Friday, May 29, 2020

पगली .. हूँ तो तेरा अंश

आज बकबक करने का कोई मूड नहीं हो रहा है। इसीलिए सीधे-सीधे रचना/विचार पर आते हैं। आज की दोनों पुरानी रचनाओं में से पहली तो काफी पुरानी है।
लगभग 1986-87 की लिखी हुई, जो वर्षों पीले पड़ चुके पन्ने पर एक पुरानी लावारिस-सी कोने में पड़ी फ़ाइल में दुबकी पड़ी रही थी। बाद में जिसे दैनिक समाचार पत्रों के कार्यालयों से उनके साप्ताहिक साहित्यिक सहायक पृष्ठों में छपने सम्बन्धित सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलने पर, अपने पूरे झारखण्ड में होने वाले आधिकारिक दौरा (official tour) के दौरान झारखण्ड की राजधानी-राँची अवस्थित दैनिक समाचार पत्र- हिन्दुस्तान के कार्यालय में सम्बन्धित विभाग को 2005 में सौंपा था। यही रचना बाद में सप्तसमिधा नामक साझा काव्य संकलन में भी 2019 में आयी है। कुछ ख़ास नहीं .. बस यूँ ही ...

गर्भ में ही क़ब्रिस्तान
सदियों रातों में
लोरियाँ गा-गा कर
सुलाया हमने,
एक सुबह ..
जगाने भी तो दो
हमें देकर पाक अज़ान।

महीनों गर्भ में संजोया,
प्रसव पीड़ा झेली
अकेले हमने।
कुछ माह की साझेदारी
"उनको" भी तो दो
ऐ ख़ुदा ! .. ऐ भगवान !

चूड़ियों की हथकड़ी,
पायल की बेड़ी,
बोझ लम्बे बालों का, ..
नकेल नथिया की,
बस .. यही ..
बना दी गयी मेरी पहचान।

सोचों कभी ..
"ताड़ने"* के लिए,
"जलाने"** के लिए,
मिलेगा कल कौन यहाँ ?
भला मेरे लिए
क्यों बनाते हो,
गर्भ में ही कब्रिस्तान ?

【 * - अहिल्या. /  **- सीता की अग्निपरीक्षा. ( दोनों ही पौराणिक कथा की पात्रामात्र हैं, प्रमाणिक नहीं हैं।) 】

और आज की निम्नलिखित दूसरी वाली रचना/विचार को ...




... कई बार अलग-अलग मंचों पर मंच संचालन के लिए अलग-अलग चरणों में क्षणिका के रूप में लिखा हूँ, जिन्हें एक साथ पिरोया तो इस रचना की छंदें बन गई। प्रायः लोगों को देखा या सुना भी है कि लोगबाग अपने मंच-संचालन के दौरान बीच-बीच में प्रसिद्ध रचनाकारों की पंक्तियाँ अपनी धाक जमाने के ख़्याल से या फिर ताली बटोरने के ख़्याल से कभी उन रचनाकार लोगों का नाम लेकर और कभी बिना नाम बतलाए धड़ल्ले से पढ़ जाते हैं। अपनी आदत नहीं नकल करने की। मैं अपना लिखा ही पढ़ता हूँ। हाँ ... ये अलग बात है कि मैं औरों की तरह © का इस्तेमाल भी नहीं करता। अब क्यों नहीं करता, अगली बार, फिर कभी। फ़िलहाल ये बतलाता चलूँ कि इसका चौथा और आखिरी वाला छंद तो बस अभी-अभी मन में स्वतः स्फूर्त आया और बस .. जुड़ गया .. बस यूँ ही ...

पगली ..  हूँ तो तेरा अंश
सम्पूर्ण गीत ना सही,
मात्र एक अंतरा ही सही।
चौखट ही मान लो,
घर का अँगना ना सही।
पगली .. हूँ तो तेरा अंश।

पूर्ण कविता ना सही,
एक छन्द ही सही।
साथ जीवन भर का नहीं,
पल चंद ही सही।
पगली .. हूँ तो तेरा अंश।

मंगलसूत्र ना सही,
पायल ही सही।
पायल भी नहीं,
एक घुँघरू ही सही।
पगली .. हूँ तो तेरा अंश।

माना .. सगा मैं नहीं,
कोई अपना भी नहीं,
कभी रूबरू ना सही,
बस .. मन में ही सही।
पगली .. हूँ तो तेरा अंश।




मिलते हैं फिर आगे और कभी बात करते हैं © के बारे में .. तब तक .. बस यूँ ही ...


14 comments:

  1. इतनी बढ़िया है दोनों ही कविता कि तारीफ के लिए शब्द ही नही मेरे पास ,इसे आकर सब पढ़े ,मै यही चाहती हूँ ,शुभ प्रभात

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    1. जी ! आभार आपका ... मुनादीनुमा आपकी प्रतिक्रिया अच्छी लगी ...

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  2. सराहना से परे! अब भी यदि 'पगली' इस 'अंश' का सर्वांग न बन सकी हो तो कवि का सम्बोधन अपने पूर्णांग में शाश्वत सत्य है। बधाई!!!

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    1. जी ! आभार आपका ... आपकी प्रतिक्रिया भावविह्वल कर गयी...

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  3. क्या कहूँ...शब्द नहीं फूट रहे।
    अनगिनत बार पढ़ चुकी "पगली" को संबोधित पंक्तियाँ..
    मन छूती अभिव्यक्ति।

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    1. जी ! आभार आपका ... जब शब्द फूटे तो .. तब कहिएगा ☺☺

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  4. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 29 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. जी ! आभार आपका .. इन रचनाओं/विचारों को अपने मंच पर साझा करने के लिए ...

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  5. Replies
    1. जी ! :) :) .. आभार आपका ...

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  6. माना .. सगा मैं नहीं,
    कोई अपना भी नहीं,
    कभी रूबरू ना सही,
    बस .. मन में ही सही।
    पगली .. हूँ तो तेरा अंश
    ऐसे अंश बस कल्पनाओं की दुनिया तक ही सीमित रह जाते हैं.... जब पगली को पीड़ा होती है तो अंश दर्द से कराह नहीं उठता....
    क्षमा करें, अपना अपना अनुभव/विचार है।

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    1. जी ! आभार आपका इस रचना/विचार के संदर्भ में अपका अपना अनुभव/विचार साझा करने के लिए ...
      वैसे तो हर अनुभव कोरी कल्पना नहीं होती, बल्कि हर अनुभव, हर पीड़ा, हर कराह अलग-अलग रंगों के यानि इंद्रधनुषी होते हैं .. शायद .. तभी तो दुनिया रंगीन है .. और जहाँ पगली की पीड़ा को अंश और अंश के एकाकीपन को पगली समझ पाती/जाती है .. वहीं तो स्वर्ग-सुख की अनुभूति होती है , ना कि ब्राह्मणों और धर्मग्रंथों के बतलाए स्वर्ग में ... शायद ...
      (क्षमा जैसी बात भी नहीं है और ना ही कोरी कल्पना भर है ये बातें .. रेगिस्तान में भी मरूद्यान है, कैक्टस पर भी फूल आते हैं .. बस मिलना , ना मिलना संजोग ... शायद ..)

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