अक़्सर टहलती हो
तुम भले ही
सपाट सड़कों पर
अपनी दिनचर्या की,
मटकता रहता है पर .. हर क्षण,
चंद स्मृतियों की
कोशिकाओं से विकसित
मन के प्रयोगशाला में
एक 'क्लोन' तुम्हारा,
पथरीले पथ पर मेरे मस्तिष्क के .. बस यूँ ही ...
बाँध लेती होगी तुम भले ही
लम्बे-घने बालों को अपने,
समेट कर अब जुड़े
ऊपर अपनी गर्दन के,
बरसाती उमस भरी गर्मियों में,
बनाती हुईं ...
ख़मीर भरे घोल से,
परिवार भर को प्रिय
मूँग दाल के कड़क चीले,
अपने रसोईघर में .. शायद ...
पर आता है अब भी .. वो ..
एक 'क्लोन' तुम्हारा क़रीब मेरे
खुले बालों में ही अक़्सर,
भले ही हो वो आपादमस्तक
स्वेद बूँदों से तरबतर,
मालूम है उसे .. सोख ही लेंगे ..
सोख्ता काग़ज़ के जैसे,
उसकी शोख़ स्वेद बूँदों को,
गर्दन से माथे तक .. सरक-सरक कर ..
सारे के सारे .. होंठ हमारे .. बस यूँ ही ...