Thursday, June 29, 2023

निंबूड़ा-निंबूड़ा नहीं, लिंगुड़ा-लिंगुड़ा ...

हम फ़िलहाल तो फ़िल्म- "हम दिल दे चुके सनम" के इस्माइल दरबार जी के संगीत और कविता कृष्णमूर्ति जी की आवाज़ से सुज्जित राजस्थान की पारंपरिक लोक धुन पर आधारित गीत- "निंबूड़ा-निंबूड़ा .. निंबूड़ा ..~~~" को गाने या बजाने वाले नहीं हैं। बस एक तुकबंदी सूझी तो बतकही भय कर दिए कि "निंबूड़ा-निंबूड़ा नहीं, लिंगुड़ा-लिंगुड़ा" .. बस यूँ ही ...

वैसे तो "निंबूड़ा-निंबूड़ा" वाले गीत पर अभिनेत्री ऐश्वर्या राय बच्चन को नृत्य करते हुए हम सभी ने सम्भवतः देखा ही है और निबूड़ा के अर्थ और द्विअर्थी विशेषार्थ भी समझते ही हैं। पर अभी फ़िलहाल तो हमें "लिंगुड़ा" को जानना है .. बस यूँ ही ...

वैसे तो अगर मनपसंद खाना और गाना साथ-समक्ष हो, तो मानव मन पुलकित हो जाता है। बशर्ते मनपसंद खाना का पैमाना स्वाद नहीं, बल्कि सेहत के लिए केन्द्रित हो। केवल मानव ही क्यों, विज्ञान ने प्रयोग द्वारा बतलाया है, कि पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों पर भी संगीत का असर होता है। साथ ही पुरखों की सीख को मानें तो- "जैसा अन्न, वैसा मन" यानि हमारे भोजन का असर हमारे तन के साथ-साथ मन पर भी पड़ता है .. शायद ...

हम अक़्सर घर या बाहर में भी किन्हीं को भी जब-तब जाति-उपजाति, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-बोली, रूप-रंग, कद-काठी, सभ्यता-संस्कृति, क्षेत्र-पहनावा, पद-पैसा, गाड़ी-बंगला इत्यादि जैसे पैमाने के आधार पर किसी मनुष्य विशेष के बारे में नुक्‍ताचीनी करते हुए या उसके विश्लेषण में उलझते हुए देखते-सुनते हैं, तब उनकी छोटी सोच के लिए मेरा एक सामान्य-सा कथनाश्रय (तकिया-कलाम) होता है, कि "दुनिया बहुत ही बड़ी है" या फिर ये कि "दुनिया बहुत ही रंगीन है" ... 

शायद सच में ही इतनी बड़ी है भी ये दुनिया कि अगर अथाह विराट ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण जानकारियों की बातें ना करके तुलनात्मक एक गौण अंशमात्र- समस्त धरती पर ही उपलब्ध हर क्षेत्र में व्याप्त एक-एक तत्व-वस्तु या हरेक पादप-प्राणी को हम जानने-समझने की बातें तो दूर .. हम केवल ताउम्र उनके नाम सुनने या देखने भर की भी बातें सोचें तो .. हमारे श्वसन और स्पंदन की जुगलबन्दी पर चलने वाला हमारा यह जीवन भले ही हर क्षण या हरेक क्षणांश में अपघटित होते-होते इस धरती से तिरोहित हो जाए, परन्तु सूची ख़त्म नहीं होगी .. शायद ...

हमने अपनी अब तक की आयु में जिन-जिन फल-सब्जियों या अनाजों का नाम तक नहीं सुना था, उन्हें नौकरी के सिलसिले में गत एक वर्ष से वर्तमान में भी उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून में रहते हुए, व्यक्तिगत रूचि के कारण भी, देखने और खाने में बहुत ही रोमांच अनुभव हो रहा है। हमारे जैसे भौगोलिक मैदानी क्षेत्र वाले निवासी के लिए तो  आश्चर्यजनक हैं पहाड़ी क्षेत्र के ये प्राकृतिक उत्पाद सारे के सारे। किसी भी पैतृक भौगोलिक परिवेश से इतर परिवेश में एक पर्यटक की तरह कुछ दिनों के लिए जाना-आना या 'गूगल' पर 'सर्च' करके वहाँ की जानकारियों को खंगालना और दूसरी तरफ वहाँ जाकर सालों भर रहते हुए वहाँ की हर ऋतुओं को जीना-महसूस करना .. दो भिन्न अनुभूति कराते हैं .. शायद ...

कई विशेष पहाड़ी प्राकृतिक उत्पादों की एक साथ यहाँ चर्चा करते हुए इन्हें साझा करना तो सम्भव नहीं, तो कई भागों में साझा करने के लिए सोच ही रहे हैं हम साल भर से। दिन पर दिन सूची लम्बी होती जा रही है और मेरे मोबाइल की गैलरी भी भरती जा रही है .. साथ में मानसिक दबाव भी .. बस यूँ ही ...

आज वर्तमान मौसम में ही उपलब्ध एक सब्जी से शुरुआत करते हैं, जिसे गत वर्ष चूक जाने के बाद आज ही सुबह-सवेरे लाया स्थानीय सब्जी-मंडी से। यहाँ के लोग इसे लिंगुड़ा या लिंगड़ा कहते हैं। 



                  लिंगुड़ा - बाज़ार से लाने के बाद 👆


               लिंगुड़ा - टुकड़ों में काटने के पहले 👆

(1) लिंगुड़ा :-

दरअसल लिंगुड़ा पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली फर्न प्रजाति की एक वनस्पति है, जिसकी सब्जी को यहाँ बेहद ही पौष्टिक, स्वादिष्ट और गुणकारी माना जाता है। 

और माना भी क्यों ना जाए भला !? .. बतलाया जाता है, कि इसके कोमल डंठल और सर्पिलाकार फुनगी में 'विटामिन ए', 'विटामिन बी कम्पलेक्स', 'विटामिन सी', 'ओमेगा-3', 'ओमेगा-6', 'आयरन', 'जिंक', 'पोटाशियम', 'कॉपर', 'मैंगनीशियम', 'फैटी ऐसिड', 'फॉस्फोरस', 'सोडियम', 'कैरोटीन' व अन्य कई 'मिनरल्स' प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

जिनकी वजह से यह मधुमेह, कुपोषण, हृदय रोग, चर्म रोग, अनियंत्रित 'कोलेस्ट्रोल', अनियंत्रित रक्तचाप, कमजोर पाचन शक्ति, 'एनीमिया' जैसे खतरनाक रोगों में लाभप्रद है। साथ ही हमारी अंदरुनी शक्ति यानि 'इम्यूनिटी पॉवर' और आँखों की रोशनी को भी बढ़ाने वाली सब्जी मानी जाती है।


लिंगुड़ा - सब्जी बनाने से पहले टुकड़ों में कटी हुई👆


               लिंगुड़ा - लोहे की कड़ाही में पकते हुए 👆

जानकारी मिली है, कि यह  उत्तराखण्ड (लिंगुड़ा, लेंगड़ा लुंगड़ू या लिंगड़) के अलावा हिमाचल प्रदेश (लिंगरी) और सिक्किम (नियुरो) और असम जैसे पहाड़ी राज्यों में भी लगभग जेठ-अषाढ़ महीने में स्वतः जंगलों और पहाड़ों के किनारे नमी वाले स्थानों में उग जाता है।

प्रायः स्थानीय लोग जंगलों-पहाड़ों से चुनकर इस की सब्जी या अचार बनाते हैं। इनके अलावा कुछ लोग अपनी आय के लिए शहरी बाज़ारों में इसकी बिक्री भी करते है, जहाँ से हमारे जैसे लोग खरीद कर खाने का अवसर प्राप्त करते हैं .. बस यूँ ही ...

आज सुबह की थाली में अन्य भोजन सामग्री के साथ लिंगुड़ा की सब्जी पहाड़ी झंगोरे के भात के साथ .. बस यूँ ही ... 🙂😛🙂



Tuesday, June 27, 2023

मूँदी पलकों से ...

धुँधलके में जीवन-संध्या के 

धुंधलाई नज़रें अब हमारी,

रोम छिद्रों की वर्णमाला सहित 

पहले की तरह पढ़ कहाँ पाती हैं भला

बला की मोहक प्रेमसिक्त .. 

कामातुर मुखमुद्राओं की वर्तनी तुम्हारी ...


पर .. मुश्किल कर देता है हल .. पल में ..

तीव्रता से चूमता मेरी कर्णपाली को 

तुम्हारी नम-नर्म साँसों का शोर,

और .. तख़्ती पर मेरे तपते बदन की 

कुछ कूट भाषा-सी गहरी उकेरती

तुम्हारी तर्जनी की पोर ...


पर .. पगली ! .. यूँ भी युवा आँखें 

इन मौकों पर तब वैसे भी तो

खुली कहाँ होती थीं भला !?

खुली-अधखुली-सी .. मूँदी पलकों से ही तो 

पढ़ा करते थे हम 'ब्रेल लिपि' सरीखी 

एक-दूजे की बेताबियाँ .. बस यूँ ही ...




Monday, June 26, 2023

पूर्वाभ्यास सफल सुहागरात के ...

दुनिया भर में प्रेमी- प्रेमिका के आपसी प्रेम की सफलता के सामाजिक मापदंड- शादी वाली मंज़िल तक पहुँचने वाले सफल और विफल लोगों की क्रमशः अधिक- कम या कम- अधिक आनुपातिक संख्या का आकलन या आँकड़ा का तो हमें संज्ञान नहीं है, परन्तु अपनी इस बतकही में एक विफल प्रेमी की एक परिकल्पना भर है। 

जिसके प्रेम की विफलता की वजह कुछ भी हो सकती है .. मसलन- उन दोनों की जाति- उपजाति या धर्म- सम्प्रदाय में भेद या फिर दोनों के परिवारों के मध्य आर्थिक विषमता के कारण परिवार- समाज का विरोध झेलने से या फिर प्रेमिका के लिए अपने परिवार द्वारा एक बेहतर भावी पति के मिलने के लालच की वजह से, .. ख़ैर ! .. वज़ह कोई भी हो .. परिस्थिति ये है कि विफल प्रेम वाली प्रेमिका की शादी किसी और से होने वाली है और प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए शुभकामनाएँ प्रेषित कर रहा है .. मन ही मन में .. बस यूँ ही ...

पूर्वाभ्यास सफल सुहागरात के ...

यूँ तो सुना है .. हो जाते हैं प्रवीण 

सारे कलाकार आपसी संवाद में

माह-दो माह भर के पूर्वाभ्यास से

और फलतः कर पाते हैं प्रायः एक दिन

एक कालजयी सफल मंचन .. बस यूँ ही ...


संग हमारे तुमने भी तो कई सालों तक 

किए थे पूर्वाभ्यास प्रेम-निवेदन के,

आलिंगन और चुम्बन के .. मेरे आलम्बन में,

कभी मधुमालती या तुरही बेल के चँदोवे तले

तो कभी केवड़े या केने के झुरमुटों के पीछे,

शहर के सार्वजनिक उद्यानों में अक़्सर

और सरके थे कई-कई बार, बारम्बार ..

तुम्हारी झिझक के झीने पल्लू .. बस यूँ ही ...


आशा ही नहीं, विश्वास है हमें कि

बेझिझक समा पाओगी अब तो तुम बाँहों में 

अपने भावी पति के .. अपने धर्मपति के, 

और हैं शुभकामनाएँ भी हमारी कि

होगी ही तुम्हारी .. एक सफल सुहागरात भी .. बस यूँ ही ...



Sunday, June 25, 2023

'नागिन' की आत्मकथा" ...

 बस यूँ ही ...

गत दिनों 'सोशल मीडिया' पर नज़र से एक नाम गुजरा .. गुजरा ही नहीं, बल्कि उस पर नज़र ठिठकी .. स्वाभाविक है, क्योंकि ना तो ये नाम कभी इतिहास की किताबों में पढ़ने मिला था या मिलता है और ना ही इससे पहले किसी से मौखिक सुनने के लिए मिला है कभी .. वह नाम है - नीरा आर्य 'नागिन' ...

एक बकलोल और आलसी पाठक होने के बाद भी इन नाम से जुड़ी जो भी 'पोस्ट' सामने से गुजरी सभी को तन्मयता से पढ़ा। इन से जुडी मार्मिक घटनाओं के बारे में छिटपुट पढ़ कर इनके बारे में जानने की और भी उत्सुकता बढ़ती गयी। तभी सहज-सुलभ उपलब्ध 'गूगल' पर 'सर्च' करके तसल्ली हुई कि ये सारे दिख रहे 'पोस्ट' 'फेक' नहीं हैं। फिर 'अमेजॉन' पर खँगालने पर मिल ही गयी, वह मार्मिक इतिहास के घटनाक्रम की दफ़न पवित्र गीता .. शायद ... जिसका नाम है - "मेरा जीवन संघर्ष (दुर्लभ चित्रों सहित) -नीरा आर्य 'नागिन' की आत्मकथा" ...

वैसे प्रसंगवश हमको सही-सही ज्ञात नहीं कि "घटना" को भी "कहानी" कहते-लिखते हुए लोगबाग सुने-पढ़े जाते हैं, तो किसी घटनाक्रम को कहानी कहना कहाँ तक उचित है, ये सच में नहीं मालूम हमको। वैयाकरण महानुभावों के दृष्टिकोण में क्या सही, क्या गलत .. ये छिद्रान्वेषण उनके जिम्मे है .. मेरे नाम के आगे 'डॉक्टर' भी तो नहीं लगा हुआ है .. ख़ैर ! ... आगे मन नहीं माना .. 'आर्डर' लगा दिया 'अमेजॉन' को, पर आया भारतीय डाक विभाग के 'बुकपोस्ट' द्वारा .. उनकी आपसी कुछ ऐसी अंदरुनी व्यवस्था रही होगी। उनसे हमें क्या करना भला, हमें तो बस सुविधा भर चाहिए .. शायद ...

यूँ तो दो दिन पहले ही यह किताब घर आ गयी थी। पर व्यस्त दिनचर्या की वजह से आज-अभी किताब को महक पाया और हमेशा की तरह पुनः सोचने पर विवश हो गया कि सदियों स्वयं को क़बीलों में रख कर सुरक्षित मानने वाले हम मनुज आज भी प्रायः किसी राजनीतिक दल से, समुदाय से, सम्प्रदाय से, जाति से या किसी भी झुण्ड से स्वयं को  जोड़ कर या सामने वाले को भी ज़बरन जोड़ कर ही दम लेते हैं। जबकि हमें किसी भी दलगत सोच से तटस्थ हो कर, उस से बिना जुड़े या जोड़े, अपनी स्वयं की विचारधारा कहने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए, तभी हम सही इतिहास पढ़ भी सकते हैं और .. गढ़ भी सकते हैं .. शायद ... 


हम तो अक़्सर देखते हैं कि किसी दलगत विशेष के समर्थक, अन्य किसी दलगत विशेष के समर्थक के लिए "अंधभक्त" जैसा विशेषण धड़ल्ले से व्यवहार में लाते हुए पाए जाते हैं, जबकि इस तरह के प्रमाणित इतिहास वाली किताब पढ़ने के बाद वो सारे तुलनात्मक और भी बड़े वाले अंधभक्त नज़र आने लगते हैं .. शायद ...

इसी किताब के एक पन्ने पर उकेरी गयी, स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की विचारधारा :-


काश ! .. अगर हम नहीं तो कम से कम हम अपनी नयी पीढ़ी को तो इतिहास या अन्य सभी विषय केवल 'मार्क्स' या 'क्लास-डिवीज़न' प्राप्ति के बाद नौकरी पाने के उद्देश्य से परे उन्हें अपनी दिनचर्या में सुधार या उपयोग के लिए पढ़ने हेतु प्रेरित कर के एक सफल समाज की नींव रख पाते ...


शहीद दिवस, शिक्षक दिवस और बाल दिवस के झुनझुने की आवाज़ में इतिहास की तमाम सिसकियाँ और चीखें तिरोहित हो कर रह गयीं .. शायद ...
इस किताब को 1966 के प्रथम संस्करण के बाद ही तत्कालिक सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया था। वर्षों के बाद 2022 में दोबारा छापा गया है। इसमें उपलब्ध मार्मिक ऐतिहासिक घटनाक्रमों को पढ़ने के बाद रोम-रोम सहम-सिहर जाता है। कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा वर्तमान सरकार के कुशल कार्यों में कई सारे मीनमेख निकालने में हिचक नहीं होती है या शर्म नहीं आती, जबकि तत्कालिक दौर में भी वही सब खेल-प्रपंच घट रहा था, चाहे ज़बरन धर्मपरिवर्तन वाले खेल हों या नाम परिवर्तन वाले ;  जिसे वर्त्तमान सरकार द्वारा उकसाया हुआ बताया जाता है .. शायद ...
हाथ कंगन को आरसी क्या भला ...

 ख़ैर ! .. हमें किसी जागरण, माता की चौकी, शिव चर्चा, प्रवचन, रामायण पाठ, गीता व्याख्यान, गरुड़ पुराण, हनुमान चालीसा, तीज-त्योहारों में छदम ख़ुशी, व्रत-उपवास, चार धामों के तीर्थाटन, स्त्री विमर्श, जन्मदिन पर केक व पार्टी, 'सेल्फ़ी'प्रधान दिवसों जैसी बातों से कभी फ़ुर्सत मिली तो सोचेंगें कि .. होगी कोई पगली 'नागिन' जो स्वतंत्रता की लड़ाई की अग्नि में होम होकर भी स्वतन्त्र भारत में वृद्धावस्था में भी फूल बेच-बेच कर जीवनयापन करती हुई स्वावलम्बी ही रही और गोरों द्वारा पीड़ित अपनी काया त्याग गयी .. ताकि हम वर्तमान सरकार के अच्छे कामों की भी नुक्ताचीनी करते रहें और स्वयं अंधभक्त हो कर भी सामने वाले को अंधभक्त कहते रहें .. बस यूँ ही ...




Saturday, June 24, 2023

साधन मन मचलन का ...

सदा पुष्पगुच्छ से अछूते, 

मंदिरों के दर तक ना पहुँचे कभी।

ना साज सज्जा में कभी गुँथे, 

ना मज़ारों के चादर भी बने कभी।

गुण तो कुछ-कुछ हैं भी इनमें मगर, 

सहज उपलब्धता ही हो बनी 

सम्भवतः कारण इनके उपेक्षित होने की।

यूँ तो कुछ-कुछ ही नहीं, 

हैं सर्वदा कई-कई गुण भरे हुए औषधीय इनमें,

भूल बैठे हैं जिन्हें हम मनुज ही

कदाचित् बन कर आधुनिक और ज्ञानी अति।

सुगंध सोंधी-सी भी है इनमें,

मगर आँखें मूँदने तक घुल सकें किसी की भी 

नम .. नर्म-गर्म साँसों में,

ऐसी घड़ी ना आयी है और ना आएगी कभी .. बस यूँ ही ...


अवगुण या वजह भला मान भी लें कैसे 

इनसे लिपटे काँटों को,

हम सभी के इनसे किनारे करने की।

भरी पड़ी तो यूँ होती ही हैं,

जबकि काँटों से टहनियाँ सारी की सारी 

दुनिया भर के गुलाबों की।

'पोनीटेल', जुड़े या वेणी तक भी भला 

कब हो पाती है पहुँच उपेक्षित-से इन

राईमुनिया या सत्यानाशी के फूलों की !?

                             और .. जानम ! .. 

जनम-जनम .. 

हम .. इन्हीं उपेक्षित 

राईमुनिया और सत्यानाशी की तरह ही

साधन मन मचलन का तुम्हारे 

बन ना पाए हैं और बन ना पाएंगे भी कभी .. बस यूँ ही ...









Thursday, June 8, 2023

चस्का चुस्की का

ऐ साहिब !!! ...

                       ए साहिब !! ..

                                            साहिब ! ...

मनाते हैं हम सभी जब कभी भी 

हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़ा भी ख़ाली-पीली,

चप्पे-चप्पे में देते हैं भाषण चीख़-चीख़ कर हर कहीं

और संग चुस्की के चाय की करते हैं काव्य गोष्ठी भी।

हर चुस्की पर हमारी, है खिलती चाय की मुस्की तभी 

और लगाकर चस्का चुस्की का, ग़ुलाम बनाने वाली,

पड़ी-पड़ी कप, कुल्हड़ या प्याली में आधी या भरी,

चपला-सी चाय है हम सभी को देखती, निहारती, घूरती।

गोया हम सभी वो भीड़ हैं तथाकथित इंसानी , 

जो भीड़ दिन के उजाले में तो यूँ है आदतन कतराती

करने में मंटो जी के नाम का ज़िक्र भर भी 

और रात में नाप आती है मुँह छुपाए किसी कोठे की सीढ़ी।

गर है अंग्रेजी से हम सभी को नफ़रत ही जो इतनी

और है ज़िद हमारी, फ़ितरत भी हमारी, चोंचलेबाजी भी

बचाने की सभ्यता-संस्कृति और भाषा भी हिंदी,

तो कर क्यों नहीं देते फिर हम चाय की भी ऐसी की तैसी .. बस यूँ ही ...



ऐ साहिब !!! ...

                       ए साहिब !! ..

                                            साहिब ! ...

यूँ तो सदा ही रहा है मतभेद सदियों से,

दो पीढ़ियों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी।

पर ये क्या कि कोसते हैं दिन-रात हम सभी,

खाती है नयी पीढ़ी चाऊमीन जब कभी भी।

शादी वाले घर में रंगीन झालर-सी लटकती

चाऊमीन, खाते वक्त मुँह से हर युवा-बच्चे की,

देती है नसीहत सभी वयस्क पीढ़ी को व्यंग्य से घूरती।

गोया हम हैं ऐसे पिता सभी के सभी, 

धारा-376 के तहत जिसने हो काटी सजा लम्बी कभी

और मचा रहे अब बवाल, जब निज बेटे या बेटी ने किसी

रचा ली हो अन्तर्जातीय प्रेम विवाह वाली शादी।

चाऊमीन ने तो बस थोड़े से ज़ायके भर हैं बदले 

और माना तनिक सी सेहत भी है बिगाड़ी।

पर उन दिनों की मिल रही शुरूआती मुफ़्त वाली, 

पी-पीकर हमने तो चाय की चुस्की ख़ाली-पीली,

स्वदेश को दी थी कई सौ वर्षों वाली सितमगर ग़ुलामी .. बस यूँ ही ...







Monday, June 5, 2023

हृदय स्पंदन बनाम पर्यावरण दिवस ...

बस यूँ ही ...

साहिबान !!!


आप सभी को मन से नमन 🙏


आज 'सोशल मीडिया' पर तथाकथित "पर्यावरण दिवस" की बहुत ही हलचल है और आज इसी बहाने 'सेल्फ़ी' चमकाने और उसे 'सोशल मिडिया' की दीवार को भी भरने के दिन हैं।


इनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले ज्यादातर दोपाया तथाकथित बुद्धिजीवी प्राणीगण वही लोग हैं जो लोग अपनी-अपनी दिनचर्या के साथ-साथ मरने पर भी श्मशान में मनों लकड़ी जलाकर पर्यावरण का दोहन करते हैं .. शायद ...


कुछेक हिम्मत करने वाले अब विद्युत शवदाह गृह में जलने की बात करते हैं, वर्ना आडम्बरी तथाकथित सनातनियों को तो सात या नौ मन लकड़ी जलाए बिना मोक्ष की प्राप्ति ही नहीं होगी .. शायद ...

 
साहिबान !!!! ... देहदान के बारे में भी विचार किया जाए एक बार, ताकि वृक्ष के साथ-साथ विद्युत की भी बचत हो सके, जिसका उत्पादन भी पर्यावरण के दोहन से ही होता है .. शायद ...


साथ ही देहदान के फलस्वरूप हमारे मृत शरीर के उपयोगी अंगों से किसी ज़रूरतमंद को आँखों की रोशनी, किसी को हृदय स्पन्दन दे सके, किसी को Dialysis जैसे मंहगे उपचार से छुटकारा दिला सके .. और तो और .. हमारे मृत शरीर का कंकाल देश के चिकित्सा विज्ञान के युवा विद्यार्थीयों के भी काम आ सकेगा .. इस तरह हम मर कर भी कुछ समाज सेवा भी कर जायेंगे और पर्यावरण को भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित छोड़ जायेंगे .. शायद ... 🙏 .. बस यूँ ही ...