Friday, April 24, 2020

भला क्यों ?


लॉकडाउन की इस अवधि में खंगाले गए धूल फांकते कुछ पुराने पीले पन्नों से :-

आपादमस्तक बेचारगी के दलदल में
ख़ुशी का हर गीत चमत्कार-सा लगे ।

उधार हँसी की बैसाखी लिए सूखे होंठ
जीवन हरदम अपाहिज लाचार-सा लगे ।

चहुँओर नैतिकता की लावारिस लाश
फिर भी उसके आने का आसार-सा लगे ।

है ये मरघट मौन मुर्दों का हर दिन वर्ना
क्यों गिद्धों को हर दिन त्योहार-सा लगे ?

हो संवेदनशील कोई आदमी जो अगर
कहते हैं लोगबाग़ कि वह बेकार-सा लगे।

सम्बन्धों से सजा घर-आँगन भी अपना
संवेदनशून्य नीलामी बाजार-सा लगे।

इन लुटेरों की बस्ती में कोई तो हो
जो कलियुग का अवतार-सा लगे।

देखूँ जब कभी आईना तो अपना भी चेहरा
भला क्यों शालीन गुनाहगार-सा लगे ?


10 comments:

  1. बिना मतले की ग़ज़ल।
    --
    उम्दा अशआर।

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    1. नमस्कार सर ! आभार आपका रचना/विचार पर नज़र डालने के लिए ... सर! सच्चाई तो ये है कि मैं "मतले" और "अशआर" जैसे शब्दों से बिल्कुल अनभिज्ञ हूँ,बस मन की कुछ अनकही बातें लिख जाता हूँ ... बस यूँ ही ...

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  2. चहुँओर नैतिकता की लावारिस लाश
    फिर भी उसके आने का आसार-सा लगे ।
    वाह! बहुत ख़ूब!

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    1. जी ! आभार आपका ... 2005-06 में लिखी गई ये रचना/विचार आज भी उतनी ही सच लगती है ... काश ! ...

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  3. आपादमस्तक
    बेचारगी के
    दलदल में
    ख़ुशी का
    हर गीत
    चमत्कार-सा लगे
    लीजिए
    अतुकांत पंक्तियां पढ़िए
    सादर

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  4. वक़्त की बदलती चाल से चित
    आदमी ज़िंदगी से बेज़ार-सा लगे
    --–---
    शानदार बंध हे सारे।
    कुछ रचनाएँ सदैव अर्थपूर्ण होती है।
    आपकी यह रचना समसामयिक संदर्भ में सार्थक है।

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  5. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 25
    एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. जी ! नमस्कार महाशय ! आभार आपका रचना/विचार को अपने मंच पर साझा करने के लिए ...

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