दिमाग़ पर ज्यादा ज़ोर मत दीजिए। अरे, माना कि आप बुद्धिजीवी हैं, पर हाथ-पैर या शरीर की तरह आपका दिमाग भी तो थकता ही है ना ? चाहे वह बुद्धिजीवी का ही क्यों ना हो। धत् ! .. अरे बाबा .. वैसे बुद्धिजीवी का ही तो थकेगा भी ; क्योंकि भकुआ के पास तो दिमाग होता ही नहीं, जो थकेगा।
वैसे तो ऐसे जातिवाचक संज्ञा वाले भकुआ के हलकान होने के कई सारे कारणों से अवगत होना है हमें। अभी फ़िलहाल तो आइए हमलोग "हलकान है भकुआ - (१)" पर एक नज़र डालते हैं ...
हलकान है भकुआ - (१)
आज शाम की चाय-नाश्ता की झंझट से भकुआ पूरी तरह मुक्त है। घर में अकेला सोफ़ा पर टाँग पसार कर लेटा हुआ टी वी के किसी भोजपुरी चैनल पर कोई मनपसन्द भड़कीला भोजपुरी गाना सुन रहा है। कारण - मालिक किसी मीटिंग में सुबह से ही बाहर गए हुए हैं। वह देर रात उसी मीटिंग के तहत डिनर पार्टी खा कर ही घर लौटेंगे और घर की मालकिन अपनी साहित्यकार मित्र मंडली के लगभग दस-पन्द्रह लोगों के साथ मिल कर रुखसाना मैम के यहाँ आज अभी-अभी इफ़्तारी पार्टी में खाने के लिए गई हैं। अब ये लोग रोज़ेदार तो हैं नहीं, जो इनके लिए ये कहा जाए कि रोज़ा तोड़ने गए हैं। संक्षेप में कहें तो पार्टी खाने ही गए हैं। अब शायद ही मालकिन लौट कर आने पर रात में डिनर करें। ज्यादा उम्मीद है कि वह आधा गिलास हल्दी मिला दूध पीकर सोने चली जाएंगी या मन किया तो एक कप कड़क कॉफ़ी पीकर थकान मिटा कर सो जायेंगीं। मालिक की डिनर पार्टी में तो शायद हर बार की तरह अँग्रेजी दारू-सारू चलेगी तो वो तो बिना दूध पिए ही सो जाएंगे। भकुआ को रात के अपने खाने की चिन्ता नहीं है, मालिक या मालकिन अपनी पार्टी से उसके लिए कुछ पैक करवा के ले आये तो ठीक और नहीं तो वह चूड़ा और गुड़ खा कर अपना काम चला लेगा।
वैसे तो अक़्सर मालकिन की साहित्यकार मित्र मंडली मालकिन के घर आती रहती है। उन्हीं में रुखसाना मैम भी आती हैं अक़्सर। पता नहीं सब जोर-जोर से कुछ-कुछ बोलते हैं या गाते हैं। कुछ अपनी डायरी खोल के पढ़ते हैं। कुछ मुँहजुबानी भी। सब मिल कर बीच-बीच में ताली भी बजाते रहते हैं। वैसे भकुआ को कुछ भी समझ में नहीं आता है। हाँ, लोगों को बोलते हुए सुन-सुन कर वह यह जान गया है कि इसको कवि गोष्ठी कहते हैं। कितने लोग आते हैं हर बार की गोष्ठी में वह तो बस .. आये हुए आदमी-औरतों और कुछ के साथ में आये हुए उनके बच्चों के लिए औपचारिक नाश्ते के लिए हर मुंडी पीछे बाज़ार से खरीद कर लाने वाले समोसे-रसगुल्ले की गिनती से अनुमान लगा लेता है। लगभग पन्द्रह-बीस लोग तो आते ही रहते हैं। कभी सप्ताह में एक बार, तो कभी महीना में एक बार। इसके अलावा कभी-कभी किसी ख़ास अवसरों पर भी।
हाँ, वैसे भकुआ को याद है कि एक बार दस-बारह लोग ही आ पाए थे, क्योंकि उस दिन हर बार से कम समोसे-रसगुल्ले आये थे। आये हुए सभी लोगों की बातचीत से उसे पता चला था कि उसी शाम शहर में किसी बड़े मुशायरा का आयोजन होने वाला था। इसी कारण से उर्दू भाषा वाले सम्प्रदाय विशेष के चार-पाँच लोग नहीं आ पाए थे।
परन्तु उसी दिन किसी दूसरे राज्य के किसी बड़े शहर से वहाँ के किसी नामी साहित्यिक संस्थान के एक नामी-गिरामी व्यक्ति श्रीमान "ख"अतिथि के रूप में आये थे। वैसे भकुआ की मालकिन श्रीमती "क" का भी नाम कम प्रसिद्ध नहीं है चारों ओर। बड़े-बड़े लोगों के बीच उठना-बैठना है उनका। उस दिन श्रीमान "ख" का चेहरा नया था भकुआ के लिए। उनकी विशेष आवभगत हुई थी।
उनके विशेष आवभगत से ही भकुआ उनके अतिथि होने का अनुमान लगाया था। वे उस दिन सभी उपस्थित लोगों से ज्यादा देर तक और ज्यादा ऊँची आवाज़ में बोले भी थे। कमरे में चाय परोसते वक्त उनकी बात भकुआ गौर से सुना था। वह बोल रहे थे कि " मैं धर्मनिरपेक्ष नहीं हूँ। मैं अपने सनातनी धर्म के अलावा दूसरे लोगों का कट्टर दुश्मन हूँ। वे लोग मुझे जरा भी नहीं सुहाते हैं। मेरा वश चले तो एक-एक को ...... " वाक्य अधूरा ही छोड़ दिए थे वे। बोलते-बोलते उनकी आवाज़ और भी पैनी होती जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि आज अगर वे चार-पाँच लोग मुशायरे में ना जाकर यहाँ आये होते तो ये महानुभाव उन लोगों को जान से मार देते या गोष्ठी से मार कर भगा देते या फिर ख़ुद ही गोष्ठी छोड़ कर भाग जाते। श्रीमती "क" भी उन विशेष अतिथि का मनोबल बढ़ाते हुए हाँ में हाँ मिलाने के लिए मुस्कुरा कर उपस्थित लोगों के चेहरे पर अपने पावर वाले चश्मे के शीशे के पीछे से अपनी चमकदार नज़रों को टहलाते हुए बोली थीं कि " आज बहुत अच्छा संयोग है कि आज वो सारे लोग नहीं हैं। आज केवल हम ही लोग हैं। है ना ? " उनका इशारा मुशायरे वाले सम्प्रदाय विशेष के लोगों के ना आने के तरफ था। फिर सभी से मुख़ातिब होते हुए - " है ना ? " बोल कर या पूछ कर अपने मंतव्य पर उपस्थित लोगों की हामी की मुहर लगवाने की कोशिश भी कीं थीं।
अभी अचानक ये सब याद कर के मन ही मन भकुआ सोचने लगा कि जब उन सम्प्रदाय विशेष के लोगों से इतनी नफ़रत है तो फिर आज मालकिन रुखसाना मैम के घर इफ़्तारी पार्टी में खाने कैसे चली गईं भला ? वो भी सब को लेकर।
वैसे तो वह मालकिन को किसी से फ़ोन पर बातचीत करने के दौरान किसी दूसरे का नाम लेकर उसकी बुराई करते कई बार सुना है और उसी दूसरे से बात होने पर उसकी तारीफ़ और पहले वाले की निंदा करते सुना है। किसी के स्वयं बीमार होने या उसके किसी रिश्तेदार के मरने की ख़बर आने पर उस से फ़ोन पर रुआँसी हो कर बतियाना और फ़ौरन उस फ़ोन के काटने के बाद अचानक किसी अन्य के जन्मदिन या शादी की सालगिरह याद आने पर उस व्यक्ति को बधाई देते वक्त ठहाके लगा कर बातें करना तो उनके लिए एकदम आम बात होती है। दूसरे सम्प्रदाय वालों की पीठ पीछे भर्त्सना करने वाली यह इंसान जिनकी अपने सम्प्रदाय, जाति और उपजाति पर अकड़ने वाली इनकी गर्दन अपनी स्मार्ट फ़ोन की स्क्रीन पर अन्य सम्प्रदाय विशेष के त्योहारों पर उनको शुभकामनाएं लिख कर भेजने के लिए बख़ूबी झुकती भी है।
भकुआ सोचता है कि शायद बड़े लोगों की भाषा में इसे औपचारिकता या व्यवहारिकता कहते और मानते भी होंगे। हो सकता है ये सब सही व अच्छी सभ्यता-संस्कृति के तहत आता हो और होता हो। परन्तु उसकी मालकिन श्रीमती "क" द्वारा बार-बार बात-बात में लोगों से अपने आप को सरल कहने पर भकुआ स्तब्ध रह जाता है। एक ऊहापोह भरा सवाल उसके दिमाग़ में हमेशा कौंधता रहता है। यही सोच-सोच कर हलकान होता रहता है कि अगर ऐसे व्यक्तित्व को सरल कहते हैं तो फिर जटिल या फिर .. कुटिल किसे कहते होंगे भला ?
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20.8.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
जी ! आभार आपका ...
Deleteबहुत सुन्दर....
ReplyDeleteजी! आभार आपका ...
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