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Sunday, July 14, 2024

नर्म बुग्याल अकूत ...


मूँदे
अपनी
आँखें,
मख़मली
ग़िलाफ़ में 
पलकों के,
मिलो ना 
कभी हमदोनों, 
रहो तुम भी मूक,
घंटों .. रहें हम भी मूक .. बस यूँ ही ...

तन तानती,
लेती अंगड़ाई,
थोड़ी अलसायी,
थोड़ी कुनमुनाती,
रहे पसरी
बाहों में मेरी
काया तुम्हारी,
मानो हों जैसे
हिमशिखरों की तलहटी में 
फैले नर्म बुग्याल अकूत .. बस यूँ ही ...

टटोलती उंगलियाँ
हमारी-तुम्हारी,
एक-दूसरे के 
देह को,
बिंदुओं के 
उभार से भरी 
ब्रेल लिपि के 
किसी पन्ने-सी,
होगी अनुभूति अद्भुत .. बस यूँ ही ...

करना 
टालमटोल कभी,
कभी-कभी 
टटोलना 
अंग-अंग
तन के,
एक-दूजे के,
कभी टोहना
एक-दूजे के मन-अमूर्त .. बस यूँ ही ...